घोर जंगल और फोन नेटवर्क गायब। हम नरहरपुर की तरफ बढते जा रहे थे। मुझे अभी तक मालूम नहीं था कि हमें आज कहां रुकना है। अब जब फोन नेटवर्क काम करना बन्द कर चुका तो डब्बू को सुनील भाई से निर्देश मिलने बन्द हो गये। बल्कि कहना चाहिये कि ये निर्देश नहीं, रास्ते की जानकारी होते थे। डब्बू का बस चलता तो वो हर तिराहे चौराहे पर गाडी खडी करके भाई से पूछता। भाई को इलाके के चप्पे चप्पे की जानकारी है, वे समझ जाते कि हम कहां खडे हैं।
पता चला कि आज हमें कर्क ऋषि आश्रम में रुकना है। लेकिन रास्ते में पडने वाले विश्वामित्र आश्रम को भी देखना है। फोन तो मेरा भी काम नहीं कर रहा था, इसलिये मैं भी कुछ सहायता करने में नाकाम था। लेकिन सोच लिया कि अबकी बार जब भी भाई से बात होगी, तो मैं करूंगा। डब्बू भले ही छत्तीसगढ का रहने वाला हो, सडकों की जानकारी मुझसे ज्यादा नहीं है। और डब्बू को छत्तीसगढ का कहना भी बहुत बडी गलती करना है, वो दुर्ग शहर का रहने वाला है। तम्बोली भी इस विद्या में ठहरा हुआ ही है।
जंगल में एक पट्ट मिला। जिस पर सूचना थी कि दाहिने वाली सडक नरहरपुर जायेगी। लेकिन कहीं भी दाहिने वाली सडक दिख नहीं रही थी। मेरे अनुभव और अनुमान थे कि हमें आगे बढते रहना चाहिये, आगे कोई तिराहा मिलेगा, जहां से दाहिने वाली सडक नरहरपुर जायेगी। सडक न देखकर डब्बू घबरा गया। कहने लगा कि यहां कोई तिराहा नहीं है, और पट्ट तिराहे का लगा है। जरूर यह नक्सलियों का काम है। डब्बू के अनुसार हम खतरे में थे।
एक राहगीर से पूछा तो वही बात सामने आई, जो मैं सोच रहा था। हम आगे बढे। एक किलोमीटर के बाद ही वो तिराहा आ गया और सुरही गांव भी। और हां, नेटवर्क भी। तुरन्त भाई को बताया गया कि हम सुरही में तिराहे पर हैं और हमारे सामने एक नाका भी है। भाई तुरन्त समझ गये। उन्होंने हमें इसी गांव में एक परिचित का नाम भी बताया जो हमें विश्वामित्र आश्रम ले जायेगा। परिचित की भाई से पहले ही बात हो चुकी थी, मिलने में कोई परेशानी नहीं हुई।
चाय का आग्रह हुआ। हमने यह कहकर टाल दिया कि आश्रम से लौटकर पीयेंगे। इस गांव से निकलते ही हमें नरहरपुर वाली सडक छोडकर एक कच्चे रास्ते पर गाडी बढानी पडी। ज्यों ज्यों आगे बढते गये, रास्ता खराब होता गया। गाडी छोड देनी पडी और पैदल चले।
यह इलाका सप्त ऋषि मण्डल कहलाता है। यहां पौराणिक काल के सात ऋषियों के आश्रम बताये जाते हैं। यहां से दुधावा ज्यादा दूर नहीं है। दुधावा क्षेत्र ही सप्त ऋषि मण्डल है। हमारे सामने घने जंगल में विश्वामित्र आश्रम है। फूस की एक कुटिया और उसमें रहते एक बूढे बाबाजी। बस यही आश्रम है। आश्रम से करीब आधा किलोमीटर पहले ही डब्बू ने कहा कि अब हम आश्रम में पहुंचने वाले हैं। उसे इसका अनुभव होने लगा था।
सप्त ऋषि मण्डल एक आध्यात्मिक क्षेत्र भी है। जहां इतने ऋषि मुनि तपस्या करते हों, वह स्थान आध्यात्मिक शक्तियों से समृद्ध हो ही जायेगा। दूसरी बात कि डब्बू भी अध्यात्म का घोर समर्थक है। बल्कि कहना चाहिये कि वो सिद्ध पुरुष है। डब्बू के गुरूजी हैं स्वामी कृष्णानन्द जी। उनकी शरण में जाकर डब्बू ने समाधि के अनुभव ले रखे हैं।
यहां विश्वामित्र की सीमा में आते ही डब्बू को अनुभव होने ही थे। मैं और तम्बोली एक से थे। अध्यात्म को मानते तो हैं लेकिन कभी प्रयोग नहीं किया। डब्बू ने यहां कुछ देर ध्यान लगाया। ध्यान से उठकर कहने लगा कि यह स्थान बडा शक्तिशाली है।
