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भानगढ- एक शापित स्थान

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आज की शुरूआत एक छोटी सी कहानी से करते हैं। यह एक तान्त्रिक और एक राजकुमारी की कहानी है। तान्त्रिक राजकुमारी पर मोहित था लेकिन वह उसे कोई भाव नहीं देती थी। चूंकि राजकुमारी भी तन्त्र विद्या में पारंगत थी, इसलिये उसे दुष्ट तान्त्रिक की नीयत का पता था। एक बार तान्त्रिक ने राजकुमारी की दासी के हाथों अभिमन्त्रित तेल भिजवाया। तेल की खासियत यह हो गई कि वह जिसके भी सिर पर लगेगा, वो तुरन्त तान्त्रिक के पास चला जायेगा। राजकुमारी पहचान गई कि इसमें तान्त्रिक की करामात है। उसने उस तेल को एक शिला पर फेंक दिया और जवाब में वह शिला तान्त्रिक के पास जाने लगी। बेचारे तान्त्रिक की जान पर बन गई। शिला क्रिकेट की गेंद तो थी नहीं कि तान्त्रिक रास्ते से हट जायेगा और वो सीधी निकल जायेगी। अभिमन्त्रित थी, तो तान्त्रिक कितना भी इधर उधर भागेगा, शिला भी उतना ही इधर उधर पीछा करेगी। जब तान्त्रिक के सारे उपाय निष्क्रिय हो गये, तो उसने श्राप दे दिया। श्राप के परिणामस्वरूप शिला फिर से बावली हो गई और अब वो नगर को ध्वस्त करने लगी। उसी ध्वस्त नगर का नाम है भानगढ।
प्रवेश द्वार पर लगे शिलालेख के अनुसार भानगढ को आमेर के राजा भगवन्त दास ने सोलहवीं सदी के आखिर में बसाया। आज यहां सबकुछ उजाड है मात्र तीन चार मन्दिरों को छोडकर। राजमहल तो पूरी तरह ध्वस्त हो चुका है।
इसके बारे में भयंकर तरीके से प्रचलित है कि यह स्थान शापित और भुतहा है। बडी भयानक और डरावनी कहानियां भी सुनी-सुनाई जाती हैं। यह भी कहा जाता है कि यहां रात को जो भी कोई रुका है, सुबह जिन्दा नहीं मिला। रात में भूत-बाजार लगने की भी बातें सुनाई देती हैं।
मुझे इन सब बातों पर यकीन है। चूंकि मैं बिना शर्त भगवान को मानता हूं, तो मेरी मजबूरी बन जाती है कि शैतान को भी मानूं।
जयपुर में विधान चन्द्रके यहां साइकिल खडी की और हम दोनों मोटरसाइकिल पर निकल पडे भानगढ की ओर। दोपहर ग्यारह बजे जयपुर से चले क्योंकि इससे पहले मन में कोई योजना नहीं थी इधर आने की। अगले दिन विधान की शादी की सालगिरह थी, इसलिये आज ही वापस भी लौटना था। हालांकि उन्होंने ऐसा किया नहीं।
दौसा-अलवर रोड पर एक गांव है- गोला का बास। यहीं से भानगढ का रास्ता जाता है जो दो किलोमीटर से ज्यादा नहीं मालूम पडता।
अन्दर घुसते ही उजाड बाजार है जो पहले कभी आबाद हुआ करता था। उसके बाद गोपीनाथ मन्दिर है। यह मन्दिर दूसरे कई मन्दिरों की तरह बिल्कुल सुरक्षित है। इसके बाद सामने राजमहल है। बताते हैं कि यह सात मंजिला था, लेकिन अब चार मंजिलें ही बाकी हैं। इसके बायें केवडे का घना जंगल है जहां स्थानीय लोग मन्नतें लेकर आते हैं और केवडे की लम्बी लम्बी पत्तियों में गांठें लगाकर चले जाते हैं।
विधान ने भी जब एक गांठ लगाई तो मैंने पूछा कि क्या मन्नत मांग ली? बोले कि इनमें से किसी की भी मन्नत पूरी ना हो, यही मन्नत मांगी है।
पास की ऊंची ऊंची पहाडियों से एक जलधारा बहकर आ रही है जो भानगढ के बीच से निकलती है। इसके उस पार सोमेश्वर मन्दिर है। इसमें नन्दी की एक बडी प्रतिमा है और अन्दर बडा शिवलिंग भी है। यहां के किसी भी मन्दिर में कोई पुजारी नहीं है, इसलिये पूजा पाठ भी नहीं होता। हालांकि सोमेश्वर मन्दिर में एक लंगूर पुजारी की भूमिका निभा रहा था।
सोमेश्वर मन्दिर की छत पर बुद्ध की प्रतिमा दिखाई पडी। इस प्रतिमा ने मुझे दुविधा में डाल दिया।
इसी से कुछ दूर दो मन्दिर और भी हैं- मंगला देवी मन्दिर और केशव राय मन्दिर।
इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि उजाड और वीरान चारों तरफ से जंगल तथा पहाडियों से घिरे भानगढ का माहौल स्वयं की डरावना हो जाता है। ऊपर से अगर शापित वाली बात भी प्रचलित हो तो क्या कहने! विधान पूरे समय कहता रहा कि सब बकवास है, कोई भूत-वूत नहीं है। अफवाहें हैं। मैं इन चीजों में यकीन करने के कारण बार-बार कहता रहा कि भाई, खुद मोटरसाइकिल चलाकर वापस भी लौटना है। कहीं ऐसा ना हो कि यहीं से आलोचना सुनकर कोई भूत पीछे लग जाये और आपके साथ मेरा भी बढिया सत्कार हो।
एक महिला मिली दिल्ली की, उन्होंने बताया कि उनके किसी रिश्तेदार ने भी यहां आकर आलोचना कर दी थी, तो भूत पीछे पड गया और दिल्ली चला गया पीछे पीछे। बाद में वही कहानी कि सेहत खराब होने लगी, इलाज से फायदा नहीं हुआ, तान्त्रिकों को दिखाया तब इसका पटाक्षेप हुआ और तब भूत को वापस भानगढ भगाया गया।
यहां दिन छिपने के बाद रुकना वर्जित है। लोग खुद ही बाहर चले आते हैं। वैसे कई दुस्साहसी लोगों की कहानियां भी प्रचलित हैं जिनका सभी का सारांश यही है कि वे सुबह सही-सलामत नहीं मिले। अगर ऐसे मामलों में मौतें होती हैं, तो ज्यादातर का कारण खुद की कमजोरी यानी डर होता है। भले ही कोई कितना भी शूरवीर हो, मन के एक कोने में यह बात जरूर बैठेगी कि यह जगह शापित है। डराने के लिये इतना ही काफी है।
इस नगर को शाप ने नहीं उजाडा, इसके पक्ष में एक तथ्य दिया जाता है कि यहां के चारों मन्दिर सुरक्षित हैं। मात्र राजमहल ही उजडा हुआ है। उसे स्थानीय लोगों ने खिडकी दरवाजे प्राप्त करने के लिये और कुछ ने गडा खजाना ढूंढने के लिये तोड-फोड दिया। मन्दिरों को उन्होंने इसलिये नहीं छेडा कि वे पवित्र स्थान हैं। अगर यह शापित शिला से उजडा है तो मन्दिर क्यों बच गये उस शिला से? मेरा मानना है कि वे पवित्र स्थान हैं, इसलिये बच गये।।
सुना है कि कुछ दिन पहले एक टीवी चैनल ने ‘स्टिंग’ करके सिद्ध करने की कोशिश की कि यहां भूत नहीं हैं। वे कई लोग यहां आये, कैमरे लगाकर रातभर रहे, लेकिन कुछ भी संदिग्ध नहीं घटा। अगले दिन उन्होंने घोषित कर दिया कि भानगढ के भूत मात्र अफवाह हैं, उनका अस्तित्व नहीं है।
काश! ये लोग मन्दिरों में जाकर भगवान के अस्तित्व पर भी एक ‘स्टिंग’ करें।

जयपुर से भानगढ जाने के लिये दौसा बाईपास रोड


स्थानीयों में भानगढ की बडी मान्यता है।

गोला का बास से भानगढ मोड

एक मकबरा


जौहरी बाजार के खण्डहर


गोपीनाथ मन्दिर

राजमहल

इसे क्या बुद्ध माना जाये?

मंगला देवी मन्दिर

दूर से गोपीनाथ मन्दिर

राजमहल



एक सुरंग

राजमहल में ऊपर जाने के लिये सीढियां

राजमहल के अन्दर


राजमहल के ऊपर खण्डहर

राजमहल की महिलाओं द्वारा दीवार पर बनाया गया चित्र


यह फोटो विधान ने खींचा है। इसमें मैं जो फोटो खींच रहा हूं, वो नीचे दिखाया गया है।

ऊपर दिखाये गये फोटो में मैं यही फोटो ले रहा था।

विधान चन्द्र- इन्होंने केवडे की पत्तियों में गांठ बांधकर मन्नत मांगी कि बाकियों की मन्नत पूरी न हो।

और अब इसके अन्दर मिलने वाले जीवों के कुछ फोटो:



यह जीव भी उस दिन भानगढ में विचर रहा था।

धूप में मस्ती काटता लंगूर

सोमेश्वर मन्दिर में पुजारी जी महाराज

भानगढ का भूत




एक नवजात अपने माता-पिता के साथ



भानगढ का नक्शा
अगले भाग में जारी...

जयपुर पुष्कर यात्रा
1. और ट्रेन छूट गई
2. पुष्कर
3. पुष्कर- ऊंट नृत्य और सावित्री मन्दिर
4. साम्भर झील और शाकुम्भरी माता
5. भानगढ- एक शापित स्थान
6. नीलकण्ठ महादेव मन्दिर- राजस्थान का खजुराहो
7. टहला बांध और अजबगढ
8. एक साइकिल यात्रा- जयपुर- किशनगढ- पुष्कर- साम्भर- जयपुर


नीलकंठ महादेव मन्दिर- राजस्थान का खजुराहो

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26 नवम्बर 2012 की शाम के सवा चार बजे थे, जब हमने भानगढ से प्रस्थान किया। लक्ष्य था नीलकण्ठ महादेव। साढे पांच बजे हम नीलकण्ठ महादेव पर थे।
पता नहीं किस वर्ष में राजा अजयपाल ने नीलकण्ठ महादेव की स्थापना की। यह जगह मामूली सी दुर्गम है। जब भानगढ से अलवर की तरफ चलते हैं तो रास्ते में एक कस्बा आता है- टहला। टहला से एक सडक राजगढ भी जाती है।
टहला में प्रवेश करने से एक किलोमीटर पहले एक पतली सी सडक नीलकण्ठ महादेव के लिये मुडती है। यहां से मन्दिर करीब दस किलोमीटर दूर है। धीरे धीरे सडक पहाडों से टक्कर लेने लगती है। हालांकि इस कार्य में सडक की बुरी अवस्था हो गई है लेकिन यह अपने मकसद में कामयाब भी हो गई है। कारें इस सडक पर नहीं चल सकतीं, जीपें और मोटरसाइकिलें कूद-कूदकर निकल जाती हैं।
आठ दिन की इस यात्रा में यह जगह मुझे सर्वाधिक पसन्द आई। साढे पांच बजे जब हम यहां पहुंचे तो एक छोटे से गांव से निकलते हुए मन्दिर तक पहुंचे। टहला से चलने के बाद पहाड पर चढकर एक छोटे से दर्रे से निकलकर एक घाटी में प्रवेश करते हैं। यह घाटी चारों तरफ से पहाडों से घिरी है, साथ ही घने जंगलों से भी।
अन्धेरा होने लगा था। एक पुलिस वाले ने मुझे फोटो खींचते देखकर पर्ची कटवाने की सलाह दी, जिसे मैंने तुरन्त मान लिया। पच्चीस रुपये की पर्ची कटी।
कल विधान की शादी की सालगिरह है। चलते समय गृह मन्त्रालय का सख्त आदेश था कि सालगिरह धूम-धाम से मनानी है। उधर भानगढ से यहां तक के घण्टे भर के सफर में मैंने विधान के मन में घुस-घुसकर यह निष्कर्ष लगाया कि महाराज गृह मन्त्रालय की बात टाल सकते हैं। इसी का नतीजा हुआ कि मैं नीलकण्ठ पहुंचते ही जिद कर बैठा कि आज यहीं रुकेंगे।
एक स्थानीय लडके से पता चला कि पूरे गांव में रुकने का वैसे तो कोई आधिकारिक ठिकाना नहीं है लेकिन किसी भी घर में जाकर ‘भिक्षां देहि’ जैसी भावना प्रदर्शित करेंगे तो कोई मना नहीं करेगा। यह सुनते ही मैंने तुरन्त उसी लडके के सामने ‘झोली’ फैला दी जिसे उसने अविलम्ब सहर्ष स्वीकार कर लिया। विधान ने काफी कुरेदा ताकि लडका अगर मना ना भी करे तो मना करने की मनोस्थिति में आ जाये लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
इस गांव का नाम भी नीलकण्ठ महादेव ही है। लेकिन यह बडी मुसीबतों से गुजर रहा है। यह सरिस्का राष्ट्रीय उद्यान के क्षेत्र में आता है। वन विभाग पूरी तरह कुण्डली मारे बैठा है इस गांव को विस्थापित करने के लिये लेकिन नीलकण्ठ बाबा के प्रताप से यह बचा हुआ है, बल्कि आगे भी बचा रहेगा। बाबा का प्रताप इसलिये कि बाबाजी पुरातत्व के अन्तर्गत हैं। अगर गांव यहां से विस्थापित हो जाता है तो पुरातत्व वालों को भी यह बेशकीमती धरोहर छोडनी पडेगी। पुरातत्व की ही वजह से यहां पुलिस भी रहती है। उनका कार्यालय नीलकण्ठ मन्दिर के अहाते में ही है। हालांकि अडोस पडोस के कई गांव जंगल में होने की वजह से विस्थापित हो चुके हैं।
जंगलात की वजह से इतनी महत्वपूर्ण जगह तक सडक नहीं बन पाई। सडक तो है लेकिन ना होने के बराबर ही है। गांव में बिजली नहीं है, हालांकि घरों में सोलर पैनल लगे हैं जिनसे ये टीवी, फ्रिज आदि भी चला लेते हैं। मोबाइल टावर दूर नीचे घाटी से बाहर टहला में है, जिससे वोडाफोन के अलावा कोई फोन काम नहीं करता। विधान ने इसी तरह एक वोडाफोन से ‘होम मिनिस्ट्री’ को सूचित किया कि आज आना असम्भव है।
क्या आव-भगत हुई हमारी उनके घर पर! सारा कुनबा हमें घेरकर बैठ गया और हम तक अधिक से अधिक जानकारी देने के प्रयत्न में जुट गया। बाद में लडकों की नौकरी लगवाने की भी बात सामने आई जिसे हमने बडी कुशलता से रफा-दफा कर दिया।
अगले दिन पता चला कि हमारे सामने पुरातत्व का कितना महत्वपूर्ण खजाना है। बताते हैं कि इस घाटी में कभी 360 मन्दिर हुआ करते थे। अब एक ही मन्दिर बचा हुआ है। बाकी सभी को मुसलमानों ने मटियामेट कर दिया। आखिरी को मटियामेट करते समय चमत्कार हुआ और यह बच गया। बचा हुआ ही नीलकण्ठ महादेव मन्दिर है। यहां सावन में श्रद्धालु हरिद्वार आदि स्थानों से गंगाजल लाकर चढाते हैं।
ध्वस्त हुए मन्दिरों को देवरी कहते हैं। इनके ध्वंसावशेष आज भी काफी संख्या में बचे हैं। इन्हें देखने से पता चलता है कि ये कितने बडे बडे मन्दिर हुआ करते थे। सभी मन्दिरों पर छैनी हथौडे का कमाल देखते ही बनता है। सभी देवरियों के अलग-अलग नाम हैं जैसे कि हनुमान जी की देवरी, गणेश जी की देवरी आदि। कुछ बडे ही विचित्र विचित्र नाम भी हैं, मैं भूल गया हूं। खेतों के बीच झाडियों से घिरी देवरियों तक पहुंचना बडा रोमांचकारी काम होता है।
कैसे हाथ चला होगा इन मन्दिरों को तोडने समय?
इस घाटी में मोर बहुतायत में है। हर खेत में, हर पेड पर, हर छत पर, हर देवरी पर... सब जगह मोर ही बैठे मिलते हैं। हालांकि आदमी से दूर रहने का प्रयत्न करते हैं।
घाटी के एक सिरे पर छोटी सी झील है। इसमें एक बांध बनाया गया है और इसकी आकृति ऐसी है कि पूरी घाटी का पानी यही आकर इकट्ठा होता रहता है।

