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वृन्दावन यात्रा

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12 फरवरी 2013
फरवरी का महीना घूमने के लिये सर्वोत्तम महीनों में एक है। सर्दी कम होने लगती है और गर्मी आती नहीं। मौसम अच्छा रहता है। लेकिन इस महीने की एक कमी है कि हरियाली न्यूनतम होती है। बसन्त का महीना होने के बावजूद भी हरियाली न्यूनतम। ठीक उसी तरह जिस तरह पच्चीस दिसम्बर को बडा दिन मनाया जाता है। एक दिन पहले ही साल का सबसे छोटा दिन होता है, अगले ही दिन बडा दिन। वाह!
इस महीने में हिमालय की ऊंचाईयों पर नहीं जा सकते। निचले इलाकों में भी इस दौरान भारी बर्फबारी होती रही, ठण्ड भी इस बार काफी रही। अन्य राज्यों के पहाडी स्थानों पर भी जाना अच्छा नहीं है, न्यूनतम हरियाली की वजह से। इसलिये इस महीने में ऐसे स्थानों पर जाना चाहिये, जहां प्राकृतिक सौन्दर्य की महत्ता ना हो।
ऐसा ही एक स्थान है मथुरा। पिछले साल इसी महीने आगरागया था।
इस बार पिताजी और छोटे भाई धीरज को भी साथ ले लिया। धीरज लगभग चार साल पहले मेरे साथ शिमलागया था। पिताजी और मैं आज तक कहीं नहीं घूमे, हालांकि एक बार मैं और माताजी दो दिनों के लिये हरिद्वार- ऋषिकेश जरूर गये थे। पिताजी बहुत समय से कहते रहे हैं मेरे साथ घूमने के लिये लेकिन जनरेशन गैप...
12 फरवरी की सुबह सात बजकर पांच मिनट पर पुरानी दिल्ली से आगरा पैसेंजर चलती है, जो बारह बजे मथुरा पहुंचा देती है। दिल्ली से मथुरा डेढ सौ किलोमीटर दूर है। एक्सप्रेस ट्रेनें डेढ घण्टे में मथुरा पहुंच जाती हैं, बावजूद इसके मैंने पांच घण्टे लगाने वाली पैसेंजर चुनी। इसका कारण था मेरी नाइट ड्यूटी। रात्रि जागरण के कारण नींद आती है। पांच घण्टे यात्रा करने से नींद भी पूरी हो जाती और हम मथुरा भी पहुंच जाते।
जब ठीक सात बजकर पांच मिनट पर हम पुरानी दिल्ली के विशाल स्टेशन पर प्रवेश कर रहे थे, तभी सूचना गूंजी कि आगरा पैसेंजर प्लेटफार्म नम्बर बारह से चलने को तैयार है। यहीं से दौड लगा दी। फुट ओवर ब्रिज से जब प्लेटफार्म नम्बर बारह पर उतरे, तो यह खाली था। यानी ट्रेन चली गई? तभी काफी आगे एक ट्रेन खडी दिखी। हमने पुनः दौड लगाई। जैसे ही हम आखिरी डिब्बे के बगल तक पहुंचे, ट्रेन चल पडी। विलम्ब करने की अपनी आदत से आज नुकसान होने से बच गया।
अगर यह ट्रेन यहां से निकल जाती तो हम पुनः मेट्रो पकडकर सीधे प्रगति मैदान पर पहुंच जाते, जहां से तिलक ब्रिज रेलवे स्टेशन काफी नजदीक है। इस ट्रेन का तिलक ब्रिज का समय है सात बजकर चालीस मिनट यानी पैंतीस मिनट बाद।
लगभग चार घण्टे तक अच्छी नींद लेने पर जब आंख खुली तो ट्रेन वृन्दावन रोड स्टेशन पर खडी थी। चूंकि यहां उतरने का पहले कोई इरादा नहीं था, फिर भी उतर गये। स्टेशन से बाहर निकलते ही वृन्दावन जाने के लिये टम्पू मिल गये। शीघ्र ही हम वृन्दावन में थे।
मेरी इस यात्रा की कोई तैयारी नहीं थी। और हां, श्रद्धा भी नहीं थी। पता नहीं लोग कैसे इन भीडभाड वाली जगहों पर आनन्द ले लेते हैं। मेरा तो दम घुटने लगता है।
मोबाइल में गूगल मैप में देखा कि वृन्दावन में बांके बिहारी नामक मन्दिर है। इसका नाम मैंने पहले भी सुन रखा था। खाना खाकर जब बांके बिहारी की ओर चले, तो भीडभाड वाली सडक पर चलते ही गये। आखिर में यमुना किनारे जाकर रुके। मुझे अच्छा लगा यहां यमुना किनारे आकर। कुछ नाव वाले थे, जो श्रद्धालुओं से यमुना की सैर करने के लिये मोलभाव कर रहे थे। पिताजी इस स्थान के बारे में कुछ पूछते, इससे पहले मैंने ही कहा कि यह यमुना है, नहाना चाहते हो तो नहा लो, मेरा नहाने का कोई इरादा नहीं है। उन दोनों ने चार छीटें अपने ऊपर छिडके, सांकेतिक स्नान हो गया। मैंने यह भी नहीं किया।
यहां से बांके बिहारी मन्दिर का रास्ता पूछा। मन्दिर तक पहुंच गये। मन में एक क्षण के लिये भी भक्ति-भाव नहीं आया। पिताजी और भाई से कह दिया कि मेरी इन सब में कोई श्रद्धा नहीं है। मेरे चक्कर में मत रहना। जो भी, जैसा भी पूजा-पाठ करना चाहते हो, कर लेना। आपके साथ मैं शामिल जरूर हो जाऊंगा, लेकिन अपनी तरफ से पहल नहीं करूंगा।
अभी दो बजे थे, मन्दिर बन्द था। पता चला कि चार बजे मन्दिर खुलेगा। यह मेरे लिये घोर निराशा की बात थी क्योंकि मेरे लिये सबसे जरूरी चीज थी वृन्दावन से मथुरा जाने वाली मीटर गेज की रेल बस, जो वृन्दावन स्टेशन से चार बजकर दस मिनट पर प्रस्थान करती है। मैं किसी भी हालत में इसे नहीं छोड सकता था। यानी हमें बांके बिहारी मन्दिर का मोह छोडना पडेगा। पिताजी पहले यहां आ चुके थे, इसलिये उन्हें मेरे निर्णय पर कोई आपत्ति नहीं थी।
अभी हमारे पास दो घण्टे शेष थे। सोचा कि अंग्रेजों के मन्दिर चलते हैं। इस्कॉन मन्दिर को अंग्रेजों का मन्दिर कहा जाता है। जब हम वृन्दावन रोड स्टेशन से वृन्दावन आ रहे थे, तो यह हमारे रास्ते में पडा था लेकिन जानकारी न होने के कारण हम यहां नहीं उतरे।
यहां आकर पता चला कि यह मन्दिर भी बन्द है। यह भी चार बजे खुलेगा।
आखिर क्या कारण है कि कृष्णजी को दोपहर बाद खाना खाकर नींद आती है? चार बजे भगवान उठेंगे, तब भक्तों को दर्शन देंगे। मैं तो सोचता था कि दोपहर का खाना खाकर सिर्फ मुझे ही नींद आती है। यहां तो भगवान भी इस बीमारी से पीडित हैं। चलो, इस मामले में तो मैं भगवान के समकक्ष हो गया।
अगर पहले से भगवान के शयन कार्यक्रम की जानकारी होती तो हम सीधे पहले मथुरा पहुंचते। वहां से तीन बजे के आसपास चलने वाली मीटर गेज रेल बस से वृन्दावन आते और आराम से सभी मन्दिरों में अपने ‘समकक्ष’ को देखते। लेकिन अब क्या कर सकते थे?
वृन्दावन कृष्ण और राधा की भूमि है। एक बात समझ में नहीं आती कि कृष्ण जन्मभूमि से वृन्दावन के बीच यमुना होनी चाहिये थी, जबकि ऐसा नहीं है। सर्वप्रसिद्ध विचार हो सकता है कि यमुना ने रास्ता बदल लिया और जो पहले मथुरा व वृन्दावन के बीच से बहती थी, अब वृन्दावन का चक्कर लगाकर बहती है। दूसरी बात मेरे भी दिमाग में आ रही है कि मूल वृन्दावन यमुना के उस पार अभी भी हो सकता है। डण्डों और पण्डों के बल पर वर्तमान वृन्दावन अस्तित्व में आया हो। इस तथ्य को भी नकारा नहीं जा सकता।
पिताजी और भाई से अपने रेल प्रेम के लिये माफी मांगी और वृन्दावन स्टेशन की तरफ चल पडे।

वृन्दावन रोड स्टेशन



पिताजी और भाई यमुना किनारे

यमुना




बांके बिहारी मन्दिर



अगले भाग में जारी...

वृन्दावन से मथुरा मीटर गेज रेल बस यात्रा

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वृन्दावन के नाम से दो स्टेशन हैं- वृन्दावन रोड और वृन्दावन। वृन्दावन रोड स्टेशन दिल्ली- मथुरा मुख्य लाइन पर स्थित है। इसके बाद भूतेश्वर आता है, तत्पश्चात मथुरा जंक्शन। जबकि वृन्दावन स्टेशन वृन्दावन शहर में स्थित है। एकदम वीराने में है यह स्टेशन। मथुरा से यहां दिन में पांच बार रेल बस आती है, इतवार को चार बार ही। यह रेल बस सैलानियों के उतना काम नहीं आती, जितना स्थानीयों के।
तीन बजे ही हम तीनों प्राणी इस मीटर गेज के स्टेशन पर जम गये। यहां का एकमात्र काफी लम्बा प्लेटफार्म देखते ही मैं समझ गया कि मीटर गेज के यौवनकाल में यहां दूर दूर से बडी ट्रेनें आया करती होंगी। ऐसा है तो दूसरा प्लेटफार्म भी होना चाहिये। अब दूसरा प्लेटफार्म तो नहीं है, लेकिन इसकी निशानी जरूर है। अतिरिक्त रेल पटरियां उखाडकर मथुरा से यहां तक के पूरे सेक्शन को सिग्नल-रहित बना दिया गया है। बीच में दो स्टेशन पडते हैं, दोनों ही हाल्ट हैं। ये दो स्टेशन हैं- मसानी और श्रीकृष्ण जन्मस्थान।
मथुरा के तीन टिकट लेकर हमारे पास घण्टे भर तक प्रतीक्षा करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। इस समय का सदुपयोग मैंने बेंच पर सोने में किया। आंख तब खुली, जब बस के आने की सूचना पाकर पिताजी ने उठाया। हिलती-डुलती रेल बस नजदीक आती जा रही थी।
भारत में कई स्थानों पर रेल बस चलती है- पंजाब में ब्यास-गोइन्दवाल, राजस्थान में मेडता रोड-मेडता सिटी, यूपी में मुरादाबाद-सम्भल, बिहार में दुरौन्धा-महाराजगंज आदि सब ब्रॉड गेज हैं। जबकि गुजरात में महेसाना-तरंगा हिल व यहां वृन्दावन-मथुरा मीटर गेज हैं। इनके अलावा कालका-शिमला लाइन पर भी एक रेल बस चलती है जो नैरो गेज है।
रेल बस एक बस ही होती है, जो रेल की पटरियों पर चलती है। इसमें अक्सर दोनों तरफ ड्राइवर का केबिन होता है, बीच में सवारियों के बैठने का स्थान। इंजन अलग से नहीं लगाया जाता। इन्हें डीएमयू की श्रेणी में रखा गया है, इसीलिये इनका नम्बर 7 से शुरू होता है। डीएमयू की फुल फॉर्म होती है डीजल मल्टीपल यूनिट। डीएमयू में भी अलग से कोई इंजन नहीं लगाया जाता।
इसमें लगभग सभी सवारियां स्थानीय थीं, एकाध साधु भी थे। ड्राइवर के केबिन का दरवाजा पूरे समय खुला रहा, जिससे सामने का दृश्य दिखता रहा। बस में ड्राइवर के अलावा एक गेटमैन व एक कंडक्टर भी रहा। जी हां, कंडक्टर। पांच पांच रुपये लेकर सभी को टिकट देना इसका काम था। रोजाना आने-जाने वाले स्टेशन से टिकट नहीं लेते, बल्कि बस में कंडक्टर से ही टिकट लेते हैं। हमारे पास चूंकि पहले से ही टिकट था, इसलिये हमें कंडक्टर से टिकट लेने की कोई जरुरत नहीं थी।
जहां भी फाटक मिलता, फाटक से पहले बस रुक जाती। गेटमैन बस से उतरता, फाटक बन्द करता, बस आगे बढकर सडक को पार करके खडी हो जाती, गेटमैन फाटक खोलकर पुनः बस में चढ जाता। कई स्थानों पर गेटमैन को हाथ से इशारा करके सडक का ट्रैफिक रोकना पडता। यह चूंकि रोज का काम था, इसलिये फाटकों पर सवारियां चढती भी और उतरती भी।
बीच में मसानी और श्रीकृष्ण जन्मस्थली स्टेशन भी हैं, उनकी समय सारणी भी है लेकिन फाटकों की वजह से इनका कोई महत्व नहीं था। जन्मस्थली स्टेशन पर तो ट्रेन रुकी भी नहीं, हालांकि उससे सौ मीटर पहले फाटक पर जरूर रुकी। जन्मस्थली स्टेशन के नाम-पट्ट के एंगल पर बच्चे झूला डालकर झूल रहे थे।
मथुरा जंक्शन से कुछ दूर वृन्दावन वाली मीटर गेज का स्टेशन है। यह स्टेशन कम बल्कि यार्ड ज्यादा लगता है। मीटर गेज के जमाने में ये रेल बसें मुख्य स्टेशन से ही संचालित होती होंगी। अब मथुरा में मात्र यही बारह किलोमीटर की लाइन मीटर गेज रह गई है।
मुख्य स्टेशन पर पहुंचे। आगरा-मथुरा के विशेषज्ञ रीतेश गुप्तासे फोन करके पूछा कि अब कहां जायें। अभी पांच ही बजे थे। उन्होंने बता दिया कि द्वारकाधीश मन्दिर चले जाओ। साथ ही वहां जाने का रास्ता भी बता दिया।
दस रुपये प्रति सवारी के हिसाब से टम्पू ने हमें उस चौराहे पर छोड दिया जहां से द्वारकाधीश मन्दिर लगभग आधा किलोमीटर पैदल दूरी पर है। मन्दिर पहुंचकर पता चला कि यहां वाले कृष्ण और भी महान हैं। अभी तक सोये हैं, छह बजे उठेंगे।
असल में कृष्ण भी अपने पुजारियों से परेशान रहते होंगे। दिनभर में पांच छह बार उन्हें ‘कारागार’ में बन्द हो जाना पडता है। कहां तो वो कृष्ण जो मथुरा की कारागार तोडते हुए पैदा हुआ था और कारागार ही तोडने पुनः मथुरा आया था, कहां बेचारा यह कृष्ण जो आज धनलोलुप पुजारियों की कारागार में उनकी ही इच्छानुसार कभी प्रकट होता है, कभी कारा-द्वार के पीछे छिप जाता है। थकान पुजारियों को होती है, भुगतना कृष्ण को पडता है। दर्शन तो चौबीस घण्टे होते रहने चाहिये, लेकिन पुजारी चूंकि लगातार काम नहीं कर सकते इसलिये नियम बना दिया कि भगवान का ब्रेकफास्ट का समय है, लंच का समय है, डिनर का समय है या शयन का समय है। बेचारा कृष्ण!
पास में ही यमुना बहती है, हम यमुना किनारे जा बैठे। सामने कासगंज वाली रेलवे लाइन का पुल दिख रहा था, एक ट्रेन भी निकली। पहले यह मीटर गेज थी, अब बडी हो गई है। मुझे नदी किनारे बैठे रहना बहुत अच्छा लगता है, गन्दगी होने के बावजूद भी यहां मन लग गया। पण्डे लोगों को समझा रहे थे इसलिये मुझे भी समझ में आ गया कि सामने यमुना पार कदम्ब वन है।
सवा छह बजे द्वारकाधीश महाराज के दर्शन किये और वापस चल पडे।
अब हमें रात रुकने का कोई ठिकाना ढूंढना था। मैंने पिताजी से कहा कि हम मथुरा स्टेशन पर रुकेंगे, वहां से सुबह सात बजे गोवर्धन जाने वाली ट्रेन पकडने में आसानी रहेगी। पिताजी घबरा गये। उन्हें मालूम है कि मैं स्टेशनों पर किस तरह रुका करता हूं- प्रतीक्षालय में अखबार बिछाया और सो गये। भाई इस प्रस्ताव से खुश था। पिताजी ने मना भी किया लेकिन हमारे आगे उनकी कुछ न चली। यहां तक भी उन्हें लग रहा था कि हम मजाक कर रहे हैं लेकिन जब स्टेशन जाने वाले टम्पू में बैठे तो वे समझ गये कि अब हलाल होना ही होना है।
जब स्टेशन में घुस रहे थे, तब तक उन्होंने पूरी तरह समर्पण कर दिया था। मैं उन्हें लेकर पहुंचा प्लेटफार्म नम्बर एक पर स्थित विश्रामगृह में। एक वातानुकूलित कमरा ही खाली थी- चार सौ का। एक अतिरिक्त आदमी हो तो सौ रुपये और लगते थे। यानी पांच सौ रुपये में वातानुकूलित कमरा मिल गया। मौसम अच्छा था, वातानुकूलन की कोई आवश्यकता नहीं थी, फिर भी हमने दोनों एसी चलाकर देखे। दोनों ठीक काम कर रहे थे। अगर ये काम न कर रहे होते तो हम एसी खराब होने का हवाला देकर पैसे वापसी की मांग करते। इसके बाद पूरी रात एसी नहीं चलाये गये।
सुबह सात बजे तो निकलना मुश्किल है, लेकिन दस बजे चलने वाली अलवर पैसेंजर जरूर पकडनी है गोवर्धन जाने के लिये।

मथुरा-गोवर्धन मीटर गेज रेल बस

वृन्दावन रेलवे स्टेशन




एक फाटक पर रुकी बस

मसानी स्टेशन


कृष्ण जन्मस्थली स्टेशन




पिताजी के साथ जाटराम

द्वारकाधीश के पास यमुना

यमुना और कासगंज लाइन का रेलवे पुल
अगले भाग में जारी...

मथुरा गोवर्धन यात्रा
1. वृन्दावन यात्रा
2. वृन्दावन से मथुरा मीटर गेज रेल बस यात्रा
3. गोवर्धन परिक्रमा (13 मार्च)

गोवर्धन परिक्रमा

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13 फरवरी 2013
सुबह आठ बजे सोकर उठे। कमरे में गीजर लगा था, दो तो नहा लिये, तीसरे का नहाना जरूरी नहीं था। आज हमें गोवर्धन जाना था, ट्रेन थी दस बजे यानी दो घण्टे बाद। धीरज का पाला अभी तक मेरठ छावनी जैसे छोटे स्टेशनों से ही पडा था, इसलिये अनुभव बढोत्तरी के लिये उसे गोवर्धन के टिकट लेने भेज दिया। पहले तो उसने आनाकानी की, बाद में चला गया।
आधे घण्टे बाद खाली हाथ वापस आया, बोला कि दस बजे कोई ट्रेन ही नहीं है। क्यों? पता नहीं।
पूछताछ पर गये तो पता चला कि यह ट्रेन कुछ दिनों के लिये रद्द है। जरूर इस गाडी को यहां से हटाकर किसी दूसरे रूट पर स्पेशल के तौर पर चला रखा होगा।
अब ट्रेन की प्रतीक्षा करने का कोई अर्थ नहीं बनता था, इसलिये रिक्शा करके बस अड्डे पहुंचे और घण्टे भर बाद ही गोवर्धन।
खाना खाकर परिक्रमा पर चल पडे। गोवर्धन पर्वत यहां की मुख्य सडक के दोनों तरफ एक रीढ की शक्ल में फैला हुआ है। सडक यहां पर्वत को पार भी करती है। इसी ‘दर्रे’ के ऊपर एक मन्दिर बना है। मन्दिर के पास पिताजी और भाई ने जूते उतार दिये, मैं चप्पल पहने था, चप्पलों में ही परिक्रमा करनी थी।
यह परिक्रमा बीस किलोमीटर की है। इसमें पहले गोवर्धन पहाडी के इस तरफ यानी दक्षिण-पश्चिम की तरफ छह किलोमीटर चलकर मोड लेकर उत्तर-पूर्व में छह किलोमीटर चलकर पुनः गोवर्धन कस्बे में पहुंच जाते हैं। मुख्य सडक पार करके यात्रा जारी रहती है और चार किलोमीटर चलकर राधा कुण्ड से फिर मुडकर वापस गोवर्धन पहुंचते हैं। पूरे रास्ते भर पक्की सडक बनी है और सडक के किनारे कच्चा फुटपाथ भी है।
गोवर्धन पर्वत कोई लम्बा-चौडा पहाड नहीं है, यह अरावली श्रंखला के बाहरी छोर पर एक छोटा सा पत्थरों का ढेर मात्र है। पत्थरों का यह ढेर दस किलोमीटर लम्बाई में फैला है, इसी के बीचोंबीच गोवर्धन कस्बा है।
परिक्रमा पथ में लगभग एक किलोमीटर यात्रा राजस्थान के भरतपुर जिले में भी करनी होती है। राजस्थान का स्वागत द्वार मौजूद है, विदा द्वार नहीं।
बन्दरों और गायों की इफरात है यहां। गायों के लिये ठेलियों पर हरी घास भी बिकती है। घासवाले परिक्रमा वालों के गले पडते रहते हैं कि गऊ सेवा कर लो। अगर गऊ सेवा से पुण्य मिलता है, तो ये घासवाले ही क्यों ना इस पुण्य के खुद भागीदार बनें। इन्हें जिन्दगी बीत गई घास बेचते हुए, इनके बच्चे भी इसी पुण्य-क्षेत्र में लग जायेंगे। क्या ऐसा ही होता है पुण्य? अगर हां, तो नहीं चाहिये मुझे ऐसा पुण्य।
भैंस पर तरस आता है। कृष्ण ने गायें चराई हैं, उनकी सेना में भैंसें भी रही होंगी। बिना भैंस के वे यमुना में कूदने का साहस नहीं कर सकते थे। आज भी बहुत से कृष्ण भैंस की पीठ पर पडे रहते हैं और जलयान का आनन्द लेते रहते हैं। गाय यह आनन्द नहीं दिला सकती।
हर मामले में भैंस गाय से आगे है। सर्वविदित है कि भैंस का दूध गाय के मुकाबले ज्यादा पुष्टिदायक होता है। भैंस सीधी भी होती है। आप किसी कटडे को चार डण्डे मारो और एक बैल को चार डण्डे मारो। बैल बदला ले लेगा, कटडा नहीं लेगा। भैंस के साथ यह अन्याय रंगभेद को बढावा देता है।
एक घटना याद आती है। हमारे घर में पहली रोटी गाय के लिये होती है और दूसरी रोटी कुत्ते के लिये। मैं अक्सर गाय की रोटी भैंस को दे देता था। रोज-रोज रोटी देने से गाय की आदत खराब हो गई थी, वह रोटी लेते समय झपट पडती थी, उंगली जख्मी होने का डर रहता था। भैंस नहीं झपटती थी, लेकिन बडी मासूम और हसरत भरी निगाहों से देखती जरूर थी। मैं चुपचाप भैंस सेवा कर देता था। और अगर कभी घर में उत्सव होता, सात गायों को जिमाने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आती तो पडोस की भैंसों का आशीर्वाद भी मुझे मिलता।
वापस परिक्रमा पर आते हैं। कुछ लोग खूब हाथ-पैर चलाकर निराश होकर मन्नत मांग लेते हैं कि भगवान, मेरा यह काम हो जाये तो लोट-लोट कर परिक्रमा करूंगा। काम हो जाता है लेकिन मन्नत की वजह से नहीं बल्कि हाथ-पैर चलाने की वजह से, तो उन्हें लोट-लोट कर परिक्रमा करनी पडती है। इस श्रेणी में पढे-लिखों की संख्या भी काफी रहती है।
माताजी ने भी मेरी नौकरी लगने की मन्नत मांगी थी, लेकिन अच्छा हुआ कि उन्होंने इस काम में मुझे नहीं घसीटा। हालांकि वह मन्नत ज्यादा बडी न होकर किसी मन्दिर में दूध चढाने तक ही सीमित थी।
आगे चलते हैं। राजस्थान से चलकर जब पुनः यूपी में आये यानी सात आठ किलोमीटर की परिक्रमा पूरी हो गई, तो धीरज के पैरों में छाले पडने लगे। जब मैंने उन्हें बताया कि दो चार किलोमीटर आगे हम वहीं पहुंच जायेंगे, जहां से परिक्रमा शुरू की थी, तो बडा खुश हुआ। कहने लगा कि जूते ले लूंगा, बाकी परिक्रमा जूते पहनकर करूंगा।
जब हम पुनः गोवर्धन पहुंचे, तो उसने जूते पहनने का आग्रह किया। भला मुझे इसमें क्या आपत्ति हो सकती थी? पिताजी ने विरोध किया। बेचारे को जूतों की सख्त जरुरत थी, जूते सामने रखे थे लेकिन शेष आठ किलोमीटर उसे बिना जूतों के करने पडे।
एक गांव मिला- चूतड-टेका।
कोल्ड ड्रिंक पीने की इच्छा थी। एक दुकान में घुसे। कांच की तीन बोतलें ले ली। जब पीने को हुआ तो देखा कि उसके मुंह पर जंग लगा हुआ है। और गौर से देखा तो यह बोतल पन्द्रह दिन पहले एक्सपायर हो चुकी थी। दुकान वाले से शिकायत की तो उसने कहा कि पूरे गोवर्धन में ऐसा ही माल आता है। उसके पास सभी बोतलें बीते जमाने की हैं। हमने मिरिंडा की बोतल ली थी, इसके एक्सपायर होने का मतलब है कि इसमें सोडा खत्म हो गया। मीठा पानी ही बचा है। हमने गटक लिया।
मैंने गिनकर उसे छत्तीस रुपये दिये। बोला कि पन्द्रह रुपये की एक बोतल है, पैंतालिस रुपये दो। मैंने मना कर दिया- एक तो तेरे पास मरी हुई बोतल है, बोतल पर प्रिंट बारह रुपये का है, फिर पन्द्रह क्यूं दूं। बोला कि पूरे गोवर्धन में यही रेट है। मैंने कहा कि रेट लिस्ट दिखा। अच्छी खासी बहस हुई। दूसरे दुकानदारों को इस मामले में उदासीन देखकर भी मेरा हौंसला बढा। और पैसे नहीं दूंगा- यह कहकर हम उठकर चलने लगे तो उसने कहा- जाओ भिखमंगों, कोल्ड ड्रिंक पीने की औकात नहीं, चले आते हैं मुंह उठाकर। ऐसी बातों से मेरे ऊपर कोई फर्क नहीं पडता लेकिन पिताजी सुनते ही उबल पडे। उसकी तरफ उंगली करके आंख लाल करके बोले- ओये, जुबान संभाल कर बात कर। मैंने तुरन्त पिताजी की उंगली पकडकर नीचे की और धीरे से कहा- क्यों मारपीट का शंखनाद कर रहे हो? चुपचाप यहां से खिसक लो।
राधा कुण्ड में कुण्ड के किनारे बैठकर मन लग गया। पानी के किनारे मुझे बहुत अच्छा महसूस होता है। आधे घण्टे तक बैठे रहे।
शाम साढे पांच बजे तक परिक्रमा समाप्त कर ली।
इस परिक्रमा में शुरू से आखिर तक बहुत से मन्दिर, गांव, ताल आदि पडते हैं। सभी का पौराणिक महत्व है। मुझे कोई लगाव नहीं इन पौराणिक बातों से। इसीलिये यहां किसी का भी उल्लेख नहीं किया।
मथुरा स्टेशन पर गये, टिकट लिया तो झेलम एक्सप्रेस खडी थी लेकिन जनरल डिब्बे में खडे होने की भी जगह नहीं मिली। मेरा इरादा शुरू से ही ताज एक्सप्रेस से जाने का था। बाद में जब ताज आई तो इसमें चढ लिये। इसमें सभी डिब्बे सीटिंग के हैं लेकिन आरक्षण होता है। टीटी आता तो पन्द्रह-पन्द्रह रुपये देकर हम भी आरक्षण करा लेते, लेकिन तीनों के पैंतालिस रुपये देने हमारे भाग्य में नहीं लिखे थे।

गोवर्धन शहर में सबसे ऊंची जगह पर बना मन्दिर। यहीं से परिक्रमा शुरू होती है।

परिक्रमा आरम्भ।

धीरज और पिताजी


सामने है राजस्थान का स्वागत द्वार

राजस्थान में अधिकतम एक किलोमीटर ही चलना होता है।

यह बन्दर परिक्रमा के राजस्थान वाले हिस्से में मिला। इसका पिछला भाग निष्क्रिय है। इसने स्वयं को अगले पैरों यानी हाथों से इसी तरह चलने के लिये ढाल लिया है।


गौ सेवा के लिये ठेले पर रखी घास व इर्द गिर्द खडी गायें।


गोवर्धन पर्वत

राधा कुण्ड












परिक्रमा समाप्त।


मथुरा गोवर्धन यात्रा
1. वृन्दावन यात्रा
2. वृन्दावन से मथुरा मीटर गेज रेल बस यात्रा
3. गोवर्धन परिक्रमा

डायरी के पन्ने- मार्च 2013- द्वितीय

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[डायरी के पन्ने हर महीने की एक व सोलह तारीख को छपते हैं।]

1-2 मार्च 2013
1.छत्तीसगढ यात्रा प्रगति पर। विवरण जल्द ही प्रकाशित।

3 मार्च 2013, दिन रविवार
1.ऑफिस में प्रदीप ने छत्तीसगढ यात्रा की शुभकामनाएं देते हुए मिष्ठान की मांग की। मांग तुरन्त पूरी हो गई, बिलासपुर की मिठाईयां अभी भी बची थीं।लेकिन सर्वांगसुन्दरी श्यामकाय श्वेतचित्त मिष्ठान देखते ही महाराज का मुंह आर्द्र होने के बजाय शुष्क हो गया। लगता है वे रंगभेद के समर्थक हैं, तभी तो इस काली कलूटी स्वादिष्ट मिठाई को नहीं खा सके।
2.मनु त्यागी का एक लेख पढा- एलेक्सा रेटिंग के बारे में। अप्रत्यक्ष रूप से मेरा व एक अन्य का उदाहरण दिया था। मुझे ‘ए’ नाम से व दूसरे को ‘बी’ नाम से सम्बोधित किया गया था। उन्होंने लिखा कि मिस्टर ए के ब्लॉग पर महीने में 27000 पेजव्यू आते हैं, चार साल से लिख रहे हैं, फिर भी 5600 पेजव्यू व मात्र चार महीने से लिखने वाले मनु त्यागी के मुकाबले एलेक्सा पर मीलों पीछे हैं। बात बिल्कुल ठीक है। मुझे लगता है कि एलेक्सा की अच्छी रेटिंग अच्छे विज्ञापनों के काम आती है।
3.एक उच्च गुणवत्ता का यात्रा-वृत्तान्त पढकर समाप्त किया- महातीर्थ के अन्तिम यात्री। बिमल दे के जज्बे को मेरा सलाम। 1956 में जब भारत-चीन के सम्बन्ध बदतर होते जा रहे थे, तिब्बत में भारतीयों का प्रवेश निषिद्ध था, दलाई लामा व लाखों तिब्बती शरणार्थी बनकर भारत आने की तैयारी कर रहे थे, उस समय बिमल का नेपाली मौनी लामा बनकर ल्हासा जाना दुःसाहस ही कहा जायेगा। इससे भी बढकर है ल्हासा से कैलाश मानसरोवर जाना। यात्रा प्रेमियों के लिये पुस्तक पठनीय है।
पुस्तक इलाहाबाद के लोकभारती प्रकाशन ने प्रकाशित की है। मूल्य हार्ड कवर 375 रुपये है। पेपरबैक संस्करण भी उपलब्ध है।

4 मार्च 2013, दिन सोमवार
1.नाइट ड्यूटी करके सात बजे घर पहुंचा। नींद आ रही थी, लेकिन भाग गई। दो लेख लिख मारे- वृन्दावन यात्रावृन्दावन से मथुरा मीटर गेज रेल बस यात्रा। दोपहर बारह बजे सोकर शाम साढे सात बजे उठा। फलाहार का मन था, इसलिये एक किलो अंगूर व 15 केले 100 रुपये के ले आया। आलू-सोयाबीन डालकर खिचडी बनाई। खा-पीकर रात दस बजे फिर ड्यूटी चला गया।