जंगल के बीच में यह स्थान रमणीय तो है ही। बाबाजी से बात की तो हिन्दी छत्तीसगढी के मिश्रण में उन्होंने जो भी कुछ कहा, वे दुनिया के सबसे आनन्दमय इंसान नजर आ रहे थे।
वापस कार के पास आये तो संकरे और कच्चे रास्ते पर कार नहीं मुड सकी। उल्टे एक गड्ढे में फंस जरूर गई। इसे निकालने के चक्कर में मेरी चप्पल भी टूट गई। बडी जोर जबरदस्ती करके कार निकली और वापस मुडी।
गांव से हम जिस लडके के साथ विश्वामित्र आश्रम तक गये थे, उनके घर में कुछ देर बैठे, चाय पी। अंधेरा हो गया था। हमने आगे का रास्ता पूछा तो उन्होंने दो रास्ते बता दिये। एक तो नरहरपुर होते हुए जामगांव तक घुमावदार रास्ता और दूसरा सीधे जामगांव तक ग्रामीण रास्ता। हमने सीधे वाले रास्ते से जाने की सोची। और नरहरपुर वाले रास्ते को छोडकर हम सीधे निकल पडे।
यह रास्ता भले ही सीधा हो लेकिन हर पांच छह किलोमीटर के बाद पूछताछ करनी पडती है। कहीं कहीं तो कच्ची सडक से भी चलना पडा।
डब्बू चुप बैठना तो जानता ही नहीं है। मुझे उसके बोलते रहने से कोई आपत्ति नहीं है, लेकिन वो जिस तरह ‘अफवाहें’ फैलाता है, उससे मुझे आपत्ति है। पूरे रास्ते भर वो नक्सलवादियों की बातें करता आया। उसकी जीभ पर ‘यह इलाका घोर नक्सलाइट इलाका है’ वाक्य हमेशा तैयार रहता था। गांवों के लोग अगर सडक किनारे बैठे गाडी की तरफ भी देखते तो कहता- देखो, ये लोग पक्के नक्सली हैं। इनका बहुत शक्तिशाली नेटवर्क है। हम यहां से गुजर रहे हैं, उस बात की इन्हें पहले से ही जानकारी है और आगे तक सबको यह भी पता है कि हम कहां पहुंच गये।
एक गांव में अन्धेरा था, कुछ घरों में बत्तियां जल रही थीं। दो तीन लोग सडक पर टॉर्च लेकर आते जाते मिले। डब्बू ने कहना शुरू कर दिया- ये लोग नक्सली हैं। टॉर्च से ये एक दूसरे को संकेत भेजते हैं। देखना कि हमें जंगल में टॉर्चें जलती मिलती रहेंगी। मैंने विरोध किया कि गांव में बिजली नहीं है, इसलिये आने जाने में इनके लिये टॉर्च जरूरी है। दिल्ली के पास स्थित हमारे गांव में भी जब लाइट चली जाती है, तो हम भी टॉर्च लेकर चलते हैं। डब्बू ने तुरन्त मेरी बात काटी- नहीं, गांव में बिजली है। कुछ घरों में बत्तियां जली थीं।
जिस घर में हमने चाय पी थी, उन्होंने परचून की दुकान भी खोल रखी थी। घर की स्वामिनी ने कहा कि यहां किसी बात का डर नहीं है। कोई रात के बारह बजे भी कुछ लेने के लिये दरवाजा खटखटाता है, तो हम बेफिक्र होकर दरवाजे खोल देते हैं और सामान दे देते हैं। बाद में इस बात को डब्बू ने इस तरह बिगाडा- यह नक्सली इलाका है। अगर वे दरवाजा नहीं खोलेंगे तो अगले ही दिन उन्हीं का घर उडा दिया जायेगा।
मैंने विरोध किया कि भारत के हर राज्य के दूर दराज के गांवों में आज भी यही प्रथा है कि जरुरत के समय पूरा गांव एक साथ होता है, चाहे दिन हो या रात हो। मैंने राजस्थान से लेकर उत्तराखण्ड और हिमाचल तक के गांव देख रखे हैं और उनमें तथा यहां छत्तीसगढी गांव में कोई अन्तर नजर नहीं आ रहा। वहां भी अगर खाली सडक पर कोई गाडी गुजरती है तो गांव के लोग देखते ही हैं। आधी रात को भी किसी घर का दरवाजा खटकटा दो तो वो घर आपके स्वागत के लिये तैयार है। अगर ये ग्रामीण नक्सलियों के डर से ऐसा करते हैं, तो वे लोग क्यों करते हैं ऐसा ही बरताव?