टहला से नीलकण्ठ जाने वाली सडक

नीलकण्ठ वाली पहाडी से टहला की तरफ देखने पर

नीलकण्ठ महादेव मन्दिर

मन्दिर के अन्दर शिवलिंग

नीलकण्ठ मन्दिर

दिगम्बर जैन

सूर्योदय





बांध





नीलकण्ठ गांव


मोरों के देश में मोरपंखों की क्या कमी?
अब देखते हैं नीलकण्ठ मन्दिर और विभिन्न देवरियों पर की गई छैनी हथौडी की जादूगरी:










अब कुछ पक्षी:






अगले भाग में जारी...

एक नीलकण्ठ महादेव उत्तराखण्डमें भी है।

जयपुर पुष्कर यात्रा
1. और ट्रेन छूट गई
2. पुष्कर
3. पुष्कर- ऊंट नृत्य और सावित्री मन्दिर
4. साम्भर झील और शाकुम्भरी माता
5. भानगढ- एक शापित स्थान
6. नीलकण्ठ महादेव मन्दिर- राजस्थान का खजुराहो
7. टहला बांध और अजबगढ
8. एक साइकिल यात्रा- जयपुर- किशनगढ- पुष्कर- साम्भर- जयपुर

टहला बांध और अजबगढ

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जब नीलकंठ महादेव से वापस जयपुर जाने के लिये चल पडे तो टहला से कुछ पहले अपने बायें एक बडी झील दिखाई पडी। इसमें काफी पक्षी आनन्द मना रहे थे। सर्दियां आने पर उत्तर भारत में पक्षियों की संख्या बढ जाती है। ये बढे हुए पक्षी सुदूर उत्तरी ध्रुव के पास यानी साइबेरिया आदि ठण्डे स्थानों से आते हैं। विधान ने बिना देर किये मोटरसाइकिल सडक से नीचे उतारकर झील के पास लगा दी।
इसका नाम या तो मंगलसर बांध है या फिर मानसरोवर बांध। हमें देखते ही बहुत से पक्षी इस किनारे से उडकर दूर चले गये। मैं और विधान अपने अपने तरीके से इनकी फोटो खींचने की कोशिश करने लगे।
मैं ना तो पक्षी विशेषज्ञ हूं, ना ही बडा फोटोग्राफर। फिर भी इतना जानता हूं कि पक्षियों की तस्वीरें लेने के लिये समय और धैर्य की जरुरत होती है। चूंकि कोई भी पक्षी हमारे आसपास नहीं था, सभी दूर थे, इसलिये मनचाही तस्वीर लेने की बडी परेशानी थी।
मैं चाहता था कि एक ऐसी तस्वीर मिले जिसमें पक्षी पानी में तैरने के बाद उडने की शुरूआत करता है। उसके पंख उडने के लिये फैले हों और पैर पानी में हों। हालांकि इस तरह की एक तस्वीर लेने में कामयाबी तो मिली लेकिन मुझे यह तस्वीर ज्यादा पसन्द नहीं आई।
फिर भी कुछ बेहतरीन फोटो आये हैं, जिसमें लाइन बनाकर तैरते पक्षी हैं। 60 गुना बडा करने वाला कैमरा बहुत काम आया। आज पता चला कि बर्ड फोटोग्राफी करने के लिये जूम कितनी काम की चीज है। जूम के साथ स्टेबलाइजर भी काम की चीज है। इतना बडा जूम करने के बाद हाथ में कैमरा लेते हैं तो हमें ऑब्जेक्ट दिखाई भी नहीं देता- इधर उधर हो जाता है।
टहला से चलने के बाद हम उस तिराहे पर पहुंचे जहां से सीधा रास्ता अजबगढ जाता है और बायें वाला भानगढ। हम सीधे चल पडे। कुछ दूर चलते ही एक छोटा सा बांध मिला। इसमें दो तीन जने नहा रहे थे। हमें भी देखते ही तलब लग गई। कपडे उतारकर पानी में घुसे तो लगा जैसे कि हरिद्वार में हर की पैडी पर नहा रहे हों। बेहद ठण्डा पानी।
यहां से अजबगढ ज्यादा दूर नहीं है। अजबगढ की कहानी भी कुछ कुछ भानगढ से मिलती जुलती है। किला भी है और कुछ पुराने खण्डहर भी। अजबगढ में घुसने से पहले एक बडा बांध भी है। यहां भी काफी पक्षी थी लेकिन वे हमारी पहुंच से बाहर थे।
आज विधान की शादी की सालगिरह थी। घर से कई बार बुलावा आ चुका था। अभी भी दो घण्टे से ज्यादा लगने थे हमें जयपुर पहुंचने में। ऊपर से अजबगढ हमें उतना आकर्षक नहीं लगा जितना कि भानगढ। हमने यहां ज्यादा समय न लगाते हुए जयपुर के लिये रफ्तार बढा दी।

नीलकण्ठ रोड से दिखता टहला बांध

टहला झील में विचरण करते पक्षी। किसी का भी नाम मालूम नहीं है।



बर्ड फोटोग्राफी का शौकीन- विधान




मैं एक ऐसा फोटो लेना चाहता था जिसमें पंख उडने के लिये फैल चुके हों लेकिन पैर पानी में ही हों। लेकिन गलत कोण के कारण यह फोटो मुझे उतना अच्छा नहीं लग रहा जितना मैं लेना चाहता था।




अजबगढ के पास एक छोटे से बांध में छलांग लगाता विधान



अजबगढ किला

अजबगढ

अजबगढ


फोटोग्राफर जाटराम

कभी कभी अपना भी मन कर जाता है ऐसा करने का।
बस, एक भाग और... आखिरी भाग...

जयपुर पुष्कर यात्रा
1. और ट्रेन छूट गई
2. पुष्कर
3. पुष्कर- ऊंट नृत्य और सावित्री मन्दिर
4. साम्भर झील और शाकुम्भरी माता
5. भानगढ- एक शापित स्थान
6. नीलकण्ठ महादेव मन्दिर- राजस्थान का खजुराहो
7. टहला बांध और अजबगढ
8. एक साइकिल यात्रा- जयपुर- किशनगढ- पुष्कर- साम्भर- जयपुर

2012 की घुमक्कडी का लेखा जोखा

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2012 चला गया। इस साल घुमक्कडी में एकाध नहीं बल्कि तीन महान उपलब्धियां हासिल हुईं। आगे बताया जायेगा तीनों महान उपलब्धियों के साथ साथ पिछले बारह महीनों में की गई हर छोटी बडी यात्रा के बारे में।
1. मावली- मारवाड मीटर गेज ट्रेन यात्रा- मावली से मारवाड तक चलने वाली 152 किलोमीटर की दूरी तय करने वाली इस ट्रेन में 7 फरवरी को यात्रा की गई। इससे एक दिन पहले रेवाडी से रींगस होते हुए फुलेरातक की यात्रा भी इसी ट्रिप का हिस्सा है।


2. रतलाम- अकोला मीटर गेज यात्रा और मुम्बई यात्रा- यह यात्रा 17 फरवरी से 22 फरवरी तक की गई। यह मुख्यतः एक ट्रेन यात्रा ही थी। इसमें रतलाम से अकोला तक चलने वाली भारत की वर्तमान सबसे लम्बी मीटर गेज की ट्रेन में यात्रा की गई। इसके बाद अकोला से मुम्बई जाना हुआ, एलीफेण्टा गुफाएंदेखीं और अगले दिन मुम्बई से इटारसीतक पैसेंजर ट्रेन से यात्रा हुई।

3. आगरा से सात ताल- यह यात्रा 20 मार्च से 23 मार्च तक की गई। इसमें शुरूआत ताजमहल से हुई और फिर पैसेंजर ट्रेन पकड ली। आगरा से अछनेरा, मथुरा होते हुए कासगंज पहुंचा। उसके बाद मीटर गेज की ट्रेन से भोजीपुरा तक गया और फिर सातताल। इसी में कालाढूंगी में जिम कार्बेट का घर और कार्बेट फालभी देखा गया।

4. जोशीमठ, औली, कल्पेश्वर यात्रा- यह यात्रा विधान के साथ 2 से 7 अप्रैल तक की गई। इसमें देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग और नन्दप्रयाग से साथ साथ औली, गोरसों बुग्यालऔर पांचवें केदार कल्पेश्वरका भ्रमण हुआ।

5 गंगोत्री- गौमुख- तपोवन यात्रा- यह इस साल की तीन महान उपलब्धियों में पहली उपलब्धि थी। चौधरी साहब के साथ गंगोत्री जाना, फिर गौमुख और उससे भी आगे तपोवन तक जाना एक अविस्मरणीय क्षण था।

6. नेपाल यात्रा- यह मेरी पहली विदेश यात्रा थी। नरकटियागंज से रक्सौलतक मीटर गेज में यात्रा करने के बाद काठमाण्डूऔर पोखराघूमना बेहतरीन अनुभव रहा। यात्रा 10 से 15 जुलाई तक की गई।

7. ट्रेन से भारत परिक्रमा- यह दूसरी महान उपलब्धि थी। 8 से 21 अगस्त तक की गई इस यात्रा में मैं हालांकि दो बार बीमार भी पडा लेकिन ट्रेन से सम्पूर्ण भारत को देखना एक उपलब्धि ही है।

8. लखनऊ बनारस यात्रा- यह यात्रा 26 से 30 अगस्त तक चली। एक सम्मान समारोह में भाग लेने लखनऊ जाना था, तो लगे हाथों वाराणसी, सारनाथके अलावा भी बहुत कुछदेख लिया गया।

9. रूपकुण्ड यात्रा- यह थी वर्ष की तीसरी और महानतम उपलब्धि। 29 सितम्बर से 6 अक्टूबर तक यह यात्रा सम्पन्न हुई।

10. साइकिल से नीलकण्ठ तक- यह यात्रा 30 और 31 अक्टूबर को हुई। ऋषिकेश से नीलकण्ठ तक और वापस हरिद्वार तक साइकिल से, दिनभर में करीब 80 किलोमीटर पहाडी मार्गों पर साइकिल चलाना; यह मेरे साइकिल यात्राओं की पहली यात्रा थी।

11. जयपुर- चूरू मीटर गेज ट्रेन यात्रा- 7 नवम्बर को यह यात्रा की गई। इससे पहली दिल्ली से जयपुर तक डबल डेकरट्रेन में भी यात्रा हुई।

12. साइकिल यात्रा- जयपुर से पुष्कर-साम्भर, भानगढ- नीलकण्ठ- 20 से 28 नवम्बर तक यह यात्रा चली। इसमें पहले तो साइकिल से जयपुर से पुष्कर जाया गया, फिर पुष्कर से साम्भर लेक होते हुए जयपुर वापस आया। उसके बाद विधान के साथ मोटरसाइकिल से भानगढ और नीलकण्ठ महादेव की यात्रा भी हुई। यह साल की आखिरी यात्रा थी।

इस साल कुल मिलाकर 98 छुट्टियां ली गईं जिनमें 52 साप्ताहिक अवकाश और 46 बाकी छुट्टियां हैं। पिछले साल 2011 में 72 छुट्टियां ली गई थीं (52 साप्ताहिक अवकाश, 20 बाकी छुट्टियां)।

और अब रेलयात्राएं
2012 में कुल 69 रेलयात्राएं की गईं और 22610 किलोमीटर दूरी तय हुई। इनमें 33 बार में 3477 किलोमीटर पैसेंजर ट्रेन से, 21 बार में 10152 किलोमीटर मेल/एक्सप्रेस ट्रेनों में और 15 बार में 8981 किलोमीटर दूरी सुपरफास्ट ट्रेनों से तय की गई। सबसे लम्बी रेलयात्रा डिब्रुगढ से कन्याकुमारी के बीच 4273 किलोमीटर की रही, जबकि सबसे छोटी रेलयात्रा मुम्बई लोकल में तिलक नगर से वडाला रोड तक रही मात्र 7 किलोमीटर की।

2013 के लक्ष्य
2012 में हिमालय के नाम पर सारी यात्राएं उत्तराखण्ड में ही हुई हैं, एक यात्रा नेपाल की है। अगले साल हिमाचल और जम्मू कश्मीर के हिमालय पार वाले क्षेत्रों का इरादा है- किन्नौर, स्पीति, लाहौल और लद्दाख। देखते हैं कि कहां तक पहुंच पाता हूं।