5 मार्च 2013, दिन मंगलवार
1.सुबह सात बजे घर पहुंचा। आज पूरे दिन खाली हूं। कल का साप्ताहिक अवकाश है, परसों प्रातःकालीन ड्यूटी है। आज मेरठ जाने का इरादा है। साढे दस वाली ट्रेन पकडूंगा।
2. 6 दिसम्बर 2012 यानी आज से तीन महीने पहले केशकर्तन कराया था। अब तक बाल इतने बढ गये हैं कि नासिका शिखर को स्पर्श करने लगे हैं। ऐसे ही गांव चला गया तो सब ताने-उलाहने देंगे। खाना भी शायद न मिले। साढे दस वाली ट्रेन से जाना रद्द करके अब डेढ वाली से जाऊंगा। इतने समय में केशकर्तन भी हो जायेगा व स्नान भी।
3.चन्द्रेश कुमार अपने भाई के साथ आ गये। ये बनारसी हैं, आजकल अलवर रहते हैं। मेरी बनारस यात्रापूर्णरूपेण इन्हीं के सहयोग से हुई थी। चाहता था कि ये आज मेरे साथ गांव चलें, कल हस्तिनापुरदेख आते लेकिन इन्होंने मना कर दिया। डेढ वाली ट्रेन भी छोड दी।
4.चन्द्रेश के जाने के बाद गांधीनगर में केशकर्तन करा आया, पच्चीस रुपये लगे। तीन बज चुके हैं, रातजगा होने के कारण भयंकर नींद आ रही है। शाहदरा से अगली ट्रेन पांच बजे है। दो घण्टे प्रतीक्षा नहीं कर सकता, बस से ही जा रहा हूं।
5.शास्त्री पार्क मेट्रो स्टेशन पहुंचकर मूड बदल गया और पुरानी दिल्ली स्टेशन चला गया। चार बज गये हैं, पांच बजे ट्रेन है। लम्बी लाइन लगी है, पचास मिनट लगे टिकट लेने में। पहले बारह का आता था, अब पन्द्रह का है।
6.डीएमयू ट्रेन है, सूचना है कि प्लेटफार्म नम्बर दस पर आयेगी। लेकिन बिना सूचना दिये ग्यारह पर लगाई जाने लगी। रोज वाले यात्री पटरी पार करके ग्यारह पर चले गये, मैं भी चला गया, खिडकी वाली सीट मिल गई।
7.गाजियाबाद में एक हादसा होने से बच गया। शाम का समय होने से ड्यूटी वाले लोग काम खत्म करके घर निकल पडते हैं। साहिबाबाद में ही अच्छी भीड हो गई थी। गाजियाबाद में तो और भी बुरे हालात हो गये। मेरे वाले डिब्बे में एक मुसलमान कुनबा भी घुसने लगा। तीन महिलाएं, दो बच्चे घुस गये, दो महिलाएं बाहर रह गईं, साथ में एक मुल्ला जी भी। गाडी चल पडी तो चीख-पुकार मच गई। बाहर वाली तो चढ नहीं सकी, अन्दर वाली बाहर कूदना शुरू हो गईं। डीएमयू ट्रेन जल्दी रफ्तार पकड लेती है। ज्यादातर महिलाओं को चलती गाडी से कूदने की तरकीब नहीं आती, पीछे मुंह करके कूदती हैं। कूदते ही कलाबाजी खा गई व प्लेटफार्म से नीचे गिरने व गाडी के नीचे आने से बाल बाल बच गई। हादसे की गन्ध मिलते ही गार्ड ने गाडी रुकवा दी। शेष दो महिलाएं व बच्चे भी बाहर कूद गये। पता नहीं वे चढे या नहीं।
8.दिल्ली में ही डिब्बे में कीर्तन मण्डली ने राग अलापना शुरू कर दिया। सबसे बुरी बात थी उनका ध्वनि प्रसारक यन्त्र व बेसुरा कण्ठ। सुन्दर काण्ड का पाठ चलता रहा- पूरे काण्ड के दौरान उनकी लय ही नहीं बन पाई। इससे अच्छा होता अगर वे कुछ भजन गाते। दिल्ली से दुहाई तक अटक-अटक कर गाते रहे। उसके बाद जब हनुमान चालीसा शुरू हुआ, तो सुर-लय-ताल तीनों जम गये, पूरा डिब्बा हनुमानमय हो गया। मोदीनगर में ॐ शान्ति शान्ति शान्ति कहते हुए नीचे उतरे तो वास्तव में शान्ति छा गई।
9.रात साढे आठ बजे गांव पहुंचा। जाते ही खान साहब का फोन आया- नीरज... जे है... कल इवनिंग में आ जाओ। ‘जे है’ उनका तकिया कलाम है। चूंकि कल मेरा अवकाश है, फिर भी मैं ऐसे मौकों की तलाश में रहता हूं कि अवकाश वाले दिन ड्यूटी करनी पडे। इसके बदले एक महीने के अन्दर कभी भी छुट्टी ले सकते हैं। होली वाले दिन भी मेरा अवकाश है। पूरी उम्मीद है कि उस दिन भी ड्यूटी करनी होगी। उधर विपिन दस दिनों के लिये केरल भ्रमण पर जा रहे हैं, रणजीत का स्थानान्तरण हो गया है, इसलिये मार्च में मेरी जबरदस्त मांग रहेगी। अप्रैल के पहले ही सप्ताह में पांच छह दिन की छुट्टी लेने की मजबूरी बनने के आसार हैं। किन्नौर दिमाग में आ रहा है।

6 मार्च 2013, दिन बुधवार
1.ग्यारह बजे घर से निकल पडा। सात किलोमीटर दूर बाइपास है, दिल्ली की बस आसानी से मिल जाती है। एक बजे तक मोहननगर पहुंच गया। पांच रुपये प्राइवेट बस में देकर सीधे दिलशाद गार्डन मेट्रो स्टेशन। दो बजे ऑफिस में। देखा कि अभी रणजीत भी यहीं है। आज यहां उनका आखिरी दिन है। अब वे सुल्तानपुर डिपो में ड्यूटी बजाया करेंगे। उनका घर भी सुल्तानपुर के आसपास ही है, उन्हें इस स्थानान्तरण से बडा लाभ हुआ है।
रणजीत की बडी याद आया करेगी। उन्हें यहां आये सालभर भी नहीं हुआ और इतने अल्प समय में वे सभी कर्मचारियों के चहेते बन गये। हमें उनको विदाई भोज देना चाहिये था, लेकिन मुझ जैसे कुछ लोग उल्टे उनसे ही विदाई भोज ले बैठे। रणजीत के स्थान पर कमर रहमानी आये हैं, लेकिन अभी उन्हें जिम्मेदारी लेने में समय लगेगा।
2.विपिन की रात्रि ड्यूटी थी, लेकिन मैंने उनसे यह ड्यूटी हडप ली। अब वे कल मेरी इवनिंग ड्यूटी करेंगे।

7 मार्च 2013, दिन गुरूवार
1.सात बजे ड्यूटी से घर आया और आते ही सो गया। दो बजे आंख खुली। मैंगो शेक की इच्छा थी, लेकिन आम का मौसम न होने के कारण केला शेक ही सही। इसलिये पन्द्रह केले लाया और सभी को घोट-घोटकर दूध मिलाकर स्वादिष्ट शेक बनाई।

8 मार्च 2013, दिन शुक्रवार
1.पूरी रात मच्छरों ने परेशान किये रखा। यहां शास्त्री पार्क में यमुना किनारा होने व स्लम की अधिकता के कारण गर्मियों भर ऐसे ही मच्छर खून पीते रहेंगे। रजाई ओढता तो पसीना आने लगता, चादर में कहीं ना कहीं से अन्दर घुस जाते। कईयों ने तो चादर के ऊपर से ही रक्त शोषण कर डाला।
कोई शक्तिशाली इलाज है क्या इन रक्तपिपासु कीटों का?
2.सुबह सात बजे के बाद जब अच्छा उजाला हो गया, तो दूसरे कमरे में जाकर सो गया। इस कमरे में धूप आ रही थी, मच्छर नहीं थे। एक बजे तक सोया रहा। उसके बाद ड्यूटी चला गया। दस बजे लौटा।

9 मार्च 2013, दिन शनिवार
1.रात ड्यूटी से आकर कुछ देर तक लिखा-पढी की, तत्पश्चात सो गया। लेकिन रक्त-चूषकों ने सोने नहीं दिया। तंग आकर बारह बजे के करीब इनके खिलाफ अभियान छेड दिया। घर में न तो मच्छरदानी है, न ही इन्हें भगाने का धुआं। तय हुआ कि इन्हें एक-एक को पकडकर मारा जाये। सौ रक्त-चूषकों को मारने का लक्ष्य रखा गया। मक्खी के मुकाबले मच्छर को मारना आसान रहता है। शुरू शुरू में बडी तेजी से गिनती बढी, घण्टे भर में ही चालीस पार हो गये।
नींद तो उजड ही चुकी थी। जब मच्छर मिलने बन्द हो गये, तो बिस्तर पर किताब लेकर बैठ गया। बैठते ही एक-एक दो-दो मच्छर आने लगे। चार बजे तक सत्तर मच्छर मारे जा चुके थे। जब दुर्लभ हो गये तो सो गया। ग्यारह बजे उठा।

12 मार्च 2013, दिन मंगलवार
1.जेएनयू से एक फोन आया। रात्रि सेवा करके आया था, सो रहा था। अधकच्ची नींद में बात हुई। कह रहे थे कि पन्द्रह मार्च को वे मुझे सम्मानित करेंगे। मैंने कहा कि सम्मान का कार्यक्रम मुझे मेल पर या फेसबुक पर भेज दें, तो मैं आऊंगा; नहीं तो नहीं आऊंगा। वे सहमत हो गये। देखते हैं कि किस बात के लिये मुझे सम्मानित करेंगे।
2.मोबाइल पर एक चिट्ठी आई नये नम्बर से- जाटराम जी, सुना था कि जाटों की बुद्धि घुटनों में होती है पर आपके ब्लॉग पढकर लगा कि नहीं, जाटों में भी बुद्धि खोपडी में ही होती है बल्कि हमसे ज्यादा होती है।
वैसे मेरा उद्देश्य जाटगर्दी को बढावा देना नहीं है, फिर भी नाम के साथ जाट लगा है तो यह टिप्पणी अच्छी लगी।

13 मार्च 2013, दिन बुधवार
1.पता चला कि गंगा- यमुना के बीच हिमालय की तराई से यानी हरिद्वार से बुलन्दशहर तक का भूभाग कुरुक्षेत्र कहलाता था। यमुनापार यानी वर्तमान हरियाणा को कुरुजांगल कहते थे। क्या महाभारत के समय सेनाओं के यमुना पार करने का उल्लेख है?
2.फेसबुक पर रोहताश चौधरी से मुठभेड हो गई। मैंने महानदी उद्गम का फोटो लगाया, जो धान के खेतों से जाती हुई नाली सरीखी दिख रही थी। कहने लगे कि फेसबुक पर झूठ बोलने पर कोई केस वगैरा नहीं होता, इसलिये साधारण सी नाली को भी महानदी बता रहे हो।
अभी तक मैंने हिमालयी नदियों के उद्गम ही देखे हैं। उद्गम पर वे कैसी प्रचण्ड होती हैं, यह भी मुझे पता है। किसी मैदानी नदी के उद्गम को देखने का मेरा पहला मौका था। जिन मित्रों ने अमरकण्टक में नर्मदा व सोन के उद्गम देख रखे हैं, वे मुझसे सहमत थे, बाकियों के लिये यह नाली साधारण नाली थी। रोहताश साहब जिद पर अड गये कि महानदी भी अमरकंटक से ही निकलती है- ऐसा उन्होंने कहीं पढा था।
जिन व्यक्तियों ने नदी के नाम पर विशाल जलवाहिनियों को ही देखा है, वे कभी नहीं समझ सकते कि नदी शुरूआत में बडी ही मासूम होती है। इस बात को कोई किताब कभी नहीं समझा सकती। रोहताश साहब की किताबी जानकारी पर तरस आ गया व मैंने यह कहकर मामला बन्द कर दिया कि हां, महानदी अमरकंटक से ही निकलती है।

14 मार्च 2013, दिन गुरूवार
1.मनदीप हिमाचल की यात्रा पर है। पता चला कि वहां मूसलाधार बारिश हो रही है। इस बारिश से दिल्ली का मौसम भी ठण्डा हो गया। मनदीप कुछ मित्रों के साथ छितकुल जाने वाला था, लेकिन बारिश की वजह से सराहन से ही लौट आया।

15 मार्च 2013, दिन शुक्रवार
1.आज जवाहर लाल विश्वविद्यालय में एक सम्मान समारोह में जाना है। शाम पांच बजे साइकिल से जेएनयू पहुंच गया। डेढ घण्टे लगे। जब साढे नौ बजे वापस लौटने लगा तो थोडी ही दूर चलने में ठण्ड लगने लगी। मात्र एक शर्ट ही पहने हुए था मैं। इस कारण शास्त्री पार्क आने के बजाय वसन्त विहार स्थित तेजपाल सिंह जी के यहां पहुंच गया।

कुछ बोलना भी पडा।

सम्मान समारोह के बारे में विस्तार से बाद में बताऊंगा।

जेएनयू में सम्मान

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12 मार्च को प्रकाश रायका फोन आया- ‘जाटराम, हम जेएनयू से बोल रहे हैं। हमारी एक संस्था है सिनेमेला, जो लघु फिल्मों को बढावा देती है और हर साल इनके लिये पुरस्कार भी दिये जाते हैं।’ मैंने सोचा कि ये लोग मुझे कोई कैमरा देंगे कि बेटा जा, अपनी यात्राओं की कोई वीडियो बना के ला। फिर उसे पुरस्कार के लिये नामित करेंगे। उन्होंने आगे कहा- ‘इस बार हम पहली बार कुछ अलग सा करने जा रहे हैं। किसी अन्य क्षेत्र के अच्छे फनकार को सम्मानित करेंगे। पहले ही सम्मान में तुम्हारा नम्बर लग गया है। आ जाना 15 तारीख को जेएनयू में। जो भी कार्यक्रम है, मैं फेसबुक पर बता दूंगा।’
शाम का कार्यक्रम था। अब मेरा काम था सबसे पहले अपनी ड्यूटी देखना। हमारे यहां ड्यूटी करने में बहुत सारी विशेष शर्तें भी होती हैं, जिनके कारण हर दूसरे तीसरे दिन ड्यूटी बदलती रहती है। देखा कि चौदह की रात दस बजे से पन्द्रह की सुबह छह बजे की नाइट ड्यूटी है, यानी पन्द्रह को पूरे दिन खाली और अगले दिन यानी सोलह को दोपहर बाद दो बजे से सायंकालीन ड्यूटी है। इसलिये किसी भी तरह के बदलाव की आवश्यकता नहीं थी।
ड्यूटी से लौटकर सोना आवश्यक था। लेकिन उससे भी जरूरी था शेविंग करना व कुछ कपडे धोना। मैं कपडे उसी समय धोता हूं जब मुझे उनकी आवश्यकता हो। किसी दिन मेरे ठिकाने पर आओ, आपको गन्दे कपडों का ढेर मिलेगा- कुर्सियों पर, बिस्तर पर, अलमारी में; सब जगह।
पांच बजे प्रकाश जी से पूछा कि कार्यक्रम स्थल पर साइकिल सही सलामत खडी हो जायेगा क्या? बोले कि हो जायेगी। इसलिये साइकिल लेकर चल पडा। लोहे के पुल से यमुना पार करके रिंग रोड पर गाडी दौडा दी। प्रगति मैदान चौराहे से सीधे तिलक मार्ग पर चला तो सामने इंडिया गेट आ गया। यहां मुझे साइकिल चलाने में हमेशा परेशानी होती है। चार दिशाएं तो सुनी हैं, उनका दुगुना करके आठ होती हैं लेकिन यहां इनसे भी ज्यादा दिशाओं से आकर सडकें मिलती हैं और अलग भी होती हैं। इन सभी सडकों से आने वाले ट्रैफिक और जाने वाले ट्रैफिक के बीच में बेचारी साइकिल ऐसी फंस जाती है कि लगता है बेचारी का कचूमर निकल जायेगा। गनीमत होती है कि भारी ट्रैफिक के बावजूद रफ्तार कम रहती है।
पृथ्वीराज रोड से खान मार्किट और आगे सफदरजंग विमानपत्तन के पास से गुजरते हुए रिंग रेलवेके पुल को पार करके सफदरजंग के महा-चौराहे पर पहुंच गया। यहां से बडा सा चक्कर काटा और रिंग रोड पर साइकिल चढा दी। शाम के छह से ऊपर बज चुके थे, जाम लगा था। इस जाम में ज्यादा नहीं चलना पडा और हौज खास की तरफ दिशा बदल दी। बाहरी रिंग रोड से जेएनयू में प्रवेश करना ज्यादा असुविधाजनक नहीं था।
कार्यक्रम गंगा ढाबे के पास केसी ओपन थियेटर में था। यहां पहुंचकर प्रकाश जी से पूछा कि साइकिल कहां खडी करूं तो बोले कि वहां रंगमंच के पीछे खडी कर दो। आंखों के सामने भी रहेगी।
प्रकाश जी मित्रों के साथ व्यवस्था में व्यस्त थे, इसलिये मैंने उन्हें व्यवधान न देते हुए एक पत्थर पर बैठ गया। घण्टे भर तक बैठा रहा, कभी फोन पर नेट चलाता रहा, कभी मित्रों से बात करता रहा और कभी इधर उधर देखता रहा।
आखिरकार प्रकाश जी ने आवाज लगाई कि नीरज, इधर आओ और यहां बैठ जाओ। रंगमंच के चारों ओर अर्धवृत्त के आकार में सीढियां बनी थी, मैं बैठ गया। सामने एक पर्दा लगा था। उसके सामने छह खाली कुर्सियां रखी थी, कुर्सियों के बराबर में पानी की एक एक बोतलें भी। बराबर में माइक का इंतजाम था।
कार्यक्रम आरम्भ हुआ।
“आज के मुख्य अतिथि हैं प्रोफेसर इश्तियाक अहमद। प्रोफेसर इश्तियार अहमद साहब, आइये और पहली कुर्सी पर बैठ जाइये।”
उनके बाद डॉ. सुमन केसरी अग्रवाल, मनोज भावुक, जाटराम, हेमन्त गाबा और गोपाल कृष्ण आये। दूसरों के क्रम में गडबड हो सकती है लेकिन जाटराम का क्रम बिल्कुल सटीक है।
रंगमंच पर तकरीबन पचास लोगों के सामने बैठकर मैं असहज हो रहा था। और बराबर में भी दोनों तरफ अपने क्षेत्रों के फनकार बैठे थे। पहली बार इस तरह का मौका मिला था। सांस अच्छी तरह लय में भी नहीं आने पाई कि घोषणा हुई कि इस बार से हम सम्मानों की शुरूआत कर रहे हैं। सम्मान नीरज को मिलेगा प्रो इश्तियाक अहमद के हाथों। नीरज, आ जाओ।
कुर्सी से उठकर इश्तियाक साहब के हाथों सम्मान ग्रहण किया। फिर मुझे माइक थमा दिया गया कि बेटा, कुछ बोल।
बस, इसी बात का मुझे डर था। बोलने में परेशानी नहीं होती लेकिन बोलने के बाद जो ध्वनि प्रसारक यन्त्र से क्षण भर पश्चात अपनी ही आवाज सुनाई देती है, वह मुझे विचलित कर देती है। सारा ध्यान वहीं चला जाता है, फिर बोलने पर ध्यान नहीं जाता।
तभी अचानक प्रकाश जी ने माइक संभाल लिया और मेरा परिचय दिया कि यह घुमक्कड है। यह औरों से इसलिये अलग है क्योंकि इसका मकसद घुमक्कडी के साथ साथ पैसे बचाना भी होता है।
इतना कहकर पुनः माइक मुझे थमा दिया। हिम्मत बांधकर बोलना पडा। लेकिन माइक मुंह से दूर ले जाकर बोला ताकि ध्वनिप्रसारक से मुझ तक न्यूनतम आवाज आये। दर्शक ज्यादा नहीं थी, उन्हें सारी बात सुन गई होगी। मैंने अपनी नौकरी और अब तक की गई मुख्य यात्राओं के बारे में बोला।
कितना मुश्किल होता है पहली बार उन लोगों के सामने बोलना जो आपको ही सुनने के लिये तैयार हैं और उनकी नजरें आप पर ही गडी हैं।
यह सम्मान सिनेमेलाफिल्म फेस्टिवल का हिस्सा था। यह संस्था लघु फिल्मों और लघु फिल्मकारों को बढावा देती है। सन 2006 में पहला सिनेमेला अवार्ड दिया गया था। उसके बाद से ये अवार्ड लगातार दिये जा रहे हैं। इस साल भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे हो रहे हैं तो इस मौके को यादगार बनाने के लिये एक विशेष सम्मान भी देने की घोषणा हुई है, जो किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिये दिया जायेगा। यही विशेष सम्मान मुझे मिला।
एक कलाकार के लिये फिल्मों का अर्थ अपने हुनर को प्रदर्शित करना है, जबकि एक आम आदमी के लिये समय काटना है।
मैं चूंकि कलाकार तो हूं नहीं इसलिये फिल्मों को समय काटने यानी मनोरंजन के साधन के तौर पर ही लेता हूं। फिल्मों का मुझे बिल्कुल भी शौक नहीं है। घर में टीवी तक नहीं है। तीन घण्टे तक एक फिल्म देखने से अच्छा मैं कोई किताब पढना मानता हूं। हालांकि कुछ दीर्घ फिल्में जरूर देखी हैं लेकिन लघु फिल्में नहीं देखी। बात शौक और दिलचस्पी पर ही आकर टिक जाती है। क्रिकेट और फिल्म.... कभी नहीं।
प्रो इश्तियाक समेत दो अतिथि ऐसे भी थे जो पाकिस्तानी हैं और यूरोप में काम करते हैं। कुछ बडी मजेदार बातें पता चलीं, मसलन इस्लाम में तस्वीर बनाना हराम है लेकिन अपना अक्स देखना हराम नहीं है। फिल्में अक्स हैं, इसलिये हराम नहीं हैं।
हवाई अड्डा नजदीक होने के कारण बार बार सिर के ऊपर से वायुवान गुजरते थे, जिससे बोलने और सुनने में व्यवधान पैदा होता था। इस दौरान बार बार बोलने से रुकना पडता था। इसी मुद्दे पर पता चला कि पाकिस्तान में मीटिंग स्थगित हो जाती है, जब अजान होती है। पाकिस्तानी सिनेमा के दो फनकारों की उपस्थिति की वजह से वहां सिनेमा के हालातों की भी काफी जानकारी मिली।
एक साहब भोजपुरी वाले भी थे (शायद हेमन्त गाबा) जिन्होंने भोजपुरी फिल्मों के बारे में बताया। लेकिन मामला मेरे कार्यक्षेत्र से बाहर का होने के कारण कुछ पल्ले नहीं पडा।
मेरे लिये कुर्सी पर बैठने का अर्थ है पीछे सिर टिकाकर सो जाना या फिर कुर्सी पर ही पालथी मारकर बैठना। यहां घण्टे भर से ज्यादा बैठा रहा लेकिन उसी औपचारिक तरीके से। वाकई बडी हिम्मत का काम है घण्टे भर तक एक ही तरीके से बैठना और वक्ताओं की तरफ देखते रहना और बात समझ में न आने पर भी दूसरों की देखा-देखी तालियां बजाना। मेरा तो यह पहला अनुभव था और इस पहले अनुभव ने ही सिखा दिया कि जरूर ऐसे लोगों को कोई प्रशिक्षण मिलता होगा। अगर मुझे पता होता इस खतरनाक अनुभव का तो मैं प्रकाश जी से हाथ जोडकर निवेदन करता कि मैं दर्शकों में ही बैठूंगा और मुझे सम्मानित करने के लिये वहीं से बुलाया जाये और बाद में दर्शकों में ही जाने दिया जाये।
भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ देखी। मूक फिल्म है। फिल्मों का पारखी न होने के कारण मुझे मामला ही समझ में नहीं आया कि इसमें मैंने देखा क्या।
रात साढे नौ बजे फिल्म समाप्त करके प्रकाश जी से मिलकर शास्त्री पार्क के लिये साइकिल दौडा दी। विश्वविद्यालय से बाहर निकलने से पहले ही पता चल गया कि ठण्ड काफी है और डेढ घण्टे तक साइकिल चलाना बस की बात नहीं है। वसन्त विहार में रहने वाले तेजपाल जी से फोन पर पूछा तो पता चला कि वे घर पर ही हैं। पौने दस बजे जब वे सोने की तैयारी कर रहे थे, मैंने उन्हें डिस्टर्ब कर दिया।



बायें से दूसरे- प्रकाश राय, चौथे प्रो इश्तियाक अहमद



दिल्ली से अहमदाबाद ट्रेन यात्रा

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18 फरवरी 2013, 
शास्त्री नगर मेट्रो स्टेशन से सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन तक जाने के लिये रिक्शा नहीं मिले। यह बडी अजीब बात थी क्योंकि यहां हमेशा रिक्शे वालों की भारी भीड रहती है। पैदल डेढ किलोमीटर का रास्ता है। पच्चीस मिनट अभी भी ट्रेन चलने में बाकी थे। पैदल ही चला गया। दस रुपये बच गये।
सुबह घर से नमकीन मट्ठा पीकर चला। स्टेशन तक की ‘मॉर्निंग वाक’ में पेट में ऐसी खलबली मची कि रुकना मुश्किल हो गया। ट्रेन चलने में अभी भी दस मिनट बाकी थे, ये दस मिनट मैंने किस तरह काटे, बस मैं ही जानता हूं। ट्रेन ने जैसे ही प्लेटफार्म पार किया, जाटराम सीधे शौचालय में।
इस रूट पर मैंने आबू रोड तक पैसेंजर ट्रेनों से यात्रा कर रखी है लेकिन कई चरणों में- दिल्ली से गुडगांव, गुडगांव से रेवाडी, रेवाडी से बांदीकुई, बांदीकुई से फुलेरा और आखिरी कोशिश फुलेरा से आबू रोड। वैसे भारत परिक्रमाके दौरान आबू रोड से अहमदाबादतक का रास्ता भी देख रखा है।
रात्रि सेवा करके यात्रा के शुरूआत की। नींद आनी लाजिमी है। हल्ला-गुल्ला सुनकर आंख खुली तो ट्रेन रेवाडी पहुंच चुकी थी। एक पचास की उम्र पार चुके महाशय सुबह सुबह अपनी बेकद्री करा बैठे। मेरी बर्थ नम्बर है-70, यह ऊपरी बर्थ है। मेरे सामने दरवाजे के बराबर में साइड में 71 और 72 हैं। नीचे वाली 71 पर एक मेरी ही उम्र का लडका अपनी चादर बिछाकर दोनों खिडकियां बन्द करके आराम की मुद्रा में लेटा था। महाशय और उनके साथी ने आते ही अपनी बर्थ नम्बर चिल्लाकर बोलते हुए लडके को हडका दिया- ओये, हट यहां से। ये 71 व 72 हमारी हैं। खडा हो फटाफट, चादर बिछाकर पडा हुआ है।
लडके ने शालीनता से महाशय से कहा कि आप एक बार अपना टिकट देखिये, कुछ गडबड है। महाशय ने टिकट देखने की बजाय लडके की चादर को हटाना शुरू कर दिया। उनके साथी ने टिकट देखा और कहा कि हमारी सीट इस डिब्बे में नहीं है, बल्कि एस तीन में हैं। इतना सुनते ही लडके ने बर्थ पर बैठ चुके महाशय को चुटकी बजाते हुए कहा- उठो यहां से, अपनी सीट पर जाओ। खडे होओ फटाफट। कैसे बैठ गये तुम मेरी बर्थ पर?
महाशय तुरन्त बचाव की मुद्रा में आ गये- बेटे, धीरे बोलो। देखो, तुमसे बडा हूं मैं। इज्जत बनती है।
लडके ने कहा- उठते हो या धक्के मारकर उठाऊं।
आनन्द आ गया यह वार्तालाप सुनकर।
जयपुर पहुंचने पर एक और वाकया ऐसा ही हुआ। आदमी के पहनावे को देखते ही उसकी वित्तीय स्थिति का अन्दाजा लगाया जा सकता है। पांच ‘गरीब’ पहनावे और वित्तीय स्थिति वाले डिब्बे में चढे। इनमें एक तिनके जैसा पच्चीस साल का लडका, एक महिला, एक बुजुर्ग और दो युवा थे। बाद में पता चला कि तिनके जैसे लडके की किडनी फेल है, दवा दारू चल रही है। मैं उस समय उन्हीं की नीचे वाली शायिका पर बैठा था। मेरे सामने दो कन्याएं थीं।
उन्होंने अपनी शायिका टिकट में पढकर एक दूसरे को सुनाईं- पैंसठ, छियासठ, सडसठ, अडसठ और उन्हत्तर। जिस शायिका पर मैं बैठा था, उस पर उन्होंने एक चादर बिछा दी। किडनी वाले मरीज को बैठा दिया और तुरन्त ही वो लेट गया। मेरी तरफ उसके पैर थे। मेरी वजह से उसके पैर पूरे फैल भी नहीं रहे थे। अब इस शायिका पर किसी और के बैठने की सम्भावना नहीं रही। बाकी लोग सामने वाली शायिका पर बैठ गये। किसी ने मुझसे न तो हटने को कहा और न ही कोई और पूछताछ की। जबकि सभी को पता था कि मैं उन्हीं की पैंसठ नम्बर वाली शायिका पर बैठा हूं। खैर, जल्दी ही मैं वहां से उठ गया।
ये गरीब थे धरतीपुत्र और वो महाशय था हवा में उडने वाला वायुपुत्र। पैसा निर्धारित करता है कि आपका बाप कौन है, आप किसके पुत्र हो।
अलवर में भुज से बरेली जाने वाली आला हजरत एक्सप्रेस मिली। जनरल डिब्बे तो खिडकियों तक भरे ही थे, आरक्षित भी खाली नहीं थे। उनकी भी खिडकियों पर लोग लटके थे। उस समय मेरे सामने एक ‘मॉडर्न फैशनेबल’ लडका बैठा था। पूछने लगा कि क्या ये खिडकियों पर लटके लोग बेटिकट हैं। मैंने कहा कि नहीं। बोला कि फिर ये लटके क्यों हैं? मैं उसकी इस बात पर मुस्करा दिया।
टीटी आया। वो दिल्ली से निकलते भी आया था। मेरे पास आजकल टिकट मोबाइल में एसएमएस के रूप में रहता है। मैंने मोबाइल तो नहीं दिखाया, बल्कि अपना आईकार्ड दे दिया। इतना काफी था।
सामने बैठी दो लडकियों के पास साधारण डिब्बे का टिकट था। टीटी शक्लसूरत से ही भला-मानुस लग रहा था, अब उसने अपनी इस भले मानुस की पदवी का बखूबी प्रयोग भी किया। अपने पास रखी नई नकोर किराया पुस्तिका निकालकर अतिरिक्त किराया बता दिया। लडकियों को अजमेर तक जाना था। मॉडर्न लडके के पास भी साधारण डिब्बे का टिकट था- उसे जयपुर जाना था। उसे भी किराये का अन्तर बता दिया। लडके ने पहले तो आश्चर्य व्यक्त किया कि टिकट होने के बावजूद भी और पैसे क्यों दूं। जब उसे हकीकत बताई गई तो उसने सौ का नोट निकालकर दे दिया। अतिरिक्त किराया पिछत्तर रुपये था।
लडकियों से अतिरिक्त पैसे लेकर उन्हें रसीद काटकर दे दी। जब लडके की रसीद की बारी आई तो टीटी को अपनी ही एक गलती पकड में आई। असल में रसीद पर लिखते समय उसके नीचे के दो पृष्ठों पर कार्बन पेपर लगाकर लिखा जाता है। टीटी ने एक पेपर सीधा लगा दिया, दूसरा उल्टा लगा दिया। नतीजा? एक पेज के दोनों तरफ छप गया और दूसरा पेज खाली रह गया। हर तीन पेज के बाद सीरियल नम्बर बदल जाता था। वो अब तक करीब दस लोगों की रसीद काट चुका था। इससे सीरियल नम्बर बिगड गया।
यह उस सीधे सादे टीटी के लिये बडी मुसीबत की बात थी। उल्टा टीटी होता तो वो इसमें ढाई सौ रुपये जुर्माना भी जोडता और सवारियों से सौ सौ रुपये लेकर उन पर ‘एहसान’ करके चला जाता। इस टीटी ने लडके की रसीद नहीं काटी, सौ रुपये लौटा दिये और बिना कुछ कहे चला गया। लडके को अभी तक भी जनरल क्लास और स्लीपर क्लास का अन्तर नहीं समझ आया था। उसने टीटी के सौ रुपये लौटाने की घटना पर व्यंग्य से कहा कि देखा, ये लोग ऐसा ही करते हैं।
मैं सोच रहा था कि काश, सभी ऐसा ही करते।
अजमेर से पहले हजरत साहब के सेवादार आ गये और कपडा हिलाते हुए कर्कश स्वर में हजरत के नाम पर पैसे मांगने लगे। अजमेर के बाद गायब हो गये।
नाइट ड्यूटी के कारण नींद आ रही थी, हालांकि थोडे थोडे अन्तराल के लिये नींद ले भी लेता था लेकिन ऐसे अन्तरालों से यह पूरी होने वाली नहीं थी। मारवाड ऐसे ही सोते सोते निकल गया।
नौ बजे जब अच्छी खासी नींद आ रही थी, तो शोर शराबा सुनकर आंख खुल गई। कुछ लोग आबू रोड उतरने की तैयारी करने लगे थे। ये सभी तीस पार के थे और देखने से अच्छे पैसे वाले लग रहे थे। बातों से पता चला कि माउण्ट आबू घूमने जा रहे हैं। हर एक के पास भारी भरकम सूटकेस था। बोलचाल से पूर्वी यूपी के लग रहे थे।
आबू रोड स्टेशन पर रबडी मिल रही थी। लेकिन थी बहुत महंगी- बीस रुपये की चुल्लू भर। जीभ की इच्छा थी, इसलिये चुल्लू भर रबडी में डूबना पडा।
रात ठीक दो बजे अहमदाबाद पहुंच गया। कल शाम प्रशान्त ने फोन करके बता दिया था कि अहमदाबाद में स्लीपर क्लास प्रतीक्षालय में मिलेंगे। प्रशान्त और नटवर जोधपुर से आ रहे हैं। उनकी गाडी अहमदाबाद पांच बजे पहुंचेगी। प्रशान्त जोधपुर का ही रहने वाला है जबकि नटवर कुचामन का है। कुचामन से जितना दूर फुलेरा पडता है, उतना ही दूर मेडता रोड है। फुलेरा से किसी भी गाडी में सीट खाली नहीं थी, इसलिये मेरी सलाह पर उसने मेडता रोड से उसी ट्रेन में आरक्षण कराया जिसे प्रशान्त जोधपुर से पकडता।

अगले भाग में जारी...