जब मैंने पूरे भारत के गांवों को एक सा बना दिया और डब्बू से कहा कि तुम अब के बाद नक्सलियों का कोई भी जिक्र नहीं करोगे। तुम बिल्कुल झूठी, मनगढंत और आधारहीन बात कर रहे हो, अफवाह फैला रहे हो। असल में तुम पहली बार दुर्ग रायपुर से बाहर निकले हो, इसलिये बेहद डरे हुए हो।
यह सुनकर डब्बू चुप तो नहीं हुआ, बल्कि मेरे ही शस्त्रों को मेरे खिलाफ चला दिया- हां, मैं सुबह से यही तो कहता आ रहा हूं। तुम बडे मन्दबुद्धि हो कि अब जाकर बात समझे। असल में कोई जब बाहर से आता है तो छत्तीसगढ के बारे में यही राय लेकर आता है कि यह प्रदेश नक्सली प्रदेश है। इसी वजह से यहां पर्यटन नहीं है, रोजगार नहीं है। हम चाहते हैं कि हमारे राज्य की छवि सुधरे। यह ऐसा राज्य नहीं है, जैसा कि बाहरी लोग समझते हैं। मैं तुम्हें यही दिखाने की कोशिश कर रहा हूं। आगे जाकर मैं हर बात को विस्तार से समझाता जैसे कि वे लोग टॉर्च लेकर क्यों घूम रहे थे। वे जंगल में टट्टी करने जा रहे थे। हा हा हा।
मेरी उम्र भले ही ज्यादा न हो लेकिन मैंने भी घाट घाट का पानी पी रखा है, हर तरह के लोगों से मिलना जुलना होता है। सामने वाला किस मानसिकता का है, यह सब जानता हूं। डब्बू असल में खुद डरा हुआ था। राजधानी में रहकर ये पत्रकार लोग सरकार को नक्सलवाद के आधार पर घेरते हैं, आज राजधानी से बाहर निकलना पडा तो पसीने छूटने ही थे।
बाद में दुर्ग लौटने पर सुनील भाई से मैंने सबसे पहले यही कहा कि डब्बू को बाहर की दुनिया की कुछ भी जानकारी नहीं है। उसे बाहर भेजते रहा करो। बाहर की दुनिया कैसी है, इसकी जानकारी उसे होनी जरूरी है।
रात के दस बजे तक हम चांदनी चौक नामक गांव में पहुंच गये। यहां से कर्क आश्रम करीब एक किलोमीटर दूर ही है। वैसे तो सडक बनी है लेकिन कच्ची है। आश्रम से सौ मीटर पहले ही सडक पर एक गहरा गड्ढा आया जिसके कारण गाडी वापस मोडनी पडी। हमें मालूम भी नहीं था कि सामने आश्रम है क्योंकि जंगल घना था, दूसरे यहां एक छोटी सी पहाडी भी है। वापस चांदनी चौक गांव में पहुंचे। फोन फान हुए, तब आश्रम से एक बन्दा आया। गाडी गांव के बाहर हनुमान मन्दिर के पास खडी कर दी और पैदल आश्रम पहुंचे।
यहां बडा ही अजीब नजारा था। एक आदमी पूजा की थाली लिये खडा था, एक लोटा लिये था, बाकी उनके पीछे खडे थे। हमारे पैर धोये गये, पैर छुए गये, आरती उतारी गई, तब जाकर आश्रम में प्रवेश हुआ। बाद में पता चला कि किसी आगन्तुक के लिये यहां ऐसा ही होता है। पैर धोने वाले आश्रम के नियमित कर्मचारी नहीं बल्कि गांव का मुखिया था।
करीब दो घण्टे से हमारे बारे में ‘अब आये, अब आये’ की बात हो रही थी। हमें भी दो घण्टों से लग रहा था कि अबके झटके में आश्रम पहुंच जायेंगे, लेकिन हर बार कहीं तिराहे की तो कहीं चौराहे की समस्या आती रही।
आश्रम के संचालक एक बाबाजी हैं। डब्बू के अनुसार उनका नाम शिवेश्वरानन्द जी महाराज है लेकिन उन्हें गुरूजी कहूंगा। उनका आश्रम में एक अलग कमरा है। उनके कमरे के सामने एक ऊंचे चबूतरे पर हमारे बिस्तर लगे थे। हम बिस्तरों पर जा बैठे। गुरूजी भी अपने कमरे के सामने बैठ गये। वार्तालाप शुरू हो गया।