एक साइकिल यात्रा- जयपुर- किशनगढ- पुष्कर- साम्भर- जयपुर

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इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें
नवम्बर 2012 में की गई इस यात्रा की सम्पूर्ण जानकारी पहले लिखी जा चुकी है। यह भी बताया जा चुका है कि किस तरह अचानक कच्छ दर्शन को छोडकर राजस्थान के इस इलाके में आना हुआ। पुष्कर, साम्भर लेक, शाकुम्भरी माता, भानगढ, नीलकण्ठ महादेवऔर अजबगढके वृत्तान्त भी लिखे जा चुके हैं। आज देखिये सम्पूर्ण साइकिल यात्रा का वृत्तान्त:
21 नवम्बर की सुबह जयपुर से निकला तो दिमाग में बूंदी था। साइकिल चलाने का अनुभव नहीं था, इसलिये मालूम भी नहीं था कि एक दिन में कितना चला लूंगा। फिर भी प्रथम-दृष्ट्या 100 किलोमीटर रोजाना का लक्ष्य रखा गया। बूंदी जाने के लिये जयपुर से इतनी दूरी पर टोंक पडता है, इसलिये आज का विश्राम टोंक में करना तय हुआ।
लेकिन विधि को टोंक और बूंदी मंजूर नहीं था, तभी तो कुछ दूर चलते ही साइकिल अजमेर की तरफ मोड दी- पुष्कर का मेला देखेंगे।
अजमेर जयपुर से करीब 130 किलोमीटर दूर है। आज अन्धेरा होने तक अजमेर पहुंचना था। ताजा-ताजा शौक था, थकान नहीं हुई थी, इसलिये ले लिया ऐसा निर्णय।
आठ किलोमीटर दूर बाइपास आने तक सडक पर कोई ज्यादा भीड नहीं मिली, लेकिन उसके बाद भारी वाहन मिलने शुरू हो गये। हालांकि सडक काफी चौडी है, बिल्कुल बायें किनारे पर साइकिल चलाता रहा। कोई परेशानी नहीं हुई। मेरठ गया था एक बार दिल्ली से। तो गाजियाबाद से निकलते ही जो मौत से आंखमिचौली शुरू हुई, बडी रौंगटे खडे करने वाली थी। पतली सी सडक और उस पर भयंकर ट्रैफिक। जब इंच भर की दूरी से बराबर में साठ की स्पीड से दौडती बस आगे निकलती तो लगता कि पुनर्जन्म हो गया। आज यहां ऐसा नहीं था।
65 किलोमीटर बाद दूदू तक हकीकत पता चलने लगी। सडक किनारे होटलों की कोई कमी नहीं है, यहीं कहीं बैठकर लंच किया गया। होटलों की तारीफ करता हूं मैं यहां, क्योंकि मैंने आज तक हरिद्वार रोड और चण्डीगढ रोड के होटल व ढाबे ही देखे थे। यहां खाने की क्वालिटी तो जानदार है ही, लगता है कि होटल वालों को जमीन थोक में मिली है।
दूदू में ही घोषित हो गया कि किशनगढ से आगे नहीं जाना है। किशनगढ अभी भी करीब 40 किलोमीटर और है। मैं साढे बारह किलोमीटर प्रति घण्टे की स्पीड से साइकिल चला रहा था। इसी स्पीड में बार-बार रुकना और चाय-लंच करना भी शामिल था।
दिल्ली से चलते समय मैंने साइकिल में कैरियर लगवाया था। पीछे वाले पहिये में एक तरफ गियर असेम्बली है और दूसरी तरफ डिस्क ब्रेक, तो कैरियर लगाने के लिये बिल्कुल भी फालतू जगह नहीं थी। साइकिल का ऑरिजिनल डिटैचेबल एक्सेल निकालकर उसकी जगह दूसरा एक्सेल डाला गया, जो पहले वाले से ज्यादा लम्बा था। इसके बावजूद भी एक्सेल पर कैरियर लगाने की जगह नहीं बनी। लेकिन कैरियर लगाना जरूरी था। साइकिल वाले ने हाथ खडे कर दिये कि असम्भव। लेकिन यहां भी मैकेनिकल इंजीनियर हैं, उसके साथ खुद लगकर ‘इंजीनियरिंग’ की, तब जाकर कैरियर लग पाया। लेकिन इस पर कोई आदमी नहीं बैठाया जा सकता, केवल थोडा बहुत सामान ही रखा जा सकता है।
इसका एक नुकसान और हुआ कि कैरियर की ब्रेक की तरफ वाली डण्डी ने ब्रेक पर अनावश्यक दबाव देना शुरू कर दिया, जिससे ब्रेक का सन्तुलन बिगड गया। हालांकि इसके लिये भी जी-तोड ‘इंजीनियरिंग’ की गई, लेकिन पूरी तरह यह समस्या खत्म नहीं हुई। नतीजा? पिछला ब्रेक हर समय मामूली सा लगा रहने लगा। यह इतना मामूली था कि ना के बराबर समझा जाये।
जयपुर से अजमेर जाते हैं तो देखने में तो सडक समतल में ही लगती है, लेकिन कुल मिलाकर चढाई है। सडक बिल्कुल समतल दिखाई देती है, लेकिन साइकिल चलाते समय तुरन्त पता चल जाता है कि मामूली सी चढाई है। चूंकि आंखे समतल सडक की सूचना भेज रही थीं, इसलिये दिमाग ने आंखों का पक्ष लिया और निर्देश दे दिया कि ब्रेक गडबड कर रहे हैं। ब्रेक लग रहे हैं, इसलिये साइकिल चलाने में मेहनत ज्यादा लगानी पड रही है। एक जगह साइकिल लिटाकर आधा पौना घण्टा लगाकर पिछले ब्रेक में ‘ठोका-पीटी’ भी की गई।
किशनगढ से दस किलोमीटर पहले पूरी तरह चित्त हो गया। फिर भी किसी तरह अन्धेरा होने तक किशनगढ पहुंच गया। आज पहले ही दिन मामूली चढाई पर 105 किलोमीटर साइकिल चलाई।
दो सौ रुपये में कमरा ले लिया। साइकिल देखते ही होटल वाले को भी हुडक लग गई, बोला कि भाई, मैंने जिन्दगी में कभी गियर वाली साइकिल नहीं चलाई। मैं उसका इशारा समझ गया और बोला कि जा चला ले। साइकिल की बडी तारीफ हुई, जब यह किशनगढ के बाजार में तीव्र चढाई पर आसानी से चढ गई। और उतराई में डिस्क ब्रेक की महिमा का बखान हुआ।

22 नवम्बर 2012
कल से सबक लेकर आज मात्र पुष्कर तक ही जाने का लक्ष्य रखा। यहां से पुष्कर 40 किलोमीटर है। मैंने पुष्कर जाने के लिये अजमेर बाइपास का इस्तेमाल किया, इससे अजमेर शहर में नहीं घुस पाया।
कल की थकान के कारण आज मात्र 40 किलोमीटर ही साइकिल चलाई, अगले दिन तो हाथ भी नहीं लगाया। तीसरे दिन तक यानी 24 नवम्बर तक मैं फिर से लम्बी दूरी के लिये तैयार हो चुका था।
पुष्कर वर्णन पढने के लिये यहां क्लिक करें

अजमेर के रास्ते में



सडक पर पानी नहीं बिखरा है, बल्कि यह मृगमरीचिका है।

अजमेर बाइपास

अजमेर बाइपास

पुष्कर की ओर

पुष्कर की ओर

पुष्कर की ओर

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24 नवम्बर 2012
कल जब मैं पुष्कर में सोने की तैयारी कर रहा था, तो सोच रखा था कि अगले दिन यानी आज चित्तौडगढ की तरफ निकलूंगा। रात भीलवाडा में गुजारूंगा। तभी डॉ करण का फोन आया। मेरी योजना पता चलते ही उन्होंने मुझे धिक्कारा। बोले कि साइकिल होते हुए भी तू हाइवे पर यात्रा कर रहा है। तेरे पास अपनी सवारी है, इसका इस्तेमाल उन जगहों के लिये कर, जहां तू बिना इसके नहीं जा सकता था। गांवों और स्थानीय रास्तों पर निकल। बात मुझे जंच गई।
आज साम्भर लेक की तरफ मुंह उठ गया। पहले तो उसी रास्ते पर 15 किलोमीटर वापस चला, जिससे परसों आया था। अजमेर इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के तिराहे से अजमेर की तरफ मुडने के बजाय दूसरी तरफ मुड गया। यह मुख्य जिला रोड नम्बर 85 है, जो रूपनगढ जाती है। सिंगल रोड, दोनों तरफ रेत और यदा-कदा आते वाहन। अब लगने लगा कि राजस्थान में हूं।
34 किलोमीटर बाद एक गांव आया, नाम ध्यान नहीं। यहां से यह जिला सडक कुछ घूमकर सलेमाबाद जाती है, जबकि एक ग्रामीण सडक सीधी भी जाती है। मैंने ग्रामीण सडक से चलना तय किया।
यह ग्रामीण सडक बिल्कुल पतली सी और दोनों तरफ बबूल के कांटेदार पेड। करीब दो किलोमीटर चलने के बाद एक गांव आया। सडक के किनारे ही एक प्राइमरी स्कूल था, जिसमें बच्चे पढ रहे थे। स्कूल के सामने नल था। पानी पीने मैं रुका, तो एक ग्रामीण ने पूछना शुरू कर दिया। वाहवाही भी बढिया मिली।
चूंकि यह पतली सी और रेत से घिरी सडक थी, इसलिये कहीं कहीं सडक पर भी रेत फैल गई थी। ग्रामीण सडक होने के कारण मोड भी काफी थे। इसी तरह के एक मोड पर मैं मुडना भूल गया और सीधा चलता चला गया। थोडी दूर जाकर शक हुआ कि कुछ गडबड हो गई है। खालिस रेत और उस पर ऊंटगाडी के पहियों के निशान। रेत में साइकिल ने चलने से मना कर दिया। नीचे उतरकर पैदल चलना पडा। दिशा का कुछ नहीं पता था कि किस दिशा में जाना है और किस दिशा में जा रहा हूं।
जब शक की चरम स्थिति हो गई तो मोबाइल निकालकर अपनी लोकेशन देखी, तो होश उड गये। मुझे उत्तर-पूर्व में जाना था और मैं दक्षिण में जा रहा हूं। बिल्कुल विपरीत। हालांकि इसमें घबराने की कोई बात नहीं थी क्योंकि दक्षिण में कुछ किलोमीटर और चलने के बाद मैं उसी जिला सडक पर पहुंच जाता, लेकिन खालिस रेत में साइकिल चलाना बडा श्रमसाध्य और समयसाध्य कार्य है। दूसरी बात कि अब मुझे कम से कम 10 किलोमीटर अतिरिक्त चलना पडेगा। इसका असर यात्रा के आखिर में पडेगा, जब मुझे अन्धेरे में चलना होगा। मैं कभी भी दिन छिपने के बाद नहीं चलना चाहता।


रूपनगढ की ओर


रास्ता भटकने से पहले

रास्ता भटकने के बाद

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ऊपर वाले नक्शे में B वह स्थान है, जहां से मैं रास्ता भटक गया। जूम करके इसे और गौर से देखा जा सकता है। B के उत्तर पूर्व में MDR 85 पर एक गांव है सलेमाबाद। जबकि सीधे नीचे दक्षिण में MDR 85 पर ही कोई दूसरा गांव है। मैं रास्ता भटका और सलेमाबाद पहुंचने की बजाय दक्षिण की ओर बढ गया। नीचे वाले चित्र में यही दिखाया गया है। B से गलत रास्ता नीचे की ओर चलता है। एक सूखी नदी को पार करते ही रेत और ज्यादा बढ जाती है। यहीं मुझे शक हुआ था। लेकिन वापस लौटने की बजाय मैंने सीधे दक्षिण की ओर चलना ही पसन्द किया।




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खैर, आज देव उठनी एकादशी थी। जहां दोबारा जिला सडक पर पहुंचा तो उसी गांव में एक बारात भी आई हुई थी।
मैं पूरी तरह गूगल मैप पर आश्रित होकर चल रहा था। इसमें रूपनगढ के स्थान पर रूपनगर लिखा हुआ था। मैंने एक लडके से रूपनगर के बारे में पूछा, तो उसने मना कर दिया कि यहां कोई रूपनगर नहीं है। आखिरकार जब पूछा कि यह सडक कहां जा रही है, तो बोला कि रूपनगढ, तब गूगल की गलती का पता चला।
यहां से रूपनगढ बीस किलोमीटर है। रास्ता बहुत अच्छा है, बस रूपनगढ से कुछ पहले दो-तीन किलोमीटर के लिये टूटा हुआ था।
रूपनगढ में किशनगढ से आने वाला स्टेट हाइवे नम्बर सात मिल जाता है। दोपहर बाद तीन बजे मैं रूपनगढ में था।
यहां से साम्भर लेक करीब चालीस किलोमीटर दूर है। अगर मैं जी-तोड मेहनत करके 15 की स्पीड से चलूंगा तो छह बजे तक पहुचूंगा। लेकिन तीन घण्टे तक 15 की स्पीड से चलना काफी मुश्किल है, इसलिये साम्भर लेक पहुंचने में सात साढे सात बजने तय हैं।
रूपनगढ से नरैना वाली जिला सडक पकड ली। बीस किलोमीटर बाद ममाना गांव पहुंचकर जब सांस लेने के लिये रुका तो नक्शा देख बैठा। नक्शे ने बताया कि नरैना जाने की कोई जरुरत नहीं है। एक ग्रामीण सडक सीधे साम्भर लेक जाती है। पांच चार किलोमीटर बच जाये तो क्या हर्ज है? फिर दोपहर पकडी गई ग्रामीण सडक याद आ गई। तब तो उजाला था, अब अगर टंग गया तो भारी मुसीबत हो जायेगी।
एक से पूछा तो पता चला कि वह सदाबहार सडक है। और जब चलना शुरू किया तो वाकई आनन्द आ गया। चूंकि जयपुर से अजमेर की तरफ चढाई है, तो अजमेर से इस तरफ ढलान है, इसलिये साइकिल बडी हल्की दौडी जा रही थी।
जल्दी ही अन्धेरा हो गया, लेकिन सडक पर इतना यकीन था कि कहीं भी गड्ढा नहीं मिला। टॉप गियर में चली इस पर साइकिल।
रास्ते में नलियासर लेक भी मिली। उसे पार करके जब साम्भर लेक पहुंचा, तो काफी थकान चढ चुकी थी। यहां एक धर्मशाला में जगह मिली।
आज करीब 110 किलोमीटर साइकिल चलाई।