अहमदाबाद-उदयपुर मीटर गेज रेल यात्रा

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19 फरवरी 2013
सुबह साढे पांच बजे प्रशान्त का फोन आया। मैंने बताया कि स्लीपर के वेटिंग रूम में प्रवेश द्वार के बिल्कुल सामने पडा हुआ हूं। बोला कि हम भी तो वहीं खडे हैं, तू दिख ही नहीं रहा। तब मैंने खेस से मुंह बाहर निकाला, सामने दोनों खडे थे।
पौने सात बजे प्लेटफार्म नम्बर बारह पर पहुंच गये। यहां से मीटर गेज की ट्रेनों का संचालन होता है। एक ट्रेन खडी थी। हमारा आरक्षण शयनयान में था। इसलिये शयनयान डिब्बे को ढूंढते ढूंढते शुरू से आखिर तक पहुंच गये, लेकिन डिब्बा नहीं मिला। ध्यान से देखा तो यह छह पचपन पर चलने वाली रानुज पैसेंजर थी। समय होने पर यह चली गई।
इसके बाद अपनी पैसेंजर आकर लगी। शयनयान का एक ही डिब्बा था। मेरी और प्रशान्त की सीटें पक्की थी, जबकि नटवर अभी तक प्रतीक्षा सूची में था। यहां जब नटवर का नाम भी पक्कों में देखा तो सुकून मिला।
केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक से कुछ बॉडी बिल्डर भी इसी शयनयान में यात्रा कर रहे थे। इनकी संख्या तीस के आसपास थी, इसलिये कोई भी सीट खाली नहीं थी। ये किसी प्रतियोगिता में भाग लेने उदयपुर जा रहे थे। मेरे लिये यह बडी हैरान करने वाली बात थी कि ये लोग अहमदाबाद से उदयपुर जाने के लिये मीटर गेज में यात्रा क्यों कर रहे हैं। पता चला कि ये आज ही चेन्नई से अहमदाबाद आये हैं। अहमदाबाद से उदयपुर के लिये इनकी नजर में यही एकमात्र रूट था। वापसी भी ये इसी रास्ते करेंगे लेकिन रात्रि ट्रेन से। मैंने बताया कि उदयपुर बडी लाइन से शेष भारत से अच्छी तरह जुडा है। यहां से दिल्ली, कोलकाता और मुम्बई के लिये नियमित ट्रेनें हैं। आपको मुम्बई में गाडी बदलकर उदयपुर वाली गाडी पकड लेनी थी। यह सुनकर वे बडा अफसोस करने लगे। मीटर गेज की महा-धीमी चाल से वे बुरी तरह उकता गये थे।
नटवर के पास एक डीएसएलआर कैमरा है। कैमरा देखते ही मैंने प्रार्थना की मुझे फोटोग्राफी के तकनीकी आयाम सिखाओ। मैं अभी तक कैमरे को ऑटो मोड में रखकर फोटो खींचता था, जबकि असली फोटोग्राफर कभी भी इस मोड का इस्तेमाल नहीं करता। ऑटो मोड में हमें जो फोटो मिलते हैं, वे कैमरे की मनमर्जी के होते हैं। मैन्युअल मोड में हम अपनी मनमर्जी के फोटो ले सकते हैं। नटवर ने मुझे इस दिशा में आगे बढने के लिये कई सुझाव दिये। उसके बाद सभी फोटो मैंने मैन्युअल मोड में खींचे।
नटवर अपने साथ एक स्लीपिंग बैग भी लाया था, जो मेरे हिसाब से बिल्कुल व्यर्थ की चीज थी। लेकिन नटवर रातभर उसी में घुसा रहा इसलिये उसके हिसाब से यह व्यर्थ की चीज नहीं थी। उधर मैं ओढने ले लिये एक पतला सा खेस लाया था।
गुजरात-राजस्थान के बीच पहले कभी तीन रूट थे, तीनों मीटर गेज लेकिन अब यही रूट बचा है। बाकी दोनों यानी महेसाना-आबू रोड और भिलडी-समदडी बडे हो गये हैं। यह रूट भी जल्दी ही बन्द हो जायेगा, काम चल रहा है।
असारवा, सहिजपुर, सरदारग्राम, नरोडा, डभोडा के बाद है नांदोल दहेगाम। अहमदाबाद से इस रूट पर चलने वाली कई ट्रेनें यहीं से वापस मुड जाती हैं। कुछ ट्रेनें हिम्मतनगर तक जाती हैं। हिम्मतनगर एक जंक्शन है जहां से उदयपुर के अलावा दूसरी लाइन खेडब्रह्म जाती है। खेडब्रह्म में ब्रह्माजी का मन्दिर है।
हिम्मतनगर तक यह ट्रेन फास्ट पैसेंजर के रूप में चलती है यानी कहीं रुकती है, कहीं नहीं रुकती। लेकिन हिम्मतनगर के बाद हर स्टेशन पर रुककर चलती है। आखिर हिम्मतनगर से उदयपुर के बीच यही एकमात्र पैसेंजर गाडी चलती है। हालांकि एक ट्रेन रात में भी चलती है लेकिन वह एक्सप्रेस है।
मैंने नटवर के कहे अनुसार मैन्युअल मोड में फोटो लेने शुरू कर दिये। लेकिन सिखदड खिलाडी को कभी भी चलती गाडी में मैन्युअल मोड में फोटो नहीं लेने चाहिये। दृश्य तेजी से बदलते रहते हैं। जब तक कैमरे को ऑन करके सैटिंग करते हैं, तब तक गायब हो जाते हैं। इसी जल्दबाजी की वजह से कई फोटो खराब हो गये। कभी काला फोटो आता, तो कभी धुत्त सफेद। तय हुआ कि अप्रैल में मैं और नटवर हिमालय पर किसी ट्रेकिंग पर जायेंगे, तब वह मुझे और ज्यादा फोटोग्राफी सिखायेगा।
नटवर का एक मित्र मॉरीशस में रहता है। उसने नटवर के लिये निमन्त्रण भेजा है, लेकिन बेचारा डर रहा है। उसे असल में हवाई यात्रा का डर है। मैं हवाई यात्रा का हाल ही में अनुभव ले चुका हूं, तो बार बार यही पूछता रहा कि तुम्हें भी डर लगा क्या हवाई जहाज में?
प्रशान्त के पास कोई कैमरा नहीं है, उसे फोटो खींचने आते भी नहीं है; फिर भी हम दोनों खासकर नटवर ने उसे शटर दबाना सिखा दिया और वह भी फोटोग्राफर बन गया। प्रशान्त उदयपुर पहुंचकर अपने गुरूओं को भोज देगा।
प्रान्तिज में खेडब्रह्म से आने वाली पैसेंजर मिली। दोनों गाडियों ने एक दूसरी को अभिवादन किया।
हिम्मतनगर में स्टेशन के अन्दर खाने की कोई दुकान नहीं मिली। दो ठेले बाहर खडे थे, प्लेटफार्म से बिल्कुल चिपककर जाली के उस तरफ। एक फलवाला और दूसरा पकौडे वाला। हमने दोनों का आनन्द उठाया।
यहीं दो पुलिसवाले मिले। मुझे फोटो खींचते देख कहने लगे कि तुम्हें पता है कि स्टेशनों पर फोटो खींचना मना होता है। साथ ही चार बातें और सुना दीं। मैंने कहा कि स्टाफ...। बस, चमत्कार हो गया। आगे कुछ नहीं पूछा। कहने लगे कि हमें लग रहा था कि आप स्टाफ के हो। खींचो, खींचो, खूब फोटो खींचो।
ये रेलवे पुलिस वाले मुझे फालतू के ही लगते हैं। मैं इंजन के सामने खडा होकर फोटो खींच रहा था, दोनों लोको पायलट देख रहे थे। हमारा ठिकाना सबसे पीछे का डिब्बा था, गार्ड से दोस्ती हो गई थी। गार्ड ने पूछा भी कि आप फोटो का करते क्या हो, तो जवाब था कि मजे लेते हैं। कभी भी स्टेशनों पर फोटो खींचने में कोई आपत्ति नहीं मिली। कभी कभी तो ये रेलवे पुलिस वाले टिकट भी चेक करने लगते हैं। पांच साल पहले मैं गुडगांव से दिल्ली जा रहा था। पैसेंजर का टिकट ले लिया। आ गई आश्रम एक्सप्रेस। यह सुपरफास्ट ट्रेन है। मैं चढ लिया इसमें। दिल्ली छावनी जाकर जब मैं प्लेटफार्म पर टहल रहा था तो एक पुलिस वाला आया और टिकट के लिये पूछने लगा। मैंने उसे वही पैसेंजर का टिकट दिखा दिया। उसने देखा गुडगांव से दिल्ली और टिकट वापस कर दिया। रेलवे में टिकट चेक करने के लिये लम्बा चौडा स्टाफ होता है, फिर क्यों ये लोग अपने को रेलवे कर्मचारी सिद्ध करने पर तुले रहते हैं?
एक स्टेशन मिला- रायगढ रोड। रायगढ स्टेशन छत्तीसगढ में है जबकि रायगढ रोड यहां गुजरात में।
शामलाजी रोड स्टेशन से शामलाजी धाम के लिये रास्ता गया है। इससे अगला स्टेशन लुसाडीया गुजरात का आखिरी स्टेशन है। इसके बाद राजस्थान शुरू हो जाता है और राजस्थान का पहला स्टेशन है जगाबोर।
शामलाजी रोड के बाद ही पहाडियां शुरू हो जाती हैं, जो उदयपुर तक साथ देती हैं।
हिम्मतनगर में ही थोडी सी पकौडियां और अंगूर खाये थे, अब भूख लगने लगी। लेकिन सभी स्टेशन खाली पडे हैं। कहीं भी कुछ नहीं मिल रहा। डूंगरपुर से उम्मीदें हैं।
डूंगरपुर वैसे तो राजस्थान का एक जिला है लेकिन यहां भी कुछ नहीं मिला सिवाय तीन क्रीम-रोल के। तीनों ने मिलबांट कर क्रीम रोल खाये।
दक्षिण वाले बॉडी बिल्डर इस बोरिंग यात्रा से पक चुके हैं। सब सोये पडे हैं, जो जगे हैं वे खिडकी पर जा खडे होते हैं लेकिन ज्यादा देर तक टिकते नहीं।
देखा कि सबसे पीछे वाला जनरल डिब्बा पूरी तरह खाली है। हम अपना साजो-सामान लेकर जनरल में ही चले गये। यह बडी दुर्लभ घटना थी। किसी की स्लीपर डिब्बे में आरक्षित बर्थ हो, तो उसका जनरल में स्वेच्छा से जाना दुर्लभ ही कहा जायेगा। यहां काफी दूर तक हम तीन प्राणी ही इस डिब्बे के मालिक रहे।
कई स्टेशनों पर साइडिंग वाली लाइनें उखाडकर उन्हें हाल्ट बना दिया है। इस मीटर गेज को बडा करने का काम चालू हो चुका है। मुझे नहीं लगता कि यह लाइन दो साल और चल पायेगी।
हर दूसरे तीसरे स्टेशन पर गार्ड टिकट बांटता नजर आया।
जावर में समोसे मिले। एक नन्हीं सी दुकान और पूरी ट्रेन की सवारियां भूखी प्यासी उसी पर टूट पडी। मुझसे भी बुरी हालत नटवर और प्रशान्त की थी। सबसे पीछे वाले डिब्बे में बैठने का नतीजा मिला। जब तक मुझे कुछ पता चलता, देखा कि वे दोनों जंग लड रहे हैं। समोसे की दुकान पर जंग लडकर इन्होंने छह समोसे लेने में कामयाबी हासिल कर ली। दोबारा गये तो खाली दुकान में एक आदमी बैठा था और चिल्ला रहा था- कुछ नहीं है, कुछ नहीं है।
जावर के बाद एक सुरंग भी मिली जिसपर 1964 लिखा था। यह सुरंग दो सौ मीटर से ज्यादा लम्बी है।
उमरा यानी उदयपुर से पहले आखिरी स्टेशन। यहां गाडी काफी देर तक खडी रही। गाडी के सबसे पीछे जाकर कपलिंग पर चढकर कई फोटो खींचे। यहीं उदयपुर से अहमदाबाद जाने वाली मीटर गेज की एक्सप्रेस गाडी निकली। ताज्जुब हुआ कि इसमें थर्ड एसी का डिब्बा भी था। इसके सभी डिब्बों की डेंटिंग पेंटिंग काफी अच्छी क्वालिटी की थी।
समय से पन्द्रह मिनट पहले ही उदयपुर पहुंच गये।
इस गाडी में एक खास बात दिखाई दी। यह गाडी पश्चिम रेलवे की है। लेकिन इसमें कई डिब्बे दूसरे जोन के भी लगे थे- पूर्व मध्य, पूर्वोत्तर आदि। किसी यात्री गाडी में ऐसा नहीं होता।
नटवर की इच्छानुसार स्टेशन से करीब एक किलोमीटर दूर एक भोजनालय में खाना खाने गये। दिनभर के भूखे थे हम, यहां साठ रुपये में भरपेट भोजन मिल रहा था।
अब हमें रतलाम जाना है।

जाटराम और नटवर




प्रशान्त को फोटोग्राफर बना दिया। 


हिम्मतनगर में





यह फोटो नटवर ने खींचा है। यहां बैठकर मैंने जो फोटो खींचा, वो नीचे वाला है।

















गार्ड टिकट देता हुआ।


बहुत से स्टेशनों से साइड वाली पटरियां उखाडकर उन्हें हाल्ट बना दिया है।







जावर स्टेशन पर समोसे और चाय मिल गई- ऊंटों के मुंह में जीरा इसी को कहते हैं। यह प्रशान्त है, पीछे नटवर भी चाय ला रहा है।

मीटर गेज का डिब्बा।



यह डिब्बा पूर्व मध्य रेलवे का है। इसी तरह के और भी कई डिब्बे लगे हैं इसमें।

उदयपुर अहमदाबाद एक्सप्रेस (19443)


अगले भाग में जारी...

रतलाम से कोटा पैसेंजर ट्रेन यात्रा चित्तौड के रास्ते

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उदयपुर से अब हमें रतलाम जाना था। सबसे उपयुक्त ट्रेन है उदयपुर- इन्दौर एक्सप्रेस (19330)। यह उदयपुर से रात साढे आठ बजे चलती है और रतलाम पहुंचती है सुबह चार बजे।
डिब्बे में एक सज्जन मिले। उन्हें भी रतलाम जाना था, दो बजे का अलार्म लगाकर और सबको बताकर कि उन्होंने दो बजे का अलार्म लगाया है, लेटने लगे। हमने कहा कि महाराज जी, चार बजे का अलार्म लगाइये, यह चार बजे रतलाम पहुंचेगी। सुनते ही जैसे उन्हें करंट लग गया हो, बोले- अरे नहीं, यह डेढ बजे जावरा पहुंचती है, वहां से तीस ही किलोमीटर आगे रतलाम है, दो बजे ही पहुंचेगी। हमने उन्हें आश्वस्त किया, तब वे चार बजे का नाम लेकर सोये।
दिल्ली से अहमदाबाद और वहां से मीटर गेज की गाडी में उदयपुर- पूरे दो दिन लगे। इस ट्रेन में पडते ही ऐसी नींद आई कि पूछो मत। लेकिन जब तक गाडी हिलती रही, तब तक ही नींद अच्छी आई। शायद जावरा के बाद जब यह दो घण्टे के लिये खडी हो गई, तो नींद भाग गई।
असल में यह डेढ बजे ही जावरा पहुंच जाती है। उसके बाद रतलाम से पहले लगभग दो घण्टे के लिये कहीं खडी हो जाती है, फिर चार बजे रतलाम पहुंचती है। इसमें रेलवे ने बडी इंसानियत भरी समझदारी का परिचय दिया है। रतलाम वाले यात्री दो बजे उठने की बजाय नींद पूरी करके चार बजे उठेंगे।
अब हमें एक और पैसेंजर ट्रेन यात्रा करनी थी- रतलाम से चित्तौडगढ के रास्ते कोटा तक। गाडी का समय था पौने दस बजे यानी साढे पांच घण्टे तक यहीं रहना है। शयनयान प्रतीक्षालय ढूंढकर उसमें जा पडे। अचानक मुझे कुछ ध्यान आया। बाकी दोनों से कहा कि क्या तुम्हें वातानुकूलित प्रतीक्षालय में जाना है। बोले कि हां, यहां लेटने की जगह कम है। मैं चूंकि पहले से ही शयनासन में था, मुझे जाने की आवश्यकता नहीं थी, उन्हें तरकीब बता दी- तुम्हारा टिकट तुम्हारे मोबाइल में है। जोड-घटा करके इसे एसी का टिकट बना लो।
अब प्रतीक्षालय के पहरेदार को क्या मालूम कि यह पीएनआर स्लीपर का है या एसी का। किराया भी ढाई सौ के स्थान पर ग्यारह सौ कर दिया। SL के स्थान पर 3A लिख दिया और पहुंच गये एसी वेटिंग रूम में। पहरेदार ने देखा कि बाकी सब तो ठीक है लेकिन इनका डिब्बा S1 क्यों है? S1 तो स्लीपर का डिब्बा होता है। चूंकि पहरेदार भी नींद में डूब रहा होगा, उन्हें अन्दर जाने दिया।
आठ बजे के आसपास दोनों ने मुझे जगाया। प्रतीक्षालय में हम तीनों ही थे। हाथों में चार समोसे थे। मैंने पूछा कि इनमें से मेरे कितने है। बोले कि हम तो खाकर आये हैं, ये सभी तेरे हैं। जब मैंने वे चारों समोसे खा लिये, तो बेचारे एक दूसरे का मुंह देखने लगे। कहने लगे कि असल में इनमें हमारे भी एक-एक समोसे थे।
ठीक समय पर गाडी चल पडी। रतलाम से आगरा किले तक चलने वाली हल्दीघाटी पैसेंजर (59811) में तीन डिब्बे शयनयान के भी होते हैं। हमारी सीटों पर कई महिलाएं बैठी थीं। हमें चूंकि खिडकी वाली सीटें चाहिये थीं और हमारे कन्धों पर भारी भारी कैमरे भी लटके थे, तो महिलाओं ने आसानी से सीटें खाली कर दीं। ये सभी महिलाएं अध्यापिकाएं थीं और मन्दसौर जा रही थीं।
गाडी चल पडी तो मेरे सामने जो स्टेशन आता, मैं फोटो ले लेता, नहीं तो नटवर से कह देता कि दूसरी तरफ स्टेशन है। महाराज तुरन्त दूसरी तरफ भागता और नामपट्ट का फोटो खींच लेता।
महिलाओं ने प्रशान्त से पूछा कि आप फोटो क्यों खींच रहे हो? प्रशान्त ने जवाब दिया कि हमारा एक प्रोजेक्ट है, उसी के लिये खींच रहे हैं। मेरी नजरें हालांकि खिडकी से बाहर की ओर थीं, लेकिन कान अन्दर ही थे। महिलाएं भी आखिर मास्टरनी थीं, तुरन्त दूसरा सवाल किया कि क्या प्रोजेक्ट है? इसका प्रशान्त क्या जवाब देता? उसने मुझे झिंझोडा और कहा कि इन्हें बता कि हमारा क्या प्रोजेक्ट है।
मैंने कहा कि हमारा कुछ भी प्रोजेक्ट ना है। स्वान्त सुखाय रेलयात्रा कर रहे हैं और फोटो खींच रहे हैं। कल अहमदाबाद से उदयपुर वाली लाइन पर थे, आज यहां हैं, कल पता नहीं कहां होंगे।
एक स्टेशन आया- जावरा। कल का जावर याद आ गया जहां समोसे मिले थे और ट्रेन की सभी सवारियां उन पर टूट पडी थीं।
आगे एक स्टेशन है- कचनारा। इसके एक प्लेटफार्म पर ‘कचनारा’ का पट्ट लगा है जबकि दूसरे पर ‘कचनारा रोड’ का। पता नहीं कि यह कचनारा है या कचनारा जाने वाली रोड।
मन्दसौर पहुंचे। इसका मन्दोदरी से कुछ सम्बन्ध बताते हैं। मेरठ में भी यही प्रचलित है कि मन्दोदरी मेरठ की थी। यहां सभी अध्यापिकाएं और नियमित यात्री उतर गये। डिब्बा लगभग खाली हो गया।
साढे बारह बजे नीमच पहुंचे। रतलाम से चलने के बाद मन्दसौर और नीमच मध्य प्रदेश के दो जिला मुख्यालय आते हैं। उसके बाद गाडी राजस्थान के चित्तौडगढ जिले में प्रवेश कर जाती है। जहां मन्दसौर का मेरठ से मन्दोदरी की वजह से सम्बन्ध है, वहीं नीमच भी सीधे मेरठ से सम्बन्धित है। एक लिंक ट्रेन चलती है नीमच से मेरठ सिटी तक। नीमच से चलकर यह गाडी चित्तौड के रास्ते कोटा पहुंचती है। कोटा में यह बान्द्रा-देहरादून एक्सप्रेस से मिल जाती है। फिर ये दोनों गाडियां एक साथ मेरठ सिटी तक आती हैं। लिंक एक्सप्रेस को मेरठ में छोडकर मुख्य गाडी देहरादून चली जाती है।
अब इस लिंक एक्सप्रेस के नीमच से आगे मन्दसौर तक विस्तार की घोषणा हो गई है।
नीमच से चलकर बिसलवास कलां और जावद रोड.. बस.. मध्य प्रदेश खत्म... राजस्थान शुरू। राजस्थान का पहला स्टेशन है निम्बाहेडा।
दो बजे चित्तौडगढ पहुंचे। जाते ही सबसे पहला काम था भोजन करना। ऐसा ना हो कि कल की तरह भूखें मर जायें। अगर चित्तौड में हमने लापरवाही दिखा दी तो अगला बडा स्टेशन घण्टों बाद बूंदी आयेगा। ट्रेन रुकते ही नटवर और प्रशान्त पूडी सब्जी ले आये।
चित्तौड से एक लाइन उदयपुर जाती है। हम रात इसी लाइन से उदयपुर से रतलाम गये थे।
अगला स्टेशन है चन्देरिया। यहां से एक लाइन अजमेर चली गई है। यहां गाडी आधे घण्टे से भी ज्यादा खडी रही।
आगे एक स्टेशन आया जोधपुरिया। इस स्टेशन का नाम न तो रेलवे की वेबसाइट पर है, ना किसी अन्य टाइम टेबल बताने वाली साइट पर और न ही पश्चिमी जोन की टाइम टेबल में। इस तरह के इधर कई स्टेशन हैं।
एक स्टेशन है ताम्बावती नगरी।
ऊपरमाल में गाडी घण्टे भर तक खडी रही। स्टेशन पर काफी सारे लंगूर थे, नटवर ने जमकर फोटो खींचे।
बूंदी से पहला स्टेशन है श्रीनगर। यह स्टेशन चूंकि पुराने जमाने की मीटर गेज लाइन पर है, इसलिये जाहिर है कि कश्मीर वाले श्रीनगर से बहुत पुराना है। चूंकि दो स्टेशनों के नाम एक से नहीं रखे जाते, फिर कश्मीर वाले श्रीनगर का नाम क्या है?
एक श्रीनगर और बनने वाला है- ऋषिकेश कर्णप्रयाग लाइन पर। उद्घाटन हो चुका है।
बूंदी से काफी पहले ही एहसास होने लगा था क्योंकि हम घने पहाडी इलाके से गुजर रहे हैं। रास्ते में एक सुरंग भी आई। बूंदी का किला भले ही भारतीयों में प्रसिद्ध न हो, विदेशियों में यह बहुत प्रसिद्ध है। मैंने इस किले को अभी तक नहीं देखा है, देखना है किसी दिन। स्टेशन पर विदेशियों की भी अच्छी संख्या थी।
बूंदी के बाद तालेडा और गुडला। गुडला में गाडी सही समय पर पहुंची। इससे अगला स्टेशन ही चम्बल पार करके कोटा है लेकिन समय सारणी इस तरह की बनी है कि घण्टे भर से ज्यादा इसे गुडला पर खडे रहना पडा।
कोटा के अधिवक्ता श्री दिनेशराय द्विवेदी जी ने कहा कि समयाभाव के कारण मुलाकात नहीं हो सकती।
इस गाडी के इन स्लीपर डिब्बों की खासियत थी कि इसमें हर कूपे में दो दो चार्जिंग स्विच लगे हैं। यानी एक डिब्बे में बीस चार्जिंग स्विच। भीड न होने की वजह से मैंने लैपटॉप खोल लिया और यात्रा-लेखन शुरू कर दिया।
मेरा वापसी का आरक्षण मेवाड एक्सप्रेस से था, नटवर का कोटा-जयपुर पैसेंजर से जबकि प्रशान्त का भोपाल-जोधपुर पैसेंजर से। सबसे पहले नटवर गया, उसके दस मिनट बाद मैं और प्रशान्त पता नहीं कब गया।

































छत्तीसगढ यात्रा- डोंगरगढ

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27 फरवरी 2013
दुर्ग स्टेशन पर मैंने कदम रखा। जाते ही राजेश तिवारी जी मिल गये। गाडी दो घण्टे लेट थी, लेकिन तिवारी जी दो घण्टे तक स्टेशन पर ही डटे रहे। ये भिलाई में रहते हैं और वहीं इस्पात कारखाने में काम करते हैं। कारखाने की तरफ से मिले ठिकाने में इनका आशियाना है। तुरन्त ही मोटरसाइकिल पर बैठकर हम भिलाई पहुंचे। कल जैसे ही तिवारी जी को मेरे छत्तीसगढ आने की सूचना मिली, तो इन्होंने आज की छुट्टी ले ली मुझे पूरे दिन घुमाने के लिये।
कल सुबह ठीक समय पर दिल्ली से गाडी चल दी थी। सोते सोते झांसी तक पहुंच गया। कुछ खा पीकर आगे बढे। बीना तक ट्रेन अच्छी तरह आई। उसके बाद रुकने लगी। पता चला कि आगे किसी स्टेशन पर कुछ दंगा हो गया है, आगजनी भी हो गई है। क्यों? पता नहीं।
गुलाबगंज स्टेशन पर भी तकरीबन आधे घण्टे तक खडी रहने के उपरान्त गाडी आगे बढी। विदिशा में हालांकि इस ट्रेन का ठहराव नहीं है, लेकिन रुकी तो ठसाठस भर गई। लोग यह कहते सुने गये कि पता नहीं, अगली गाडी कब आये। भोपाल तीन घण्टे लेट पहुंची।
दुर्ग जाकर समाचार पत्र देखा तो पता चला कि गुलाबगंज स्टेशन पर निजामुद्दीन जाने वाली समता एक्सप्रेस से दो बच्चों की कटकर मौत हो गई है, इसलिये गुलाबगंज वालों ने स्टेशन फूंक दिया। स्टेशन मास्टर और बाकी स्टाफ जान बचाकर भाग गये, नहीं तो बच्चों के साथ वे भी कहीं जन्नत में जश्न मनाते मिलते। यह गाडी गुलाबगंज स्टेशन पर काफी देर तक खडी रही, अगर पहले से पता होता तो मैं भी आगजनी के अवशेषों को देख आता।
भीड में दिमाग तो होता ही नहीं है।
कल रेल बजट घोषित हुआ। आज अखबार में पढा तो देखा कि दुर्ग में हाहाकार मचा हुआ है। दुर्ग से छपरा जाने वाली सारनाथ एक्सप्रेस गोंदिया तक बढा दी गई है। गोंदिया में जश्न मन रहा होगा।
मेरी यह यात्रा डब्बू मिश्रा द्वारा आयोजित थी। एक दिन हम दोनों फेसबुक पर चैटिंग कर रहे थे। तभी तय हो गया कि छत्तीसगढ यात्रा की जाये। वैसे मैने छत्तीसगढ यात्रा के लिये मानसून या उसके बाद का समय सोच रखा था, लेकिन डब्बू के अति आग्रह के कारण जाना पडा। इतना होने के बाद डब्बू भूल गये कि जाटराम किस ट्रेन से आ रहा है। उन्होंने सोचा कि महाराज राजधानी से आ रहा है, जो यहां नौ बजे पहुंचेगी। इसलिये साढे आठ बजे फोन करके पूछा कि गाडी कहां तक पहुंच गई। मैंने कहा भिलाई तो चिहुंक उठे। बोले कि उतर जाओ वहीं, मैं दो मिनट में आता हूं। तब मैंने बताया कि समता से आया हूं, अब तिवारी जी के यहां भिलाई में हूं।
कुछ देर बाद डब्बू मिश्रा भी तिवारी निवास पर पहुंच गये।
मैंने इस यात्रा की कोई तैयारी नहीं की थी। सबकुछ डब्बू के भरोसे था। तिवारी जी का फोन तो तब आया, जब मैं कल भोपाल में था। आज बिना सोचे समझे ही उन्होंने छुट्टी ले ली। उधर डब्बू का आज का दिन भी मेरे ही लिये था। तिवारी और डब्बू की बातचीत हुई। आखिरकार तय हुआ कि तिवारीजी आज मुझे घुमायेंगे, आज के बाद डब्बू।
तिवारीजी की योजना थी आज डोंगरगढ चलने की।
डोंगरगढ में रेलवे स्टेशन है, दुर्ग और रायपुर से लोकल ट्रेनें काफी संख्या में डोंगरगढ और आगे गोंदिया तक जाती हैं। दूरी तकरीबन अस्सी किलोमीटर है। लेकिन तिवारीजी को रेल-भय था, इसलिये मोटरसाइकिल से चलने को कहने लगे। मैंने भी खूब कहा कि ट्रेन से चलो, लेकिन नहीं माने।
रास्ते में राजनांदगांव के बाद बायें हाथ एक मन्दिर पडा। प्रसिद्ध मन्दिर ही है, तभी तो तिवारीजी ले गये। मन्दिर पुराना तो नहीं है, लेकिन मजे की बात थी कि यहां भगवान को कैमरे से परहेज नहीं है। मन्दिर तीन मंजिलों का बना है, सबसे नीचे भूमिगत मंजिल पर काली जी विराजमान हैं। दूसरी मंजिल पर शिवजी हैं। सबसे ऊपर पता नहीं कौन है। इसके सामने बडा ही विचित्र नजारा है। एक छोटी सी कोठरी है जिसमें हनुमान विराजमान हैं, उनके ऊपर कोठरी की छत पर नन्दी जी खडे हैं। मन्दिर के आसपास जमीन की कमी नहीं है। लेकिन इस तरह हनुमान और नन्दी को ऊपर नीचे बैठाना मुझे अच्छा नहीं लगा। नन्दी का सारा गोबर हनुमान के ही ऊपर चढ जाता है।
यहां से निकले तो सीधे डोंगरगड ही जाकर रुके। डोंगर कहते हैं पहाडी को। यहां एक छोटी सी पहाडी के ऊपर माता बम्लेश्वरी का मन्दिर है। बम्लेश्वरी को छत्तीसगढ की वैष्णों देवी भी कहते हैं। कुछ घण्टे पहले मैं रेल से यहीं से गुजरा था। तब पहाडी के शीर्ष पर स्थित मन्दिर को देखा था। तब क्या मालूम था कि थोडी ही देर बाद यहां पुनः आना पडेगा।
यहां पर एक चीज बडी अच्छी लगी कि पहाडी की चढाई शुरू करने से पहले एक बहुत बडा हॉल है जहां सैकडों आदमी विश्राम कर सकते हैं। देखने में यह एक मामूली सी बात ही लगती है, लेकिन बडे मन्दिरों में मैंने विश्रामालय नहीं देखे हैं।
यहां असल में बम्लेश्वरी के दो मन्दिर हैं। एक नीचे और दूसरा ऊपर। ऊपर वाले को मुख्य मन्दिर कहा जाता है। नीचे वाले का पुनर्निर्माण हो रहा है जिसमें दस करोड की लागत आयेगी। लागत की भरपाई के लिये पचास रुपये से लेकर दस हजार रुपये तक दान लिया जाता है। मुझे इसी चीज से चिढ है।
दूसरों की देखा-देखी हमने भी नीचे विश्रामालय के पास ही चप्पलें निकाल दीं। इसका खामियाजा हमें भुगतना पडा जब धूप मे पक्की गर्म सीढियों पर चढना पडा।
डेढ बजे मन्दिर में माता के दर्शन बन्द हो जाते हैं। घण्टे भर तक माता आराम करती हैं। हम डेढ बजने से मात्र दस मिनट पहले ही सबसे ऊपर पहुंच चुके थे। पता नहीं था कि दस मिनट बाद मन्दिर घण्टे भर के लिये बन्द हो जायेगा। ऊपर से डोंगरगढ कस्बा और रेलवे स्टेशन बडे शानदार लग रहे थे। हम फोटो खींचते रहे, उधर मन्दिर बन्द हो गया।
मन्दिर में साफ सफाई थी। संगमरमर के फर्श पर बैठने में जरा भी झिझक नहीं हुई और न ही धूल उडाने के लिये फूंक मारनी पडी। ऊपर पंखे चल रहे थे। अच्छा हवादार वातावरण था, पता ही नहीं चला कि कब एक घण्टा गुजर गया।
घण्टे भर बाद ढाई बजे जब पुनः माता के दर्शन होने लगे, तब तक ठीक ठाक भीड हो गई। हम तीन बजे यहां से उठे और दो मिनट में दर्शन करके बाहर निकल गये।
फोटो खींचने की मनाही है, लेकिन मैंने एक फोटो खींच लिया। मन्दिर में एक सीसीटीवी कैमरा भी लगा दिखा लेकिन उसकी दिशा आम लोगों की तरफ न होकर मन्दिर में रखी माता की प्रतिमा की तरफ थी। भला माता पर कैमरा लगाने से क्या लाभ?
नीचे उतरने लगे। अब तक सीढियां और भी गर्म हो गई थीं, बडी परेशानी हुई नंगे पैर चलने में।
लंगूर काफी संख्या में हैं। लेकिन शान्त स्वभाव के कारण वे अखरते नहीं।
उडनखटोले की सुविधा भी है यहां। हमें इसकी कोई आवश्यकता नहीं थी।
नीचे पहुंचे। विश्रामालय के बराबर में एक ताल है। इसमें बोटिंग की सुविधा भी है।
करीब आधा किलोमीटर दूर बम्लेश्वरी का नया बन रहा मन्दिर है। यहां पत्थरों का इस्तेमाल हो रहा है। पत्थरों पर कलाकारीपूर्ण कार्य हो रहा है। मैं इसे पैसे की बर्बादी ही मानता हूं, इसलिये मुझे उतना अच्छा नहीं लगा।
शाम अन्धेरा होने तक तिवारीजी के साथ मैं वापस भिलाई लौट आया।
सूर्यास्त होते समय जब हम दुर्ग में प्रवेश के समय शिवनाथ नदी के पुल से गुजर रहे थे, तो सूर्यास्त का बडा शानदार नजारा दिखा। यहीं बराबर में एक गुरुद्वारा भी है।
आज पाबला जीके साथ गप्पे मारने का समय निर्धारित था। शाम छह बजे जब हम डोंगरगढ से वापस लौट आये तो डब्बू से पता चला कि पाबला जी बीमार हो गये हैं, इसलिये गप्प के लिये समय नहीं दे सकते। तय हुआ कि कल उनके घर चलेंगे और वहीं बातें करेंगे।
पिछले साल 27 अगस्त को जब मुझे लखनऊ में सर्वोत्तम यात्रा ब्लॉगरका पुरस्कार मिला था, तो वहां पाबला जी भी उपस्थित थे। उन्होंने मुझसे प्रतिज्ञा कराई थी कि छह महीने के अन्दर छत्तीसगढ की यात्रा करनी है। मैं भूल गया उस प्रतिज्ञा को। डब्बू की वजह से ही सही, मेरी प्रतिज्ञा बची रही। आज छठे महीने का आखिरी दिन था।
शाम को तिवारी जी के साथ भिलाई देखने निकला। पता नहीं क्यों दुर्ग में मुझे इन्दौर का एहसास हो रहा था। बार बार यही लगता कि मैं इन्दौर में हूं। जबकि भिलाई हरिद्वार स्थित भेल जैसा लगा। लगा क्या बल्कि है ही। एक कारखाने के चारों तरफ आवासीय कालोनी। सुनियोजित ढंग से बना शहर।
यह कारखाना रूस के सहयोग से आजादी के बाद बनाया गया। आजादी से पहले भारत-रूस के सम्बन्ध थे ही नहीं। कारण थे अंग्रेज। रूस से उनकी जातीय दुश्मनी थी। भारत में उस समय रूस का राजदूत भी नहीं होता था। अफगानिस्तान या ईरान में जरूर रूसी राजदूत होता था। आजादी के बाद भारत-रूसी मित्रता शून्य से शिखर पर पहुंची।
दो मन्दिर दक्षिण भारतीय शैली में देखे। अच्छे लगे।
रात को तिवारी जी के यहीं सो गया।



राजनांदगांव के पास वाले मन्दिर में काली की प्रतिमा



तिवारी जी

हनुमान के ऊपर नन्दी



कलकत्ता- मुम्बई हाइवे

डोंगरगढ रोड

ऑनलाइन दान


बम्लेश्वरी मन्दिर की तरफ जाती सीढियां


ऊपर से दिखती रेलवे लाइन

जय मां बम्लेश्वरी





विश्रामालय

वापस दुर्ग चलते हैं। शाम के समय को इसी वजह से गोधूलि बेला कहते हैं।



फेसबुक रेस्टॉरेंट

शिवनाथ तीरे

भिलाई आवासीय परिसर में बना दक्षिण भारतीय शैली का मन्दिर

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 
अगले भाग में जारी...