रायपुर के पास एक स्थान है- राजिम। यहां भी कुम्भ का आयोजन शुरू हो गया है। कहते हैं कि जब देव-दानव युद्ध हो रहा था अमृत की वजह से तो चार नहीं बल्कि पांच जगह वो अमृत छलका था। चार स्थान तो नासिक, उज्जैन, इलाहाबाद और हरिद्वार हैं ही, पांचवां राजिम है। मेरी यात्रा के दौरान राजिम में कुम्भ चल रहा था।
अब गुरूजी और कुछ अन्य लोगों की कोशिश है कि कुम्भ को राजिम से हटाकर यहां कर्क आश्रम में लाया जाये। इन्होंने पुराणों को खंगालकर निष्कर्ष निकाला है कि कर्क आश्रम यानी सिहावा क्षेत्र ही वो स्थान है जहां अमृत की पांचवीं बूंद गिरी थी। गुरूजी ने खूब लम्बी चौडी पुराण-कथा भी सुनानी शुरू कर दी।
मैं पुराणों पर बिल्कुल भी यकीन नहीं करता हूं। जिस तरह आज पुस्तकें लिखी जाती हैं, आज से पांच हजार साल पहले भी पुस्तकें लिखी जाती थी। तब भी आज की तरह लेखक होते थे। बोलचाल की भाषा संस्कृत थी, तो जाहिर है कि पुस्तकों की भाषा भी संस्कृत ही होगी। उन्हीं संस्कृत की कहानियों को आज हम पुराण कह देते हैं। अगर प्रेमचन्द उस जमाने में हुए होते तो उनकी एक पुस्तक का नाम होता- गोदानपुराण।
मेरी प्रवृत्ति विरोध करने की है तो आदत से लाचार होकर मैंने इनके यहां कुम्भ आयोजन पर भी विरोध किया- यह स्थान इतना रमणीय है, अभी यहां कुदरत से कुछ भी छेडछाड नहीं हुई है, यह तपोवन है तो फिर क्यों इसे लक्ष्मीवन बनाने पर तुले हो? अगर कोई यहां कुम्भ जैसी बात करे तो आपको तो उसका विरोध करना चाहिये।
बोले कि छत्तीसगढ बडा गरीब है। यहां बेचारे आदिवासी रहते हैं। साक्षरता नहीं है, बेरोजगारी है। इसी कारण यह इलाका नक्सल प्रभावित है। अगर यहां ऐसा कुछ होने लगा तो इसके भाग्य खुल जायेंगे। बाहर से लोग आयेंगे तो स्थानीय लोगों की आय बढेगी।
मैंने कहा कि राजिम में इतने सालों से कुम्भ हो रहा है, वो राजधानी के पास भी है, वहां तक रेल भी जाती है। लेकिन फिर भी राजिम छत्तीसगढ से बाहर नहीं निकल पाया है। छत्तीसगढ से बाहर केवल एक ही चीज बाहर निकल सकी है- चित्रकूट जलप्रपात। तो आपको कैसे लगता है कि यह कर्क आश्रम जहां अभी तक भी रुकने ठहरने का कोई इंतजाम नहीं है, सडक भी नहीं है, कैसे छत्तीसगढ से बाहर निकल सकेगा? राजिम से प्रतियोगिता मत कीजिये। इसे इसी के बल पर विकसित करने की कोशिश कीजिये। एक बाहर का आदमी आयेगा, उसका पैसा किस तरह आदिवासियों के घरों में पहुंचेगा, इस बात को सोचिये, ना कि कुम्भ। डोंगरगढ को तो छत्तीसगढ की वैष्णों देवी कहा जाता है, वो मुम्बई-हावडा लाइन पर है। छोटी बडी ज्यादातर गाडियां वहां रुकती भी हैं। वो भी छत्तीसगढ से बाहर नहीं निकल सका। दिल्ली और उत्तर में तो उसके बारे में कोई जानता भी नहीं। आवश्यकता है पर्यटकों और घुमक्कडों के लिये ठहरने के पुख्ता इंतजाम करने की। इस आश्रम के बल पर यहां कोई नहीं आने वाला।
मेरी बात से न उन्हें सहमत होना था, न ही हुए।
गुरूजी को छत्तीसगढ के इतिहास भूगोल की बेहतरीन जानकारी है। एक साधु से मैं ऐसी उम्मीद नहीं कर सकता था। उन्होंने इत्मीनान से हर जरूरी बात बताई। बताने लगे कि महानदी सर्वोत्तम नदी है। यह यहीं सिहावा क्षेत्र से सात धाराओं में निकलती है। ये सात धाराएं एक नदी बनकर बहती हैं और ओडिशा में समुद्र में मिलने से पहले पुनः पृथक-पृथक हो जाती हैं।