25 नवम्बर 2012
आज सुबह उठकर सबसे पहले शाकुम्भरी माताकी तरफ चल दिया। यह साम्भर लेक कस्बे से 23 किलोमीटर दूर है। पूरा रास्ता झील के किनारे किनारे होकर जाता है।


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B पर शाकुम्भरी माता मन्दिर है।

दोपहर बाद दो बजे तक शाकुम्भरी माता से वापस साम्भर लेक लौट आया। अब मन में आया कि चलो, जयपुर चलते हैं। यहां से जयपुर करीब 70 किलोमीटर है। 46 किलोमीटर मैं आज अभी तक चल चुका हूं, 70 और जोडने पर 116 किलोमीटर हो जायेगा। रात आठ बजे का लक्ष्य रख लिया। जयपुर में विधान के यहां जाना था। देर-सवेर की कोई चिन्ता नहीं थी।
फुलेरा से निकलते ही सडक पर बबूल की कई टहनियां पडी थीं। उन्हीं में से एक पर साइकिल चढा दी। चढाते ही उसके लम्बे लम्बे कांटे दिख गये। हालांकि साइकिल के टायर काफी मोटे हैं, तो शायद झेल गये होंगे इन कांटों को, इसलिये देखने की जहमत नहीं उठाई। यहीं पर इसमें पंक्चर हो गया। पता चला जोबनेर से पांच किलोमीटर पहले, जब काफी ढलान पर टॉप गियर में भी पर्याप्त स्पीड नहीं मिल पा रही थी। अगला टायर बिल्कुल पिचक गया था। जोबनेर में पंक्चर लगवाया गया।
जोबनेर के बाद बिल्कुल सत्यानाशी सडक मिली। यह हाल कालवन तक रहा। कालवन से आगे सडक फिर से चकाचक आ गई।
बाइपास होते हुए बेनाड रोड पर विधान के घर पहुंचने में साढे आठ बज गये।
पिछले दो दिनों में 200 किलोमीटर से भी ज्यादा साइकिल चलाई गई। जी भरकर थका हुआ था। हालांकि अगले दिन विधान ने मोटरसाइकिल उठा ली और हम भानगढचले गये।



अजमेर जिला खत्म, अब जयपुर जिला शुरू

साम्भर लेक की ओर



साम्भर लेक से शाकुम्भरी माता की ओर

शाकुम्भरी माता की ओर

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इस यात्रा में कुल 380 किलोमीटर साइकिल चलाई गई।

जयपुर पुष्कर यात्रा
1. और ट्रेन छूट गई
2. पुष्कर
3. पुष्कर- ऊंट नृत्य और सावित्री मन्दिर
4. साम्भर झील और शाकुम्भरी माता
5. भानगढ- एक शापित स्थान
6. नीलकण्ठ महादेव मन्दिर- राजस्थान का खजुराहो
7. टहला बांध और अजबगढ
8. एक साइकिल यात्रा- जयपुर- किशनगढ- पुष्कर- साम्भर- जयपुर

मेरा नौकरीपेशा जीवन-1

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कुछ समय के लिये घुमक्कडी से फुरसत मिली तो आज याद कर रहा हूं अपने नौकरीपेशा जीवन के बारे में। कितना उतार-चढाव भरा रहा वो समय! बल्कि उतार ही ज्यादा कहना चाहिये।
जून 2007 में मैकेनिकल से डिप्लोमा करने के बाद मैं इंजीनियर कहलाने का अधिकारी हो गया- जूनियर इंजीनियर। मई में जब प्रैक्टिकल हो रहे थे, तभी से कई कम्पनियां ताजे ताजे इंजिनियरों को लेने कॉलेज आने लगी। गाजियाबाद की प्रतिष्ठित श्रीराम पिस्टन की शर्त होती है कि इंजिनियर ने इण्टर भी कर रखी हो। इस मामले में मैं दसवीं पास होने की वजह से उसका इंटरव्यू नहीं दे पाया था। लेकिन इसका फायदा यह हुआ कि वे सबसे पहले आये और टॉपर्स को छांट-छांटकर ले गये। अब मुझे टॉपर्स से कम्पटीशन नहीं करना था।
फिर आई दो और कम्पनियां- नोयडा से डेकी इलेक्ट्रोनिक्स और कानपुर से लोहिया स्टारलिंगर लिमिटेड। कानपुर वाले बल्कि आये नहीं, उन्होंने कॉलेज में न्योता भेज दिया कि दस लडके इधर भेज दो, हम नापतौल करेंगे और एक को ही रखेंगे। दस लडकों में मेरा भी नाम था। मेरठ से कानपुर जाने के लिये सभी के साथ साथ मैंने भी संगम एक्सप्रेस से रिजर्वेशन करा लिया।
जिस दिन हमें शाम सात बजे मेरठ से ट्रेन पकडनी थी, उसी दिन सुबह कॉलेज में डेकी इलेक्ट्रोनिक्स आ धमकी। चूंकि मैं मैकेनिकल का छात्र था, इसलिये इसे नजरअन्दाज कर दिया। फिर सोचा कि इस इलेक्ट्रिनिक्स में नौकरी तो करनी नहीं है, लिखित परीक्षा देकर देख लेते हैं। लिखित परीक्षा देकर बिना परिणाम की चिन्ता किये उसी दिन शाम को कानपुर चले गये।
बाद में पता चला कि उस लिखित परीक्षा में मैं प्रथम आया था। लेकिन कोई फायदा नहीं था। एक ‘लुहार’ का कैपेसिटर बनाने वाले के यहां क्या काम?
कानपुर पहुंचे। लोहिया वालों ने बढिया खातिरदारी की। चौबेपुर वाले प्लांट में ले गये लिखित और इंटरव्यू के लिये। जिन्दगी में पहली बार इतनी उच्च क्वालिटी की साफ-सफाई देखी। संभल-संभलकर पैर रखना पड रहा था कि कहीं फिसल ना जायें। हम दस के दस हैरान थे इस ‘चकाचौंध’ को देखकर।
लिखित में सामान्य ज्ञान के प्रश्न आये, जिसमें निःसन्देह मुझे ही प्रथम आना था। निःसन्देह इसलिये कह रहा हूं कि हम सब पढाई के मामले में लगभग एक ही पायदान पर थे- औसत छात्र। लेकिन मैं जिस तरह आज देश-दुनिया को जानता हूं, तब भी वही हालत थे। इस क्षेत्र में मैं अपने समकक्षों से आगे था।
मेरे प्रथम आने ने ही तय कर दिया कि अगर इंटरव्यू में औसत से कम भी प्रदर्शन हुआ तो यहां जमना पक्का है। यह बात बाकी सभी को भी पता थी कि जाट इंटरव्यू में कैसा प्रदर्शन करेगा। इसलिये पहले ही सभी ने हार मान ली थी। कम्पनी को एक ही बन्दे की जरुरत थी।
इंटरव्यू से दस मिनट पहले हम दसों ने अपने सिर मिलाये और तय किया कि हम कम्पनी पर दबाव डालेंगे ताकि वे दो को भर्ती कर लें। हम अपनी योजना में कामयाब भी रहे जब कम्पनी के मैनेजरों के सामने हम खुद के ‘दूर देश’ के निवासी होने की दुहाई देने लगे। मेरे साथ सन्दीप पंवार की भर्ती हुई। यह सन्दीप जाटदेवता के नाम से लिखने वाला सन्दीप नहीं था। वहां असफल होने पर नितिन सैनी खूब रोया था। आज नितिन दिल्ली मेट्रो में स्टेशन नियन्त्रक है।
एक महीने बाद जब दोबारा कानपुर गया नौकरी ज्वाइन करने, तो पहली नौकरी का जबरदस्त उत्साह था। इस दौरान डेकी से भी फोन आते रहे कि टॉपर साहब आ जाओ। मैंने उनके लिखित में टॉप जो किया था।
पिताजी भी साथ गये थे कानपुर। पहला दिन हमारे लिये तो अच्छा बीता लेकिन कम्पनी के बाहर हमारी ड्यूटी खत्म होने की प्रतीक्षा करते पिताजी का दिन अच्छा नहीं बीता। शाम को जब हम बाहर निकले तो पिताजी का आदेश था कि मेरठ चल। मैंने काफी विरोध किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।
इस प्रकार पहली नौकरी मात्र एक ही दिन चल सकी।
घर वापस आते ही पता नहीं डेकी को कैसे पता चल गया कि ‘टॉपर साहब’ आजकल बेरोजगार हैं। झट से फोन कर दिया। मैं अब नोयडा पहुंचा।
हम छह जने थे उनके इंटरव्यू के लिये। बडे आराम से सलेक्शन हो गया। और सलेक्शन भी बडा अजीब हुआ। एक बन्दा इंटरव्यू में बाहर हो गया। बचे पांच। अब बताया गया कि तुम पांचों को हम दो सप्ताह तक ट्रेनिंग देंगे। फिर परीक्षा लेंगे। अगर साठ प्रतिशत से कम नम्बर आये तो बाहर कर देंगे।
दो सप्ताह तक खूब जी-तोड रट्टा लगवाया गया। उसमें कम्पनी के नियम कायदे ही थे जो इंग्लिश में थे। मुझे याद नहीं होते थे।
आखिरकार वो दिन भी आया, जब मेरा भविष्य निर्धारित होना था। बैग वगैरह एक कोने में रखवाकर सभी पांचों को दूर दूर बैठा दिया गया और प्रश्न-पत्र उत्तर-पुस्तिका पकडा दी गई। जैसा सोचे बैठे थे, वही हुआ। क्या लिखें, यह बात समझ से बाहर थी। जैसे ही ‘बडे लोग’ हमारी देखभाल करने के लिये एक ‘छोटे’ को छोड गये, तभी हममें से चार ने अपने बैगों से सामग्री निकाली और दे दनादन लिख मारा। एक पांचवां ईमानदार था, उसने अपनी अक्ल से लिखा।
नतीजा आया कि हम चार पास हो गये हैं और वो पांचवां फेल। उसने अधिकारियों से शिकायत की कि इन चारों ने नकल की है। हल्की फुल्की जांच हुई। देखभाल करने वाले ‘छोटे’ के बयान लिये गये। आखिरकार फैसला हुआ कि पांचवां चूंकि फेल हो गया है, इसलिये बेवजह के आरोप लगा रहा है। एक अधिकारी ने सुझाव दिया कि दोबारा पेपर करवा देते हैं जिसे हम चारों ने तत्काल खारिज कर दिया।
अब कायदे से नौकरी शुरू हो गई। शुरू में बताया गया था कि सैलरी छह हजार होगी लेकिन जल्दी ही पता चल गया कि छह नहीं बल्कि पांच है, बाकी एक हजार इंसेंटिव है जिसे प्रोडक्शन मैनेजर हमारा काम देखकर दिया करेगा। प्रोडक्शन मैनेजर अमित वर्मा था।
इस कम्पनी में कैपेसिटर बनते हैं जो इलेक्ट्रोनिक्स और इलेक्ट्रिकल में काम आते हैं। तीन शिफ्ट में काम होता था। मेरे अन्तर्गत करीब बीस मशीनें थीं और उन पर काम करने वाले कर्मचारी भी। मुझे काम पर लगातार नजर रखनी होती थी और टारगेट को पूरा करना होता था। तब आठ घण्टे की एक शिफ्ट में अस्सी हजार कैपेसिटर का टारगेट होता था। यह टारगेट बिना रुके लगातार काम करते रहने पर भी पूरा नहीं होता था। कम उत्पादन की जिम्मेदारी हमारी होती थी। आये दिन कम उत्पादन के मामले में मैनेजर से मीटिंग होती रहती थी। सुननी भी पडती थी।
जल्दी ही मेरी उन कर्मचारियों से अच्छी बनने लगी जो मशीनें चलाते थे। मैं सोचता था कि एक शिफ्ट में सत्तर हजार का उत्पादन होता है, अगर पैंसठ हजार बन जायेंगे तो हमेशा की तरह अमित वर्मा बक-बकाकर चला जायेगा। यह रोज का काम था। उधर अमित सबके सामने मुझे सुनाकर जाता था, इधर मैं अमित-आलोचना-पुराण शुरू कर देता था। कर्मचारियों को क्या चाहिये? अधिकारियों की आलोचना। धीरे धीरे कर्मचारियों में मेरी घुसपैठ बढने लगी।
मैं चूंकि एक शिफ्ट के लिये ही जिम्मेदार था, बाकी की दो शिफ्टें मेरे समकक्ष देख रहे थे। वे कर्मचारियों में उतने लोकप्रिय नहीं थे, जितने कि मैनेजरों में। आये दिन मैनेजर मुझे बाकी लोगों का प्रदर्शन दिखाता था और कहता था कि इनके जैसे बनो। और पता नहीं कैसे वे मुझसे अच्छा ‘प्रदर्शन’ भी करते थे।
यहां मशीनें श्रंखला में चलती थीं। पहली मशीन जो आउटपुट देगी, दूसरी मशीन के लिये वो इनपुट होगा, फिर दूसरी जो आउटपुट देगी, तीसरी के लिये इनपुट होगा। इस तरह दस मशीनें थीं। और इस तरह की चार श्रंखलाएं थीं। यानी अगर एक मशीन खराब होती है तो केवल उसी श्रंखला का काम प्रभावित होगा, बाकी श्रंखलाएं चलती रहेंगी।
पहले कभी नौकरी तो की नहीं थी, आठ घण्टे काटने बडे मुश्किल होते थे। मेरे लिये यानी एक इंजीनियर के लिये कहीं कोई कुर्सी भी नहीं थी, आदेश था कि लगातार चारों श्रंखलाओं के चक्कर लगाते रहो और उत्पादन बढाते रहो। जबकि मशीन चलाने वाले कर्मचारियों को स्टूल मिलते थे।
मैंने बैठने का एक तरीका ढूंढा। सबसे पहले मशीनें चलानी सीखीं। फिर कर्मचारी से कहता कि जा बाहर पांच चार बीडी पीकर आ, मैं मशीन चलाता हूं। कर्मचारी ठहरा कई सालों का जानकार, वो भला क्यों मुझ महीने भर के छोकरे के भरोसे मशीन छोडने लगा? बोला कि मशीन खराब हो जायेगी, उत्पादन कम हो जायेगा। मैंने तुरन्त कहा कि मशीन खराब होगी तो तुम रिपॉर्ट किसे करोगे? बोला कि तुम्हें। बस तो फिर दिक्कत क्या है? अरे तुम तो कर्मचारी हो, मालिक तो मैं हूं, मशीनों की जिम्मेदारी तो मेरी है, जा बीडी पीकर आ।
कैपेसिटर चूंकि इलेक्ट्रोनिक्स चीज होते हैं, बनाते समय मामूली सा दबाव भी उन्हें बेकार कर सकता है, इसलिये मशीनें आधुनिक थीं। कर्मचारी को मात्र चालू करना था और मशीन खुद काम करती थी। हर मशीन में दुनिया भर के सेंसर भी लगे थे। यही काम मैं करने लगा। मशीन ऑन की और स्टूल पर बैठा रहता। कभी कभी आंख भी लग जाती। मशीन अपना काम करती रहती, अगर मामूली सी भी दिक्कत आती तो बन्द हो जाती। मशीन बन्द होते ही मेरी आंख भी खुल जाती। कर्मचारी खुश कि साहब मशीन चला रहा है।
पहली सैलरी तो पूरे 6000 आई। दूसरी 5700 आई। मैंने शिकायत की तो पता चला कि तुम्हारी सैलरी 5000 है, बाकी के पैसे तुम्हारा मैनेजर तुम्हारे काम से खुश होकर देता है। पिछले महीने उसने पूरे 1000 दिये थे, इस बार वो खुश नहीं है, तो 700 दिये हैं। मैं मैनेजर के पास गया। कहा कि सर, मैं ऐसा हूं, वैसा हूं, ईमानदार हूं, सारी मशीनें चलाना जानता हूं, बढिया उत्पादन भी करके देता हूं, समय से आता हूं, समय से जाता हूं, फिर 300 रुपये क्यों काटे?
अमित वर्मा- मैनेजर- ने एक शैतानी हंसी बिखेरी। एक फाइल खोली। दिखाने लगा कि देखो, तुम्हारे समकक्ष तुमसे ज्यादा उत्पादन करके देते हैं, तुम अपना उत्पादन नहीं बढा पा रहे हो। वे मीटिंग में भी भाग लेते हैं, तुम मीटिंग में भाग लेने से कतराते हो। तुम्हें दो बार सोते हुए भी पकडा गया है।
यानी मैनेजर द्वारा दिये गये 1000 रुपये का मतलब है चापलूसी को बढावा। पिछले दो महीनों में मेरी और मैनेजर की खटपट भी काफी बढ गई थी। अब इन एक हजार रुपयों की तरफ ध्यान देना बन्द कर दिया।
एक दिन आदेश आया कि फलानी तरह का उत्पादन करना है, बडा अर्जेंट है। अर्जेंट उत्पादन आते ही सब लोग और सब मशीनें सब काम छोडकर उसी पर ध्यान लगाते थे। मैंने देखा कि श्रंखला की पहली मशीन बन्द है, कर्मचारी से पूछा तो बताया कि मशीन खराब है। मैंने भी स्टार्ट करके देखी तो नहीं हुई। जितनी जानकारी मुझे थी, सारी की सारी लगाकर देख ली लेकिन कोई खराबी पकड में नहीं आई। उधर कर्मचारी ठहरा सालों का जानकार- मशीन की नस नस तक पहुंच थी उसकी।
मेरी घुसपैठ थी ही सारे कर्मचारियों में। जितने भी पचास साठ कर्मचारी थे, सभी का नाम, परिवार और जिला, राज्य सबकी जानकारी मुझे थी। बेचारे ने एक बार पूछते ही बता दिया कि यह सेंसर हिल गया है। मैंने उसे दोबारा ठीक स्थान पर लगाया, मशीन चल पडी। अब पता नहीं क्या दिमाग में आया, मैंने सेंसर फिर उखाड दिया, मशीन बन्द। उस बडी मशीन के एक कोने में बडा मामूली सा नन्हा सा सेंसर था। मैंने रिपॉर्ट तैयार की, आगे भेज दी। थोडी देर में मशीन के ऊपर एक लाल गत्ता लहरा रहा था- मशीन खराब है।
हां, एक बात और रह गई। इस कम्पनी की शर्त थी कि हमें यहां कम से कम तीन साल तक काम करना ही है। तीन साल का अनुबन्ध था। मुझे चूंकि आगे सरकारी नौकरी चाहिये थी, इसलिये अपनी मंशा भर्ती के समय ही बता दी थी। मेरे अनुबन्ध पत्र पर लिखा था कि तुम तीन साल तक इस कम्पनी को छोडकर दूसरी कम्पनी में नहीं जाओगे। सरकारी नौकरी लगेगी तो यह अनुबन्ध उसे मान्यता देता है। साथ ही यह भी कि अगर तुम्हारे काम से परेशान होकर कम्पनी तुम्हें अनुबन्ध से पहले बाहर करती है तो तीन महीने की सैलरी देगी। मैं खुश था कि अगर मुझसे तंग आकर ये लोग बाहर करते हैं, तो तीन महीने की सैलरी मिलेगी, तब तक कहीं ना कहीं दूसरी नौकरी ढूंढ ही लूंगा।
अक्सर अमित वर्मा पूछता कि तुम्हारी शिफ्ट में सबसे कम काम क्यों होता है? मैं सीधे सीधे जवाब देता कि पता नहीं। उसने अपनी तरफ से खूब साम दाम दंड भेद अपनाया, लेकिन नीरज को अपने अनुकूल नहीं बना पाया।
अगले महीने सैलरी आई 5500 रुपये। यानी अमित ने मुझे इस बार 500 रुपये ही दिये हैं। मैं जेब में 500 का नोट लेकर सीधा अमित के ऑफिस गया। मेज पर नोट रखा और बोला कि सर, एक नालायक के प्रदर्शन के हिसाब से यह रकम बहुत ज्यादा है। इसे अपने पास रखिये, अगले महीने मुझे आपकी तरफ से कुछ भी ‘इनाम’ नहीं चाहिये।
एक कर्मचारी था रमेश। वो अल्मोडा के पास एक गांव का रहने वाला था। उसका भाई कैलाश भी इसी कम्पनी में मेरी निगाह में काम करता था। मुझे दो दिनों तक रमेश जब नहीं दिखाई दिया तो कैलाश से पूछा। उसने बताया कि वो गांव गया है। कितने दिन तक रहेगा? पता चला कि सोमवार को आ जायेगा।
मैंने कैलाश से उसके घर का पता लेकर वहां एक चक्कर लगाने चला गया। इस यात्रा वृत्तान्त को मैं पहले लिख चुका हूं। पढने के लिये यहां क्लिक करें
वापस आया तो कम्पनी के मैनेजरों और बाकी इंजीनियरों में हडकम्प मचा हुआ था। नीरज- इंजीनियर- एक तुच्छ से कर्मचारी के घर गया। मेरे समकक्ष बार-बार हैरान-परेशान होकर यही पूछे जा रहे थे कि तू उस मामूली से कर्मचारी के घर क्यों गया? आनन-फानन में आपातकालीन मीटिंग की गई जिसका विषय यही था। इस मीटिंग में बाकी मैनेजरों के साथ साथ जीएम भी था।
मुझसे यही पूछा गया कि तू क्यों गया?... घूमने गया था। ... रमेश के घर ही क्यों?... क्योंकि वो पहाड का रहने वाला है। मुझे पहाड बहुत पसन्द हैं।... पहाड पसन्द हैं तो कहीं और क्यों नहीं गया?...
इस घटना के बाद वहां से मेरा मन बुरी तरह उजड गया। पहले मैं सोचता था कि अगर ये लोग मुझे निकालेंगे तो तीन महीने की सैलरी देंगे। अब उसका भी लालच नहीं रहा। दम घुटने लगा था। कर्मचारी पूरा सहयोग करते थे, समकक्ष और ऊपर वाले उस सहयोग की ऐसी तैसी कर देते थे। कम्पनी में हर कोने में सीसीटीवी कैमरे भी लगा दिये थे। मेरे लिये सख्त आदेश था कि मैं मशीन नहीं चलाऊंगा। सबको पता था कि ऐसा करके यह आराम करता है। मशीन नहीं चलाने का मतलब था कि आठ घण्टे बैठना भी निषिद्ध। खडे रहो और मशीनों के चक्कर लगाते रहो। रात की ड्यूटी में राहत मिलती थी, लेकिन जब एक दिन सुरक्षा गार्ड ने आकर मुझे मशीन से उठाया तो इस कम्पनी से नाता तोड लेने की बात दिमाग में आने लगी।
एक दिन कुरुक्षेत्र से एक प्लेसमेंट एजेंसी का फोन आया कि गुडगांव में एक कम्पनी को इंजीनियरों की जरुरत है। मैंने अमित वर्मा को फोन करके बताया कि मुझे जरूरी काम है, दो दिनों तक नहीं आऊंगा। अमित ने तुरन्त कहा कि नहीं तुम्हें छुट्टी नहीं मिलेगी। मैंने कहा कि मैं छुटी मांग नहीं रहा हूं, आपको बस सूचना दे रहा हूं। अमित ने कहा कि ठीक है, दो दिनों बाद जब आयेगा तो सबसे पहले मुझसे मिलना।
हालांकि इसके बाद कभी अमित से मिलना नहीं हो सका।
कथा जारी...