छत्तीसगढ यात्रा- मूरमसिल्ली बांध

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28 फरवरी 2013
मैं राजेश तिवारी जी के घर पर था और सुबह आठ बजे तक डब्बू को आ जाना था। अब मुझे अगले तीन दिनों तक डब्बू के ही साथ घूमना है। मेरी यह यात्रा डब्बू की वजह से ही सम्पन्न हुई, नहीं तो मानसून के अलावा छत्तीसगढ घूमना मैं सोच भी नहीं सकता था।
दस बजे डब्बू जी आये और हम शीघ्र ही तिवारी जी को अलविदा कहकर चलते बने। भोरमदेव जाने की योजना थी, जो जल्दी ही रद्द करनी पडी। तय हुआ कि सिहावा चलो। डब्बू ने बताया कि सिहावा में महानदी का उद्गम है। इसके अलावा उसी दिशा में सीतानदी अभयारण्य, राजिम, बारनावापारा और सिरपुर भी पडेंगे। सभी जगहें एक ही झटके में देख लेंगे।
यह खबर तुरन्त ही फेसबुक पर प्रसारित कर दी। इसे देखकर कसडोल के रहने वाले सुनील पाण्डे जी ने आग्रह किया कि सिरपुर आओ तो याद करना। मैंने पूरी यात्रा भर इस आग्रह को याद रखा। हालांकि बाद में समयाभाव के कारण सिरपुर जाना नहीं हो पाया।
मोटरसाइकिल से भिलाई के बीच से निकलते गये। रास्ते में हनुमान मन्दिर पडा। डब्बू ने बताया कि भिलाई रूस द्वारा बसाया नगर है। वे लोग देवताओं को नहीं मानते, इसलिये जब उन्होंने इस मन्दिर को यहां से हटाने की कोशिश की तो उनकी हर कोशिश नाकाम हो गई। यहां अस्पताल बनाया जाना था, अस्पताल में तेज आवाज करना प्रतिबन्धित होता है इसलिये मन्दिर के घण्टे भी प्रतिबन्धित थे। जब हनुमानजी टस से मस नहीं हुए, तो मन्दिर को यथावत रहने दिया गया। डब्बू ने बताया कि आज जब भी अस्पताल में कोई ऑपरेशन होता है, तो डॉक्टर यहां आशीर्वाद मांगने आते हैं।
डब्बू के साथ उनके घर पहुंचे। उनकी कपडों की दुकान है। नीचे गोदाम है और ऊपरी मंजिल पर ठिकाना। वैसे पत्रकार भी हैं, इसलिये बोलने में महारथी हैं। मेरी यात्रा के लिये उन्होंने अपनी कार और एक ड्राइवर का इंतजाम कर दिया था। चलने से ऐन पहले ड्राइवर मुकर गया, इसलिये डब्बू का मूड बिगडना तय था। कार का इंतजाम उन्होंने इसलिये किया क्योंकि मैंने मोटरसाइकिल से चलने से मना कर दिया था। कल पूरे दिन मोटरसाइकिल से ही यात्रा की थी। मैं नहीं चाहता था कि अगले तीन दिनों तक मुझे फिर मोटरसाइकिल पर ही बैठना पडे।
ड्राइवर के मना करने पर जब डब्बू ने कहा कि वो मुकर गया है, चलो मोटरसाइकिल से ही चलते हैं तो मेरे होश उड गये। डब्बू के अनुसार- “नीरज का चेहरा फोटो खींचने लायक हो गया था।” यह सब इतनी जल्दी हुआ कि मैं मना नहीं कर सका। लेकिन जब उन्होंने कार स्टार्ट की तो कुछ जान में जान आई। यह खुशी ज्यादा देर तक नहीं बनी रह सकी जब उन्होंने कहा कि हम रायपुर में कार छोड देंगे और मोटरसाइकिल ले लेंगे।
रायपुर बाइपास के पास पता चला कि हमारे साथ सुधीर तम्बोली भी साथ चलेगा। अब यहां पुनः मुझे कार की उम्मीदें दिखने लगीं। आगे जब सुधीर कार में बैठ गया और डब्बू ने उससे मेरे होश उडने वाली बात बताई तो बडी राहत मिली। अब इतना पक्का हो गया कि डब्बू मजे ले रहा था। यात्रा कार से ही होगी और डब्बू कार चलायेगा।
सिहावा लक्ष्य था। वहां जाने के लिये धमतरी होकर जाना होता है। मैंने गूगल मैप में रास्ता देखा तो दो रास्ते दिखे- एक अभनपुर वाला लम्बा घुमावदार रास्ता, दूसरा सीधा रास्ता। मेरे कहे अनुसार सीधे वाले रास्ते से चल पडे।
करीब पच्चीस किलोमीटर चलने पर एक तिराहा आया। सीधे सडक पाटन जा रही थी और बायें मुडकर धमतरी। मुडते ही स्वागत द्वार दिखा- धमतरी जिले में आपका स्वागत है। डब्बू की घबराई सी आवाज सुनाई पडी- अब हम नक्सली इलाके में घुस रहे हैं।
छत्तीसगढ अपनी नक्सल गतिविधियों के लिये प्रसिद्ध है। अगर कभी सुरक्षा बलों या पुलिस वालों पर हमले की खबर आये तो समझ लेना कि या तो वह जगह कश्मीर है या छत्तीसगढ। आज भी दुर्ग में जब मैंने अखबार पढा तो मुख्य खबर थी- जगदलपुर में बारूदी सुरंग से सुरक्षा बलों की एक गाडी को उडा दिया। फोटो भी था जिसमें गाडी मिट्टी में आधी धंसी हुई थी। घर से फोन आया। जब उन्हें पता चला कि मैं छत्तीसगढ की यात्रा पर हूं, तो उनके भी होश उड गये। उन्होंने बस इतना ही कहा- सम्भलकर रहना।
धमतरी से कुछ पहले एक दुकान पर चाय पी। डब्बू के घर का बना पर्याप्त खाना भी हमारे साथ ही यात्रा कर रहा था। मेरी योजना थी कि जंगल में कहीं अच्छी जगह पर यानी पानी के किनारे बैठकर खाना खाया जायेगा।
धमतरी से करीब तीन चार किलोमीटर पहले अभनपुर से आने वाली मुख्य सडक भी मिल जाती है। गूगल मैप अभी भी साथ था। एक स्थान पर उसने कहा कि अगर सिहावा या मूरमसिल्ली जाना है, तो बायें मुड जाओ। हम नगरी वाली सडक पर बायें मुड गये।
धमतरी से निकले तो डब्बू के पास एक फोन आया। वो सुनील वर्मा जी का फोन था। सुनील भाई छत्तीसगढ के अच्छे ज्ञाता हैं। एक-एक सडक की उन्हें जानकारी है। डब्बू के अनुसार, हमारी यात्रा के आयोजक सुनील भाई ही हैं। ये सभी लोग पत्रकार हैं, इसलिये कार पर भी सामने लिखा था- PRESS. मुझे बस यही बात खतरनाक लग रही थी कि इनकी गाडी पर प्रेस लिखा है। डब्बू ने बताया कि भाई ने यहां के हर थाने और हर नाके में खबर दे रखी है कि हम यहां से गुजरेंगे। तभी तो हमें कहीं नहीं रोका गया। मुझे यह बात अतिश्योक्तिपूर्ण लगी क्योंकि पूरे रास्ते भर मैंने किसी भी बैरियर या नाके पर ट्रकों के अलावा कोई भी गाडी नहीं रुकी देखी। लगने लगा कि डब्बू जानबूझकर ‘अफवाह’ फैला रहा है।
धमतरी से निकलकर जब भाई का फोन आया तो डब्बू उन्हें नहीं बता पाया कि हम कहां हैं। तम्बोली को भी नहीं पता था। मुझे पता था, इसलिये फोन उनके हाथ से छीना और बताया- हम धमतरी से निकल चुके हैं और महानदी के पुल पर पहुंचने वाले हैं। भाई ने निर्देश दिया कि मूरमसिल्ली के लिये आगे एक सडक दाहिने जाती मिलेगी, उसी पर चल देना। मुझे उनके बताने से पहले ही सारा रास्ता अच्छी तरह मालूम था। गूगल मैप जिन्दाबाद।
यह दाहिने वाली सडक आगे नरहरपुर जा रही है जबकि सीधी सडक नगरी। हम नरहरपुर वाली पर चल पडे। कुछ आगे जाने पर एक पतली सी सडक अलग होती दिखी। इसके बराबर में एक पट्ट लगा था- मूरमसिल्ली बांध एक किलोमीटर। गाडी इस पर चल दी।
कुछ दूर जाने पर जब चढाई आई तो डब्बू के हाथ पांव फूल गये। गाडी रोकी और वहीं घूम रहे एक लडके से नरहरपुर का रास्ता पूछा। मुझे यह बात बडी हास्यपूर्ण लगी क्योंकि हम नरहरपुर वाली सडक को भी कुछ सौ मीटर पीछे छोडकर मूरमसिल्ली वाली सडक पर चल रहे थे। लडके ने बताया कि आप नरहरपुर वाली सडक को पीछे छोडकर आ गये हैं। डब्बू ने विस्मय से मेरी तरफ देखा। मैंने कहा कि हमें अभी मूरमसिल्ली बांध जाना है, इससे पूछो कि बांध कितना दूर है। पता चला सामने है।
मूरमसिल्ली बांध सिलियारी नदी पर बना है। यह नदी महानदी की एक सहायक नदी है। इस पर विद्युत उत्पादन तो नहीं होता, लेकिन इसका पानी सिंचाई के काम आता है।
धमतरी के बाद दृश्य में परिवर्तन आ गया था। जब से महानदी पार की है, तब से रास्ता जंगल से होकर निकलने लगा। सडक इतनी शानदार बनी है कि कोई गड्ढा तो दूर गड्ढी तक नहीं दिखी। सडक पर यातायात भी कम ही था। मूरमसिल्ली बांध भी इसी तरह जंगल में मंगल के समान है। पास में मूरमसिल्ली नाम का एक गांव जरूर है। आसपास और भी गांव हैं, लेकिन कोई शहर या कस्बा नहीं। रुकने का तो कोई इंतजाम है ही नहीं। नजदीकी ठिकाना धमतरी है। मोबाइल फोन कभी मिल जाता है, कभी मिलता नहीं।
बांध से कुछ नीचे उतरकर एक पार्क जैसी जगह पर बडे से चबूतरे पर बैठकर अपने बर्तन खोल लिये गये। खाना उदरस्थ किया गया। सब्जी कम थी, इसलिये कुछ चावल बच गये। यह वनभोज यादगार रहा।
डब्बू ने बताया कि इस बांध को यहां मूरमसिल्ली बांध कहते हैं और इसके परले सिरे पर सिहावा है, इसलिये इसी को वहां सिहावा बांध कहते हैं। मुझे पता था कि सिहावा बांध महानदी पर है, जबकि मूरमसिल्ली महानदी पर नहीं है। इसलिये यह बांध सिहावा बांध नहीं हो सकता। मैंने इसका विरोध किया तो डब्बू ने कहा कि मत मान, हम तुझे साक्षात दिखा देंगे। मैंने पुनः विरोध किया कि चाहे आप मूरमसिल्ली में खडे हो या सिहावा में। आपके सामने अथाह जलराशि रहेगी, तो आप कैसे कह सकते हो कि ये दोनों जलराशि एक ही हैं। बोले कि खुद देख लेना।
वापसी में एक किलोमीटर इसी पतली सी सडक पर चले। फिर नरहरपुर वाली सडक आ गई। नरहरपुर की ओर चल पडे। मैं डब्बू के भरोसे ही चला जा रहा था। डब्बू एक नम्बर का वाचाल है और कूप-मण्डूक भी। उनके कूप का नाम है दुर्ग-रायपुर। कूप के बाहर की दुनिया कैसी है, इस बारे में उसे कोई अन्दाजा नहीं है, केवल सुनी सुनाई बातों पर यकीन करता है। ये बातें सच्चाई कम अफवाह ज्यादा होती हैं। उसकी वाचालता का आलम यह था कि जब मैंने कहा कि भाई तुम्हारे अन्दर एक ही कमी है- ज्यादा बोलना तो उसने तपाक से कहा- दुनिया में ऐसी कोई ताकत नहीं है, जो मुझे बोलने से रोक सके।


भिलाई में हनुमान मन्दिर

धमतरी की ओर



मूरमसिल्ली पहुंचने वाले हैं।

डब्बू मिश्रा वनभोज की तैयारी में





मूरमसिल्ली बांध को मोडमसिल्ली भी कहते हैं। बायें से डब्बू मिश्रा, नीरज जाट और सुधीर तम्बोली।








यह है आज का सर्वोत्तम क्लिक। यह बच्चा बडी तेजी से हरकत कर रहा था, हाथ पैर चला रहा था। इसकी मां भी लगातार नजदीक आती जा रही थी। इसलिये बच्चे की गतिविधियों का पूर्वानुमान करते हुए कैमरे का जूम भी लगातार कम करना पड रहा था। आखिरकार यह फोटो हाथ लगा।


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इस नक्शे में A दुर्ग, B रायपुर बाइपास, C धमतरी और D मूरमसिल्ली बांध है। दुर्ग से बांध की कुल दूरी 126 किलोमीटर है। वैसे हम दुर्ग से सीधे धमतरी भी जा सकते थे, लेकिन तम्बोली को रायपुर से लेना था।

अगले भाग में जारी...

छत्तीसगढ यात्रा
1. छत्तीसगढ यात्रा- डोंगरगढ
2. छत्तीसगढ यात्रा- मूरमसिल्ली बांध

डायरी के पन्ने- अप्रैल 2013- प्रथम

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[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली और 16 तारीख को छपते हैं।]

16 मार्च 2013
1.सुबह सात बजे मोबाइल की घण्टी बजी तो आंख खुली। मैं वसन्त विहार स्थित तेजपाल जी के यहां था। फोन नटवर का था जो आज पुरानी दिल्ली स्टेशन पहुंच गया। कई दिनों से हमारी मुलाकात तय थी लेकिन कल जेएनयू से लौटते समय ठण्ड लगने लगी और मैं वसन्त विहार चला गया। मुलाकात को भूल गया। अब मैंने उससे माफी मांगी और नौ बजे तक शास्त्री पार्क पहुंचने का वादा कर दिया। साढे सात बजे जब यहां से चलने लगा तो तेजपाल जी ने रोक दिया कि नाश्ता करके जाना। नाश्ता बनने में चूंकि देर थी, फिर भी अति आग्रह के कारण रुकना पडा और साढे आठ बजे रवाना हो सका। अब साइकिल से निकलता तो दस से ऊपर हो जाते शास्त्री पार्क पहुंचने में इसलिये साइकिल यहीं छोड दी और ऑटो करके हौजखास से मेट्रो पकडकर सवा नौ बजे तक शास्त्री पार्क पहुंच गया।
किसी को अगर आप मिलने का समय देते हैं तो आपको हर हाल में उस समय पर उपस्थित होना ही होना चाहिये। नटवर को आज किसी अन्य मित्र के साथ फिरोजपुर जाना है। डेढ बजे मैं ड्यूटी चला गया और नटवर अपने मित्र के पास कनॉट प्लेस।

17 मार्च 2013
1.आज साइकिल लेने वसन्त विहार जाना था, लेकिन नहीं जा पाया।

19 मार्च 2013
1.पता चला कि बद्रीनाथ तिब्बत स्थित थोलिंग मठ का शाखा मठ था। इसमें स्थित मुख्य प्रतिमा भगवान बुद्ध की है।

20 मार्च 2013
1.नाइट ड्यूटी से निपटकर घर जाने की बजाय मेट्रो पकडी और वसन्त विहार पहुंच गया। साइकिल की बडी कमी महसूस हो रही है। तेजपाल जी घर पर ही थे और ऑफिस जाने की तैयारी कर रहे थे। मेरे जाने के दस मिनट बाद निकल भी गये। उनके निकलते ही उनके लडके हर्षित ने साइकिल की चाबी मांगी और चलाने की इच्छा जाहिर की। मैंने चाबी दे दी। सोचा कि दो चार घण्टे यहीं सो लेता हूं, हर्षित मन भरकर साइकिल भी चला लेगा और मेरी रात्रि सेवा की थकान भी दूर हो जायेगी। आखिर यहां से शास्त्री पार्क करीब पच्चीस किलोमीटर है और डेढ घण्टे लगते हैं।
बारह बजे आंख खुली। आंख तो हालांकि अच्छी तरह लगी ही नहीं थी। इनके घर के पीछे कुछ तोडफोड कार्य चल रहा था, इसलिये बडी जोर जोर की ठोक-पीट की आवाज आने से नींद आई नहीं और भागी भी नहीं। साइकिल लेकर चला तो घण्टे भर में ही पन्द्रह किलोमीटर चलकर इण्डिया गेट पहुंच गया। यहां एक कार की हल्की सी साइड पिछले पहिये पर लग गई। यह इतनी हल्की थी कि मैंने इसे तूल नहीं दिया। लेकिन इसके बाद साइकिल बडी भारी चलने लगी। सबसे पहले दिमाग में आया कि इतने दिन से साइकिल वसन्त विहार में थी तो गिर गिरा पडी होगी और डिस्क ब्रेक का सन्तुलन बिगड गया होगा। तभी ध्यान आया कि आधी दूरी बडी आसानी से तय हुई, अब अचानक ऐसा क्या हो गया कि ब्रेक गडबड कर रहे हैं।
याद आ गया कि कार की साइड लगी थी जिससे डिस्क ब्रेक बिगड गये। आखिर के पांच छह किलोमीटर किस तरह खींचकर लाया, मैं ही जानता हूं। आते ही पिछला ब्रेक खोल दिया। अब साइकिल अगले ब्रेक के भरोसे ही चल रही है। पिछला डिस्क निकलवाकर उसके स्थान पर साधारण ब्रेक लगवाऊंगा।
2.कभी कभी अक्सर ग्रह नक्षत्र अपनी चाल बदल देते हैं। मेरे भी ग्रहों ने उल्टा-पुल्टा चलना शुरू कर दिया और बिना वजह मैं तनाव में आ गया। लग रहा था कि मन में कुछ बात है, जो कचोट रही है। वैसे तो बिना वजह कुछ नहीं होता, इस तनाव की भी एक वजह थी जिसे लिखने का मन नही कर रहा है। उपयुक्त समय आने पर बता दूंगा।
तनाव से मुक्ति के लिये ध्यान लगाया तो कानों में आवाज आई- साइकिल से मत जा, बस से ही चला जा। इसे चमत्कार या फिजूल बात नहीं मानना चाहिये, ध्यान लगाने पर ऐसा अक्सर होता रहता है। मैंने ध्यान लगाया था किस परेशानी से बचने के लिये था लेकिन निर्देश मिल कहां के रहे हैं! वैसे भी पांच छह किलोमीटर अति मुश्किल साइकिल चलाने से पैर दुखने लगे थे, शायद उसी की वजह से यह निर्देश मिला हो। आराम-तलब शरीर आराम ही चाहता है, इसलिये इस आदेश का तुरन्त पालन किया गया और नटवर को सूचना दे दी कि बस से ही चलेंगे। नटवर ने सुनते ही कहा कि भगवान ने मेरी सुन ली।
असल में मैं और नटवर हिमाचल के दौरे की योजना काफी दिनों से बना रहे थे। मेरी जिद थी कि साइकिल से जाऊंगा, नटवर का कहना था कि बस से चलेंगे। मेरी जिद को देखने हुए नटवर ने साइकिल का इंतजाम करने की कोशिशें भी शुरू कर दी थीं, लेकिन वो कभी भी साइकिल के लिये राजी नहीं था। अचानक मेरा यह अप्रत्याशित विचार सुनकर उसे भगवान को धन्यवाद देना ही था।

21 मार्च 2013
1.नाइट ड्यूटी करते ही शाहदरा से सुबह छह बजे वाली ट्रेन पकडी और सीधा मेरठ। कई दिन हो गये थे गांव गये हुए। कल सायंकालीन ड्यूटी है तो आज दिनभर और पूरी रात घर पर रहूंगा।
2.घर में कुछ निर्माण कार्य होना है लेकिन ईंटें बहुत महंगी हैं- 4800 रुपये प्रति हजार। अप्रैल में भट्टे चलेंगे तो ईंटों के दाम गिरेंगे। तब निर्माण कार्य छेडेंगे।

22 मार्च 2013
1.बस से दिल्ली लौट आया। मेरठ शहर में पानी की पाइप लाइन बिछने के कारण दिल्ली जाने वाली बसें बाइपास से जाती हैं, तो इससे मेरा भला हो जाता है। बुरी बात ये है कि उस समय कोई ट्रेन नहीं है जो दो बजे तक दिल्ली पहुंचा दे। हालांकि ग्यारह बजे एक ट्रेन है जिसके लिये दस बजे घर से निकलना पडता है। मैं ग्यारह बजे ही घर से निकलता हूं। दो बजे तक शास्त्री पार्क पहुंच गया। साथ में तीन किलो शक्कर भी लाया।

23 मार्च 2013
1.तरुण गोयलसे बात हुई। उन्होंने पिछले साल अप्रैल में स्थानीय लोगों के साथ रोहतांग दर्रे को पैदल पार किया था, जबकि इसके खुलने में अभी हप्तों की देरी थी। रोहतांग दर्रा अक्सर मई में खुलता है। पता चला कि इस बार भी उनका इरादा रोहतांग पार करने का है। उन्होंने बताया कि अभी हिमाचल में मौसम खराब है। अगले दो दिनों में मौसम खुलने के आसार हैं। मौसम ठीक होते ही स्थानीय लोग दर्रे को पार करना शुरू कर देंगे।
मेरा भी मन डोलने लगा है इस बात को सुनकर। हालांकि नटवर और प्रशान्त के साथ अप्रैल के शुरू में करसोग घाटी भ्रमण की बात पक्की हो चुकी है। प्रशान्त ने कह रखा है कि पैदल पहाड की चढाई बस की बात नहीं है, लेकिन कोशिश करके देखूंगा। नटवर पहाड पर पहली बार चढने जा रहा है। अगर करसोग रद्द करके मैं रोहतांग जाने लगा तो किसी भी हालत में नटवर को मनाली से आगे नहीं बढने दूंगा। नटवर मुझे गालियां देगा। गालियां मंजूर।

25 मार्च 2013
1.विपिन गौडसे बात हुई। वे हमारे साथ लगभग दो साल पहले श्रीखण्ड महादेवकी यात्रा पर गये थे। पता चला कि इस बार इनका इरादा साइकिल से लद्दाख जाने का है। कुछ दिन पहले तक मेरा भी यही इरादा हुआ करता था, लेकिन अब मैं अपने इस इरादे से पीछे हटने लगा हूं। गौड साहब ने पूछा कि मैं कब जाऊंगा। मैंने मना कर दिया तो उकसाने लगे। उकसावे में आकर मैंने कह तो दिया लेकिन साथ ही यह भी जोड दिया कि आप अपनी तैयारी करते रहना, मेरा हिसाब बनेगा तो चल पडूंगा। नहीं बनेगा तो नहीं जाऊंगा।
वैसे अभी भी मेरा इरादा साइकिल चलाने का कतई नहीं है। दिवाली पर बोनस मिला था, तो पता नहीं कौन से नक्षत्र खराब थे कि चौदह हजार लगाकर यह साइकिल ले ली। साइकिल क्या ले ली, सफेद हाथी पाल लिया। एक दो यात्राओं में ही इतना अनुभव हो गया है कि अगली यात्रा के लिये मन नहीं करता।
गौड साहब के साथ कुछ महीनों पहले एक दुर्घटना हो गई थी। उनके एक पैर में भयंकर चोट आई। कई दिनों तक बिस्तर पर भी रहे। अब इनका साइकिल से लद्दाख जाना वाकई काबिले सलाम है।
2.रात दस बजे तरुण गोयल साहब का सन्देश आया कि टांडी और केलांग में डेढ फीट बर्फ गिरी है और रोहतांग पर तीन चार फीट। अगले चार पांच दिनों तक मौसम खुलने के आसार भी नहीं हैं। रोहतांग यात्रा अप्रैल के पहले सप्ताह के बाद ही शुरू हो पायेगी। यह समाचार सुनकर मैंने इरादा बना लिया कि रोहतांग नहीं जाऊंगा, करसोग ही चला जाता हूं। कम से कम नटवर की गालियों से तो बच जाऊंगा।

26 मार्च 2013
1.सुबह सात बजे ड्यूटी पहुंचा। प्रातःकालीन सेवा करने वाले सभी कर्मचारियों के मस्तक पर पीत तिलक लगा देखकर पता चल गया कि यह कल की चेतावनी है। आज होली है और कल दुल्हैंडी। पीत तिलक का कर्ता धर्ता चन्द्रप्रकाश था। देखते ही होली मुबारक कहते हुए मुझे भी तिलकधारी बना दिया।
2.मार्च में मैंने एक भी अवकाश नहीं लिया। साप्ताहिक अवकाश भी नहीं। ये सारे के सारे अवकाश अप्रैल आते ही इकट्ठे लूंगा। आठ दिन की छुट्टियां बन जायेंगी। अप्रैल साल का एक ऐसा मनहूस महीना होता है कि उत्तरी मैदानों से लेकर कन्याकुमारी तक गर्मी परेशान करती है, हरियाली न्यूनतम रहती है और पहाडों के ऊंचे इलाके बर्फ की वजह से बन्द रहते हैं। दो हजार मीटर से ऊपर जाने पर अच्छा लगता है लेकिन तीन हजार मीटर तक पहुंचना बहुत मुश्किल होता है- बर्फ की वजह से। मई से ट्रैकिंग यथावत शुरू हो जायेगी।
सोच रहा हूं कि अप्रैल की आठ छुट्टियों में नेपाल चला जाऊं। नटवर को नेपाल के लिये सूचित कर दिया। उसने खुश होते हुए कहा कि हमारे पंडितजी ने भविष्यवाणी की है कि मैं अगले महीने विदेश यात्रा करूंगा। उनकी भविष्यवाणी सत्य होती जा रही है। इधर मेरा पण्डितों और भविष्यवाणियों पर कतई विश्वास नहीं है। भविष्यवाणी की बात सुनते ही दिमाग खराब हो गया और ठान लिया कि बेटा नटवर, मेरे रहते अब जाकर दिखाना तू विदेश।
सीधे मना करने की बजाय मैंने कहा कि भाई, ट्रेन देख। जिस गाडी में भी आरक्षण मिल जायेगा, उसी से निकल पडेंगे। महाराज ने दो मिनट में ही जवाब दिया कि दिल्ली से गोरखपुर के लिये दो गाडियों में जगह खाली है। मेरा दिमाग फिर खराब कि बिहार रूट पर हफ्ते भर के भीतर, वो भी होली के तुरन्त बाद ऐसी कौन सी गाडियां हैं, जिनमें जगह खाली है। उसने बताई दोनों स्पेशल गाडियां। स्पेशल यानी जो बिहारियों के लिये चलाई जाती हैं और बिहारी ही उनमें यात्रा करना पसन्द नहीं करते। मैंने तुरन्त कहा कि भूल जा इन गाडियो को। अगर दो तारीख को इनका चलना निर्धारित है तो ये तीन तारीख को चलेंगी। मैंने बोला तो झूठ ही था लेकिन पण्डितजी को झूठा बनाने के लिये कुछ भी करूंगा।
सोच लिया है कि नटवर के पण्डत के लिये करसोग ही जाऊंगा। नटवर को विदेश नहीं जाने दूंगा। वैसे नेपाल जाने के लिये मेरी योजना थी नेपालगंज के रास्ते। बरेली से दो तारीख की शाम को चलने वाली गोकुल एक्सप्रेस में सात शायिकाएं खाली थीं। नानपारा उतरकर नेपालगंज है ही कितना दूर? और दिल्ली से बरेली है कितना दूर?
3.यहां मेट्रो के स्टाफ क्वार्टरों में भी होली की धूम है। हमारे ही क्वार्टर के नीचे होलिका दहन की तैयारी हो चुकी है। डीजे भी है। शाम आठ बजे डीजे ने चीखना शुरू किया। अब साढे ग्यारह बज गये हैं। तभी से लगातार चीखता जा रहा है। शुरूआत में छोटे छोटे बच्चे नाच रहे थे, अब बडी बडी ‘नृत्यांगनाएं’ भी उछल-कूद कर रही हैं। समझ में नहीं आता कि इस कानफोडू संगीत का क्या मतलब? अगर ध्वनि-तीव्रता कुछ कम हो जाती तो अच्छा भी लगता। सुबह छह बजे से ड्यूटी है, भयंकर संगीतज्ञों की वजह से नींद मीलों दूर है।
और हां, अभी भी होलिका दहन नहीं हुआ है। सारा भारत होली फूंक-फांककर सो चुका है, ये लोग पता नहीं कब फूंकेंगे और कब सोयेंगे। हां, याद आया। इन फूंकने वालों की कल छुट्टी है।

27 मार्च 2013
1.छह बजे आंख खुली। आज दुल्हैंडी है यानी सरकारी कार्यों के लिये आज होली है। भारत के दो महान त्यौहारों में से एक। आंख मलता मलता बालकनी में गया। सामने सूरज निकलता दिखाई दिया। वो भी होली के रंगों में लाल-पीला हो चुका था। इधर हमारे लाल-पीले होने में अभी घण्टे भर की देर है, सूरज महाराज निकलने से पहले ही रंगीन हो गये।
2.सात बजे ऑफिस पहुंचा। जाते ही रात्रिसेवकों ने रंग दिया। वे गये तो प्रातःसेवक आ गये, फिर रंगा गया। कुछ केले, अंगूर व नमकीन भी आ गये। रंग का दौर पन्द्रह मिनट ही चला, उसके बाद खाने का दौर शुरू हुआ। एक आदर्श देशप्रेमी का दायित्व निर्वाह करते हुए मैंने घोषणा कर दी कि आज शुष्क होली खेली जायेगी। सभी आदर्श देशप्रेमी निकले। पानी की एक बूंद बर्बाद हुए बिना होली मनी। हां, बाद में मुंह धोने के लिये पानी जरूर आवश्यक था।
3.यूथ हॉस्टल की एक मेल आई जिसमें याद दिलाया गया था कि भाई, पहली मई को सौरकुण्डी पास की ट्रेकिंग में आ जाना। इस ट्रेकिंग के साढे तीन हजार रुपये जा चुके हैं। चार दिन का ट्रैक और ग्यारह दिन लगेंगे। इस प्रकार यह समय की भारी बर्बादी है। हालांकि मुझे सरकारी कर्मचारी होने के नाते स्पेशल छुट्टियां मिलेंगी लेकिन फिर भी है तो समय की बर्बादी ही। उधर मेरी दूसरी राय यह है कि मैं एकान्तप्रेमी घुमक्कड हूं। अगर इस ट्रेक पर जाऊंगा तो चालीस लोगों के साथ एक टीम लीडर के निर्देश पर चलना पडेगा। यूथ हॉस्टल के ट्रेक बिल्कुल नौसिखियों के लिये होते हैं। दो ट्रेक करने वाले को टीम लीडर बना दिया जाता है। इस प्रकार जो भी टीम लीडर या कैम्प लीडर होगा, वो मुझसे कम अनुभवी ही होगा। कम अनुभवी लोगों की उंगलियों पर नाचना मेरे बस की बात नहीं। होली के बाद इस ट्रेक को रद्द कराऊंगा। अठारह सौ रुपये का नुकसान जरूर होगा, लेकिन कम से कम सात दिन तो बच जायेंगे। ग्यारह दिन का ट्रेक है, अपने बल पर चार दिन में कर सकता हूं।
बाकी आलस जिन्दाबाद। देखते हैं कि होली के बाद आलस महाराज रद्द कराने का काम करने देते हैं या नहीं।

28 मार्च 2013
1.दस्त लग गये। घर से कुछ दिन पहले जो शक्कर लाया था, उसे दूध में घोलकर पीने लगा, दस्त लगने ही थे। अस्पताल जाने की कोई आवश्यकता नहीं, शक्कर लेना कम कर दूंगा। वैसे दूध में नीचे जो अधघुली शक्कर बच जाती है, उसे चम्मच से खाने का आनन्द ही अलग है।
2.‘कादम्बिनी’ से राजीव कटारा जी का फोन आया। उनका आग्रह था कि मैं ‘कादम्बिनी’ के मई अंक के लिये एक लेख लिखूं। मई अंक पर्यटन विशेषांक बनने जा रहा है। उनके आग्रह को तुरन्त मानते हुए रूपकुण्ड यात्रा लिखकर भेज दी। इस साल सितम्बर में नन्दा देवी राजजात यात्रा होने जा रही है, तो रूपकुण्ड से बेहतर और क्या हो सकता है?
3.अप्रैल में आठ दिन की छुट्टियां लेनी ही लेनी पडेंगी। सोच रहा हूं कि चार-चार दिन के दो खण्डों में लूं। कभी दिमाग में आता है कि आठ दिन की इकट्ठी ही ले लूं।

29 मार्च 2013
1.कौरवी बोली यानी मेरठ के आसपास बोली जाने वाली बोली हिन्दी की मूल बोली है। भाषा-मर्मज्ञों ने इस बात को स्वीकार किया है। मेरठी होने के कारण मुझे भी इस बात का गर्व महसूस हो रहा है।
2.मौसम अच्छा रहा। दिन में तो सोता रहा, शायद बारिश भी हुई हो। अप्रैल आने वाला है, दिल्ली में इस महीने में बडी भयंकर गर्मी होना शुरू हो जाती है। लेकिन अभी भी मौसम फरवरी वाला ही है।
3.आज आठ दिन की छुट्टियां लगा दीं। चूंकि मैंने मार्च में एक भी छुट्टी नहीं ली, यहां तक कि साप्ताहिक अवकाश भी नहीं, इसलिये वे सारे के सारे अवकाश अप्रैल में लेना मेरा हक बनता है। छुट्टी पत्र पर जाने का स्थान मण्डी दिखाया।