गुरूजी ने बताया- महानदी की एक धारा श्रंग आश्रम से निकलती है। वहां से निकलकर वह ऊपर भृगु आश्रम तक चली गई। आप अगर नक्शा देखेंगे तो पायेंगे कि यहां से समुद्र ज्यादा दूर नहीं है। भृगु महाराज ने महानदी को धिक्कारा कि तू अगर इसी रास्ते सीधे समुद्र में चली जायेगी तो लोगों का उद्धार कैसे होगा? जा, वापस जा और लोगों का उद्धार करके समुद्र में मिलना। महानदी वापस चल पडी और बहुत लम्बा चक्कर काटकर घूमती-घामती समुद्र में मिली।
डब्बू ने आगे जोडा- हां, भृगु मुनि बडे शक्तिशाली थे। उन्होंने ही महानदी को वापस भेजा। नहीं तो इसने तो कुछ ही दूरी पर स्थित समुद्र से मिलने की तैयारी कर ली थी।
मुझे यहां के भूगोल की अच्छी जानकारी है। मैंने इन बातों का फिर खण्डन किया- नहीं, किसी भृगु के कहने से महानदी वापस नहीं मुडी। चमत्कार अपनी जगह हैं, विज्ञान अपनी जगह। आज का जमाना चमत्कारों का नहीं है, बल्कि विज्ञान का है। आपको अपनी बात में वैज्ञानिकता लानी होगी, तभी आपके ये चमत्कार जन-मानस तक पहुंचेंगे। असल में पानी हमेशा... हम्मेशा... ऊपर से नीचे की तरफ बहता है। जिस स्थान पर हम हैं, यहां से पूर्वी घाट की पहाडियां शुरू हो गई हैं। ये पहाडियां ओडिशा में एक हजार मीटर तक की ऊंचाई तक पहुंच गई हैं। इन पहाडियों के उस पार बंगाल की खाडी है। भला पांच सौ मीटर की ऊंचाई से निकलने वाली कोई जलधारा हजार मीटर ऊंची पहाडियों को कैसे पार कर लेगी? गंगा भी इलाहाबाद तक दक्षिणमुखी रही, उसके बाद पूर्वमुखी हो गई। क्योंकि इलाहाबाद से आगे विन्ध्याचल की पहाडियों ने गंगा को आगे नहीं बढने दिया। गंगा ने अपनी ही दिशा बदल ली। महानदी को लोक-कल्याण के लिये पूर्वी घाट की पहाडियों ने भेजा है, न कि भृगु ने।
डब्बू को इस बात से कोई मतलब नहीं था। उसके लिये गुरूजी ही सर्वोपरि थे। उधर गुरूजी ने कुछ देर सोच-विचार किया। फिर बोले- तुम ठीक कहते हो। महानदी भृगु आश्रम से निकली है, बाद में श्रंग आश्रम के पास से बहती हुई आई है। अगर यह श्रंग आश्रम से निकली होती, ऊपर चढकर भृगु तक गई होती तो इसकी यहां दो धाराएं होनी चाहिये थीं। एक ऊपर जाती हुई और दूसरी नीचे आती हुई। ऊपर जाने वाली धारा है ही नहीं। ना ही उसका कोई चिह्न है। बाद में अगले दिन जब हम गुरूजी के साथ विभिन्न आश्रमों में घूम रहे थे, तो वहां भी इन्होंने साधुओं के सामने मेरी बात का समर्थन किया और अपनी पुरानी चली आ रही मान्यता का खण्डन किया।
हमें आज ऐसे ही साधुओं की आवश्यकता है, जो अपने विचारों को विज्ञान के साथ मिलाकर चल सकें। कूप-मण्डूक धरती पर बोझ और अन्न के सत्यानाशी ही होते हैं।
बताते हैं कि पिछले साल सावन में यहां कोई आयोजन हो रहा था। तभी बांध से विशाल शेषनाग निकला और सम्पूर्ण आश्रम के साथ आसपास के गांवों को भी अपने लपेटे में ले लिया। यह काम दिन में ही हुआ था, इस दृश्य को सबने देखा। अगले दिन समाचार-पत्रों में भी उसकी खबर छपी लेकिन फोटो नहीं छपा। कारण यही दिया गया कि इस अति पिछडे इलाके में कैमरा किसके पास है। पढे-लिखों की तरह मैं भी इस बात पर विश्वास नहीं कर सकता। आजकल लगभग हर मोबाइल में कैमरा होता है।