मेरा नौकरीपेशा जीवन-2

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मैं और रोहित ट्रेन से दोपहर होने तक कुरुक्षेत्र पहुंचे। यहां एक प्लेसमेंट एजेंसी है जिसके मैसेज हमारे मोबाइल पर अक्सर आते रहते थे। जब उनके यहां पहुंचे तो उनके वचन सुनकर पैरों तले से जमीन हिल पडी। बोले कि दो सौ रुपये रजिस्ट्रेशन फीस है और आधी सैलरी भी एडवांस में लेंगे। बताया गया कि उस कम्पनी में आपको पांच हजार मिलेंगे, इसलिये ढाई हजार रुपये आपको अग्रिम जमा कराने होंगे। हमने मना कर दिया कि हम आपसे बात करके ही यहां आये हैं, आपने दो सौ रुपये रजिस्ट्रेशन फीस की ही बात की थी, आपको ढाई हजार रुपये के बारे में भी बताना चाहिये था। खैर, आखिरकार इस शर्त के साथ हमें उन्होंने इंटरव्यू लेटर दे दिया कि आप कम्पनी में भर्ती होते ही ढाई ढाई हजार रुपये का भुगतान कर दोगे।
अगले दिन दोनों सीधे गुडगांव पहुंचे। यह सोना ग्रुप की सोना सोमिक नाम की एक कम्पनी थी जिसकी मालिक करिश्मा कपूर हैं। इसमें लिखित तो नहीं हुआ लेकिन तीन बार इंटरव्यू हुए। कुल तीन जने वहां पहुंचे थे, तीनों को भर्ती कर लिया गया। और अगले दिन से ही कार्यभार संभालने को कहा जिसे हमने आसानी से दो दिन बाद करवा लिया ताकि गाजियाबाद और नोयडा से सामान गुडगांव शिफ्ट किया जा सके।
यह कम्पनी मेरे अनुकूल थी क्योंकि इसमें बडी बडी मशीनों पर मैकेनिकल काम होता था। 
यहां जर्मनी से एक बेहद विशाल मशीन मंगाई गई थी जिसका आधा हिस्सा जो कि तकरीबन दस फीट था, जमीन के अन्दर था और शेष आधा जमीन के ऊपर। मशीन अभी आई ही थी, इंस्टाल नहीं हुई थी। हमें तीन शिफ्टों में इसी मशीन को चलाना था। दो महीने बाद जर्मनी से इसके इंजीनियर आयेंगे और इसे इंस्टाल करेंगे। तब तक हमें करना-धरना कुछ नहीं था, बस यहां आकर समय काटना था।
नोयडा की डेकी के मित्र याद आ रहे थे, जिनसे हमेशा बेहतरीन तालमेल बना रहा। एक बार समय निकालकर मैंने वहां जाकर नाइट ड्यूटी भी की और सबको बता दिया कि मैं अमित वर्मा के चंगुल से आजाद हो गया हूं। मेरा समकक्ष जो उस दिन नाइट ड्यूटी कर रहा था, उसने मुझे आजाद होने की बधाई दी और मेरे अच्छे नसीब की भी तारीफ की। साथ ही अपनी बदनसीबी को भी कोसने लगा। मैंने कहा कि दोस्त, नसीब ऊपर से बनकर नहीं आता, नीचे आकर खुद बनाया जाता है।
वो आज पांच साल बाद भी उसी कम्पनी में उसी पोस्ट पर उसी अमित वर्मा के नीचे काम कर रहा है।
गुडगांव में इस कम्पनी में जो माहौल मिला, वो जिन्दगी का एक बेहतरीन माहौल था। पहली बार हरियाणा में आया था, माहौल भी पूरी तरह हरियाणवी था। यही से मेरी बोली में हरियाणवी पुट आया।
हम तीनों को भर्ती तो सीधे कम्पनी ने किया था, लेकिन हमारी बागडोर सौंप दी गई एक ठेकेदार के हाथ में। कहने लगे कि दो तीन महीनों में तुम्हें नियमित कर दिया जायेगा। हम ‘इंजीनियरों’ को यह बात बडी चुभती थी।
हमें चूंकि निकट भविष्य में कोई उत्पादन नहीं करना था, कोई मशीन नहीं चलानी थी, इसलिये हफ्ते भर में ही हमें शिफ्ट की ड्यूटियों में लगा दिया गया। हमारा प्रोडक्शन मैनेजर (नाम भूल गया हूं) करीन 55 साल का था और उसने अपनी पूरी जिन्दगी यहीं पर लगा दी थी। वो आईटीआई का सर्टिफिकेटधारी था, इसलिये हम ‘इंजीनियरों’ की बेहद इज्जत करता था। चूंकि वो पढाई के मामले में हमसे पीछे था, इसलिये कभी भी उसने हमपर यह जाहिर नहीं होने दिया कि वो हमारा बॉस है।
यहां ड्यूटी की टाइमिंग बडी खतरनाक थी। पहली शिफ्ट सुबह आठ बजे से शुरू होकर शाम चार बजे तक, दूसरी शाम चार बजे से रात एक बजे तक और तीसरी यानी नाइट शिफ्ट रात एक बजे से सुबह आठ बजे तक होती थी। गनीमत थी कि गुडगांव बस अड्डे से कम्पनी तक लाने-ले जाने के लिये कम्पनी की बस चलती थी। हम जनवरी के आखिर में वहां भर्ती हुए थे, इसलिये सर्दियों भर रात बारह बजे रजाई से उठना बडा भयंकर काम होता था। मैं और रोहित साथ ही रहते थे। हममें से जिसकी भी नाइट ड्यूटी होती थी, वो बारह बजे उठकर सबसे पहले रोया करता था।
मार्च में जर्मनी और फ्रांस से कुछ इंजीनियर आये मशीन को इंस्टाल करने। खूब माथापच्ची कर ली, खूब दिमाग लगा लिया, खूब नक्शे देख लिये लेकिन कभी भी मशीन को अपने अनुकूल नहीं बना पाये। मशीन ने कसम खा ली कि नहीं चलूंगी। आखिरकार यूरोपियन इंजीनियर मशीन को छोड-छाडकर भाग गये।
हम पिछले करीब दो महीनों से कुछ नहीं कर रहे थे। हमारी भर्ती उसी मशीन को चलाने के लिये हुई थी, लेकिन अब फिर मामला अनिश्चित काल के लिये अटक गया। हम भी इन दो महीनों में बुरी तरह खाली आना-जाना करते हुए थक गये थे। ड्यूटी आते ही नींद आने लगती। सोने के लिये बडी शानदार जगह ढूंढी- कुर्सी वाला शौचालय। अन्दर से कुंडी लगाई, कुर्सी पर बैठे, पीछे कमर लगाई और सो गये। हमें कोई नहीं ढूंढता था। कुर्सी वाले शौचालय में कोई हरियाणवी भी नहीं आता था।
हां, एक बात रह गई। हम दोनों पर प्लेसमेंट एजेंसी वालों के ढाई ढाई हजार रुपये थे। भर्ती होते ही उन्होंने हम पर दबाव देना शुरू कर दिया। कम्पनी से निकलवा देने की धमकी देने लगे। हम पहुंचे सीधे एचआर डिपार्टमेंट में। उन्होंने बताया कि कोई जरुरत नहीं है उन्हें पैसे देने। हम बार बार किसी एजेंसी के कहने पर किसी को बाहर या अन्दर नहीं किया करते। आखिरकार, हमारे पांच हजार रुपये बच गये।
नोयडा वाली कम्पनी के अधिकारियों को पता चल गया था कि मैं गुडगांव में नौकरी कर रहा हूं, मेरा वहां तीन साल का अनुबन्ध था। मेरे पास फोन आया कि हम कानूनी कारवाही करेंगे। मैंने कहा कि कानूनी कारवाही तो कर लेना, लेकिन पहले अमित वर्मा से बात भी कर लेना। एक नालायक के तीन महीने की अतिरिक्त सैलरी लिये बिना चले जाना उनके लिये फायदे का सौदा ही था। वे भला क्यों मुझे दोबारा बुलाते?
हालांकि यह बडा आकर्षक लगता है कि बिना कुछ करे धरे और बिना किसी जिम्मेदारी के नौकरी चल रही हो, तो कौन इसे छोडकर जाना चाहेगा? लेकिन यही हमारे छोडकर जाने का कारण बना। हम यहां बुरी तरह बोर हो चुके थे। आठ घण्टे काटना धैर्य का जबरदस्त इम्तिहान था।
और एक दिन यहां से भी छोड दी।
गुडगांव में हम नौकरी-नौकरी खेला करते थे। जब चाहा जिस इलाके में चाहा नौकरी कर सकते थे। बस शर्त थी कि सैलरी कम्पनी की मर्जी से मिलेगी, ना कि आपकी मर्जी से। हमारी सैलरी कभी भी छह हजार से ज्यादा नहीं हुई।
सोना कम्पनी से छोडने के बाद रुख किया मानेसर का। मानेसर गुडगांव से करीब बीस किलोमीटर आगे एक औद्योगिक नगर है। बडी प्रतिष्ठित कम्पनी थी, नाम भूल गया हूं, सैलरी थी आठ हजार।
इंटरव्यू के लिये करीब बीस लडके आये थे। मेरे अलावा सब सज-धजकर। प्रतिष्ठित कम्पनी, अच्छी सैलरी और इतने ज्यादा प्रतियोगी। दो राउंड का इंटरव्यू हुआ, मेरा सलेक्शन हो गया। आज मैं बेहद खुश था क्योंकि यह मेरी चौथी कम्पनी थी और इतना कम्प्टीशन इससे पहले कभी नहीं हुआ था। खुशी तो बनती ही है जब आप बीस लडकों को पछाडकर आगे निकलते हो।
यहां काम करने वाले सब डिप्लोमची ही थे। ध्यान नहीं कि इसमें क्या बनता था। पहले दिन जब कम्पनी पहुंचा तो गेट पर सुरक्षा गार्ड ने रोक लिया कि अन्दर मोबाइल ले जाना मना है। मैं ठहरा ‘इंजीनियर’। बात चुभ गई। अगले दिन फिर मोबाइल ले गया लेकिन स्विच ऑफ करके गेट पर ही रखना पडा। तीसरे दिन से जाना बन्द।
अब मैं खाली था। उधर रोहित जो सोना कम्पनी में साथ काम करता था, वो अभी भी वहीं था लेकिन भागने की फिराक में था। हम गुडगांव में राजीव नगर में रहते थे। अपने कमरे को नाम दे रखा था- जाट धर्मशाला। इसके बारे में पहले लिख चुका हूं।
एक बार रोहित हरिद्वार गया एक प्रतिष्ठित कम्पनी में इंटरव्यू देने लेकिन असफल रहा। वहां उसकी दोस्ती ‘घटोत्कच’ से हुई। घटोत्कच भी उसी कम्पनी में इंटरव्यू देने गया था और तब गुडगांव में गैब्रियल नामक कम्पनी में काम करता था।
मुझे बेरोजगार देखकर घटोत्कच ने गैब्रियल में बात की। मामूली इंटरव्यू के बाद मेरी बेरोजगारी दूर हो गई।
यहां मेरी जिन्दगी का एक बेहतरीन समय बीता। इसके पुराने प्लांट से कुछ हटकर एक नया प्लांट बना था, बिल्कुल भी भीडभाड नहीं थी। इस प्लांट में दो मैनेजर थे। एक के अधीन तीन लडके थे और दूसरे के अधीन पांच छह लडके और इतनी ही लडकियां। मैं पहले वाले के अधीन था।
यहां बाइक के शॉकर की असेम्बली होती थी। आठ घण्टे में 240 शॉकर बनते थे जो कि मात्र चार घण्टे का काम था। शॉकर को असेम्बल करके एक विशेष प्रकार की ट्रॉली पर रखना होता था जो हमेशा सीमित संख्या में ही उपस्थित रहती थीं। यहां से ये ट्रॉलियां हीरो होण्डा के मेन प्लांट में जाती थीं। कभी कभी ये अगले दिन दोपहर तक वापस आती थीं, तो हम दोपहर तक खाली रहते थे।
चार घण्टे में 240 शॉकर फिट करके हम बिल्कुल फ्री होते थे। फ्री होने के बाद हम जो करते थे, उसी की वजह से यहां मन भी लगता था। सीधे दूसरे मैनेजर की कर्मचारियों के पास जा पहुंचते। हम सभी डिप्लोमा इंजीनियर ही थे। माहौल इतना दोस्ताना था कि अक्सर हम एक दूसरे के प्लांट में जाकर काम कर आते थे। कभी लडकियां हमारे साथ काम करती थीं तो कभी हम उनके साथ। मात्र 240 बनाओ और फिर कोई पूछने वाला नहीं। मैं पहले भी लिख चुका हूं कि इतने पीस बनाना चार घण्टे का काम था और हमारे पास इसके लिये आठ घण्टे थे।
यहां कैंटीन भी थी, जिसमें अपनी साथिनों के साथ बैठकर खाना खाने में आनन्द आ जाता था।
सुबोध कुमार- लडकियों का मैनेजर- उससे यह हजम नहीं हुआ कि दूसरे मैनेजर के ये लडके उसके प्लांट में आकर लडकियों से बात करें। वो अक्सर हमें टोकता रहता था कि इधर क्यों घूम रहे हो तो हमारा रटा रटाया जवाब रहता कि हमारा काम खत्म। उसे चुप हो जाना पडता था।
जब सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा था तो एक पंगा हो गया। हमारा मैनेजर होली की छुट्टी चला गया। अब हमारा चार्ज भी सुबोध पर आ गया। मुझे भी होली पर मेरठ जाना था, तो 240 पीस बनाने के बाद तीन बजे मैंने उससे बाहर जाने के लिये गेट-पास मांगा। उसने मना कर दिया। मैंने कहा कि आज का टारगेट पूरा हो गया है, चार बजे ट्रेन है मेरठ के लिये। वो चूंकि हम तीनों से पहले से ही खार खाये बैठा था, मना कर दिया।
यह दूसरा मैनेजर मुझे जाने से रोक रहा है- मुझसे बर्दाश्त नहीं हुआ। मैं मना करने के बावजूद बाहर चला आया। सुरक्षा गार्ड हमारी बडी इज्जत करता था, उसने कुछ नहीं कहा।
होली के बाद जैसे ही कम्पनी में घुसने लगा तो गार्ड ने रोक लिया। बोला कि साहब, सुबोध सर ने उस दिन मुझे बडी डांट लगाई थी आपकी वजह से। उन्होंने कहा है कि आपको अन्दर नहीं आने देना है। मैंने सुबोध से बात की तो उसने कहा कि जब तक अन्दर आने को कहा ना जाये, तब तक बाहर बैठो। यह मेरे लिये बडी करारी बात थी। पूरे दिन मैं बाहर बैठा रहा।
अगले दिन फिर ऐसा ही हुआ, तो मैंने ताव में आकर सुबोध को खूब गालियां सुना दीं। उसी दिन उस कम्पनी से मेरा पत्ता हमेशा के लिये कट गया।