30 मार्च 2013
1.सुबह सुबह अखबार में देखा कि हिमाचल में जलवृष्टि, ओलावृष्टि और हिमवृष्टि जोरों पर है। ऐसे में यात्रा बडी मुश्किल होती जा रही है। मैं अप्रैल को यात्रा की दृष्टि से मनहूस महीना कहता हूं। इसका कारण यही है कि 2000 मीटर से लेकर 2500 मीटर तक के बीच में ही घुमक्कडी की जा सकती है। 2000 से कम पर गर्मी लगती है और 2500 से ज्यादा पर बर्फ मिलने लगती है, रास्ता बन्द रहता है। अगर यात्राओं में मौसम के अनुकूल न चला जाये, तो यात्रा का आनन्द कम हो जाता है।
2.सहकर्मी संजय यादव को 7 से 14 अप्रैल तक छुट्टियां लेनी हैं, उधर मेरी छुट्टियां 3 से 10 अप्रैल तक की हैं। यानी 7 से 10 तक की छुट्टियां हम दोनों की हैं। मुझे छुट्टियां मिलनी ज्यादा जरूरी हैं क्योंकि मैंने पूरे मार्च भर कार्य किया है। अगर मेरा साप्ताहिक अवकाश रद्द होता है तो महीने भर के अन्दर मुझे उसके बदले छुट्टी लेनी पडेगी। मेरे मार्च के अवकाश रद्द न हों, इसलिये अप्रैल में मुझे छुट्टियां लेनी ही लेनी हैं। मेरी छुट्टियों के कारण संजय की छुट्टियां खटाई में पडने लगीं तो उन्होंने आग्रह किया कि भाई, मुझे बेहद आवश्यक काम के लिये छुट्टियां लेनी हैं। कुछ दया कर।
मैंने दया कर दी और अपनी आखिरी चार छुट्टियां पन्द्रह दिन आगे खिसका दीं। अब मैं 3 से 6 अप्रैल की छुट्टियां लूंगा। बाकी चार छुट्टियां अप्रैल के आखिरी पखवाडे में। हिमाचल में आठ दिन बिताने भारी लग रहे थे, अब चार-चार दिन दो बार बिताने उतने भारी नहीं होंगे।

31 मार्च 2013
1.सुबह ही दरवाजे पर डट गया। हर महीने के अन्तिम इतवार को दैनिक जागरण का यात्रा परिशिष्ट निकलता है। मैंने 14 मार्च को इसके लिये एक लेख भेजा था। हमारे यहां वैसे तो रोज दैनिक जागरण ही आता है, लेकिन अखबार वाला कभी कभी दूसरे अखबार भी दे जाता है। आज वो दूसरा अखबार न डाल कर चला जाये, इसलिये दरवाजे पर डटना पडा। आधे घण्टे बाद जब अखबार आया तो निराश होना पडा। मेरा लेख इसमें नहीं छपा था। लेख की गुणवत्ता कमजोर थी, ऐसा नहीं है बल्कि यह लेटलतीफी का पुरस्कार था। मुझे महीने के शुरू में ही लेख भेज देना था लेकिन जिसका मन्त्र ही ‘आज करे सो काल कर’ हो, उससे उम्मीद भी क्या की जा सकती है? अगले महीने की प्रतीक्षा शुरू हो गई है।
2.नटवर का फोन आया। उसने यात्रा का रूट पूछा। मैंने बता दिया लेकिन रूट से क्या होता है? आप नक्शे में देखकर मार्ग का अनुमान लगा लोगे बस। लेकिन असली चीज है मौसम। मैंने सलाह दी कि घोर सर्दियों में पहनने लायक गर्म कपडे और रेनकोट जरूर ले लेना। राजस्थानी के लिये रेनकोट आश्चर्य की चीज होती है, नटवर ने भी आश्चर्य किया। मैंने जोर दिया, तब जाकर वो रेनकोट के लिये राजी हुआ।
कल मैंने उससे स्लीपिंग बैग के लिये मना कर दिया था, लेकिन आज सहमति दे दी। जंजैहली से चलकर गिरते पडते बर्फ से होकर जब शिकारी देवी पहुंचेंगे तो आगे कमरुनाग के लिये कूच करने की हिम्मत नहीं बचेगी। इसलिये मन्दिर की धर्मशाला में स्लीपिंग बैग जीवनदायी सिद्ध होगा। मुझे उम्मीद है कि शिकारी देवी के आसपास रहने की सुविधाओं के बावजूद भी हमें सुविधाएं नहीं सकेंगीं। कारण मौसम और बर्फ।
3.सिद्धान्त की एक मिस्ड काल आई। सिद्धान्त मेरे साथ दो साल पहले केदारनाथ गया था और मैराथन धावक है। मिस्ड काल का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि वो शिकारी देवी चलना चाह रहा हो। अगर ऐसा है तो हमारी धीमी चाल की वजह से उसके लिये और उसकी तेज चाल की वजह से हमारे लिये परेशानी वाली बात होगी। अगर वो जाना ही चाहता है तो मेरे पास मना करने का कोई कारण भी नहीं है। इसलिये मिस्ड काल का मैंने कोई जवाब नहीं दिया। क्षमा करना सिद्धान्त भाई।

छत्तीसगढ यात्रा- विश्वामित्र आश्रम और कर्क ऋषि आश्रम

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घोर जंगल और फोन नेटवर्क गायब। हम नरहरपुर की तरफ बढते जा रहे थे। मुझे अभी तक मालूम नहीं था कि हमें आज कहां रुकना है। अब जब फोन नेटवर्क काम करना बन्द कर चुका तो डब्बू को सुनील भाई से निर्देश मिलने बन्द हो गये। बल्कि कहना चाहिये कि ये निर्देश नहीं, रास्ते की जानकारी होते थे। डब्बू का बस चलता तो वो हर तिराहे चौराहे पर गाडी खडी करके भाई से पूछता। भाई को इलाके के चप्पे चप्पे की जानकारी है, वे समझ जाते कि हम कहां खडे हैं।
पता चला कि आज हमें कर्क ऋषि आश्रम में रुकना है। लेकिन रास्ते में पडने वाले विश्वामित्र आश्रम को भी देखना है। फोन तो मेरा भी काम नहीं कर रहा था, इसलिये मैं भी कुछ सहायता करने में नाकाम था। लेकिन सोच लिया कि अबकी बार जब भी भाई से बात होगी, तो मैं करूंगा। डब्बू भले ही छत्तीसगढ का रहने वाला हो, सडकों की जानकारी मुझसे ज्यादा नहीं है। और डब्बू को छत्तीसगढ का कहना भी बहुत बडी गलती करना है, वो दुर्ग शहर का रहने वाला है। तम्बोली भी इस विद्या में ठहरा हुआ ही है।
जंगल में एक पट्ट मिला। जिस पर सूचना थी कि दाहिने वाली सडक नरहरपुर जायेगी। लेकिन कहीं भी दाहिने वाली सडक दिख नहीं रही थी। मेरे अनुभव और अनुमान थे कि हमें आगे बढते रहना चाहिये, आगे कोई तिराहा मिलेगा, जहां से दाहिने वाली सडक नरहरपुर जायेगी। सडक न देखकर डब्बू घबरा गया। कहने लगा कि यहां कोई तिराहा नहीं है, और पट्ट तिराहे का लगा है। जरूर यह नक्सलियों का काम है। डब्बू के अनुसार हम खतरे में थे।
एक राहगीर से पूछा तो वही बात सामने आई, जो मैं सोच रहा था। हम आगे बढे। एक किलोमीटर के बाद ही वो तिराहा आ गया और सुरही गांव भी। और हां, नेटवर्क भी। तुरन्त भाई को बताया गया कि हम सुरही में तिराहे पर हैं और हमारे सामने एक नाका भी है। भाई तुरन्त समझ गये। उन्होंने हमें इसी गांव में एक परिचित का नाम भी बताया जो हमें विश्वामित्र आश्रम ले जायेगा। परिचित की भाई से पहले ही बात हो चुकी थी, मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई।
चाय का आग्रह हुआ। हमने यह कहकर टाल दिया कि आश्रम से लौटकर पीयेंगे। इस गांव से निकलते ही हमें नरहरपुर वाली सडक छोडकर एक कच्चे रास्ते पर गाडी बढानी पडी। ज्यों ज्यों आगे बढते गये, रास्ता खराब होता गया। गाडी छोड देनी पडी और पैदल चले।
यह इलाका सप्त ऋषि मण्डल कहलाता है। यहां पौराणिक काल के सात ऋषियों के आश्रम बताये जाते हैं। यहां से दुधावा ज्यादा दूर नहीं है। दुधावा क्षेत्र ही सप्त ऋषि मण्डल है। हमारे सामने घने जंगल में विश्वामित्र आश्रम है। फूस की एक कुटिया और उसमें रहते एक बूढे बाबाजी। बस यही आश्रम है। आश्रम से करीब आधा किलोमीटर पहले ही डब्बू ने कहा कि अब हम आश्रम में पहुंचने वाले हैं। उसे इसका अनुभव होने लगा था।
सप्त ऋषि मण्डल एक आध्यात्मिक क्षेत्र भी है। जहां इतने ऋषि मुनि तपस्या करते हों, वह स्थान आध्यात्मिक शक्तियों से समृद्ध हो ही जायेगा। दूसरी बात कि डब्बू भी अध्यात्म का घोर समर्थक है। बल्कि कहना चाहिये कि वो सिद्ध पुरुष है। डब्बू के गुरूजी हैं स्वामी कृष्णानन्द जी। उनकी शरण में जाकर डब्बू ने समाधि के अनुभव ले रखे हैं।
यहां विश्वामित्र की सीमा में आते ही डब्बू को अनुभव होने ही थे। मैं और तम्बोली एक से थे। अध्यात्म को मानते तो हैं लेकिन कभी प्रयोग नहीं किया। डब्बू ने यहां कुछ देर ध्यान लगाया। ध्यान से उठकर कहने लगा कि यह स्थान बडा शक्तिशाली है।
जंगल के बीच में यह स्थान रमणीय तो है ही। बाबाजी से बात की तो हिन्दी छत्तीसगढी के मिश्रण में उन्होंने जो भी कुछ कहा, वे दुनिया के सबसे आनन्दमय इंसान नजर आ रहे थे।
वापस कार के पास आये तो संकरे और कच्चे रास्ते पर कार नहीं मुड सकी। उल्टे एक गड्ढे में फंस जरूर गई। इसे निकालने के चक्कर में मेरी चप्पल भी टूट गई। बडी जोर जबरदस्ती करके कार निकली और वापस मुडी।
गांव से हम जिस लडके के साथ विश्वामित्र आश्रम तक गये थे, उनके घर में कुछ देर बैठे, चाय पी। अंधेरा हो गया था। हमने आगे का रास्ता पूछा तो उन्होंने दो रास्ते बता दिये। एक तो नरहरपुर होते हुए जामगांव तक घुमावदार रास्ता और दूसरा सीधे जामगांव तक ग्रामीण रास्ता। हमने सीधे वाले रास्ते से जाने की सोची। और नरहरपुर वाले रास्ते को छोडकर हम सीधे निकल पडे।
यह रास्ता भले ही सीधा हो लेकिन हर पांच छह किलोमीटर के बाद पूछताछ करनी पडती है। कहीं कहीं तो कच्ची सडक से भी चलना पडा।
डब्बू चुप बैठना तो जानता ही नहीं है। मुझे उसके बोलते रहने से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन वो जिस तरह ‘अफवाहें’ फैलाता है, उससे मुझे आपत्ति है। पूरे रास्ते भर वो नक्सलवादियों की बातें करता आया। उसकी जीभ पर ‘यह इलाका घोर नक्सलाइट इलाका है’ वाक्य हमेशा तैयार रहता था। गांवों के लोग अगर सडक किनारे बैठे गाडी की तरफ भी देखते तो कहता- देखो, ये लोग पक्के नक्सली हैं। इनका बहुत शक्तिशाली नेटवर्क है। हम यहां से गुजर रहे हैं, उस बात की इन्हें पहले से ही जानकारी है और आगे तक सबको यह भी पता है कि हम कहां पहुंच गये।
एक गांव में अन्धेरा था, कुछ घरों में बत्तियां जल रही थीं। दो तीन लोग सडक पर टॉर्च लेकर आते जाते मिले। डब्बू ने कहना शुरू कर दिया- ये लोग नक्सली हैं। टॉर्च से ये एक दूसरे को संकेत भेजते हैं। देखना कि हमें जंगल में टॉर्चें जलती मिलती रहेंगी। मैंने विरोध किया कि गांव में बिजली नहीं है, इसलिये आने जाने में इनके लिये टॉर्च जरूरी है। दिल्ली के पास स्थित हमारे गांव में भी जब लाइट चली जाती है, तो हम भी टॉर्च लेकर चलते हैं। डब्बू ने तुरन्त मेरी बात काटी- नहीं, गांव में बिजली है। कुछ घरों में बत्तियां जली थीं।
जिस घर में हमने चाय पी थी, उन्होंने परचून की दुकान भी खोल रखी थी। घर की स्वामिनी ने कहा कि यहां किसी बात का डर नहीं है। कोई रात के बारह बजे भी कुछ लेने के लिये दरवाजा खटखटाता है, तो हम बेफिक्र होकर दरवाजे खोल देते हैं और सामान दे देते हैं। बाद में इस बात को डब्बू ने इस तरह बिगाडा- यह नक्सली इलाका है। अगर वे दरवाजा नहीं खोलेंगे तो अगले ही दिन उन्हीं का घर उडा दिया जायेगा।
मैंने विरोध किया कि भारत के हर राज्य के दूर दराज के गांवों में आज भी यही प्रथा है कि जरुरत के समय पूरा गांव एक साथ होता है, चाहे दिन हो या रात हो। मैंने राजस्थान से लेकर उत्तराखण्ड और हिमाचल तक के गांव देख रखे हैं और उनमें तथा यहां छत्तीसगढी गांव में कोई अन्तर नजर नहीं आ रहा। वहां भी अगर खाली सडक पर कोई गाडी गुजरती है तो गांव के लोग देखते ही हैं। आधी रात को भी किसी घर का दरवाजा खटकटा दो तो वो घर आपके स्वागत के लिये तैयार है। अगर ये ग्रामीण नक्सलियों के डर से ऐसा करते हैं, तो वे लोग क्यों करते हैं ऐसा ही बरताव?
जब मैंने पूरे भारत के गांवों को एक सा बना दिया और डब्बू से कहा कि तुम अब के बाद नक्सलियों का कोई भी जिक्र नहीं करोगे। तुम बिल्कुल झूठी, मनगढंत और आधारहीन बात कर रहे हो, अफवाह फैला रहे हो। असल में तुम पहली बार दुर्ग रायपुर से बाहर निकले हो, इसलिये बेहद डरे हुए हो।
यह सुनकर डब्बू चुप तो नहीं हुआ, बल्कि मेरे ही शस्त्रों को मेरे खिलाफ चला दिया- हां, मैं सुबह से यही तो कहता आ रहा हूं। तुम बडे मन्दबुद्धि हो कि अब जाकर बात समझे। असल में कोई जब बाहर से आता है तो छत्तीसगढ के बारे में यही राय लेकर आता है कि यह प्रदेश नक्सली प्रदेश है। इसी वजह से यहां पर्यटन नहीं है, रोजगार नहीं है। हम चाहते हैं कि हमारे राज्य की छवि सुधरे। यह ऐसा राज्य नहीं है, जैसा कि बाहरी लोग समझते हैं। मैं तुम्हें यही दिखाने की कोशिश कर रहा हूं। आगे जाकर मैं हर बात को विस्तार से समझाता जैसे कि वे लोग टॉर्च लेकर क्यों घूम रहे थे। वे जंगल में टट्टी करने जा रहे थे। हा हा हा।
मेरी उम्र भले ही ज्यादा न हो लेकिन मैंने भी घाट घाट का पानी पी रखा है, हर तरह के लोगों से मिलना जुलना होता है। सामने वाला किस मानसिकता का है, यह सब जानता हूं। डब्बू असल में खुद डरा हुआ था। राजधानी में रहकर ये पत्रकार लोग सरकार को नक्सलवाद के आधार पर घेरते हैं, आज राजधानी से बाहर निकलना पडा तो पसीने छूटने ही थे।
बाद में दुर्ग लौटने पर सुनील भाई से मैंने सबसे पहले यही कहा कि डब्बू को बाहर की दुनिया की कुछ भी जानकारी नहीं है। उसे बाहर भेजते रहा करो। बाहर की दुनिया कैसी है, इसकी जानकारी उसे होनी जरूरी है।
रात के दस बजे तक हम चांदनी चौक नामक गांव में पहुंच गये। यहां से कर्क आश्रम करीब एक किलोमीटर दूर ही है। वैसे तो सडक बनी है लेकिन कच्ची है। आश्रम से सौ मीटर पहले ही सडक पर एक गहरा गड्ढा आया जिसके कारण गाडी वापस मोडनी पडी। हमें मालूम भी नहीं था कि सामने आश्रम है क्योंकि जंगल घना था, दूसरे यहां एक छोटी सी पहाडी भी है। वापस चांदनी चौक गांव में पहुंचे। फोन फान हुए, तब आश्रम से एक बन्दा आया। गाडी गांव के बाहर हनुमान मन्दिर के पास खडी कर दी और पैदल आश्रम पहुंचे।
यहां बडा ही अजीब नजारा था। एक आदमी पूजा की थाली लिये खडा था, एक लोटा लिये था, बाकी उनके पीछे खडे थे। हमारे पैर धोये गये, पैर छुए गये, आरती उतारी गई, तब जाकर आश्रम में प्रवेश हुआ। बाद में पता चला कि किसी आगन्तुक के लिये यहां ऐसा ही होता है। पैर धोने वाले आश्रम के नियमित कर्मचारी नहीं बल्कि गांव का मुखिया था।
करीब दो घण्टे से हमारे बारे में ‘अब आये, अब आये’ की बात हो रही थी। हमें भी दो घण्टों से लग रहा था कि अबके झटके में आश्रम पहुंच जायेंगे, लेकिन हर बार कहीं तिराहे की तो कहीं चौराहे की समस्या आती रही।
आश्रम के संचालक एक बाबाजी हैं। डब्बू के अनुसार उनका नाम शिवेश्वरानन्द जी महाराज है लेकिन उन्हें गुरूजी कहूंगा। उनका आश्रम में एक अलग कमरा है। उनके कमरे के सामने एक ऊंचे चबूतरे पर हमारे बिस्तर लगे थे। हम बिस्तरों पर जा बैठे। गुरूजी भी अपने कमरे के सामने बैठ गये। वार्तालाप शुरू हो गया।
रायपुर के पास एक स्थान है- राजिम। यहां भी कुम्भ का आयोजन शुरू हो गया है। कहते हैं कि जब देव-दानव युद्ध हो रहा था अमृत की वजह से तो चार नहीं बल्कि पांच जगह वो अमृत छलका था। चार स्थान तो नासिक, उज्जैन, इलाहाबाद और हरिद्वार हैं ही, पांचवां राजिम है। मेरी यात्रा के दौरान राजिम में कुम्भ चल रहा था।
अब गुरूजी और कुछ अन्य लोगों की कोशिश है कि कुम्भ को राजिम से हटाकर यहां कर्क आश्रम में लाया जाये। इन्होंने पुराणों को खंगालकर निष्कर्ष निकाला है कि कर्क आश्रम यानी सिहावा क्षेत्र ही वो स्थान है जहां अमृत की पांचवीं बूंद गिरी थी। गुरूजी ने खूब लम्बी चौडी पुराण-कथा भी सुनानी शुरू कर दी।
मैं पुराणों पर बिल्कुल भी यकीन नहीं करता हूं। जिस तरह आज पुस्तकें लिखी जाती हैं, आज से पांच हजार साल पहले भी पुस्तकें लिखी जाती थी। तब भी आज की तरह लेखक होते थे। बोलचाल की भाषा संस्कृत थी, तो जाहिर है कि पुस्तकों की भाषा भी संस्कृत ही होगी। उन्हीं संस्कृत की कहानियों को आज हम पुराण कह देते हैं। अगर प्रेमचन्द उस जमाने में हुए होते तो उनकी एक पुस्तक का नाम होता- गोदानपुराण।
मेरी प्रवृत्ति विरोध करने की है तो आदत से लाचार होकर मैंने इनके यहां कुम्भ आयोजन पर भी विरोध किया- यह स्थान इतना रमणीय है, अभी यहां कुदरत से कुछ भी छेडछाड नहीं हुई है, यह तपोवन है तो फिर क्यों इसे लक्ष्मीवन बनाने पर तुले हो? अगर कोई यहां कुम्भ जैसी बात करे तो आपको तो उसका विरोध करना चाहिये।
बोले कि छत्तीसगढ बडा गरीब है। यहां बेचारे आदिवासी रहते हैं। साक्षरता नहीं है, बेरोजगारी है। इसी कारण यह इलाका नक्सल प्रभावित है। अगर यहां ऐसा कुछ होने लगा तो इसके भाग्य खुल जायेंगे। बाहर से लोग आयेंगे तो स्थानीय लोगों की आय बढेगी।
मैंने कहा कि राजिम में इतने सालों से कुम्भ हो रहा है, वो राजधानी के पास भी है, वहां तक रेल भी जाती है। लेकिन फिर भी राजिम छत्तीसगढ से बाहर नहीं निकल पाया है। छत्तीसगढ से बाहर केवल एक ही चीज बाहर निकल सकी है- चित्रकूट जलप्रपात। तो आपको कैसे लगता है कि यह कर्क आश्रम जहां अभी तक भी रुकने ठहरने का कोई इंतजाम नहीं है, सडक भी नहीं है, कैसे छत्तीसगढ से बाहर निकल सकेगा? राजिम से प्रतियोगिता मत कीजिये। इसे इसी के बल पर विकसित करने की कोशिश कीजिये। एक बाहर का आदमी आयेगा, उसका पैसा किस तरह आदिवासियों के घरों में पहुंचेगा, इस बात को सोचिये, ना कि कुम्भ। डोंगरगढ को तो छत्तीसगढ की वैष्णों देवी कहा जाता है, वो मुम्बई-हावडा लाइन पर है। छोटी बडी ज्यादातर गाडियां वहां रुकती भी हैं। वो भी छत्तीसगढ से बाहर नहीं निकल सका। दिल्ली और उत्तर में तो उसके बारे में कोई जानता भी नहीं। आवश्यकता है पर्यटकों और घुमक्कडों के लिये ठहरने के पुख्ता इंतजाम करने की। इस आश्रम के बल पर यहां कोई नहीं आने वाला।
मेरी बात से न उन्हें सहमत होना था, न ही हुए।
गुरूजी को छत्तीसगढ के इतिहास भूगोल की बेहतरीन जानकारी है। एक साधु से मैं ऐसी उम्मीद नहीं कर सकता था। उन्होंने इत्मीनान से हर जरूरी बात बताई। बताने लगे कि महानदी सर्वोत्तम नदी है। यह यहीं सिहावा क्षेत्र से सात धाराओं में निकलती है। ये सात धाराएं एक नदी बनकर बहती हैं और ओडिशा में समुद्र में मिलने से पहले पुनः पृथक-पृथक हो जाती हैं।
गुरूजी ने बताया- महानदी की एक धारा श्रंग आश्रम से निकलती है। वहां से निकलकर वह ऊपर भृगु आश्रम तक चली गई। आप अगर नक्शा देखेंगे तो पायेंगे कि यहां से समुद्र ज्यादा दूर नहीं है। भृगु महाराज ने महानदी को धिक्कारा कि तू अगर इसी रास्ते सीधे समुद्र में चली जायेगी तो लोगों का उद्धार कैसे होगा? जा, वापस जा और लोगों का उद्धार करके समुद्र में मिलना। महानदी वापस चल पडी और बहुत लम्बा चक्कर काटकर घूमती-घामती समुद्र में मिली।
डब्बू ने आगे जोडा- हां, भृगु मुनि बडे शक्तिशाली थे। उन्होंने ही महानदी को वापस भेजा। नहीं तो इसने तो कुछ ही दूरी पर स्थित समुद्र से मिलने की तैयारी कर ली थी।
मुझे यहां के भूगोल की अच्छी जानकारी है। मैंने इन बातों का फिर खण्डन किया- नहीं, किसी भृगु के कहने से महानदी वापस नहीं मुडी। चमत्कार अपनी जगह हैं, विज्ञान अपनी जगह। आज का जमाना चमत्कारों का नहीं है, बल्कि विज्ञान का है। आपको अपनी बात में वैज्ञानिकता लानी होगी, तभी आपके ये चमत्कार जन-मानस तक पहुंचेंगे। असल में पानी हमेशा... हम्मेशा... ऊपर से नीचे की तरफ बहता है। जिस स्थान पर हम हैं, यहां से पूर्वी घाट की पहाडियां शुरू हो गई हैं। ये पहाडियां ओडिशा में एक हजार मीटर तक की ऊंचाई तक पहुंच गई हैं। इन पहाडियों के उस पार बंगाल की खाडी है। भला पांच सौ मीटर की ऊंचाई से निकलने वाली कोई जलधारा हजार मीटर ऊंची पहाडियों को कैसे पार कर लेगी? गंगा भी इलाहाबाद तक दक्षिणमुखी रही, उसके बाद पूर्वमुखी हो गई। क्योंकि इलाहाबाद से आगे विन्ध्याचल की पहाडियों ने गंगा को आगे नहीं बढने दिया। गंगा ने अपनी ही दिशा बदल ली। महानदी को लोक-कल्याण के लिये पूर्वी घाट की पहाडियों ने भेजा है, न कि भृगु ने।
डब्बू को इस बात से कोई मतलब नहीं था। उसके लिये गुरूजी ही सर्वोपरि थे। उधर गुरूजी ने कुछ देर सोच-विचार किया। फिर बोले- तुम ठीक कहते हो। महानदी भृगु आश्रम से निकली है, बाद में श्रंग आश्रम के पास से बहती हुई आई है। अगर यह श्रंग आश्रम से निकली होती, ऊपर चढकर भृगु तक गई होती तो इसकी यहां दो धाराएं होनी चाहिये थीं। एक ऊपर जाती हुई और दूसरी नीचे आती हुई। ऊपर जाने वाली धारा है ही नहीं। ना ही उसका कोई चिह्न है। बाद में अगले दिन जब हम गुरूजी के साथ विभिन्न आश्रमों में घूम रहे थे, तो वहां भी इन्होंने साधुओं के सामने मेरी बात का समर्थन किया और अपनी पुरानी चली आ रही मान्यता का खण्डन किया।
हमें आज ऐसे ही साधुओं की आवश्यकता है, जो अपने विचारों को विज्ञान के साथ मिलाकर चल सकें। कूप-मण्डूक धरती पर बोझ और अन्न के सत्यानाशी ही होते हैं।
बताते हैं कि पिछले साल सावन में यहां कोई आयोजन हो रहा था। तभी बांध से विशाल शेषनाग निकला और सम्पूर्ण आश्रम के साथ आसपास के गांवों को भी अपने लपेटे में ले लिया। यह काम दिन में ही हुआ था, इस दृश्य को सबने देखा। अगले दिन समाचार-पत्रों में भी उसकी खबर छपी लेकिन फोटो नहीं छपा। कारण यही दिया गया कि इस अति पिछडे इलाके में कैमरा किसके पास है। पढे-लिखों की तरह मैं भी इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता। आजकल लगभग हर मोबाइल में कैमरा होता है।
सावधान! दुधावा बांध में बडा विशाल शेषनाग रहता है। किसी दिन वह इस विशाल बांध से टकरा गया तो इलाके का सर्वनाश तय है।
बात चली मूरमसिल्ली बांध की तो गुरूजी ने सुनते ही खण्डन कर दिया कि वो बांध दुधावा बांध नहीं है। वो दूसरी नदी पर है। डब्बू ने मेरी बात नहीं मानी, गुरूजी की मान ली।
यहां से कुछ दूर गौतम आश्रम है। कहते हैं कि वहां हर पूर्णिमा पर अप्सराएं नृत्य करती हैं। साथ ही यह भी जरूर जोडा जाता है कि भाग्य में होगा तो देख सकेंगे, नहीं तो नहीं देख सकते। पुराणपंथी अंधभक्ति इसी तरह की गोलमोल बात करना जानती है।
एक बात और देखी इस आश्रम में कि कई लोगों ने हमारे सामने साष्टांग प्रणाम किया। एक-दो बार तो बडा अजीब सा लगा। अजीब लगना भी चाहिये क्योंकि इधर कभी किसी के पैर छूने के आदत ही नहीं। मां-बाप समझा कर हार गये, ठोक-पीटकर भी हार गये लेकिन वे कभी मुझसे किसी के पैर नहीं छुआ सके। अब जब अचानक सामने कोई दण्डवत होकर प्रणाम करेगा तो ... है ना अजीब सी लगने वाली बात।
गुरूजी ने अपने कमरे में शिवलिंगों का संग्रह बना रखा था। डब्बू तो उनके कमरे में जाने की सोच भी नहीं सकता। मेरे लिये सबकुछ खुला था। मैं घुस गया उनके कमरे में। बताया कि ये बारह ज्योतिर्लिंग हैं जो यहीं इसी पहाडी से अलग-अलग स्थानों से मिले हैं।
गुरूजी ने इसी सप्तऋषि तीर्थ पर एक पुस्तक भी लिखी है। मुझे देखने का मौका तो मिला, लेकिन खोलकर नहीं देख सका। उनके ज्ञान को देखते हुए मुझे लगता है कि यह पुस्तक बडे काम की होगी। अगर उसमें इन्होंने पुराणों की कथाएं भर रखी होंगी, तो किसी काम की नहीं।


विश्वामित्र आश्रम की तरफ। भला इस रास्ते पर कार कैसे चल सकेगी? कार पीछे छोडनी पडी।



विश्वामित्र आश्रम में स्थित नागेश्वर शिवलिंग

आश्रम के बाबाजी


ऐसा लग रहा है जैसे जाटराम को यहां फोटोशॉप से कॉपी पेस्ट किया गया है।

छत्तीसगढ के जंगलों में।

भला यह कार लायक रास्ता है?

कर्क ऋषि आश्रम के सामने

दुधावा बांध

दुधावा बांध की जलराशि

यह रहा आज का सर्वोत्तम फोटो।


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नक्शे को बडा करके या जूम इन-जूम आउट करके देखा जा सकता है।

अगले भाग में जारी...