सावधान! दुधावा बांध में बडा विशाल शेषनाग रहता है। किसी दिन वह इस विशाल बांध से टकरा गया तो इलाके का सर्वनाश तय है।
बात चली मूरमसिल्ली बांध की तो गुरूजी ने सुनते ही खण्डन कर दिया कि वो बांध दुधावा बांध नहीं है। वो दूसरी नदी पर है। डब्बू ने मेरी बात नहीं मानी, गुरूजी की मान ली।
यहां से कुछ दूर गौतम आश्रम है। कहते हैं कि वहां हर पूर्णिमा पर अप्सराएं नृत्य करती हैं। साथ ही यह भी जरूर जोडा जाता है कि भाग्य में होगा तो देख सकेंगे, नहीं तो नहीं देख सकते। पुराणपंथी अंधभक्ति इसी तरह की गोलमोल बात करना जानती है।
एक बात और देखी इस आश्रम में कि कई लोगों ने हमारे सामने साष्टांग प्रणाम किया। एक-दो बार तो बडा अजीब सा लगा। अजीब लगना भी चाहिये क्योंकि इधर कभी किसी के पैर छूने के आदत ही नहीं। मां-बाप समझा कर हार गये, ठोक-पीटकर भी हार गये लेकिन वे कभी मुझसे किसी के पैर नहीं छुआ सके। अब जब अचानक सामने कोई दण्डवत होकर प्रणाम करेगा तो ... है ना अजीब सी लगने वाली बात।
गुरूजी ने अपने कमरे में शिवलिंगों का संग्रह बना रखा था। डब्बू तो उनके कमरे में जाने की सोच भी नहीं सकता। मेरे लिये सबकुछ खुला था। मैं घुस गया उनके कमरे में। बताया कि ये बारह ज्योतिर्लिंग हैं जो यहीं इसी पहाडी से अलग-अलग स्थानों से मिले हैं।
गुरूजी ने इसी सप्तऋषि तीर्थ पर एक पुस्तक भी लिखी है। मुझे देखने का मौका तो मिला, लेकिन खोलकर नहीं देख सका। उनके ज्ञान को देखते हुए मुझे लगता है कि यह पुस्तक बडे काम की होगी। अगर उसमें इन्होंने पुराणों की कथाएं भर रखी होंगी, तो किसी काम की नहीं।
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विश्वामित्र आश्रम की तरफ। भला इस रास्ते पर कार कैसे चल सकेगी? कार पीछे छोडनी पडी। |
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विश्वामित्र आश्रम में स्थित नागेश्वर शिवलिंग |
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आश्रम के बाबाजी |
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ऐसा लग रहा है जैसे जाटराम को यहां फोटोशॉप से कॉपी पेस्ट किया गया है। |
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छत्तीसगढ के जंगलों में। |
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भला यह कार लायक रास्ता है? |
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कर्क ऋषि आश्रम के सामने |
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दुधावा बांध |
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दुधावा बांध की जलराशि |
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यह रहा आज का सर्वोत्तम फोटो। |
View Larger Mapनक्शे को बडा करके या जूम इन-जूम आउट करके देखा जा सकता है।
अगले भाग में जारी...
छत्तीसगढ यात्रा1.
छत्तीसगढ यात्रा- डोंगरगढ2.
छत्तीसगढ यात्रा- मूरमसिल्ली बांध3. छत्तीसगढ यात्रा- विश्वामित्र आश्रम और कर्क ऋषि आश्रम