यहां से निकाले जाने के बाद कई दिनों तक मैं बडा परेशान रहा। इसका एक कारण तो वे लडकियां ही थीं। देहरादून की लडकियां वैसे भी सुन्दर मानी जाती हैं। यहां भी देहरादून की कई लडकियां थीं। उन्हीं के कारण आठ घण्टे आठ मिनट की तरह लगते थे। दूसरा कारण काम का दबाव ना होना भी था। दिन का टारगेट पूरा करो, बस।
फिर एक रोजगार वाली वेबसाइट की मदद से गुडगांव में ही एक और कम्पनी सनराइज में गया। यहां भी अच्छा कम्पटीशन था और मात्र मेरा चयन हुआ था।
अब गर्मियां आने लगी थीं, और इस नई कम्पनी में मेरा काम था फोर्जिंग प्लांट की भट्टियों की देखभाल। फोर्जिंग प्लांट में लोहे को पिघलाने के लिये बडी बडी भट्टियां लगी होती हैं। दो दिनों में ही मेरा दिमाग चकरा गया। एक तो गर्मियां और ऊपर से भट्टियां। मैं चार दिनों तक नहीं गया। पांचवें दिन जब लगने लगा कि बेटा, अब बेरोजगारी सहन से बाहर की बात होती जा रही है। घरवाले भी तेरी ही तरफ हाथ फैलाये बैठे हैं, तुझे जाना ही पडेगा।
पांचवें दिन जब गया तो बॉस ने बुलावा भेजा। देखते ही उबलते दूध की तरह पतीले से बाहर हो गया। पन्द्रह मिनट तक नॉन-स्टॉप बुरी-बुरी सुनाता रहा। भट्टियों की गर्मी तो किसी तरह सहन हो जाती, लेकिन यह गर्मी सहन से बाहर की चीज थी। आखिर में उसने मेरे सामने एक कागज फेंककर चिल्लाते हुए कहा कि नौकरी नहीं करनी तो लिखकर दे दो। चुटकी में बाहर करवा दूंगा।
मैंने फैसला तो कर ही लिया था। यह बात सुनते ही कहा कि सर, बोलो, क्या क्या लिखना है। गजब का इंसान था वो भी। मेरे इतना कहते ही ऐसा हो गया जैसे फूले गुब्बारे में सुई चुभो दी हो। अभी तक जो गुब्बारा फूलता ही जा रहा था, अब अचानक पिचक गया।
प्यार से कहने लगा कि बेटे, आज के समय में नौकरी मिलना इतना आसान नहीं होता। तुम ही देखो, कितने लोग आये थे यहां नौकरी के लिये लेकिन मिली तुम्हें। यह तुम्हारे लिये एक मौका है, इसे जाने मत दो। लाओ, कागज मुझे दो और जाओ भट्टियों में।
मैंने शान्ति से कहा कि इस पर लिखना क्या है?
बोला कि कुछ नहीं लिखना। पुनर्विचार कर लो अपने फैसले पर।
मैंने कहा कि पुनर्विचार का पुनर्विचार भी कर लिया। आप कुछ नहीं लिखवाओगे, कोई बात नहीं; इस खाली कागज को मेरा रिजाइन ही समझना। और जाओ, अपनी तीन दिन की सैलरी भी नहीं लूंगा।
अब मैं फिर बेरोजगार था।
मैं अपनी ‘जाट धर्मशाला’ में पडा सोचता रहता। अपने घर का एकमात्र जिम्मेदार सदस्य था मैं और अपनी जिन्दगी इतनी गैर-जिम्मेदारी से गुजार रहा था। पिछले छह महीनों में मैं छह बार नौकरियां बदल चुका था। लगता कि कहीं ना कहीं मेरी भी गलती है। दूसरे पूछते तो कभी भी अपनी गलती नहीं बताई जा सकती थी, सारा दोष कम्पनी पर ही थोप देता था।
रेलवे में जूनियर इंजीनियर बनने की बडी तमन्ना थी और उसके लिये मैं भरसक कोशिश कर रहा था। सिकन्दराबाद और नागपुर में लिखित परीक्षा भी दे आया था लेकिन दोनों जगह असफल।
फिर फैसला किया कि हरिद्वार चलते हैं। गुडगांव के दोस्तों ने समझाया कि वहां इतना पैसा नहीं है, जितना कि गुडगांव में। मेरा कहना था कि पैसा गुडगांव में भी नहीं है। आखिरकार अगस्त में हरिद्वार चला गया।
एक प्लेसमेंट एजेंसी की सहायता से स्वर्ण टेलीकॉम में आवेदन किया। उन्हें एक ऐसे डिप्लोमची की जरुरत थी तो ऑटोकैड भी जानता हो। यानी कम्प्यूटर में कम्पनी के प्रोडक्ट की डिजाइन भी बना सके। मैंने यह कोर्स कर तो रखा था लेकिन लिया दिया ही किया था और इसका सर्टिफिकेट भी मेरे पास नहीं था। जब उन्होंने सर्टिफिकेट मांगा तो मैंने कहा कि सर्टिफिकेट से काम करवाओगे या मुझसे?
उन्होंने मुझे एक साधारण सा लोहे का टुकडा लाकर दिया। बोले कि इसकी डिजाइन कागज पर बनाओ। मैं मैकेनिकल डिजाइन का एक उत्कृष्ट विद्यार्थी था, इसलिये बडी आसानी से उसे कागज पर बना दिया। अब बोले कि इसे कम्प्यूटर में बनाओ। सालभर हो गया था कॉलेज छोडे हुए और कम्प्यूटर भी। फिर भी किस तरह मैं उसे बना पाया, मैं ही जानता हूं। आखिरकार वे मेरे काम से सन्तुष्ट हो गये।
अब मेरा काम था अपना हाथ कम्प्यूटर डिजाइन में अधिक से अधिक साफ करना। जल्दी ही मैंने उसमें अधिकतम सफलता प्राप्त कर ली। सैंकडों तरह के छोटे छोटे पीस यहां बनते थे, सब की डिजाइन मेरे पास थी। जब भी जिस किसी पीस की भी जानकारी चाहिये होती थी, दो मिनट में मिल जाती थी। अपने ‘डिपार्टमेंट’ का मैं ही कर्मचारी था और मैं ही बॉस। चूंकि ज्यादातर समय मैं खाली रहता था, लेकिन कम्प्यूटर और इंटरनेट होने की वजह से कभी बोर नहीं होता था।
उन्हीं दिनों 6 नवम्बर 2008 को अचानक यह ब्लॉगबन गया, जिसने आज मुझे वैश्विक पहचान दी है।
मेरे आसपास जितने भी इंजीनियर थे, सभी ग्रेजुएट थे। उनकी सैलरी भी मेरी जितनी ही थी। इस बात की मुझे खुशी होती थी कि ग्रेजुएट इंजीनियरों की सैलरी भी मेरे बराबर है जबकि उन्हें यही बात चुभती थी। विजय कुमार था एक इसी तरह का इंजीनियर जिसने इसी चुभन से परेशान होकर अपना इस्तीफा लिख दिया था लेकिन कम्पनी के हुक्मरानों ने विजय को मना लिया, दो तीन हजार सैलरी भी बढ गई।
इसी विजय को एक बात और सर्वाधिक चुभती थी कि एक डिप्लोमची इंजीनियर पूरे दिन कम्प्यूटर पर बैठा रहे। उसने अपनी कुर्सी भी मेरे बराबर में लाकर रख दी ताकि बाहरियों को पता चले कि विजय भी कम्प्यूटर जानता है।
एक दिन विजय ने कम्पनी के सर्वेसर्वा जीएम से शिकायत कर दी कि नीरज इंटरनेट चलाता है। जीएम एक बूढा था, कान का कच्चा। मेरी अनुपस्थिति में इंटरनेट वाली केबल निकालकर ले गया। मैं आया, देखा कि नेट नहीं है, केबल नहीं है, तो आसपास बैठे मित्रों से पूछाताछी की तो विजय ने ही बताया कि जीएम साहब निकालकर ले गये हैं। मैं तुरन्त जीएम के यहां पहुंचा और सीधे केबल मांगी। जीएम ने कहा कि तुम करते क्या हो नेट से? मैंने कहा कि मैं बहुत बढिया काम करता हूं। नेट पर डिजाइनिंग की शानदार तकनीकें सीखता हूं, इससे गुणवत्ता में बढोत्तरी होती है। बुढऊ था ही कान का कच्चा, बोला कि हां तब तो तुम्हें नेट जरूर चलाना चाहिये। मैंने कहा केबल, बोला कि विजय के पास हैं, उससे ले लो। आखिरकार केबल विजय के लॉकर में मिलीं।
जब मेरा ब्लॉग बन गया, तो ज्यादातर समय उसी में लगने लगा। एक दिन मैं कोई पोस्ट लिख रहा था कि जीएम ने धमाकेदार एंट्री की। इस तरह वो पहले कभी हमारे यहां नहीं आता था, यह विजय की ही काली करतूत लगती है। जीएम सीधा मेरे सिर पर आकर खडा हो गया, बोला कि यह क्या लिख रहे हो हिन्दी में? मैंने कहा कि सर, सक्सेना साहब कह रहे थे कि कर्मचारियों के लिये कुछ प्रिंट आउट हिन्दी में चाहिये, जिसमें मशीन चलाने की सावधानियां लिखी हों। मैं उन्हें तैयार करने के लिये हिन्दी लिखना सीख रहा हूं। ... तो यह क्या है जाट धर्मशाला.. क्या है यह? मैंने कहा कि सर, सीखने के लिये कुछ ना कुछ ऊंट-पटांग तो लिखना ही पडेगा। बात उसके समझ में आ गई। बोला ठीक है।
अब मेरे कान खडे होने शुरू हो गये कि आगे आने वाला समय बडा भयंकर है। विजय से बात तो कभी की बन्द हो चुकी थी। गुणवत्ता के मामले में मैं था भी उत्कृष्ट। अब तक हाथ इतना जम चुका था कि कभी कभी अगर प्रोडक्शन और मार्केटिंग वाले मेरे पास बैठकर किसी नये प्रोडक्ट की बात करते तो उन्हें हाथों हाथ उस काल्पनिक प्रोडक्ट का थ्री-डी फोटो मिल जाता।
अब मुझे हर समय कम्प्यूटर में एक विंडो में डिजाइनिंग का पेज खोले रखना पडता था, पता नहीं कब जीएम का छापा पड जाये और नेट कनेक्शन हट जाये। इसी तरह एक दिन मैं डिजाइनिंग का पेज मिनिमाइज करके एक्सेल पर अपनी रेल-यात्राओं की गणना करने में मशगूल था, तो जीएम का छापा पड गया। छापा इतना जबरदस्त था कि एक्सेल को मिनिमाइज तक करके का समय नहीं मिला। मेरे सिर पर खडे होकर देखने लगा। एक्सेल शीट पर ट्रेनों के नाम, स्टेशन देखकर अपनी विजय और अपने विजय दोनों पर बडा इतरा रहा होगा कि नीरज को रंगे हाथों नेट का दुरुपयोग करते पकड लिया।
बोला कि यह क्या है?... सर, यह एक्सेल शीट है।... नेट पर तुम अपना व्यक्तिगत काम कर रहे हो? तुम्हारा नेट अब से बन्द कर दिया जाता है। विजय से कहकर केबल हटा दी गई। अब मैंने कहा कि सर देखो, नेट पर तो मैं डिजाइनिंग का काम ही कर रहा था, यह जो आपने ट्रेन वगैरह देखी हैं, वे एक्सेल की करामात हैं, तो नेट कनेक्शन हटने के बाद भी चलता रहेगा। हालांकि उस पर कोई फरक नहीं पडा और मुझे नेट से महरूम होना पडा।
अब मेरे लिये सीधी सीधी घण्टी नहीं, घण्टा बज चुका था।
स्वर्ण टेलीकॉम एक छोटी सी कम्पनी थी। इसमें मुझे छोडकर बाकियों को कई कई काम करने पडते थे। एक थे मनपाल सिंह। उन्हें ज्यादातर सेल्स का काम देखना होता था लेकिन किसी नये का इंटरव्यू भी वही लेते थे और एक तरह से कम्पनी के सर्वेसर्वा बन गये थे।
एक दिन एक लडका वहां किसी सिफारिश से इंटरव्यू देने आया। कम्पनी में उसके लिये कोई जगह नहीं थी लेकिन सिफारिश होने की वजह से इंटरव्यू की फॉर्मलिटी पूरी करनी थी। मनपाल ने उसका इंटरव्यू लिया। आखिर में उससे कह दिया कि अभी हमारे बडे सर भी इंटरव्यू लेंगे, वे ही तुम्हें आगे की बतायेंगे।
मनपाल अपनी चिर-परिचित मुस्कान बिखेरता हुआ हमारे ऑफिस में आया। मैं पहले भी बता चुका हूं कि इस ऑफिस में मुझ समेत कई इंजीनियर काम करते थे। मैं डिप्लोमची था, बाकी सभी ग्रेजुएट। आते ही मनपाल ने कहा कि यार, उधर एक बन्दा बैठा है। हमारे यहां जगह तो है नहीं, उसे किसी तरह यहां से टालना है। कौन जायेगा?
सर्वसम्मति से मुझे भेजा गया। तय था कि उससे कहना है कि दस पन्द्रह दिन में फोन करके बतायेंगे।
कल तक जहां मैं दूसरों के सामने याचक की तरह बैठकर इंटरव्यू दिया करता था, आज मैं ‘बडा अफसर’ बनकर इंटरव्यू लेने जा रहा था।
जाते ही उसका नाम पूछा, पढाई लिखाई की जानकारी ली। और जब देखा कि यह भी कम्प्यूटर डिजाइनिंग में सर्टिफिकेट लिये बैठा है और इसके आने से मेरा ढोल बजना तय है तो मैंने सीधे सीधे कहा कि भाई, यहां तेरे लायक वैकेंसी ही नहीं है। तू ठहरा मैकेनिकल का बन्दा, यह कम्पनी है टेलीकॉम की, तो तेरा यहां कोई भविष्य भी नहीं है। यहां से चला जा, अपने फील्ड की ही कोई कम्पनी ढूंढ।
यहां रहते रहते गोरखपुर में दो बार और चण्डीगढ में एक बार रेलवे जेई का पेपर देने गया, लेकिन तीनों बार असफल। हिम्मत ने कभी हार नहीं मानी। और जब दिल्ली मेट्रो में जूनियर इंजीनियर की भर्ती की सूचना आई, तो यार लोगों ने कहा कि इसमें मात्र 11 सीटें ही हैं, लाखों धुरन्धर परीक्षार्थी आयेंगे, तू कहीं भी नहीं टिक पायेगा, तो उनकी इस अनमोल सीख का कोई असर नहीं पडना था।
उन लाखों में से करीब पचास परीक्षार्थी इंटरव्यू के योग्य पाये गये। इन पचास में मैं भी था।
यहां मुझे लगने लगा कि अब मैं आसानी से इंटरव्यू की बाधा से आगे निकल जाऊंगा। आखिर मैं पिछले डेढ साल से लगातार इंटरव्यू ही तो देता आ रहा था। मेरे लिये इंटरव्यू कोई हौव्वा ना होकर बिल्कुल साधारण सी बात हो चुकी थी।
आज दिल्ली मेट्रो में मुझे चार साल हो चुके हैं।

पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह

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लद्दाख यात्रा की तैयारी
एक सरकारी कर्मचारी होने के नाते मेरा यह दायित्व है कि मैं हर चार साल में एक बार सरकारी खर्चे से भारत के किसी भी हिस्से की यात्रा करके आऊं। इस यात्रा में हमें पूर्वोत्तर और जम्मू कश्मीर के लिये हवाई खर्चा भी मिलता है। पूर्वोत्तर और जम्मू कश्मीर में पर्यटन को बढावा देने के लिये ऐसा होता है। वैसे तो इन इलाकों में कोई जाना नहीं चाहता, लेकिन हवाई जहाज के लालच में कुछ लोग चले जाते हैं।
जब हवाई खर्चा मिल ही रहा है तो क्यों ना लद्दाख जाया जाये। सर्दियों में लद्दाख जाने का एकमात्र साधन वायुयान ही है, इसलिये वहां जाने की और ज्यादा इच्छा होने लगी। शेष भारत में किसी भी मौसम में जाया जा सकता है, लेकिन लद्दाख के साथ ऐसा नहीं है। सर्दियों में लद्दाख कैसा होता है, यह जानने की बडी तीव्र आकांक्षा थी।
एक मित्र है ललित भारद्वाज। एक बार मेरे साथ त्रियुण्डगया था। वहीं से मैंने जान लिया कि यह मेरी ‘बिरादरी’ का इंसान नहीं है। एक दिन उसने बातों बातों में मुझसे आग्रह किया कि कहीं चलते हैं। दिसम्बर 2012 की बात है। मैंने तुरन्त लद्दाख का नाम लिया। उसने बिना सोचे समझे हां कह दी।
अगले ही दिन उसकी आंख खुल गई। उसने अपने स्तर पर लद्दाख की जानकारी जुटाई होगी, उसे पता चल गया कि वहां जनवरी में तापमान शून्य से पच्चीस डिग्री नीचे तक चला जाता है। उसने मुझसे तुरन्त सम्पर्क करके मना कर दिया। जबकि मैं पूरा मन बना चुका था। मैंने खूब कहा कि वहां पांच चार कपडे और ज्यादा ही तो पहनने पडेंगे, लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ। आखिरकार यह कहकर उसने मुझसे पीछा छुडाया कि तू चला जा, अगर मौसम सहनशक्ति के अन्दर हुआ तो मैं भी आ जाऊंगा। उन दिनों उत्तर भारत में कडाके की ठण्ड पड रही थी। कम से कम उत्तर भारतीय ऐसी ठण्ड को झेलकर इससे ज्यादा ठण्डे इलाके में जाने की सोच भी नहीं सकता था।
जब मुझे पता चलता कि आज दिल्ली में तापमान चार डिग्री है, कल पांच डिग्री था, तो रूह तक कांप जाती कि मात्र एक डिग्री के अन्तर से जाडे में इतना फर्क पड जाता है तो अचानक बीस पच्चीस डिग्री का अन्तर शरीर कैसे झेलेगा? दोस्तों ने भी डराया कि अगर जुकाम हो गया तो नाक से बर्फ की गोलियां टपकेंगी।
फिर भी लगन थी कि जनवरी में लद्दाख जाना है। देखना है कि वहां जीवन कैसे चलता है? कैसे लोग जमी हुई नदी के ऊपर पैदल आना-जाना करते हैं? कैसे गैर-लद्दाखी जैसे कि सेना के जवान वहां रहते हैं?
डॉक्टर करण से बात हुई तो उसने दो लोगों के सम्पर्क सूत्र बता दिये। वो पिछले साल जनवरी में ही लेह गया था, तो उसके कुछ जानने वाले थे।
घर पर बात की तो तुरन्त एक परिचित विकास का पता चल गया। विकास सीआरपीएफ में है और लेह में ही तैनात है। विकास से बात करके रहने-खाने की चिन्ताओं से रहित हो गया।
अक्सर लोग लेह और लद्दाख को अलग-अलग मानते हैं। असल में हकीकत यह है कि जम्मू कश्मीर राज्य के भौगोलिक रूप से तीन भाग हैं- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। जम्मू क्षेत्र में जवाहर सुरंग से पहले का इलाका आता है और इसमें कठुआ, साम्बा, जम्मू, ऊधमपुर, डोडा, किश्तवाड, राजौरी, रियासी आदि जिले आते हैं। कश्मीर क्षेत्र में जवाहर सुरंग के बाद का इलाका आता है और इसमें अनन्तनाग, श्रीनगर, बडगाम, बारामूला, कुपवाडा आदि जिले आते हैं। बचा लद्दाख, श्रीनगर- लेह मार्ग पर सोनमर्ग से कुछ आगे जोजिला दर्रा पार करते ही लद्दाख क्षेत्र शुरू हो जाता है और इसमें कारगिल और लेह जिले शामिल हैं। फिर भी आम बोलचाल में लेह को लद्दाख कह दिया जाता है। लेह और लद्दाख अलग-अलग नहीं हैं।