छत्तीसगढ यात्रा
1. छत्तीसगढ यात्रा- डोंगरगढ
2. छत्तीसगढ यात्रा- मूरमसिल्ली बांध
3. छत्तीसगढ यात्रा- विश्वामित्र आश्रम और कर्क ऋषि आश्रम

छत्तीसगढ यात्रा- सिहावा- महानदी का उद्गम

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1 मार्च 2013
सुबह आराम से सोकर उठे। मैं पहले भी बता चुका हूं कि यह क्षेत्र घोर आध्यात्मिक क्षेत्र है। कई पौराणिक ऋषियों के आश्रम यहां हैं। ये आश्रम एक ही स्थान पर न होकर दूर-दूर हैं लेकिन कुल मिलाकर इसे सिहावा क्षेत्र ही कहा जाता है।
गुरूजी शिवेश्वरानन्द जी महाराज भी हमारे साथ चलने को तैयार हो गये। गुरूजी बस्तर क्षेत्र के अच्छे ज्ञाता हैं। इनके साथ होना मेरे लिये बेहद शुभ था। मैं, डब्बू, तम्बोली, गुरूजी तथा एक और, कुल मिलाकर पांच जने कार में बैठे और चल पडे।
कुछ दूर तक वही रास्ता था, जिससे कल आये थे। कल यहां आते समय अन्धेरा हो गया था, लेकिन मैं रास्ते को अच्छी तरह पहचान सकता था। कुछ दूर चलकर एक चौराहा आया, जहां से सीधे रास्ता जामगांव, बायें कांकेर और दाहिने नगरी जा रहा था। हम कल जामगांव से आये थे और अब दाहिने मुडकर नगरी की तरफ चल पडे। यहां से पांच छह किलोमीटर आगे गुरूजी ने एक और रास्ते का इशारा करके बताया कि यह रास्ता भी आश्रम जाता है।
एक जगह सडक के ऊपर स्वागत द्वार लगा था- धमतरी जिले में आपका स्वागत है। इसी के दूसरी तरफ लिखा था- कांकेर जिले में आपका स्वागत है। यानी आश्रम कांकेर जिले में स्थित है।
नगरी पहुंचे। यहां कुछ देर बैठकर चाय पी। कल कार एक गड्ढे में फंस गई थी, जिसे निकालते समय मेरी चप्पल टूट गई। अब नंगे पैर रहना पड रहा था लेकिन गुरूजी भी नंगे पैर ही थे, इसलिये ज्यादा अखरा नहीं।
फरसिया गांव के पास महामाई का मन्दिर है। यहीं एक कुण्ड है। कहा जाता है कि यहीं कुण्ड महानदी का उद्गम है। मन्दिर प्रांगण में ही एक रजवाहा भी बह रहा है। रजवाहे में बहते पानी को देखते ही मैंने अन्दाजा लगा लिया कि यह रजवाहा कहीं दूर से आ रहा है। बाद में पता चला कि सोण्ढूर बांध से यह रजवाहा आ रहा है।
कुण्ड चारों तरफ से पक्का बना है। एक कोने में एक नाली निकलकर खेतों में बहती चली गई है। गुरूजी ने बताया कि यही महानदी है और यहीं से यह अपनी यात्रा शुरू कर देती है।
यह इलाका एक मैदानी इलाका है लेकिन पूर्वी घाट के पहाड यहां से ज्यादा दूर नहीं। अगर आसपास ऊंची जमीन हो तो निचले इलाकों में धरती से स्वतः पानी निकलना कोई बडी बात नहीं है। अब यहां भी पानी निकलता है या नहीं निकलता, लेकिन पहले जरूर निकलता होगा। अब इस कुण्ड को रजवाहे से खूब पानी मिल रहा है। कुण्ड का पानी भी साफ है और नाली की शक्ल में बहती महानदी में भी अच्छा प्रवाह है। अगर यहां रजवाहा न होता तो कुण्ड का पानी कभी का सड जाता क्योंकि मैदानी इलाकों में भूगर्भ से ज्यादा मात्रा में पानी नहीं निकला करता।
यहां महामाई के मन्दिर के पुजारी और साधु गुरूजी को अच्छी तरह जानते हैं। हमारा भी बढिया सत्कार हुआ।
पुनः कार लेकर चले। अबकी बार जंगल में घुस गये और भृगु ऋषि आश्रम जाने लगे। यह आश्रम एक अभयारण्य में स्थित है। असल में उदन्ती और सीतानदी अभयारण्य दोनों जुडवां अभयारण्य हैं। पता नहीं कि महामाई मन्दिर से निकलकर हम उदन्ती में घुसे या सीतानदी में।
भृगु आश्रम जाने का रास्ता बिल्कुल कच्चा था लेकिन कार कूदती-फांदती निकल गई। कुछ दूर नंगे पैर पैदल भी चलना पडा।
यहां भी बिल्कुल सन्नाटे में और वीराने में एक छोटी सी कुटिया है। एक साधु रहते हैं। बताते हैं कि यहां एक के बाद एक सात छोटे छोटे तालाब हैं। दो तो मुझे दिखे, बाकी घना जंगल होने के कारण नहीं दिखे। इन दोनों में पानी नहीं था। सर्दियों के बाद हिमालय तक सूख जाता है, भला छत्तीसगढ की क्या औकात।
डब्बू ने यहां ध्यान लगाया। ध्यान से उठते ही गुरूजी से पूछने लगा कि गुरूजी, इस जगह पर मामला क्या है? गुरूजी बोले कि यह स्थान शापित है।
पहले ऋषि मुनि अपने अपने तरीके से तपस्या करते थे और ध्यान लगाते थे। एक की पद्धति दूसरे से भिन्न हो गई तो दोनों में लडाई हो गई कि मैं श्रेष्ठ और मैं श्रेष्ठ। बस, इसी बात पर एक ने दूसरे के स्थान को श्राप दे दिया। तभी से यह शापित है। मुझे तो खैर इन बातों का तजर्बा नहीं है, लेकिन विश्वास न करने की कोई वजह भी नहीं। गुरूजी ने बताया कि वे इस स्थान का श्राप काटने के लिये प्रयत्नरत हैं। जब तक श्राप नहीं कटेगा, तब तक इस स्थान को विकसित नहीं किया जा सकता।
मेरी इच्छा इस यात्रा में एक राष्ट्रीय उद्यान या अभयारण्य में घूमने की थी। मैं हालांकि घूम तो लिया लेकिन इच्छा पूरी नहीं हुई। एक तो नंगे पैर, दूसरे बडी जल्दबाजी में थे हम। करीब आधा घण्टा यहां भृगु आश्रम पर रुके और तुरन्त ही वापस लौट आये। पुनः महामाई के मन्दिर पर पहुंच गये।
यहां खाना पीना हुआ। छत्तीसगढ को भारत का धान का कटोरा कहा जाता है। धान का कटोरा है भी। इस मौसम में भी यानी सर्दी उतरने के बाद भी यहां धान के खेत देखे जा सकते हैं। छत्तीसगढ आकर चावल न खाये तो आपकी भी बेकद्री है और छत्तीसगढ की भी।
वापस आ रहे थे तो कर्णेश्वर धाम रास्ते में पडा। यहां दो दिनों से मेला लगा था। आज उजडने लगा। इसे 13वीं शताब्दी में कल्चुरी राजाओं ने बनवाया। मन्दिर में पाली में लिखा एक शिलालेख भी है। गुरूजी की यहां के चप्पे चप्पे में अच्छी घुसपैठ है, इसलिये उन्होंने ही हमारी तरफ से कुछ पूजा-पाठ की। हमें मुंह मीठा करने को थोडा सा मिष्ठान्न भी मिला।
जब मेला क्षेत्र से गुजर रहे थे तो एक जगह चप्पल जूतों की दुकान देखकर डब्बू ने कहा कि जाटराम, चप्पल ले ले। मैंने मना कर दिया। कुछ ही आगे बढे तो मोची बैठा दिख गया। दस रुपये लगाकर टूटी चप्पल ऐसी ठीक हुई कि आज तक बढिया काम कर रही है। कम से कम ढाई सौ रुपये बच गये।
शृंगी ऋषि आश्रम- यह सिहावा का एक प्रमुख आश्रम है। सप्तऋषियों में से एक है। शृंगी ऋषि ही थे जिनके आशीर्वाद से राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति हुई। यहां एक बंजर सी पहाडी है जिस पर बडे बडे पत्थर और कुछ पौधे दिखाई देते हैं। नीचे बराबर में ही महानदी बहती है। अपने उद्गम से मुकाबले यहां यह कुछ बडी हो गई है। अब यह नाली में नहीं बहती बल्कि अब इसका अपना क्षेत्र है।
गुरूजी तो नीचे आश्रम में ही रह गये, हम तीनों प्राणी ऊपर की ओर चले। रास्ता कुछेक जगह खतरनाक भी है लेकिन अच्छी आवाजाही लगी रहती है। पक्की सीढियां भी बनी हैं लेकिन वे आश्रम से कुछ दूर थीं, इसलिये हम सीधे रास्ते से गये।
ऊपर पहाडी पर एक छोटा सा गड्ढा है जिसकी तली में दो घूंट पानी दिखाई दे रहा था। कहते हैं कि महानदी का एक उद्गम यह भी है। इसका सीधा सम्बन्ध नीचे बह रही महानदी से है। अगर इस कुण्ड में फूल आदि डाले जायें तो वे महानदी में पहुंच जाते हैं। इस शुष्क पथरीली पहाडी के शीर्ष पर पानी का कुण्ड होना अज्ञानियों के लिये चमत्कार ही है। मैं भी चूंकि इस मामले में अज्ञानी हूं, इसलिये मेरे लिये भी यह चमत्कार है। कोई भूविज्ञानी ही बता सकता है कि यहां कुण्ड में पानी क्यों है। वो भी ऐसे कुण्ड में जो सीधा नीचे महानदी से जुडा है। पहाडी चूंकि पथरीली है इसलिये पत्थरों और चट्टानों की दरारों के बीच से नदी तक कोई छोटी सी सुरंग बन गई होगी, यह तो मुमकिन है लेकिन पानी का क्या करें?
एक ऐसी ही पहाडी पर उत्तराखण्ड के चम्पावत जिले में पूर्णागिरीहै। वहां भी पहाडी के शीर्ष में एक छेद है जिसमें प्रसाद आदि चढाएं तो वो नीचे बह रही काली नदी में जा पहुंचता है। लेकिन वहां छेद में पानी नहीं है। बताते हैं कि यहां पानी का तल घटता बढता रहता है। इस समय यह न्यूनतम था।
यह भी प्रसिद्ध है कि यहां पहाडी पर खोखले पत्थर हैं जो बजते हैं। हम एडी मार-मारकर पत्थर ढूंढते रहे लेकिन एडियां दुखने लगीं, पत्थर ना मिलने थे, ना मिले।
नीचे आये तो चाय हमारी प्रतीक्षा कर रही थी। साधुओं के आश्रम में कल से हमारा दाना-पानी हो रहा है, बडी शान की बात है। साधु ही वे लोग हैं जो सबसे बडे घुमक्कड होते हैं। एक साधु बिना पैसे के पूरे देश में घूम लेगा, उसे कहीं भी न बोलने चालने की असुविधा होगी, न खाने-पीने की और न उठने बैठने की।
यहां से निकले तो सीधे कर्क आश्रम ही रुके। रास्ते में गुरूजी के कुछ शिष्य मिले जो आश्रम में काफी देर तक उनकी प्रतीक्षा करके निराश होकर लौट रहे थे। वे बडे लोग थे और उनकी बात का मुख्य मुद्दा यहां कुम्भ आयोजन ही रहा। मैं यहां कुम्भ आयोजन के विरुद्ध हूं। इनका तर्क है कि इससे छत्तीसगढ में पर्यटन बढेगा और स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा। वैसे कुम्भ तो राजिम में भी हो रहा है। वो भी तो छत्तीसगढ में ही है। उसके विरुद्ध यह साजिश क्यों?
मुझे गन्ध मिल रही है कि इसका छत्तीसगढ से कोई लेना-देना नहीं है। कभी राजिम में कुम्भ की शुरूआत हुई थी, तो पुराने ग्रंथों के आधार पर ही हुई होगी। सारा मामला राजिम और सिहावा के मठाधीशों के वर्चस्व का लग रहा है।

महानदी की यात्रा शुरू

यही वो कुण्ड है जहां से महानदी का उद्गम है।

श्री शिवेश्वरानन्द जी महाराज

महानदी का नक्शा

रजवाहे से कुण्ड में आता पानी।

कुण्ड और महामाई का मन्दिर

सोण्ढूर बांध से आता रजवाहा।

रजवाहा और उसके किनारे महानदी का उद्गम



भृगु आश्रम की ओर

अभयारण्य के अन्दर बना आश्रम



अभयारण्य के अन्दर रास्ता

कर्णेश्वर महादेव

कर्णेश्वर


श्रृंगी आश्रम की ओर

ऊपर पहाडी पर जलयुक्त दरार।

पहाडी से दिखता सिहावा का दृश्य




श्रृंगी आश्रम के पास से बहती महानदी




आश्रम वापस लौटते समय मिले गुरूजी के शिष्य
अगले भाग में जारी...

छत्तीसगढ यात्रा
1. छत्तीसगढ यात्रा- डोंगरगढ
2. छत्तीसगढ यात्रा- माडमसिल्ली बांध
3. छत्तीसगढ यात्रा- विश्वामित्र आश्रम और कर्क ऋषि आश्रम
4. छत्तीसगढ यात्रा- सिहावा- महानदी का उद्गम

छत्तीसगढ यात्रा- पुनः कर्क आश्रम में और वापसी

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हमारा आज का दिन बडी भागदौड में बीता। इस प्राचीन और आध्यात्मिक स्थल को देखने समझने का मौका नहीं मिला। कई दिन का काम एक दिन में निपटाना पडा। स्वयं कर्क आश्रम इलाके को विस्तार से देखने के लिये दो तीन दिन चाहिये। जब हम शाम को आश्रम पहुंचे तो दिन ढलने लगा था। इतने उजाले में भी गुरूजी की कोशिश थी कि हम अधिकतम देख सकें।
यहां चट्टानों की भरमार हैं। चट्टानों में जगह-जगह आकृतियां उभरी हैं। गुरूजी ने इन्हें देवी देवताओं से सम्बद्ध कर दिया। देवताओं से सम्बद्ध करने का उनका आधार था अध्यात्म और ध्यान। ध्यान की उच्च अवस्था के दौरान आदमी की आत्मा शरीर से निकलकर इधर उधर घूमने चल पडती है। उसे दूसरी आत्माएं भी मिलती हैं। प्राचीन ऋषि मुनि भी मिल जाते हैं। कभी कभी शिवजी और हनुमानजी भी मिलते हैं। ऐसा मैंने कई योगियों और ध्यानियों से सुना है। यहीं से पता चलता है कि कौन सा स्थान किस देवता का है या किस ऋषि मुनि का है।
मैं अध्यात्म को मानता जरूर हूं लेकिन जरूरी नहीं कि उनके इस तरह चट्टान से देवताओं को सम्बद्ध करना भी मान लिया।
यहां एक बडा हैरतअंगेज दृश्य है। तीन विशालकाय चट्टानें एक के ऊपर एक रखी हैं। उनके ऊपर शीर्ष पर तीन अपेक्षाकृत छोटी चट्टाने हैं। ये सब मिलकर एक चट्टान दण्ड का निर्माण करती हैं। हैरत की बात यह है कि यह दण्ड सीधा न होकर तिरछा है। तिरछा भी इतना कि पीसा की झुकी मीनार भी शर्म से लाल हो जाये। नीचे फोटो है, स्वयं देख लेना। सब प्राकृतिक है, आदमी के बस की बात नहीं।
अन्धेरा हो जाने के बाद जब खाने की तैयारी हो रही थी, तभी सुनील भाई का फोन आया कि आज ही वापस आ जाओ। मेरी कल दुर्ग से बारह बजे की ट्रेन है, इसलिये सोच रखा था कि सुबह निकल चलेंगे, तीन घण्टे में पहुंच जायेंगे। लेकिन जब भाई का निर्देश आया, तो तुरन्त निकलना पडा। गुरूजी भी चूंकि भाई का अत्यधिक सम्मान करते हैं, इसलिये इन्होंने भी मना नहीं किया। अन्धेरे में डब्बू भूल गया कि गाडी कहां खडी थी।
यहां से जामगांव, नरहरपुर, सुरही और धमतरी होते हुए भिलाई आने में कोई विशेष बात नहीं हुई। हां, नरहरपुर में जब हम एक तिराहे पर गाडी से उतरकर किसी से रास्ता पूछने जा रहे थे तो सामने थाने में से आवाज आई कि यहां गाडी मत रोको। हमने रास्ता पूछा, तुरन्त बता दिया और गाडी चलती बनी। थाने में अन्धेरा पसरा पडा था। डब्बू ने बताया कि यहां चौकसी के लिये बडे कडे इंतजाम रहते हैं। नक्सलियों का उद्देश्य थानों पर हमला करना भी रहता है ताकि हथियार मिलते रहें।
धमतरी से हमने सीधे दुर्ग वाली सडक पकड ली। लेकिन इस सडक पर ब्रेकर इतने हैं कि बीस किलोमीटर चलते चलते अपना सिर फोड लेने का मन करता है। सडक शानदार बनी है लेकिन ब्रेकरों ने इस सारी शानदारिता पर पानी फेर दिया।
एक गांव में सडक पर एक जबरदस्त मोड था। गाडी अपनी रफ्तार पर थी तो डब्बू ने सडक से उतारकर गाडी एक दुकान के सामने खडी कर दी। हमने पूछा कि क्या हुआ। बोला कि यह दुकान सामने कहां से आ गई? सडक कहां गई?
रात ग्यारह बजे जब दुर्ग स्थित डब्बू के घर पहुंचे तो खीर के साथ स्वादिष्ट खाना हमारी प्रतीक्षा कर रहा था।
डब्बू चूंकि मेरे यात्रा वृत्तान्त पढता है, इसलिये मेरी आदत से परिचित है। फिर भी हममें इतनी आत्मीयता स्थापित हो गई कि जब खाने के लिये उनकी घरवाली मेज आदि लगाने की तैयारी कर रही थी, तो डब्बू का आदेश आया कि जाटराम, रसोई में चलो। वहीं नीचे बैठकर खाना खायेंगे। साथ ही घरवाली को आदेश दिया कि सुबह भले ही नीरज को जाना हो लेकिन इसके लिये पानी वानी गर्म करने की कोई जरुरत नहीं है। मुझे पता है कि यह नहीं नहायेगा। यह इतना आलसी है कि अगर ग्यारह बजे तक घर से न निकला तो धक्के मार-मारकर इसे भगा देना। नहीं तो इसकी ट्रेन छूट जायेगी।
यात्रा भले ही यादगार रही हो लेकिन इसमें कुछ कमियां भी रहीं। तिवारी जी के साथ पहले दिन की कई डोंगरगढ यात्रा बेशक शानदार थी लेकिन डब्बू के साथ की गई सिहावा यात्रा शानदार नहीं रही। इसका सबसे बडा कारण था इस स्थान की कहीं भी कोई जानकारी न होना। इंटरनेट पर भी इसके बारे में बस इतनी ही जानकारी है कि यहां से महानदी निकलती है। सप्तऋषियों के बारे में तो कुछ है ही नहीं। अगर किसी स्थान के बारे में पहले से जानकारी हो तो वहां जाने का आनन्द बढ जाता है।
हम एक ही दिन ऋषिपुरी में रहे जोकि अपर्याप्त था। उस पर भी पूरे दिन कार से इधर से उधर घूमते रहे जो आवश्यक नहीं था। उस दिन जरुरत थी केवल कर्क ऋषि आश्रम को विस्तार से देखने की। बराबर में सिहावा बांध है ही। बताते हैं कि बांध के उस तरफ पहाडी पर भी कोई गुफा है जिसमें काफी पुरातात्विक सामग्री है।
इस भागदौड के कारण मेरे पल्ले उतना नहीं पडा, जितना पडना चाहिये था। वृत्तान्त लिखते समय मुझे कई बार डब्बू से फोन करके तथ्य पूछने पडे।
गुरूजी से भी कुछ बातें करनी थीं, खासकर उनके प्रारम्भिक जीवन के बारे में। वे कौन हैं, क्या हैं, कहां के हैं, यहां कैसे आये आदि? उनमें परम्परागत साधुओं वाले गुण नहीं हैं। वे हर बात को गौर से सुनते हैं, सुनकर बाद में कुछ निष्कर्ष निकालते हैं। मैं एकाध मामलों को छोडकर कभी भी उनके निष्कर्षों से असन्तुष्ट नहीं हुआ। उनकी एक बात मुझे बुरी लगी कि वे भी यहां कुम्भ के पचडे में पडे हुए हैं।
अगले दिन सुबह उठा तो सुनील भाई सामने थे। डब्बू ने ही उनका परिचय कराया। मेरी एक शिकायत और भी है कि सुनील भाई से वार्तालाप करने का बेहद अल्प समय मिला। ये भी छत्तीसगढ के बारे में गुरूजी से कम नहीं हैं। डब्बू तो सुनील-समुद्र के सामने बूंद बराबर भी नहीं है। यह यात्रा सुनील द्वारा ही आयोजित थी। हम किसी भी तिराहे चौराहे पर खडे होकर उनसे पूछते तो जनाब तुरन्त समझ जाते कि हम कहां हैं। फिर आगे के निर्देश मिलते।
भाई ही मुझे दुर्ग स्टेशन छोडने आये। यहां से सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रेस पकडनी थी। मेरा आरक्षण भाटापारा से था। वो इसलिये कि मुझे इन चार दिनों में उम्मीद थी कि दुर्ग से शुरू करके घूमते घामते बिलासपुर तक पहुंच जाऊंगा। बिलासपुर से वेटिंग टिकट मिल रहा था, जबकि भाटापारा से पक्की सीट। लेकिन अप्रत्याशित रूप से सिहावा जाना पड गया। और यात्रा की दिशा ही बदल गई। भाटापारा तक जनरल टिकट लेकर जनरल डिब्बे में बैठ गया। दुर्ग से ही बनकर चलती है यह गाडी, भीड नहीं थी।
भाटापारा में सुधीर पाण्डे जी मिले। उनके भाई सुनील पाण्डे जी ने आग्रह किया था कि अगर मैं सिरपुर आऊं तो याद करना। सिरपुर जाना नहीं हो सका। वे मुझसे मिलने ही सपत्नी पचास साठ किलोमीटर दूर भाटापारा स्टेशन आये। यहां गाडी का दो मिनट का ठहराव है और मुझे भी जनरल डिब्बे से निकलकर अपने आरक्षित डिब्बे में जाना था। मिनट भर ही बातचीत हो सकी। फोटो की इच्छा थी, इच्छा ही रह गई।
बिलासपुर में प्रकाश यादव जी को आना था। जब मैं जनवरी में लद्दाखगया था तो उनका भी मन था साथ चलने का लेकिन समयाभाव के कारण नहीं जा सके। रायगढ में रहते हैं। जब पता चला कि मैं बिलासपुर से होकर जाने वाला हूं तो उन्होंने लंच करने को कह दिया। गाडी यहां आधे घण्टे रुकती है। यहां भी समयाभाव आडे आ गया। लेकिन उन्होंने लंच की इज्जत रखी और एक रिश्तेदार के माध्यम से गाडी में ही लंच आ गया। खाने के साथ मिठाई का एक डिब्बा और आधा किलो अंगूर भी थे।
कितनी आत्मीयता मिली इस यात्रा में! दुर्ग में ट्रेन से उतरने से लेकर बिलासपुर में ट्रेन के छूटने तक; कभी भी अकेला नहीं रहा। खर्च क्या होता है, मुझे पता ही नहीं चला। इन चार दिनों में मेरी जेब से मात्र पचपन रुपये खर्च हुए, वो भी दुर्ग से भाटापारा के टिकट के। ऐसी यात्राएं सबकी हों और मेरी तो हमेशा हों, यहीं दुआ है।


कर्क ऋषि आश्रम

कर्क ऋषि आश्रम के सामने एक टापू। अब बांध में पानी न्यूनतम है, इसलिये वहां जाने का रास्ता दिख रहा है, नहीं तो सब जलमग्न रहता है।



गुरूजी आश्रम के आसपास की चीजों का अवलोकन कराते हुए।

यही वो हैरतअंगेज चट्टान है। नीचे तीन विशालकाय चट्टानें एक के ऊपर एक धरी हैं, सबसे ऊपर इस फोटो में एक चट्टान दिख रही है। असल में वे भी तीन हैं। नीचे वाले चित्र से स्पष्ट है। इसका झुकाव इसे हैरतअंगेज बनाता है।



कुछ फोटो सूर्यास्त के।





रात को छत्तीसगढ के जंगलों में।


पेण्ड्रा रोड से अमरकण्टक के लिये रास्ता जाता है जहां से नर्मदा और सोन निकलती हैं।
छत्तीसगढ यात्रा समाप्त।

छत्तीसगढ यात्रा
1.छत्तीसगढ यात्रा- डोंगरगढ
2. छत्तीसगढ यात्रा- मोडमसिल्ली बांध
3. छत्तीसगढ यात्रा- सिहावा- महानदी का उद्गम
4. छत्तीसगढ यात्रा- पुनः कर्क आश्रम में और वापसी

डायरी के पन्ने- अप्रैल 2013- द्वितीय

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[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली व सोलह तारीख को छपते हैं।]

1 अप्रैल 2013, सोमवार
1.महीने की शुरूआत में ही उंगली कटने से बच गई। पडोसियों के यहां एसी लगना था। सहायता के लिये मुझे बुला लिया। मैं सहायता करने के साथ साथ वहीं जम गया और मिस्त्री के साथ लग गया। इसी दौरान प्लाई काटने के दौरान आरी हाथ की उंगली को छूकर निकल गई। ज्यादा गहरा घाव नहीं हुआ।

2 अप्रैल 2013, मंगलवार
1.सुबह चार बजे ही नटवर दिल्ली आ गया। हम हिमाचल की ओर कूच कर गये। शाम होने तक धर्मशाला पहुंच गये।

3 अप्रैल 2013, बुधवार
1.आज ट्रेकिंग करते हुए हिमानी चामुण्डा गये। यह 2770 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और इसे पुरानी चामुण्डा भी कहते हैं।

4 अप्रैल 2013, गुरूवार
1.हिमानी चामुण्डा से वापस नीचे उतरे। मौज मस्ती करते आये और शाम होने तक वर्तमान चामुण्डा मन्दिर पहुंच गये और रात भर के लिये यहीं जम गये।

5 अप्रैल 2013, शुक्रवार
1.चामुण्डा से बस में बैठकर सीधे बैजनाथ पहुंचे। मन्दिर देखकर जोगिन्दर नगर की बस पकडी जहां से बरोट चले गये।

6 अप्रैल 2013, शनिवार
1.बरोट से वापसी की बस पकडी। जोगिन्दर नगर और पालमपुर होते हुए चिडियाघर पहुंचे। यहां से कांगडा और रात होने तक पठानकोट। पठानकोट से धौलाधार एक्सप्रेस से सुबह तक दिल्ली।
सम्पूर्ण हिमाचल यात्रा का विस्तार से वर्णन अलग से किया जायेगा।

7 अप्रैल 2013, रविवार
1.नटवर का दिल्ली से वापसी का आरक्षण नहीं था। आज की किसी भी ट्रेन में नहीं मिला लेकिन सदाबहार ट्रेन डबल डेकर में जगह खाली थी। यह जयपुर पहुंचती है रात दस बजे जहां से नटवर को कुचामन के लिये भारी परेशानी होने वाली थी। इसलिये आज जाना रद्द करके कल सुबह सराय रोहिल्ला से चलने वाली गरीब रथ में अजमेर तक का आरक्षण करा लिया। दिल्ली से इस ट्रेन में अजमेर का आरक्षण बडी आसानी से हो जाता है।
2.हिमाचल यात्रा पर निकलने से पहले ही मैंने छत्तीसगढ यात्रा वृत्तान्तलिख दिया था। इसे दो-दो दिनों के अन्तराल पर ब्लॉग पर छपने के लिये भी लगा दिया था। मेरी अनुपस्थिति में तीन अप्रैल को जब विश्वामित्र आश्रम वाली पोस्ट छपी तो उसे पढकर छत्तीसगढ यात्रा के सहयोगी डब्बू मिश्रा को क्रोधित होना ही था। उनकी उस दिन की टिप्पणी आज पढी। ज्यादातर पाठक मेरी प्रशंसा ही करते हैं, लेकिन अगर कभी आलोचना भी मिले तो भी कोई फरक नहीं पडता। डब्बू की हां में हां मिलाते हुए कुछ और लोगों ने भी मेरी आलोचना की जिनमें एक आपत्तिजनक शब्दों वाली आलोचना भी थी। आपत्तिजनक आलोचना को हटा दिया, बाकी रहने दीं।
डब्बू का सारा क्रोध सिर माथे पर लेकिन उन्होंने पैसों की भी बात की। उन्होंने कहा- हमने तुम्हारे लिये तीन हजार का पेट्रोल फूंक दिया, दस रुपये चप्पल ठीक कराने के दिये आदि। जबकि वास्तव में यात्रा के दौरान जब मैं उन्हें पैसे देने लगा था तो उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि आप हमारे अतिथि हो। हम आपसे एक भी पैसा नहीं लेंगे।
एक स्वाभिमानी इंसान के लिये पैसों का ताना उलाहना बहुत बडी बात होती है, वो भी ऐसे इंसान के लिये जिसके पास न तो पैसों की कोई कमी है, न ही उसे खर्च करने के लिये जिगर की। था एक जमाना जब हम पैसों की शक्ल देखने के लिये तरसते थे लेकिन अब वो बात नहीं। अब अपने पास पैसा है तो उसका आनन्द उठाने के लिये जिगर भी है।
3.अब एक साइकिल यात्रा करने का मन कर रहा है। विपिन गौड से बात की। 24 से 28 अप्रैल तक हिमाचल में तीर्थन घाटी में साइकिल यात्रा करने की बात होने लगी। विपिन ने बाद में कहा कि तू अभी दस दिन रुक जा, उसके बाद फाइनल करेंगे। मैंने जोश-जोश में कह दिया कि भाई, फाइनल ही है। जाट की जुबान... और भी पता नहीं क्या क्या। तब क्या मालूम था कि सप्ताह भर में ही यह जुबान पलटने वाली है?

8 अप्रैल 2013
1.नाइट ड्यूटी से घर आया और नटवर को विदा किया। सवा नौ बजे उसकी ट्रेन थी। नटवर के जाते ही इंटरनेट चालू किया और सबसे पहले अपने ब्लॉग का दर्जा सार्वजनिक से बदलकर प्राइवेट कर दिया। यानी अब केवल वे ही लोग मेरे लेख पढ सकते हैं, जिन्हें मैं अनुमति दूंगा। यह फैसला किसी जल्दबाजी में नहीं लिया गया बल्कि पूरी नाइट ड्यूटी के दौरान काफी सोच विचार के बाद लिया गया। डब्बू और उसके बाद आने वाली पैसों सम्बन्धी टिप्पणियों से मैं विचलित हो गया था।
मेट्रो में मैं महीने भर में औसतन 22 दिन ड्यूटी करता हूं। आठ घण्टे रोजाना के हिसाब से प्रति घण्टे काम करने के बदले मुझे 200 रुपये मिलते हैं। यानी एक घण्टे के 200 रुपये। उधर घूमना, फोटो खींचना और अपनी यात्रा-कथा लिखना मेरा शौक है। इतना होता तो कोई बात नहीं थी। घूमने, फोटो खींचने और लिखने के बाद भी एक लेख को सार्वजनिक करने के लिये औसतन दो घण्टे लगाने पडते हैं। फोटो का साइज कम करना, उन पर कुछ एडिटिंग करना, अपलोड करना, पुनः साइज ठीक करना, कैप्शन देना आदि। बाकी काम भले ही अपने लिये करता हूं, लेकिन ये दो घण्टे मैं अपने लिये कुछ नहीं करता। मेरा ब्लॉग विज्ञापन-रहित है। ब्लॉग से कमाई का भी कोई लालच नहीं। इस प्रकार देखा जाये तो हर पाठक पर एक लेख पढते ही 400 रुपये का कर्जा चढ जाता है। मैं साढे चार सौ से ज्यादा लेख लिख चुका हूं। अगर किसी पाठक ने 100 लेख भी पढ लिये तो उस पर अपने ही आप 40000 रुपये का कर्जा हो जाता है। 100 लेख का अर्थ है कि मैंने उनके लिये अपने बेहद कीमती 200 घण्टे नष्ट किये हैं।
कभी उतार पायेंगे डब्बू या उसके पिछलग्गू यह कर्ज?
2.ब्लॉग को प्राइवेट करते ही फोन आने लगे। शिकायत थी कि ब्लॉग खुल नहीं रहा। मैंने कुछ मित्रों को ब्लॉग पढने की अनुमति दे दी। इसके बाद जब फोन और मैसेज का सिलसिला बढ गया तो मैं मोबाइल स्विच ऑफ करके सो गया। शाम पांच बजे आंख खुली। मोबाइल ऑन किया। दस मिनट बाद ही अन्तर सोहिल के नाम से लिखने वाले अमित शर्मा का फोन आया। पहले तो उठाने को मन नहीं किया, बाद में उठा लिया। फोन उठाते ही जो फटकार मिली उसका नतीजा यह हुआ कि दस मिनट में ही ब्लॉग सार्वजनिक करना पड गया। अमित शर्मा उन गिने-चुने लोगों में से है, जिनकी मैं बहुत इज्जत करता हूं।
3.विश्वामित्र आश्रम वाले लेख को हटा दिया। इसके हटाने से मुझे कुछ भी नुकसान नहीं हुआ क्योंकि लेख मेरे पास है ही। लेकिन पाठकों को जरूर नुकसान हुआ है। चाहता था कि इसमें से वे अंश हटा दूं जिन पर डब्बू को आपत्ति है। कोशिश भी की, काट-छांट शुरू की तो लेख की लय बिगड गई। पुनः लय बनाने का मूड नहीं था, इसलिये पूरा लेख ही उडा दिया। लेख के साथ डब्बू और उसके समर्थकों की टिप्पणियां भी उड गईं।
4.अक्सर फलाहार का मन कर जाता है। हमारे पडोस में यमुना का रेलवे वाला पुराना लोहे का पुल है। पुल से लेकर आधे किलोमीटर तक फलों की ठेलियां लगी रहती हैं। आम दस्तक देने लगा है। पिछले साल आम की पहली खेप आते ही मैंने उन पर हमला बोल दिया था लेकिन शुरू में आनन्द नहीं आया था। वो डर अभी भी है, इसलिये आम की तरफ देखता भी नहीं। मई में आम खाना शुरू करूंगा जो अगस्त तक अनवरत चलता रहेगा।
अंगूरों की भी बडी तादाद है। एक किलो अंगूर ले लिये। घर आया और पढते लिखते सारे अंगूर खा गया। मैं अक्सर एक किलो अंगूर लाया करता हूं और ये दो घण्टे भी नहीं टिकते। पुराना अनुभव है कि इतने अंगूर खाकर मुझे दस्त लग जाया करते हैं। दस्त लगें तो लगे, कोई समस्या नहीं। कौन सा आधा किलोमीटर दूर लोटा लेकर जाना है? अंगूरों के बाद एक लीटर दूध में शक्कर डालकर पी गया। शक्कर से भी मुझे दस्त लगते हैं लेकिन इस बार कुछ नहीं हुआ। लगता है कि पेट में अंगूर और शक्कर दोनों भिड पडे होंगे कि मैं दस्त लगाऊंगा और मैं दस्त लगाऊंगा। बढिया इलाज मिल गया। अंगूर खाओ और उतना ही दूध शक्कर पी जाओ। इस इलाज का पेटेंट बनता है।

9 अप्रैल 2013
1.कल बुधवार है यानी मेरा अवकाश। गांव जाने का मन कर गया। मेरठ की ट्रेन तो खैर छूट गई, इसलिये बस से चला गया। रात्रि ड्यूटी की थी, इसलिये आज भी पूरे दिन खाली हूं। दोपहर बाद दो बजे घर पहुंचा, खाना खाकर लेटा ही था कि खान साहब का फोन आ गया- नीरज, जे है, आज रात्रि ड्यूटी कर लो। त्यागी ने अचानक छुट्टी ले ली है, दूसरा कोई उपलब्ध नहीं है, इसलिये आ जाओ। मैं भला कैसे इसके लिये तैयार हो सकता था? ढाई बजे हैं, अभी दिल्ली से आया हूं कि कल तक घर परिवार में रहूंगा। ड्यूटी का अर्थ है कि आज ही शाम सात बजे तक यहां से दिल्ली के लिये चल देना है।
मैंने मना कर दिया। खान साहब गिडगिडाने लगे कि भाई, आ जा। भले ही कुछ लेट आ जाना। आपका बॉस अगर आपके सामने गिडगिडाये तो कैसा लगेगा? मुझे भी खुशी हुई। मैंने पहले तो काफी देर तक अपनी अकड दिखाई कि नहीं आऊंगा लेकिन बाद में सहमति दे दी। इसके बदले अगले तीस दिनों में कभी भी एक छुट्टी ले लूंगा। मार्च की इसी तरह की दो छुट्टियां बची हुई हैं, तीसरी यह हो गई। अप्रैल के आखिर में चार पांच छुट्टियां लेनी पडेंगीं।
2.हाल ही में की गई हिमाचल यात्रा का वृत्तान्त लिखने बैठा। मन नहीं था, फिर भी दो पृष्ठ लिख डाले। चूंकि ये बे-मन से लिखे गये थे, इसलिये इन्हें पढने में मुझे स्वयं ही आनन्द नहीं आया। सब मिटा दिये। जब मन करेगा, तब लिखूंगा।

10 अप्रैल 2013
1.एक पुस्तक कई दिनों से पढ रहा हूं- विभाजन- भारत और पाकिस्तान का उदय। पुस्तक मूल रूप से अंग्रेजी में यास्मीन खान ने लिखी थी, बाद में सरोज कुमार ने मेरे जैसों के लिये हिन्दी अनुवाद कर दिया। पेंगुइन बुक्स ने प्रकाशित की है। विभाजन को केन्द्र में रखकर पुस्तक लिखी गई है। गजब की लेखन शैली है और उससे भी गजब का अनुवाद। अक्सर अनुवादों में वो आनन्द नहीं आता, लेकिन यहां लग ही नहीं रहा कि हम अनुवादित पुस्तक पढ रहे हैं। पेपरबैक संस्करण का मूल्य 225 रुपये है।

12 अप्रैल 2013
1.हिमाचल यात्रा लेखन की शुरूआत कर दी। कुल पांच दिनों की थी यह यात्रा और पहले दिन का वृत्तान्त लिख दिया। लेकिन मन नहीं था, इसलिये प्रकाशित नहीं किया। सोचा कि कल यानी शनिवार को सुबह उठकर प्रकाशित कर दूंगा लेकिन सुबह उठना किसने सीखा है?
2.एक बडे काम की जानकारी पता चली। झारखण्ड में कोडरमा रेलवे स्टेशन से हजारीबाग टाउन स्टेशन तक रेल-बस चलती है। यह मेरे लिये बिल्कुल नई जानकारी थी। उससे भी आश्चर्यजनक एक बात और पता चली कि यह रेल-बस भारतीय रेलवे नहीं चलाता बल्कि सिटी-लिंक नामक एक प्राइवेट कम्पनी चलाती है।
कोडरमा से जब धनबाद की तरफ चलते हैं तो हजारीबाग रोड स्टेशन आता है। यह मुख्य लाइन पर ही है। मुझे इतना भी पता था कि कोडरमा से बरकाकाना होते हुए रांची तक एक रेलवे लाइन का काम चल रहा है। लेकिन इसी रेल लाइन पर रेल-बस की कोई जानकारी नहीं थी। जानकारी मिलने के बाद इंटरनेट पर भी खूब ढूंढा लेकिन कुछ नहीं मिला। असल में हमारा एक सहकर्मी संजीत हजारीबाग का ही रहने वाला है। वो सरकारी खर्चे पर अपने घर गया हुआ है तो ऑफिस की फाइलों में उसके टिकट भी लगे हैं। सामने ट्रेनों के टिकट हों और मैं नजरअंदाज कर जाऊं? असम्भव। उनमें सिटीलिंक नाम का भी एक रंग-बिरंगा टिकट लगा था। इसे पढने में मेरी कतई दिलचस्पी नहीं थी। फिर भी जब पढा तो यह सारी जानकारी मिल गई।
संजीत से बात की तो पता चला कि यह रेल-बस सेवा हजारीबाग वालों को कोडरमा स्टेशन से लम्बी दूरी की ट्रेनें पकडवाने के लिये चलती है। सात-आठ साल हो गये हैं। नब्बे किलोमीटर की दूरी बिना रुके तय करती है। इससे पहले कि यह प्राइवेट रेल बन्द हो जाये, मुझे इस पर यात्रा कर लेनी चाहिये। मानसून के महीनों में सोच लिया है।

13 अप्रैल 2013
1.‘विभाजन- भारत और पाकिस्तान का उदय’ पढकर समाप्त की। मूल रूप से अंग्रेजी में यास्मीन खान द्वारा लिखित तथा सरोज कुमार द्वारा हिन्दी अनुवादित की गई है। गजब का लेखन। सैंकडों स्रोतों के माध्यम से पुस्तक विश्वसनीय बन जाती है। 1946 से शुरू होकर 1948 तक का समय ही पुस्तक का मूल है। मुस्लिम लीग की जिद थी कि मुसलमानों के लिये एक अलग राष्ट्र बनेगा। देखते-देखते उपमहाद्वीप के लाखों मुसलमान लीग की तरफ हो गये। हिन्दू-मुसलमानों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हो गया। दंगे होने लगे। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में हिन्दुओं का जीना मुहाल हो गया और हिन्दू बहुल क्षेत्रों में मुसलमानों का।
अलग राष्ट्र की मांग अवश्य उठ रही थी, खासो-आम सभी हां में हां मिला रहे थे लेकिन अन्दाजा किसी को नहीं था कि यह अलग राष्ट्र क्या होगा और कहां होगा, कैसा होगा? तब सोचा भी नहीं जा सकता था कि जमीन बंट जायेगी और विस्थापन होगा। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय पाकिस्तान का हृदय प्रदेश था और अटकलें थीं कि दिल्ली भी पाकिस्तान में जायेगी।
3 जून 1947 को विभाजन की योजना को सार्वजनिक किया गया और मोटे तौर पर भारत-पाकिस्तान नामक देशों के बीच की लकीर भी जारी की गई। पंजाब के दो टुकडे हो गये। पंजाब में आग लग गई। जुलाई में बंगाल व पंजाब बाउंड्री कमीशन की बैठकें हुई जिसने आजादी के दो दिनों बाद यानी 17 अगस्त को आखिरी फैसला सुना दिया कि सीमा आखिरकार कहां कहां से गुजरेगी। बस, इसके बाद जो देश-भर में आग लगी, वो मानवता के इतिहास की क्रूरतम आग थी। करोडों लोगों का विस्थापन हुआ, लाखों मारे गये, लाखों बिछडे।
कुल मिलाकर पुस्तक में प्रवाह है। अनुवाद भी उच्च कोटि का है। कभी भी नहीं लगता कि हम हिन्दी अनुवाद पढ रहे हैं।

14 अप्रैल 2013
1.काफी दिनों से एक पुस्तक और पढ रहा था- द ग्रेट रेलवे बाजार। पॉल थरु द्वारा लिखित और पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित। मूल रूप से है तो अंग्रेजी में लेकिन मैंने पढी है तो हिन्दी अनुवाद ही पढा होगा। गजेन्द्र राठी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है।
महाराज लन्दन से रेल यात्रा शुरू करके फ्रांस, इटली, क्रोशिया, सर्बिया, बुल्गारिया और तुर्की होते हुए एशिया में प्रवेश करता है। यहां से ईरान में घुसता है। उसकी इच्छा थी कि ईरान से सीधे पाकिस्तान जाया जाये लेकिन हालात उसे अफगानिस्तान ले जाते हैं। खैबर पास के रास्ते पेशावर में प्रवेश करता है और लाहौर के बाद अटारी के रास्ते भारत में। रेल-यात्राएं करता करता चेन्नई और रामेश्वरम तथा श्रीलंका तक जा पहुंचता है।
इसके बाद रंगून यानी म्यांमार, थाईलैण्ड, मलेशिया, सिंगापुर, कम्बोडिया और वियतनाम के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में जान हथेली पर रखकर रेल यात्रा करता है। जापान पहुंचता है जहां से रूस की धरती पर कदम रखकर दुनिया की सबसे लम्बी ट्रांस साइबेरियन रेलवे से यात्रा करता हुआ मास्को और आखिरकार लन्दन पहुंचकर यात्रा को विराम देता है।
लेखक अमेरिकी है। 1975 में उसने यह यात्रा की थी। जिन क्षेत्रों से वह गुजरा था, वे दुनिया के सबसे खतरनाक क्षेत्र थे। पाकिस्तान-अफगानिस्तान की जंग के आसार बन रहे थे। वियतनाम में दहशतगर्दी थी ही। सबसे बढकर रूस-अमेरिका के रिश्ते बदतम थे। इन दोनों देशों के बीच शीत-युद्ध जारी था।
यह तो था उसकी यात्रा का पथ जिसके कारण मैं उसे सैल्यूट करता हूं लेकिन लेखन बिल्कुल निम्न कोटि का है। लन्दन से लन्दन तक पूरी यात्रा में उसे गन्दे और असभ्य लोग ही मिले। हर तरफ गन्दगी और बीमारियां ही मिलीं। रेल-यात्री होने के बावजूद भी उसे कोई भी ट्रेन पसन्द नहीं आईं। यहां तक कि वो खुद भी हर स्थान पर ट्रेन से नीचे उतरकर दो चीजों की खोज करता था- शराब और औरतें। पैसे वाले के लिये भला इन दोनों की क्या कमी? दोनों उसे आसानी से मिल जाती थीं।
जापान की भी आलोचना जमकर की और अमेरिकन होने के नाते रूस की आलोचना तो उसका अधिकार बनता है। लगता है कि उसे किसी ने पैसे दिये होंगे कि बेटा, ये ले पैसे। इस तरह घूमकर आ, किताब लिखेगा तो और पैसे मिलेंगे। मैंने बहुत दिनों पहले ही यह पुस्तक पढनी शुरू कर दी थी लेकिन हर स्थान, हर व्यक्ति की आलोचना के कारण यह रसहीन होती चली गई और आज महीनों बाद यह पूरी हो सकी।

15 अप्रैल 2013
1.सप्ताह भर पहले विपिन से बात की थी तो कितना उत्साह था कि साइकिल चलाऊंगा लेकिन अब सब खत्म। विपिन ने सही कहा था कि दस दिन बाद बात करेंगे। अब जबकि रात के ग्यारह बज चुके हैं, साइकिल के बारे में सोचते हुए भी सुबकी आ रही है। पता नहीं सप्ताह भर पहले मैंने क्या भांग खा रखी थी कि साइकिल यात्रा की बात कर रहा था?
23 तारीख को निकल पडूंगा एक चार या पांच दिनी यात्रा पर। दो स्थान दिमाग में आ रहे हैं- चम्बा और किन्नौर। हालांकि अप्रैल के इन दिनों में मैं 2000 मीटर से ऊपर ही रहना पसन्द करूंगा इसलिये चम्बा में डलहौजी-खजियार और भरमौर तथा किन्नौर तो खैर पूरा ही इसी ऊंचाई से ऊपर है। इस साल का लक्ष्य हिमालय पार की धरती देखना है, किन्नौर इस शर्त को काफी हद तक पूरा भी करता है इसलिये समीकरण किन्नौर के साथ बन रहे हैं। देखते हैं कि अगले सप्ताह जब अपना बोरिया बिस्तर बंधेगा तो कहां जाना होगा।

कुछ फोटो हैं जो यात्रा से इतर खींचे हैं। नटवर ने फोटोग्राफी के कुछ सूत्र बताये। उन्हीं का प्रयोग करके प्रयोग के तौर पर श्वेत-श्याम फोटो खींचे। कम प्रकाश में खींचे गये ये श्वेत-श्याम फोटो मुझे अच्छे लगे।










एक बार फिर धर्मशाला

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2 अप्रैल 2013
नटवर ने सुबह चार बजे दिल्ली की धरती पर पैर रखा। मैंने अपनी छुट्टियों की वजह से उसे पक्की तारीख नहीं बताई थी, इसलिये तीस मार्च को जब उसे यात्रा के दिनांक का पता चला तो तुरत-फुरत में आरक्षण कराना पडा। कुचामन से आने वाली मण्डोर एक्सप्रेस में जगह नहीं मिली तो फुलेरा से अजमेर- हरिद्वार एक्सप्रेस पकड ली।
शुरूआती योजना साइकिल चलाने की थी लेकिन नटवर जिद पर अड गया कि नहीं, साइकिल नहीं चलायेंगे। पहले तो मन में आया कि नटवर से कह दूं कि भाड में जा तू, मैं तो साइकिल ही चलाऊंगा लेकिन जैसे जैसे दिन नजदीक आते गये, मेरा साइकिल मोह कम होता गया। ऊपर से सन्दीप भाई ने भी साइकिल-धिक्कार-पुराण पढना शुरू कर दिया। रहा सहा जोश भी ठण्डा पड गया।
ठीक है नटवर भाई, साइकिल से नहीं जायेंगे। नटवर का कथन था- भगवान ने मेरी सुन ली।
किसी जमाने में अपने मित्रों की उच्च श्रेणी में एक डॉक्टर साहब हुआ करते थे- डॉक्टर करण। वे ठहरे पैसों वाले। उन्होंने बडी महंगी साइकिल ली थी। एक बार वो महंगी साइकिल मेरे हाथ लग गई। भगवान कसम! जो आनन्द आया उस चीज को चलाने में, लगा कि यही है असली चीज। कुछ नहीं रखा पैदल यात्रा में, कुछ नहीं रखा मोटरसाइकिल में। साइकिल ही असली है। और जब महीने भर चलाने के बाद साइकिल डॉक्टर के पास वापस जाने लगी, तो लगा जैसे गर्लफ्रेण्ड किसी और के साथ भाग गई।
खैर, हमने भी हिम्मत नहीं हारी। चौदह हजार रुपये लगाकर नई साइकिल ले ली। अपनी साइकिल हो गई। डॉक्टर वाली साइकिल अगर गर्लफ्रेण्ड थी तो यह घरवाली। परमानेण्ट। जीवन भर के लिये। हनीमून मनाने ऋषिकेशले गया, नीलकण्ठ बाबाके दर्शन कराये। कुछ ही दिन बाद राजस्थानभी घुमा लाया।
लेकिन... शायद इसीलिये घरवाली बुरी होती है। गर्लफ्रेण्ड की बुराइयां कभी नहीं होतीं। ‘शादी’ के समय सपने देखे थे कि तुझे लद्दाख ले जाऊंगा, स्पीति ले जाऊंगा, पांगी ले जाऊंगा, नागालैण्ड ले जाऊंगा। लेकिन अब नाम लेते ही उबकाई सी आने लगती। तू घर में ही रह। मेरी बस ही अच्छी।
साइकिल यात्रा रद्द होने के बाद योजना बनी कि पहले सुन्दरनगर जायेंगे, फिर जंजैहली जायेंगे, फिर शिकारी देवी जायेंगे आदि आदि। नटवर खुश हुआ जा रहा था कि ट्रेकिंग करने को मिलेगी। वो वैसे तो रोहतांग तक गया है, लेकिन ट्रैकिंग कभी नहीं की। सोच रहा था कि ट्रैकिंग बडी खूबसूरत चीज होती होगी। उसके लिये जन्नत थी ट्रैकिंग। ऊपर से फोटोग्राफर ठहरा, पैदल चलते हुए कुदरत के जी भरकर फोटो खींचने को मिलेंगे।
सुबह साढे छह बजे कश्मीरी गेट बस अड्डे पहुंचे। जब मैंने उसे बताया कि शिकारी देवी नहीं जायेंगे तो किंकर्तव्यविमूढ हो गया। वो शिकारी देवी की सारी जीवनी, इतिहास, भूगोल पढकर आया था। सोच बना ली थी कि शिकारी माता के अलावा हिमालय में कहीं ट्रैकिंग हो ही नहीं सकती। काफी देर बाद जब वो ‘दुर्घटना’ से बाहर निकला तो पूछा कि फिर कहां जायेंगे।
“देखते हैं। हिमाचल जाने वाली जो भी पहली बस मिल जायेगी, उसी में चढ लेंगे। कहां जाना है, बस में बैठकर तय करेंगे।”
“शिकारी देवी क्यों नहीं?”
“वहां बहुत ज्यादा बर्फ है अभी। कल परसों तक हिमाचल में जमकर बर्फबारी और बारिश हो रही थी, तो शिकारी पर बर्फ और ज्यादा बढ गई होगी। वैसे तो वहां तक सडक भी बनी है, इसलिये बर्फ पर भी चला जा सकता है लेकिन हमारी योजना थी कि शिकारी के बाद कमरुनाग जायेंगे। वो पगडण्डी वाला रास्ता है और मैं बर्फीली पगडण्डी पर नहीं चलना चाहता।”
“मार्च में बर्फबारी???? हिमाचल में तो मई जून में बर्फ गिरती है। मार्च में नहीं गिरा करती।”
“अरे भाई, तुमने कहां सुन लिया कि यहां गर्मियों में बर्फ गिरती है? पूरे हिमालय क्षेत्र में सर्दियों में बर्फ गिरती है।”
“नहीं। मैंने सुना नहीं है। खुद देखा है... इन आंखों से। मैं बिना सबूत के बात नहीं किया करता। मेरे पास सबूत है कि हिमाचल में गर्मियों में बर्फ गिरती है, सर्दियों में नहीं।”
“बता भाई, क्या सबूत है?”
“मैं दो बार रोहतांग जा चुका हूं। तुम एक बार भी नहीं गये हो, इसलिये तुम्हें पता नहीं है। पहली बार सर्दियों में गया था- नवम्बर में। वहां बिल्कुल भी बर्फ नहीं थी। दूसरी बार जून में गया तो दस-दस फीट तक बर्फ थी वहां। मैंने खुद देखा है। वहां गर्मियों में ही बर्फ पडती है।”
मुझे यह सुनकर छत्तीसगढ यात्रायाद आ गई जहां मेरे सहयोगी पौराणिक कथाओं को सुनाकर ‘सबूतों’ के साथ उनकी सत्यता सिद्ध कर रहे थे। मेरे विरोध करने पर वे नाराज हो गये थे। कहीं यहां भी नाराजगी न फैल जाये, इसलिये उसके ‘सबूतों’ पर चुप रहा।
पहली बस धर्मशाला की मिली। कांगडा का टिकट ले लिया।
करनाल में महा-बेकार परांठे खाने पडे। नाइट ड्यूटी की थी, अब तक कुछ खाया भी नहीं था। भूख भयंकर लग रही थी, इसलिये ‘गन्दगी’ में मुंह मारना पडा।
दिल्ली से बस में हमने सबसे आगे वाली सीटें लीं। दोनों बेचारे रात भर के जगे थे, नींद आने लगी। ड्राइवर ने हडका दिया कि ओये, सोओगे नही। सोना है तो पीछे जाओ। चण्डीगढ में सबसे पहला काम यही किया।
आंख खुली तो हिमाचल में प्रवेश कर चुके थे। अम्ब में थे। यह ऊना जिले में पडता है। अब अम्ब तक रेल भी आने लगी है। इस लाइन पर मैं चुरारू टकराला तक गया हूं। उस समय यह लाइन चुरारू टकराला तक ही खुली थी।
यहां से कांगडा जाने के दो रास्ते हैं- एक सीधा रास्ता और दूसरा ज्वालामुखी होता हुआ। देहरा से दोनों रास्ते अलग होते हैं। देहरा ब्यास के किनारे बसा है और यहां से काफी पहले से ही धौलाधार के हिमाच्छादित पर्वत दिखने लगते हैं।
कांगडा उतरे तो समस्या आई कि अब कहां? सामने वाली बस कहां जा रही है? पालमपुर जा रही है। चल, पालमपुर चलते हैं। नटवर ने पूछा कि पालमपुर कितना दूर है? होगा कोई तीस किलोमीटर। क्या चीज है वहां देखने की? वैसे तो कुछ खास नहीं लेकिन काफी बडा कस्बा है और चाय के बागान भी हैं। बोला कि छोड इस बस को, मुझे प्रेशर बन रहा है। वहां से निपटने के बाद सोचेंगे।
और यह शौचालय बडे काम की जगह है। दिमाग पूरी तरह तनावरहित हो जाता है। आपको कोई निर्णय लेना हो, कुछ देर बैठकर आइये, यकीनन निर्णय लेकर ही उठेंगे। मैं इस कला का अक्सर प्रयोग करता रहता हूं। नटवर भी शायद इसे जानता होगा, तभी तो बाहर आते ही बोला कि धर्मशाला चलते हैं। मेरी तरफ से भी धर्मशाला की हां हो गई।
कांगडा से भला क्या कमी धर्मशाला की बसों की? आधे घण्टे में ही हम धर्मशाला में थे।
कमरा लेने का काम नटवर के जिम्मे छोड दिया। पहला कमरा देखा, चार सौ का, पसन्द नहीं आया। दूसरा ग्यारह सौ का, नापसन्द। तीसरा साढे तीन सौ का, नहीं। चौथा तीन सौ का, नहीं। मैं खीझ उठा। मैंने झल्लाकर पूछा कि लेना क्या चाहता है? बोला कि आगे और भी होटल हैं, ट्राइ मार लेते हैं। मैंने पूछा कि ट्राइ तो मार लेंगे लेकिन यह बता कि कैसा कमरा लेना है। क्या उम्मीदें हैं तेरी कमरे के बारे में? बता मुझे कि ऐसा कमरा लेना है जिसमें यह हो, वह हो, ऐसा हो, वैसा हो। चार कमरे देख लिये, चारों नापसन्द।
बोला कि व्यू... सामने का व्यू ठीक होना चाहिये। मैंने माथा पीट लिया। रात को तुझे सोना है या व्यू देखने हैं? बोला कि नहीं, सुबह जब उठेंगे तो कमरे से सामने का नजारा देखने लायक होना चाहिये। मैंने समझाया कि भाई, उठते ही हमें कमरा छोड देना है। चाहे व्यू वाला हो या नॉन व्यू वाला। आखिरकार वही तीन सौ वाला कमरा ले लिया।
पास में ही धर्मशाला का बस अड्डा था। मैं जब भी धर्मशाला जाता हूं तो बस अड्डे की कैण्टीन में ही खाना खाता हूं। सस्ता मिलता है और गुणवत्ता भी अच्छी होती है। खाना खा आये।
मैं पहले भी कई बार बता चुका हूं कि मुझे बचपन से ही नक्शे पढने का शौक रहा है जो आज तक जारी है। इसी वजह से मुझे सम्पूर्ण भारत के स्थानों की जानकारी है। पश्चिमी हिमालय यानी उत्तराखण्ड, हिमाचल और जम्मू कश्मीर की भी अच्छी जानकारी है। मैंने नटवर को हिमाचल का नक्शा देकर कहा कि मैक्लोडगंजको छोडकर जहां भी कहेगा, कल वहीं चलेंगे।
यह तो ध्यान नहीं कि नटवर ने कहां के बारे में कहा लेकिन पुरानी चामुण्डा पर सहमति बन गई। हालांकि पुरानी चामुण्डा नक्शे में कहीं नहीं है।

अगले भाग में जारी...

हिमानी चामुण्डा ट्रेक

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3 अप्रैल 2013
शलभ की वेबसाइटपर मैंने पहले पहल पुरानी चामुण्डा का नाम देखा था। बाद में केवलराम से भी बात हुई जिससे इसकी और ज्यादा पुष्टि हो गई। कल रात होटल के कर्मचारियों ने बताया कि चामुण्डा जाने वाली किसी भी बस में बैठकर कंडक्टर से कह देना कि पुरानी चामुण्डा जाना है, वो उतार देगा।
मेरी और नटवर के विचारों में एक बडी जबरदस्त समानता है कि दोनों एक नम्बर के सोतडू हैं। रात तय हुआ था कि सुबह छह या सात बजे यहां से चल पडेंगे। दोपहर बाद तक पुरानी चामुण्डा घूमकर आ जायेंगे और शाम को चिडियाघर देखेंगे। तब पता नहीं था कि पुरानी चामुण्डा की एक तरफ की पैदल दूरी सोलह किलोमीटर है। मैं पांच-छह किलोमीटर मान रहा था।
सूरज सिर पर चढ आया, जब हम उठे। पानी ठण्डा था, इसलिये नहाये नहीं। सीधे बस अड्डे पर पहुंचे। सबसे पहले नाश्ता किया। नगरोटा जाने वाली एक बस में बैठ गये और कंडक्टर से कह दिया कि पुरानी चामुण्डा जाना है। उसने दोनों के पैंतीस रुपये लिये और उतारने का वादा कर लिया। वर्तमान चामुण्डा से डेढ दो किलोमीटर पहले एक पुलिया के पास हमें उतार दिया गया और रास्ता भी बता दिया कि इस पर सीधे चले जाना।
यहीं एक बोर्ड लगा था जिस पर दूरी लिखी थी सोलह किलोमीटर। जीपीएस से ऊंचाई देखी- 1040 मीटर। मुझे कुछ कुछ ध्यान था कि शलभ ने पुरानी चामुण्डा की ऊंचाई 2700 मीटर लिखी है। इसलिये मैं 2700 मीटर का ही लक्ष्य मानने लगा। यानी हमें 16 किलोमीटर में 1660 मीटर भी चढना है। यानी प्रति किलोमीटर 104 मीटर। अगर प्रति किलोमीटर 100 मीटर से ज्यादा चढाई का औसत आता है तो मैं इसे कठिन चढाई का दर्जा देता हूं। उस पर भी करीब तीन किलोमीटर दूर कण्ड करडियाणा गांव तक पक्की सडक बनी है, जो ज्यादा चढाई वाली नहीं है।
खैर, एक ग्रामीण से पूछा कि क्या यहां से पुरानी चामुण्डा दिखती है? पता चला सामने जो ऊंची चोटी दिख रही है, उसे पार करके दो-तीन किलोमीटर और आगे है। यह सुनते ही मैंने और नटवर ने एक-दूसरे को देखा। कहां तो हम आज ही वापस लौटकर शाम को चिडियाघर भी देखने की योजना बना रहे थे, कहां अब मन्दिर तक पहुंचना भी मुश्किल लगने लगा। ये ले नटवर, शिकारी देवी न जाने का तुझे मलाल था कि ट्रेकिंग नहीं करने को मिलेगी। अब जी भरकर ट्रेकिंग करना।
कण्ड करडियाणा गांव तक सडक बनी है। शलभ के अनुसार कण्ड तक दिन भर में तीन बसें भी चलती हैं। यहां पता चला कि कोई बस नहीं चलती। हो सकता है कुछ साल पहले जब शलभ गया था तो बसें चलती हों।
नटवर को चीड का फूल मिल गया। उसने उसे बडे जतन से उठाकर सडक के किनारे एक पत्थर पर रख दिया कि वापस लौटते समय उठा लेंगे। अगले दिन जब हम वापस आये तो वह पत्थर से नीचे लुढक गया था लेकिन सुरक्षित था और अगले कुछ ही दिनों में उसने हिमालय की ठण्डक से राजस्थान की गर्मी तक का सफर कर डाला।
एक ग्रामीण के साथ साथ चलते चलते हम शॉर्ट कट भी मारने लगे और सडक छोडकर सीधे कण्ड गांव में जा पहुंचे। खेतों में गेहूं लहलहा रहा था। मैदानों में जहां गेहूं पक चुका है और कटने की कगार पर खडा है, वहीं अभी यहां हरा था। पकने में कम से कम महीना भर लगेगा।
गांव पार करके सबसे आखिर में एक दुकान मिली। यह दुकान 1440 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां कुछ श्रद्धालु भी रुके थे। लडके थे, ताश खेल रहे थे। ये लोग कल ऊपर गये थे, आज लौट रहे हैं। यहां हमने चाय पी। पता चला कि यहां रुकने का इंतजाम भी हो जाता है, वो भी चालीस रुपये प्रति बिस्तर के हिसाब से। अभी चूंकि भीड नहीं थी, नवरात्रों में भीड चरम पर होती है तो श्रद्धालु इन चालीस रुपये पर भी मोलभाव करते दिखते हैं। कण्ड तक बिजली है, उसके बाद बिजली नहीं है। हां, सोलर पैनल युक्त दुकानें रास्ते में मिल जाती हैं। ऊपर मन्दिर में भी सोलर पैनल की ही बिजली जलती है।
लडकों ने इशारा करके दूर पहाड पर तीन झण्डे दिखाये। ये झण्डे इतने नन्हें दिख रहे थे कि आंख दुखने लगीं। बताया कि वो जगह आधे रास्ते में है और वहां रुकने-खाने का ठिकाना भी है।
ऊबड-खाबड और पथरीले रास्ते से चलते रहे। रास्ता बिल्कुल खराब है लेकिन स्पष्ट है। पत्थरों पर तीर के निशान भी बने हैं जिससे भटकने का डर नहीं रहता। अक्सर कई कई रास्ते हो जाते हैं लेकिन जाते सभी ऊपर ही हैं। किसी भी रास्ते पर चलो, आगे जाकर सभी एक हो जाते हैं।
छह किलोमीटर दूर और 1640 मीटर की ऊंचाई पर एक मैदान मिला। इसमें अनगिनत भेड-बकरियां थीं। कुछ गायें भी थीं। ये सब गद्दियों की हैं। गद्दी ही हिमालय के इस इलाके के असली मालिक हैं। भेडपालकों को यहां गद्दी कहते हैं और ये मुसलमान हैं। विभाजन के समय इन पर भी पाकिस्तान जाने का दबाव आया लेकिन इन्होंने कहा कि हम धौलाधार कैसे छोड सकते हैं। बात भी सही है। जो लोग बडे पैमाने पर घुमन्तू जीवन बिताते हैं। दुर्गम से दुर्गम स्थानों पर जिनके घर होते हैं। जो लोग सर्दियों में कांगडा और गर्मियों में 4000 मीटर की ऊंचाई पर रहते हैं और लाहौल तक धावा मारते हैं, वे भला पाकिस्तान कैसे जा सकते थे? आज भी धौलाधार के दोनों तरफ यानी कांगडा घाटी और चम्बा घाटी तथा लाहौल तक अगर घुमक्कडी करनी है तो गद्दियों के बिना असम्भव है।
गद्दी अपने पशुओं के साथ तैयार बैठे हैं धौलाधार को लांघने के लिये। जैसे जैसे बर्फ पिघलती जायेगी, ये लोग आगे बढते जायेंगे।
इस मैदान के पास भी एक दुकान है जहां शीतोष्ण दोनों पेय मिल जाते हैं।
अब एक मुश्किल रास्ता शुरू होता है। असली रास्ता कहीं खो गया और हम स्वयं ही सीधे रास्ते से चल पडे। यह इतना तीव्र है कि कभी तो लगता कि ऊपर से पत्थर अपने ऊपर गिरेगा और कभी लगता कि हम ही गिरेंगे। हमने वापसी में इस शॉर्ट कट से न आने की प्रतिज्ञा की।
1800 मीटर की ऊंचाई पर एक छोटे से पेड के नीचे पानी का नल लगा देखकर खुशी मिली। पूरा रास्ता चूंकि पर्वतीय धार के साथ-साथ है, इसलिये पानी की भारी कमी है। इस कमी को पाइप लगाकर पूरा किया गया है। यहां जमीन का छोटा सा समतल टुकडा भी है, इसलिये बैठ गये और आधे घण्टे से ज्यादा बैठे रहे। मैं अपने साथ नमकीन-बिस्कुट और काजू-किशमिश लाया था जबकि नटवर बादाम। वो अगर बादाम की गिरी ले आता तो अच्छा रहता। ये बादाम फोडने पडे। दो पत्थर उठाकर सिल-बट्टा बनाया और ठकाठक फोडने का काम शुरू कर दिया।
कांगडा कदमों के नीचे दिखता है। लगता है जैसे हम हवाई यात्रा कर रहे हों और नीचे धरती पर जैसा नजारा दिखता है, वैसा ही नजारा दिख रहा था। अति दूर स्थित पोंग बांध भी दिख रहा था। नटवर को सुदूर क्षितिज में बांध नहीं दिखा, मुझे स्पष्ट दिख गया।
कण्ड गांव में ही पता चल गया था कि ऊपर मन्दिर में रुकने के लिये कम्बल मिल जायेंगे। इसलिये हमारा लक्ष्य मन्दिर ही था और नातिदूर होने के कारण हम निश्चिन्त भी थे।
हम नल के पास बैठे बादाम फोड रहे थे कि एक लडका आया। वो अकेला था और दिल्ली से आया था। उत्तम नगर में कॉल सेंटर की गाडी चलाता है। माता पर अगाध श्रद्धा है और आज तीसरी बार यहां आया है। पहली बार जब अविवाहित था, दूसरी बार घरवाली के साथ और अब अकेला। उसे जब पता चला कि हम यहां पहली बार आये हैं तो कथा सुनाने लगा। जबरदस्ती गले पड गया, हमेशा माता का महात्म्य सुनाता रहा। भला यहां कहां पौराणिक कथाओं में श्रद्धा है?
इसके बाद रास्ते के बारे में बताने लगा। बात बात में कहता कि आप पहली बार आये हो, आपको पता नहीं है। वहां बर्फीले पहाडों (धौलाधार के पर्वत) पर तो हवा भी नहीं है। आज तक वहां कोई नहीं जा पाया। मैंने कहा कि महीने भर की बात है, ये पर्वत मनुष्य के लिये अलंघ्य नहीं रह जायेंगे तो ‘भाईसाहब, आपको पता नहीं है’ कहकर मेरी बात काट दी। आखिरकार हम भी उसकी हां में हां मिलाने लगे।
लगभग 2100 मीटर की ऊंचाई पर वो जगह आई जहां तीन झण्डे थे। यहां एक काफी बडी झौंपडी है। चाय मिल गई जो दस रुपये की थी। रुकने का इंतजाम भी यहां हो जाता है। यहां काफी समतल जमीन है, तम्बू भी लगाया जा सकता है।
तीनों जने यहां से चले ही थे कि बूंदाबांदी शुरू हो गई। नीचे कांगडा घाटी में बादलों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। धूप और बादलों का खेल यहां से अच्छा लग रहा था। नीचे बिजली भी गिर रही थी। धीरे धीरे यह बिजली ऊपर की तरफ आने लगी। बिजली के साथ साथ बारिश भी तेज हो गई। मैंने और नटवर ने रेनकोट निकाल लिये। रेनकोट का खाली कवर ‘उत्तम नगर’ को दे दिया ताकि उसका सिर भीगने से बच जाये। जब बिजली सिर के ऊपर गडगडाने लगी तो एक खाली झौंपडी में शरण ले ली। यह चू रही थी, फिर भी भीगने और बिजली का डर तो नहीं था।
बिजली से मुझे डर लगता है। जैसे ही बिजली चमकती है, तो दिल कांप उठता और जब कुछ समय बाद गडगडाहट होती तो बिल्कुल निर्जीव सा हो जाता। वैसे यह एक बडी मजेदार बात है कि बिजली चमकते समय उतना डर नहीं लगता जितना कि गडगडाहट के समय। मजेदार बात इसलिये है क्योंकि बिजली उसी समय गिर जाती है, जब चमकती है। गडगडाहट चूंकि बिजली उत्पन्न होने व गिरने के कुछ समय बाद सुनाई देती है इसलिये यह सूचना देती है कि खतरा कुछ समय पहले टल गया। लेकिन खतरा टलने की सूचना ही मुझे निर्जीव करने के लिये काफी है। जब सिर के ऊपर गडगडाहट होती तो लगता कि अब गिरी बिजली सिर पर लेकिन वास्तव में बिजली कुछ समय पहले गिर चुकी होती है। कैसी अनोखी बात है!
शायद उसका नाम सोनू था। जब बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी तो सोनू को लगने लगा कि दोनों भाई खेले-खाये हैं। उसने जाहिर भी किया। अप्रैल के महीने में जब दूर-दूर तक बारिश नहीं होती, हमारा रेनकोट लेकर चलना उसके इस विश्वास का आधार था।
बारिश थम गई लेकिन जब तक सिर के ऊपर से बादल नहीं चले गये, हम बाहर नहीं निकले। सोनू छटपटा रहा था अतिशीघ्र जाने के लिये लेकिन हमने अपना फैसला सुना दिया कि चाहे घण्टा भर हो जाये बारिश रुके हुए लेकिन जब तक ऊपर से बादल नहीं हट जायेंगे तब तक हम नहीं हिलेंगे।
अक्सर कहा जाता है कि पहाडों पर मौसम का भरोसा नहीं होता। लेकिन दो-चार बार मौसम का सामना होने पर मौसम को पहचानना ज्यादा मुश्किल भी नहीं होता। हवाओं की दिशा मौसम में अहम भूमिका निभाती हैं। इस समय हवा बादलों को तेजी से धौलाधार पार करा रही थी, कांगडा घाटी पूरी तरह धूपमय हो गई थी, इसलिये हम निश्चिन्त थे कि जल्द ही हम भी धूपमय हो जायेंगे। हमारा अनुमान गलत नहीं था।
काण्ड के बाद कभी भी चढाई में आराम नहीं मिला। तेज चढाई जारी रही। बारिश होने से हवाओं में नमी बढ गई। 2500 मीटर तक तो हवाएं असह्य होने लगी थीं। दूसरे, चढाई के कारण पसीना लगातार आ रहा था, जिससे कपडों के अन्दर भी राहत नहीं थी। भूख लगने लगी तो मैंने घोषणा कर दी कि अब जहां भी जैसी भी झौंपडी मिलेगी, वहीं रुककर काजू-किशमिश और नमकीन बिस्कुट खाये जायेंगे।
2520 मीटर की ऊंचाई पर मन्दिर से लगभग दो किलोमीटर पहले एक झौंपडी मिल गई। सोनू कभी का हमसे आगे निकल चुका था। जब हम इस झौंपडी के सामने बिछे पत्थरों पर बैठने लगे तो अन्दर से आवाज आई। झांककर देखा तो एक आदमी था। हमने चाय के बारे में पूछा तो चाय बनने लगी। इस झौंपडी में दो कमरे थे, अन्दर वाले अन्धेरे कमरे में आग के पास बैठकर जन्नत का अनुभव होना ही था। चाय पीने और बिस्कुट नमकीन खाने के बहाने आग का भरपूर लाभ उठाया।
हर ट्रेक की तरह इस ट्रेक में भी कैमरे ने बडा साथ दिया। इसलिये नहीं कि फोटो खींचे इसने। बल्कि इसलिये कि इसके बहाने रुकना पडता। चढाईयों पर आधे मिनट रुकना भी बडे सुकून की बात होती है।
यहां से चले तो सूरज क्षितिज में पहुंच चुका था। डूबते ही दस मिनट के अन्दर अन्धेरा हो जाना था, इसलिये तेज कदमों से आगे बढे। मन्दिर से साढे छह सौ मीटर पहले एक दुकान और मिली। बाहर एक चबूतरे पर कुछ बर्तन फैले थे। मैंने सुझाव दिया कि यहीं खाना-पीना कर लेते हैं लेकिन नटवर के कहे अनुसार बढते रहे। बताया गया था कि मन्दिर के पास भी खाने को मिल जायेगा।
बिल्कुल अन्धेरा हो गया था, जब हम मन्दिर पर पहुंचे। यहां चहल-पहल थी। बाबाजी से बात की तो पता चला कि खाने का इंतजाम अपनी तरफ से करना पडेगा, मन्दिर समिति सोने के लिये कम्बल दे देगी। अपनी तरफ से तो हम खाने का इंतजाम करने से रहे, उन्होंने सुझाव दिया कि आधा किलोमीटर पीछे जो दुकान है, वहीं खाकर आ जाओ।
मजबूरीवश आधा किलोमीटर पीछे उसी दुकान पर जाना पडा, जहां पर बर्तन रखे थे। गये तो मालिक सोया पडा था और अन्धेरा था। किवाड खुले थे। हमने आवाज दी, लेकिन कोई हलचल नहीं हुई। मालिक को हिलाकर उठाना उचित नहीं समझा। अगले दिन जब हम लौटते समय पुनः उस दुकान पर गये तो मालिक ने बताया कि जबरदस्ती उठा देना चाहिये था। खाना उपलब्ध था।
खैर, भूखे निराश हम पुनः 2770 मीटर पर बने मन्दिर में पहुंचे तो आरती हो रही थी। कडाके की ठण्ड में जूते उतारने का मन तो नहीं था, लेकिन उतारने पडे। आरती के बाद प्रसाद से निपटकर बाबाजी के पास गये, अपनी व्यथा सुनाई तो खाने का इंतजाम हो गया। साधुओं के लिये जो रसोईया भोजन बनाता है, वही हमारे लिये भी बनाने को राजी हो गया।
कम से कम तीस कम्बल लिये। मन्दिर के सामने धर्मशाला है। सौ रुपये जमा कने पर कम्बल मिल जाते हैं। सुबह कम्बल वापस करने पर पैसे भी वापस मिल जाते हैं। कुछ बिछाये, कुछ ओढे, तब भी ठण्ड गई नहीं। यहां तक कि जब खाने का बुलावा आया तो नटवर के अलावा कोई भी उठने को राजी नहीं हुआ- ना मै और ना ही सोनू। जबरदस्ती करके सोनू को उठाया गया लेकिन मैं नहीं उठ सका। भीगे कपडों के कारण ठण्ड लगती रही, कम्बलों से मुंह बाहर निकालने की भी हिम्मत नहीं पडी। उम्मीद थी कि सोते समय शरीर की गर्मी से पसीना सूख जायेगा लेकिन जब आधे घण्टे तक ठिठुरता रहा तो हिम्मत करके उठा, कपडे बदले, कुछ काजू-किशमिश खाये, तब जाकर सर्दी से राहत मिली।


यहां से पैदल यात्रा शुरू होती है।

कण्ड तक सडक बनी है।






फोटो के बीच में मुख्य सडक की एक पुलिया है। इसी के बराबर से एक पतली सी सडक निकलती है, जो कण्ड जाती है। ऊपर मन्दिर तक यह दृश्य दिखता रहता है।

नटवर लाल भार्गव। भृगु ऋषि की सन्तान।




एक छोटा सा चरागाह




ऊपर से चरागाह और उसमें विचरतीं भेडें ऐसी दिखती हैं।

यह है रास्ता



कांगडा घाटी का विहंगम दृश्य दिखता है।

पत्थरों पर तीर के निशान


और ऊपर से दिखता चरागाह

थोडा जूम कर लेते हैं।

दूर पालमपुर की तरफ दिखता एक गोनपा।

इन फूलों की चटनी बनती है, जो बडी स्वादिष्ट लगती है।

कांगडा घाटी के ऊपर बादलों और धूप का खेल


कांगडा में जोरों की बारिश हो रही है।

2100 मीटर की ऊंचाई पर एक दुकान जहां खाना-रुकना हो जाता है।







बारिश में बस चाय मिलती रहे।


सूर्यास्त हो रहा है।


इस जगह का नाम हमने रखा- हडप्पा संस्कृति। सब गद्दियों की करामात है।

मन्दिर से आधा किलोमीटर पहले और दूर दूर तक दिखती कांगडा घाटी।
अगले भाग में जारी...

कांगडा यात्रा
1. एक बार फिर धर्मशाला
2. हिमानी चामुण्डा ट्रेक
3. हिमानी चामुण्डा से वापसी


हिमानी चामुण्डा से वापसी

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4 अप्रैल 2013
साढे आठ बजे सोकर उठे। सभी लोग जाग गये थे। नटवर भी सोने के मामले में मुझसे ऊपर ही है। घोडे बेचकर सोता है। नटवर और सोनू दोनों शिकायत कर रहे थे कि पूरी रात ठण्ड लगती रही, नींद नहीं आई लेकिन मैंने यह शिकायत नहीं की। गीले कपडे उतारकर सूखे कपडे पहनने के बाद तो जैसे मैं नींदलोक में ही चला गया था। पूरी रात अच्छी नींद आई।
सोनू के लिये चामुण्डा आराध्या देवी हैं। उन्होंने इसे कई संकटों से उबारा है। जब सोनू का कम्बल धर्मशाला के कम्बलों में खो गया तो इसे ढूंढने की कोशिश भी नहीं की। हमें कम्बल वापस देकर सौ रुपये वापस ले लेने थे लेकिन मैंने उनकी रसीद कटवा ली। आखिर इतनी ठण्ड में तीस के करीब कम्बल और रात खाना हमने मुफ्त में ही तो खाया था।
सोनू ने बताया कि यहां से आगे बर्फीले पहाडों में माता का एक मन्दिर और है- खरगोशनी माता। उसकी भी उसने महिमा बतानी शुरू कर दी। ये देवी-देवता पूरे हिमालय में हैं और इस दुर्गम इलाके में आदमी के डर को कम करने व सहारा देने के लिये देवता बडे काम के हैं।
नटवर ने कहा कि जाटराम, आज चालीस रुपये वाले घर में रुकेंगे। कण्ड गांव में जिस दुकान पर हमने चाय पी थे, वे अपने घर में यात्रियों को चालीस रुपये प्रति व्यक्ति की दर से बिस्तर मुहैया कराते हैं। मेरे साथ सोनू ने भी हामी भर ली। तय हुआ कि चूंकि हमें बारह-तेरह किलोमीटर ही चलना है और सारी यात्रा नीचे उतरने की है, इसलिये अति धीरे धीरे चलते हुए, ढेर सारे फोटो खींचते हुए शाम तक ही कण्ड पहुंचेंगे। रास्ते में जितनी भी चाय की दुकानें मिलेंगी, चाय पीते चलेंगे। सभी समहत हो गये।
मन्दिर से दो सौ मीटर चलते ही एक छोटा सा कुण्ड मिला। इसके एक किनारे पर बर्फ भी थी। पानी गन्दला था। नाम रखा गया नटवर कुण्ड। मैंने विरोध किया कि नहीं, राजस्थान में गंजे लोगों को नटवर कहते हैं, जबकि हमारे यहां टकला कहते हैं, इसलिये इसका नाम टकला कुण्ड होना चाहिये।
कुछ और आगे चले तो वही दुकान खुली मिली जो रात बन्द थी और मालिक सोया पडा था। चाय बनाने को कह दिया। बातचीत में पता चला कि कल यहां खाना बना हुआ था। मालिक ने यह भी कहा कि हमें उसे जगा देना चाहिये था।
रात मन्दिर की धर्मशाला में काफी लोग थे। वे सभी अब नीचे उतर रहे थे। उन्होंने शॉर्टकट अपनाया। हमें एक तो नीचे उतरने की कोई जल्दी नहीं थी, दूसरा मैंने जीपीएस नॉन-स्टॉप चालू कर रखा था, ताकि सटीक पैदल दूरी पता चल सके, इसलिये बनी बनाई पगडण्डी से चलते रहे।
और नीचे उतरे तो वही अन्धेरी दुकान मिली जिसमें कल चाय पी थी, बल्कि कहना चाहिये कि आग सेंकी थी। बारिश के बाद जब हमें आग की जरुरत थी तो यहां आग मिली थी। आज मालिक दुकान के सामने बैठे थे। हमने भी उन्हें देखने ही चाय बनाने को कह दिया जबकि हम बीस मिनट पहले ही चाय पीकर आये थे। अभी ग्यारह भी नहीं बजे थे, हमें दस किलोमीटर नीचे और उतरना था और शाम छह बजे से पहले किसी भी हालत में हम कण्ड नहीं पहुंचना चाहते थे। इसलिये जी भरकर समय बिताते हुए मटरगश्ती करते हुए चलना था।
इसी दुकान पर चाय पीकर तय हुआ कि जंगल जाते हैं। लोटा तो था नहीं, लेकिन बोतल थी। यहां भी वही अधिकतम समय लगाने वाली बात। पहले मैं गया, पूरे आधे घण्टे में लौटा। इसके बाद नटवर गया और पांच मिनट में ही लौट आया। बताया कि मक्खियों ने बैठने भी नहीं दिया। पूछने लगा कि यार तू आधे घण्टे तक कैसे बैठा रहा? मक्खियों ने तुझे तंग नहीं किया क्या? मैंने कहा कि तू जरूर पैण्ट खोलकर बैठा होगा।
दुकान के मालिक बाबाजी लाल फूलों की पंखुडियों को तोडने में लगे थे, चटनी बनायेंगे। फूलों के परागकण अभक्ष्य होते हैं, इसलिये उन्हें निकालकर फेंक देना होता है। यहां इन फूलों और चटनी का हमारे ऊपर इतना प्रभाव पडा कि तय हो गया कि नीचे जहां भी कहीं भोजन करेंगे, चटनी अवश्य बनवायेंगे।
कल बारिश होने पर जिस झौंपडी में शरण ली थी, आज उसके पास कुछ यात्री बैठे भोजन बनाने की तैयारी कर रहे थे। लकडियां गीली थीं, फिर भी इन्होंने सूखी लकडियों का इंतजाम कर लिया। समस्या आई माचिस की। पता नहीं कब मिली होगी इन्हें माचिस। तब तक खाली भगोने में चावल और पानी डालकर सूखी लकडियों के ऊपर रखकर ही बैठे रहे।
कुछ पैराग्लाइडर ऊपर उडते दिखने लगे। ये अवश्य ही बिलिंग से आये होंगे। आखिर बिलिंग पैराग्लाइडिंग के क्षेत्र में विश्व प्रसिद्ध है और यहां से ज्यादा दूर भी नहीं।
आखिरकार वो दुकान आ गई जो इस यात्रा मार्ग के बीचोंबीच स्थित है। इसकी समुद्र तल से ऊंचाई 2100 मीटर है। खाने की बात की तो पता चला कि दाल चावल हैं। हमें तो यहां रुकना ही था, भले ही एक एक कप चाय पीकर जायें। यहां अगर एक घण्टे तक न रुके तो कण्ड में तीन बजे तक ही पहुंच जायेंगे। फिर वहां रुकने का मन नहीं करेगा। चावल की बात सुनकर सोनू मना करने लगा। आखिरकार परांठों की बात तय हुई। हम तीनों दो-दो परांठे खायेंगे।
दुकान के सामने एक बडी चट्टान इस तरह पडी है कि इस पर पांच छह आदमी आराम से लेट सकते हैं। अच्छी धूप निकली थी, ऊंचाई और हवा के कारण गर्मी नहीं थी। जाकर पड गये। जब तीनों को घोडे बेचने वाली नींद आ रही थी, तो कम्बख्त दुकान वाले ने आवाज लगा दी कि आ जाओ, परांठे खा लो। परांठे खाने के बाद किसी की इच्छा नहीं हुई पुनः लेटने की। हां, परांठों के साथ वो लाल फूलों वाली चटनी भी मिली। वाकई स्वादिष्ट लगी। इन फूलों का अचार भी डलता है। हम पता नहीं डिब्बाबन्द चीजों के नाम पर क्या-क्या खा जाते हैं, असली स्वाद तो यहां है।
बारह बजे यहां आ गये थे, एक बजे चल दिये। नौ बजे के चले हुए थे हम मन्दिर से, आधी दूरी तय करने में जितना समय लगा, उससे हम पूरी तरह सन्तुष्ट थे। फिर भी छह बजे तक कण्ड पहुंचने के लिये और ज्यादा आवारागर्दी की आवश्यकता है।
यहां से आगे हम मुख्य पगडण्डी से भटक गये और शॉर्ट-कट से चल पडे। पता ही नहीं चला कि कब पगडण्डी छोड दी। बडा खतरनाक शॉर्ट कट है यह। बजरी और छोटे छोटे पत्थर। और ढलान भी बहुत ज्यादा। पौने दो बजे हम अपनी कल वाली बादाम फोडने वाली जगह पर पहुंच गये। यहीं वो जगह है, जहां हमारी कल सोनू से मुलाकात हुई थी और यही वो जगह है जहां आज सोनू से वियोग हो गया। सोनू हमसे कुछ आगे चल रहा था। अचानक हमें यह जगह दिखाई दी। कल की याद ताजा करने के लिये तय हुआ कि बैठकर कुछ बादाम फोडे जायें। आगे मार्ग में अत्यधिक ढलान होने के कारण सोनू कब कहां पहुंच गया, हमें दिखाई ही नहीं पडा। हालांकि सोनू ने बाद में नीचे चरागाह और कण्ड में हमारी प्रतीक्षा की थी लेकिन हमारा कुछ पता न लगने के कारण वो चला गया।
आधे घण्टे बैठे रहने के बाद यहां से भी चल दिये। बीस मिनट चलकर हम चरागाह में पहुंचे। एक दुकान थी यहां भी। मालिक था नीशू। नटवर ने शेखी बघारते हुए कह दिया कि हम अखबार वाले हैं। बस, नीशू सिर हो गया कि मेरा फोटू खींच लो और अखबार में डाल देना। जब मैं चरागाह में लेटने लगा तो कुछ कांच के टुकडे भी पडे थे। मैंने नीशू से कहा तो वो शुरू हो गया। कहने लगा कि सर, यहां नीचे के लोगों ने माहौल खराब कर रखा है। यहां आते हैं, दारू पीते हैं और बोतल फोड-फाडकर चले जाते हैं। आप अखबार में लिखना यह सब। मेरा फोटू भी खींचो, नीशू नाम है मेरा। छाप देना।
मैंने सोचा कि वो अब रोज अखबार देखा करेगा, रोज मित्रों से बताया करेगा कि अखबार में फोटो आने वाला है। फोटो आयेगा नहीं, उसका विश्वास टूटेगा। इसलिये मैंने समझाया कि भाई, हम दिल्ली के रहने वाले हैं। अखबार में हम दस फोटो भेज देंगे, वे छापेंगे मात्र दो ही। इसलिये हो सकता है कि तेरा फोटो न छपे। दूसरी बात कि अगर छपेगा भी तो दिल्ली के अखबार में छपेगा, कांगडा के अखबार में नहीं। हालांकि कहा तो मैंने झूठ ही था लेकिन नीशू के विश्वास को सतह पर लाने के लिये ऐसा करना जरूरी था। अब वो अखबार में अपना फोटो नहीं ढूंढेगा।
साढे तीन बजे यहां से चले, बेहद धीमे धीमे चलते रहे। आडे तिरछे होकर तितलियों आदि के फोटो लेने की असफल कोशिश करते रहे, फिर भी चार बजे तक हम कण्ड गांव में प्रवेश कर चुके थे। यहां से ऊपर मन्दिर तक जाने में हमें छह घण्टे लगे थे, वापस नीचे उतरने में सात घण्टे। उसी दुकान पर गये, चाय बनवाई। अच्छा-खासा दिन था। आंखों ही आंखों में तय हो गया कि चाय पीयो और खिसक लो यहां से। अगर छह बजे का समय होता, दिन छिपने की कगार पर होता तो यहां रुकने की सोची भी जा सकती थी, लेकिन जैसे ही चाय खत्म हुई, हममें से वो उससे आगे, वो उससे आगे।
यहां से आगे वैसे तो सडक भी बनी है लेकिन हमने शॉर्ट कट पकडा। साढे पांच बजे तक हम मुख्य रोड पर थे। यहां से चामुण्डा डेढ किलोमीटर दूर ही है। पैदल चले गये। सोनू नहीं दिखाई दिया। शायद उसने दिल्ली की बस पकड ली होगी।
चामुण्डा मन्दिर के पास ही एक कमरा ले लिया। अन्धेरे में मन्दिर घूमने गये। लेकिन अत्यधिक थके होने के कारण शीघ्र ही लौट आये।
कल कहां जायेंगे? तय हुआ कि उठकर सबसे पहले चिडियाघर जायेंगे। नटवर की दिलचस्पी चिडियाघर में बहुत ज्यादा थी, फोटोग्राफर जो ठहरा। उसके बाद गग्गल पहुंचकर ततवानी और मसरूर देखकर शाम तक डलहौजी चले जायेंगे। परसों दिल्ली जाने के लिये हमारा आरक्षण पठानकोट से चलने वाली धौलाधार एक्सप्रेस में है।
आज एक बात सीखी कि मैं फोटोग्राफर नहीं हूं। इसलिये मैन्यूअल मोड में फोटो नहीं खींचूंगा। नटवर ने अहमदाबाद-उदयपुर रेल यात्रामें मुझे मैन्यूअल मोड में फोटो खींचने की कला सिखाई थी, आज उसकी यह कला साभार वापस लौटा दी।

हिमानी चामुण्डा मन्दिर


मन्दिर के पीछे धौलाधार के चार हजार मीटर ऊंचे पर्वत।





हिमानी चामुण्डा के सामने बनी धर्मशाला, जहां हम रात रुके।

अलविदा चामुण्डाये... फिर मिलेंगे।


‘नटवर’ कुण्ड

हिमानी चामुण्डा से दिखती कांगडा घाटी

यही वो दुकान है जो रात बन्द थी और हम भूखे इसमें खाना ढूंढने आये थे।






नटवर और सोनू

माचिस दे दो कोई।

पैराग्लाइडर बिलिंग से यहां तक धावा मारते हैं।

2100 मीटर की ऊंचाई पर भोजन।

पानी दो भाई पानी... मुंह जल गया।


बादाम फोड तीर्थ



रास्ता तीव्र ढलान वाला और फिसलाऊ है।


चरागाह में धूप स्नान।


यह है नीशू... कह रहा था कि मेरा फोटो अखबार में डाल देना।



चिल्लर पार्टी






नीचे चामुण्डा मन्दिर के पास बने होटल में।
अगले भाग में जारी...

कांगडा यात्रा
1. एक बार फिर धर्मशाला
2. हिमानी चामुण्डा ट्रेक
3. हिमानी चामुण्डा से वापसी

एक बार फिर बैजनाथ

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5 अप्रैल 2013
आठ बजे आंख खुली। आज हमें सबसे पहले चिडियाघर जाना था, उसके बाद ततवानी और मसरूर। लेकिन मैं तरुण गोयलको फोन मिला बैठा। बोले कि मूर्ख, चामुण्डा में क्या कर रहा है? तुझे तो इस समय बरोट होना चाहिये था। मैंने कहा कि भाई, हम हिमानी चामुण्डा से आये हैं। बोले कि आंख मीचकर बरोट चले जाओ। वहां से बडाग्रां तक बस जाती है और बडाग्रां से बिलिंग की ट्रेकिंग करो। मैंने कहा कि बरोट तक जाया जा सकता है, लेकिन हम ट्रेकिंग के मूड में नहीं हैं। दोनों के पैर हिमानी चामुण्डा ने दुखा रखे हैं।
कांगडा रेल की समय सारणी मेरी जेब में थी। बैजनाथ पपरोला से जोगिन्द्र नगर की गाडी देखी, नौ पचास पर छूटेगी। अभी साढे आठ बजे हैं। नटवर, जल्दी कर जितनी जल्दी हो सके। क्या हुआ? बहुत कुछ हो गया। अब हम पहले बैजनाथ जायेंगे।
चामुण्डा से पहले पालमपुर जाना होता है, फिर बैजनाथ। बैजनाथ तक का कुल रास्ता डेढ घण्टे का है। बिना नहाये धोये नौ बजे चामुण्डा से निकल पडे। अड्डे पर पालमपुर की बस खडी थी। जब यह नदी पार करके सीधे पालमपुर जाने की बजाय नगरोटा की तरफ चल पडी तो मन ने कहा कि बेटा, भूल जा रेल को।
दस बजे पालमपुर पहुंचे। जाते ही बैजनाथ की बस मिल गई। रेल कभी की जा चुकी थी, इसलिये पपरोला में उतरने का कोई औचित्य नहीं था, मन्दिर पर ही उतरे।
चार साल पहले मेट्रो में नौकरी लगते ही पहली यात्राइधर की ही हुई थी। तब से पहले पहाड के नाम पर मैंने सिर्फ ऋषिकेश और भागादेवली ही देखे हुए थे। उत्तराखण्ड का मुझे पता था कि रात में बसें नहीं चलतीं। यही नियम हिमाचल पर भी लागू था मेरी निगाह में। पठानकोट तक रामबाबू के साथ रेल से पहुंचे, उसके बाद पपरोला तक छोटी रेल से। वह गाडी चूंकि जोगिन्द्र नगर ही जा रही थी, लेकिन हम आगे इसलिये नहीं थे कि कहीं जोगिन्द्र नगर से वापस बैजनाथ आने के लिये कोई साधन न मिले। मुझे कुछ नहीं पता था उस समय। कभी होटल में कमरे भी नहीं लिये थे। यह भी नहीं पता था कि जोगिन्द्र नगर बैजनाथ से भी ज्यादा समृद्ध नगर है। इस रेल मार्ग का पपरोला से जोगिन्द्र नगर वाला खण्ड अभी तक मैंने नहीं देखा है।
बस से उतरकर सबसे पहले परांठे खाये गये। इसके बाद 13वीं शताब्दी में निर्मित शिव मन्दिर को देखने चल दिये। मन्दिर प्रांगण में फोटो लिये जा सकते हैं, लेकिन अन्दर फोटो लेने की मनाही है। इस मन्दिर को स्थानीय लोग बारह ज्योतिर्लिंगों में भी मानते हैं, लेकिन झारखण्ड वाला बैद्यनाथ इसे पीछे छोडकर बाजी मार ले जाता है।
बाकी लोगों की तरह नटवर ने भी नन्दी के कान में कुछ फुस-फुस की। मैंने पूछा तो बताया कि इससे मनोकामना पूरी होती है। इसी फुसफुसाहट में लोग नन्दी के सिर पर प्रसाद भी रख देते हैं, जिसे थोडी थोडी देर बाद आकर बन्दर उठा ले जाते हैं। कुछ लोग नन्दी के पिछवाडे में भी सिर मारते हैं। वाह रे भक्ति!
खैर, मन्दिर की मूर्तिकला व वास्तुकला तो दर्शनीय है ही।
यहां से पांच किलोमीटर दूर महाकाल मन्दिर भी है। हम महाकाल जाने वाली बस में बैठे लेकिन बस स्टार्ट नहीं हुई। लोगों ने मिलकर खूब कोशिश की, बस खाली करवाकर धक्के भी लगाये लेकिन बस ने स्टार्ट न होने की कसम खा ली। पौने घण्टे तक यह कोशिश होती रही। एक बजे के आसपास हम भी निराश होकर जोगिन्दर नगर वाली बस में जा बैठे।

बैजनाथ मन्दिर



नन्दी के कान में फुस-फुस करने की परम्परा है।


















पैंट फट गई थी, मरम्मत हो रही है।
अगले भाग में जारी...

कांगडा यात्रा
1. एक बार फिर धर्मशाला
2. हिमानी चामुण्डा ट्रेक
3. हिमानी चामुण्डा से वापसी
4. एक बार फिर बैजनाथ

बरोट यात्रा

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5 अप्रैल 2013
छोटा सा बस अड्डा जोगिन्दर नगर का, उसमें भी बसों की भयंकर भीड। बडाग्रां से बीड जाने वाली एक बस खडी थी। हमें इससे क्या फायदा था? अगर यह बडाग्रां जाती तो चढते भी। एक बार तो मन में आया कि आज यहीं रुक जाते हैं, सुबह सात बजे चलने वाली छोटी गाडी से बैजनाथ पपरोला चले जायेंगे। वहां से आगे चिडियाघर और ततवानी, मसरूर। लेकिन तभी पता चला कि बरोट के लिये ढाई बजे सरकारी बस आयेगी।
बस आई। भीड टूट पडी। खैरियत कि हमें बैठने की जगह मिल गई। घटासनी जाकर आधे घण्टे के लिये बस रुक गई। घटासनी से सीधी सडक मण्डी चली गई जबकि बायें मुडकर बरोट।
घटासनी से चढाई शुरू हुई और झटींगरी में जाकर खत्म हुई। झटींगरी के बाद बस ऊहल घाटी में उतरने लगी। यहां से धौलाधार के बर्फीले पर्वतों के अलावा सुदूर किन्नौर के बर्फीले पर्वत भी दिख रहे थे। टिक्कन में ऊहल नदी पार की।
पांच बजे बरोट पहुंच गये। पीडब्ल्यूडी के रेस्ट हाउस के सामने से होकर जब बस निकली, तभी सोच लिया कि इसी में रुकने की कोशिश करते हैं। नटवर भी सहमत था।
रेस्ट हाउस में कोई नहीं दिखा तो एक हॉल में चले गये, जहां चार-पांच लोग दारू पी रहे थे। हावभाव से ही पता चल रहा था कि कोई बडे पैसे वाले हैं। दिल्ली के थे। पहले तो उन्होंने हमारा जबरदस्त इंटरव्यू लिया, बाद में रसोईये के पास भेज दिया। कमरा उपलब्ध था, इसलिये मिल गया। बाद में पता चला कि ये लोग दिल्ली में प्रॉपर्टी डीलर हैं, एक तो कॉलोनियों का निर्माण कराता है। परिचय होने के बाद इनसे बात करने में मेरा दम घुटने लगा। मुझे इन्होंने फोन नम्बर भी दिया, यह कहते हुए कि दिल्ली एनसीआर में कोई मकान चाहिये तो बात करना। दिखावे के लिये मैंने नम्बर तो ले लिया, मुंह फेरते ही उडा भी दिया। नीरज, यार तू भी किन बडे लोगों में जा फंसा था?
बरोट का यह रेस्ट हाउस अपने ब्रिटिशकालीन लकडी के रेस्ट हाउस के कारण प्रसिद्ध है। यह चीड की लकडी का बना है, पॉलिश की वजह से चिकना और चमकदार दिखता है। चीड की सुगन्ध जमकर आती है। काफी बडे आकार का एक कमरा, एक छोटा कमरा और बडा सा प्रसाधन कक्ष- गीजर भी। किराया 480 रुपये।
बरोट का नाम भारत के शुरूआती जल-विद्युत संयन्त्रों के कारण लिया जाता है। यहां ऊहल में एक नदी और आकर मिलती है। दोनों नदियों के संगम से कुछ आगे एक बांध है। बांध से पानी बडे बडे पाइपों में पहाड के दूसरी तरफ अपेक्षाकृत निचाई पर बसे जोगिन्दर नगर ले जाया जाता है। नीचे ही विद्युत संयन्त्र है। 10 मार्च 1933 को इसका उद्घाटन हुआ था।
इस बांध को बनाने के लिये ही पठानकोट से जोगिन्दर नगर तक छोटी लाइन की रेल बिछाई गई। इतना ही नहीं, चमत्कार तो इसके बाद हुआ। जोगिन्दर नगर से एक रेल लाइन सीधे ऊपर पहाड पर चढाकर इसे दूसरी तरफ बरोट में उतारा गया है। यह ब्रॉड गेज है। जोगिन्दर नगर के पास जो पावर हाउस है, उसकी ऊंचाई 1200 मीटर है, बरोट 1800 मीटर पर है और इनके बीच में जो पर्वत श्रंखला है, वो 2600 मीटर ऊंची है। यानी रेलवे लाइन 1200 मीटर से शुरू होकर सीधे बिना किसी मोड-तोड के 2600 मीटर तक चढती है, उसके बाद बरोट की तरफ सीधे उतर जाती है। यह लाइन आदमियों और सामान को बरोट पहुंचाने के काम में आती थी। 2600 मीटर की ऊंचाई पर विंच कैम्प है। जोगिन्दर नगर से विंच कैम्प तक अभी भी इस पर ट्रॉली चलती है, जबकि विंच कैम्प से बरोट तक लाइन बन्द है। हालांकि रेल की पटरियां अवश्य हैं।
रेस्ट हाउस में सामान रखकर कन्धों पर कैमरे लटकाये दोनों भाई बरोट भ्रमण पर निकल पडे। बांध के ऊपर से गुजरकर नदी के उस तरफ पहुंचे। यहां से एक छोटी सी नहर निकली है, जिसका पानी आगे जाकर पाइपों के जरिये नीचे जाता है। हर बांध की तरह यहां भी फोटो खींचने की जबरदस्त मनाही है।
एक जगह चाय पी। नटवर ने बडा घिनौना काम किया। चार अण्डे फोडकर एक गिलास में डालकर कच्चे ही पी गया। मैं भले ही आमलेट और उबले अण्डे खा लेता हूं, लेकिन कच्चे अण्डे पीने के नाम से ही उबकाई आती है। लोग-बाग पता नहीं क्या-क्या खा जाते हैं?
आगे बढते रहे। छोटा सा बरोट गांव कभी का पीछे छूट गया। खेतों में काम करते ग्रामीण घरों में लौटने लगे। कुत्ते हम अजनबियों पर भौंकते रहे लेकिन दूर-दूर से ही।
बांध से लगभग दो किलोमीटर चलने के बाद एक पुल मिला। हम नदी के दाहिनी तरफ चल रहे थे, रेस्ट हाउस बायीं तरफ है, बांध से हमने नदी पार की थी, दूसरा पुल ढूंढते ढूंढते यहां तक आ गये। अब पुनः नदी पार करके सडक पकडकर रेस्ट हाउस चले जायेंगे।
अरे, यह क्या? रेल की लाइन?
समझते देर नहीं लगी कि यह वही रेल लाइन है जो जोगिन्दर नगर से आई है। अभी तक तो सुना और पढा था, अब सामने प्रत्यक्ष देखकर इसकी भयावहता का अन्दाजा हो रहा है। शुरूआत ही पैंतालिस डिग्री के ढलान से होती है और कुछ ऊपर जाकर यह ढलान और बढ जाता है- कम से कम साठ डिग्री। आदमी भी सीधा चढना चाहे तो नहीं चढ सकता।
इसपर चलने वाली ट्रॉली को मोटी लोहे की रस्सियों से खींचा जाता था। अब चूंकि इस तरफ ट्रॉली नहीं चलती, इसलिये सबकुछ क्षतिग्रस्त है। यहीं पास में चाय की दुकान है। हमने चाय बनवा ली। और पता करने लगे कि इसके साथ साथ चढने की क्या सम्भावना है? बोला कि शानदार सम्भावना है। ऊपर चढ जाओगे तो क्या पता कि दूसरी तरफ नीचे उतरने के लिये आपको ट्रॉली मिल जाये। नहीं तो पैदल का रास्ता भी है। बस से दो घण्टे लगते हैं, इधर से तीन घण्टे में पहुंच जाओगे।
हमने कल इसी रेल लाइन के साथ साथ चलने का इरादा बना लिया।
ऊहल नदी पार करने के लिये पुल तो बनकर तैयार है लेकिन सडक से नहीं जुड सका। किनारों से काफी ऊंचा भी है। एक तरफ तो ईंटों और पत्थरों पर चढकर पुल पर चढना होता है, दूसरी तरफ नीचे उतरने के लिये लोहे की सीढी लगी है। सीढी से उतरकर कुछ खेतों से निकलते हुए हम सडक पर पहुंचे। यह बडाग्रां जाने वाली सडक है। इस पर बरोट की तरफ चले। कुछ ही देर में रेस्ट हाउस पहुंच गये।

बरोट









यह रही रेल लाइन। इस फोटो में उतना ढलान नहीं दिख रहा है। अगले फोटुओं में सब दिखेगा।

इसकी शुरूआत ही बडी तीखी ढलान से होती है, जो आगे जाकर और तीखी हो जाती है।

यह है वो पुल जिस पर चढने के लिये एक तरफ पत्थर हैं और दूसरी तरफ सीढी।



पांच छह सालों से यह पुल ऐसा ही है।


पुल के उस तरफ पहाड पर ऊपर चढती एक लकीर दिख रही है। वही रेल लाइन है।


बरोट का रेस्ट हाउस




बडाग्रां और बिलिंग के रास्ते बीड 49 किलोमीटर है। अभी बडाग्रां तक ही सडक बनी है। बरोट से बीड जाने के लिये अभी जोगिन्दर नगर से जाना पडता है।

फोटोग्राफर: नटवर लाल
अगले भाग में जारी...
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