पहली हवाई यात्रा
मैंने आज तक कभी भी वायुयान से यात्रा नहीं की थी। एक हिचकिचाहट भी थी पहली बार यात्रा करने की। इस कारण मैं चाहता था कि इस पहली यात्रा में कोई साथी मिल जाये। छत्तीसगढ से प्रकाश यादव और गुजरात से जगदीश ने साथ चलने की इच्छा जाहिर की। यादव साहब की इच्छा थी कि एक दो दिन लेह में रुककर वापस लौट आना है, जबकि जगदीश साहब चाहते थे मेरे साथ पूरी यात्रा में साथ देना।
जब ऑनलाइन बुकिंग करा ली और ई-टिकट पर कहीं भी सीट नम्बर नहीं लिखा मिला तो दिल की धडकनें बढ गईं। मैं ठहरा ट्रेनों में यात्रा करने वाला, सबसे पहले दिमाग में आया कि वेटिंग चल रही है, इसी लिये सीट नहीं मिली। पता नहीं यात्रा वाले दिन तक सीट कन्फर्म होगी भी या नहीं।
यार लोगों से बातचीत हुई तो सारा मंजर समझ में आ गया। यात्रा वाले दिन ही काउंटर से बोर्डिंग पास मिलेगा, जिस पर सीट नम्बर भी लिखा मिलेगा। साथ ही एक सुझाव और मिला कि काउंटर पर ही बता देना कि खिडकी वाली सीट चाहिये।
15 जनवरी- यात्रा से एक दिन पहले यादव और जगदीश दोनों का फोन आया कि वे नहीं जायेंगे। उनकी मनाही सुनकर अपना मुंह लटक गया। मुख्य परेशानी हवाई यात्रा को लेकर थी, इसे ठीक-ठाक निपटाने में इन दोनों का बहुत बडा हाथ होता, लेकिन इनके मना करने से मैं बिल्कुल अकेला पड गया।
टिकट पर लिखा था कि फ्लाइट से दो घण्टे पहले हवाई अड्डे पहुंचना पडेगा, ताकि सुरक्षा जांच और अन्य कामों के लिये पर्याप्त समय मिल सके। फ्लाइट का समय सुबह साढे छह बजे था, यानी मुझे साढे चार बजे तक वहां पहुंच जाना पडेगा। मेरा ठिकाना पूर्वी दिल्ली यमुनापार में शास्त्री पार्क में है। हवाई अड्डा दिल्ली के दक्षिण पश्चिमी कोने में है। कम से कम एक घण्टे पहले घर से निकलना पडेगा। आखिरकार सारी परेशानियों को समझते हुए तय हुआ कि रात ग्यारह बारह बजे तक हवाई अड्डे पहुंच जाना बेहतर रहेगा।
कश्मीरी गेट से सीधे हवाई अड्डे के लिये वातानुकूलित बसें चलती हैं। तब एयरपोर्ट मेट्रो बन्द थी। जैसे ही मैंने कहा कि एयरपोर्ट का टिकट दे दो तो कंडक्टर ने पूछा कि डोमेस्टिक या इंटरनेशनल। मुझे कौन सा लन्दन की फ्लाइट पकडनी थी, तुरन्त कहा डोमेस्टिक। उसने 75 रुपये का टिकट दे दिया। इंटरनेशनल का टिकट सौ रुपये का था।
डोमेस्टिक एयरपोर्ट नामक जगह पर उतर गया। कुछ अन्दर जाकर एक लडके से पूछा कि भाई, सुबह लेह वाली फ्लाइट कहां से मिलेगी? उसने पूछा कि कौन सी फ्लाइट है, मैंने बताया एयर इंडिया। बोला कि वो तो टर्मिनल थ्री से मिलती है। मेरा दिमाग खराब कि यह टर्मिनल थ्री कहां से आ गया। डोमेस्टिक और इंटरनेशनल तो समझ में आते हैं, टर्मिनल थ्री समझ से परे था। आखिरकार उसी ने बता दिया कि सामने से बस मिल जायेगी।
बस ने इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतार दिया। यही टर्मिनल थ्री है। यहां से अन्तर्राष्ट्रीय उडानें तो मिलती ही हैं, ज्यादातर राष्ट्रीय उडानें भी यहीं से संचालित होती हैं। एयर इंडिया की सभी उडानें यहीं से जाती हैं। मध्यरात्रि के बाद भी यहां काफी भीड थी। एक से पूछा कि एयर इंडिया की फ्लाइट कहां से उडती हैं, तो उसने हाथ से एक तरफ इशारा कर दिया और चला गया। यहां कोई खाली नहीं था, ज्यादातर होटल वाले, टैक्सी वाले और मुसाफिर थे।
जिस तरफ उसने हाथ से इशारा किया, मैं उधर ही चल पडा। सामने सूचना पट्ट था- प्रस्थान। मैं इसी ‘प्रस्थान’ के इशारे पर चलने लगा। आखिरकार कई मोड और सीढियां पार करता हुआ उस जगह पहुंचा जहां पहली बार सुरक्षाकर्मियों के दर्शन हुए। द्वार पर खडे सुरक्षाकर्मी ने मेरा टिकट देखा और कहा कि यह फ्लाइट तो सुबह साढे छह बजे है, अभी क्या करोगे आगे जाकर? जाओ, चार बजे के बाद आना। यह मेरे लिये निराश होने वाली बात नहीं थी क्योंकि मुझे अन्देशा हो गया था कि आगे मुझे भीड का हिस्सा नहीं बनना पडेगा, बल्कि सारा काम ‘स्वचालित’ तरीके से होता चला जायेगा।
अभी साढे बारह का समय था। मुझे करीब चार घण्टे यही बाहर बिताने पडेंगे। रेलवे स्टेशन होता तो कहीं भी पसर जाता, यहां पसरने में हिचकिचाहट हो रही है। लघुशंका के दबाव से मैं काफी दूर बने शौचालय की तरफ चला गया। शौचालय के पास कुछ दुकानों का निर्माण कार्य चल रहा है। इसी निर्माण में एयरपोर्ट के सफाई कर्मचारी पडे सो रहे थे। मुझे अच्छी जगह मिल गई। लघुशंका से निपटकर चार बजे तक यहीं मजे की नींद ली।
चार बजे मैं फिर से उसी द्वार पर पहुंच गया। टिकट और पहचान पत्र दिखाने के बाद आराम से अन्दर चला गया। सुरक्षाकर्मी से ही पूछ लिया था कि मेरी फ्लाइट एयर इंडिया की है, अब आगे कहां जाऊं। उसने बा-अदब इशारा करके बता दिया कि वो रहा एयर इंडिया का इलाका, वहां चले जाओ। आगे एयर इंडिया के कई काउंटर थे, मैं उनमें से एक पर पहुंचा। काउंटर पर एक महिला बैठी थीं, मैंने अपना ई-टिकट उन्हें दे दिया। उन्होंने कम्प्यूटर में कुछ खटर-पटर की और शीघ्र ही मुझे ‘बोर्डिंग पास’ दे दिया। इस पर सीट नम्बर भी लिखा था- 16 C.
मुझे बताया गया था कि बोर्डिंग पास बनवाते समय खिडकी वाली सीट के लिये बोलना पडता है, तभी मिलेगी। मुझे पता ही नहीं था कि यह बोर्डिंग पास नामक बला कहां बनती है। अब जब पास हाथ में आ गया, तब पता चला। अगली यात्राओं के लिये सबक मिल गया। सीट 16 C का मतलब है खिडकी से अधिकतम दूर।
एक और सुरक्षा द्वार से निकलना पडा। यहां मेरे बैग पर सिक्योरिटी चेक्ड का ठप्पा लग गया।
अभी पांच भी नहीं बजे थे और मैं पूरी तरह विमान में बैठने का अधिकारी हो चुका था।
फिर एक प्रतीक्षालय में बैठना पडा। एक तरफ कुछ स्क्रीन थीं जिनपर विमानों की उडानों का समय, दरवाजे खुलने का समय और बन्द होने का समय आ रहा था। दो तीन उडानें तीन चार घण्टे विलम्ब से भी चल रही थीं। बडी खुशी मिली कि विमान भी विलम्ब करते हैं। यह ‘कलंक’ हमारी ट्रेनों के मत्थे ही ज्यादा मढा जाता है।
दूसरी तरफ एक टीवी स्क्रीन लगी थी जिसपर न्यूज आ रहे थे। अंग्रेजी में थे, इसलिये अपने पल्ले नहीं पड रहे थे। मेरे सामने वाले सोफे पर एक लद्दाखी जोडा बैठा था। उनसे मात्र इतनी ही बात हुई कि मैं भी लेह जा रहा हूं।
अरे यह क्या? इंडियन एयरलाइंस की एक उडान थोइस जा रही है। थोइस लेह से आगे खारदूंगला पार करके नुब्रा घाटी में सियाचिन ग्लेशियर के काफी नजदीक है। खारदूंगला और नुब्रा जाने के लिये परमिट की जरुरत होती है, तो सीधी सी बात है कि थोइस भी बिना परमिट के नहीं जाया जा सकता। यह परमिट उडान बुक कराने से पहले हासिल किया जाता है या थोइस पहुंचकर? मेरे ख्याल से थोइस में ही ‘परमिट ऑन एराइवल’ की सुविधा मिलती होगी।
पौने छह बजे के आसपास स्क्रीन पर दिखने लगा कि लेह वाली फ्लाइट के दरवाजे खुल चुके हैं। हम दरवाजे खुलने की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। बिना विलम्ब किये चल पडे और सीधे विमान के अन्दर पहुंचकर ही दम लिया। विमान अन्दर से हमारी ट्रेनों के एसी चेयरकार के जैसा लग रहा था। लेकिन हमारे यहां खिडकियां बडी बडी होती हैं, यहां छोटी छोटी सी हैं।
जब पता चला कि मेरी सीट खिडकी से अधिकतम दूर है, तो दिमाग खराब हो गया। हालांकि मेरी सीट पर एक सज्जन बैठे थे, मैंने उनसे कहा कि भाई, आपकी सीट कौन सी है तो बोले कि पन्द्रह बी। सोलह सी से ज्यादा नजदीक पन्द्रह बी है तो मैंने उन्हें और उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया। उनके घर-परिवार के बाकी सदस्य सोलह सी के आसपास ही बैठे थे, इसलिये उन्होंने मुझसे सीटों की अदला-बदली कर ली।
मैंने कल से कुछ नहीं खाया था। पता था कि विमान में मुफ्त में भरपेट खाने को मिलेगा। लेकिन जब सामने जरा सा नाश्ता आया तो भूख कम होने की बजाय और बढ गई।
पन्द्रह मिनट भी नहीं लगे हमें हरियाणा पार करके हिमाचल की पहाडियों के ऊपर पहुंचने में। और जल्दी ही कुल्लू से आगे रोहतांग पार करके महा-हिमालय में जा घुसे। यहां इंच-इंच पर बर्फ का साम्राज्य था। इस दौरान मुझे फोटो खींचने का मौका नहीं मिला। वापसी में कोशिश करूंगा खिडकी के पास वाली सीट लेने की और तब जी-भरकर फोटो खींचूंगा।
जब हिमालय पार हो गया तो विमान लद्दाख के पर्वतों के ऊपर से उडने लगा। अब बर्फ काफी कम हो गई थी और ज्यादतर पहाड नग्न हिम-वनस्पति-विहीन नजर आ रहे थे।


लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान


लद्दाख यात्रा- लेह आगमन

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राम-राम से जुले-जुले तक
लेह उतरने से कुछ मिनट पहले उदघोषणा हुई कि विमान लेह के कुशोक बकुला रिन्पोछे हवाई अड्डे पर उतरने वाला है। कुशोक बकुला रिन्पोछे नाम से ही पता चल रहा है कि हम लद्दाखी जमीन पर आ गये हैं। असल में कुशोक बकुला पिटुक गोनपा के प्रधान लामा थे। लेह के हवाई अड्डे के एक तरफ तो लेह शहर है जबकि दूसरी तरफ पिटुक गोनपा है। पिटुक को अंग्रेजी में स्पिटुक (Spituk) लिखा जाता है, जिससे कुछ लोग इसे स्पिटुक मोनेस्ट्री भी कहते हैं।
जब विमान पौने आठ बजे लेह के रनवे पर लैंड कर चुका और रुकने के लिये दौडता जा रहा था, तब पुनः उदघोषणा हुई कि हम अपने मोबाइल चालू कर सकते हैं। हालांकि मुझे कोई जल्दी नहीं थी, इसलिये चालू नहीं किया। सवा घण्टे पहले हम 200 मीटर की ऊंचाई पर थे, अब 3200 मीटर की महा-ऊंचाई पर, इसलिये शरीर पर कुछ असर तो होना ही था। असर होना तभी शुरू हो गया जब विमान का दरवाजा खोला गया। अभी तक हम दिल्ली वाले वायुदाब पर ही थे, क्योंकि वायुयान एयरटाइट था। अब जब अचानक दरवाजा खोला गया तो दिल्ली की भारी हवा निकल गई और लेह की हल्की हवा अन्दर भर गई। सीट से उठकर दरवाजे की ओर जाते समय यह अन्तर साफ महसूस हो रहा था।
घोषणा हुई कि बाहर तापमान माइनस दस डिग्री है। मैंने दिल्ली के हिसाब से कपडे पहन रखे थे लेकिन जब बाहर निकला तो अहसास हो गया कि यही कपडे लेह में भी पर्याप्त होंगे। अगले दिन चिलिंग पहुंचने तक मैंने यहीं कपडे पहने रखे.जबकि तापमान माइनस पन्द्रह से भी कम पहुंच गया था। लद्दाख की जमीन पर पैर रखने के आधे घण्टे के अन्दर मैंने जान लिया कि मेरे पास माइनस पच्चीस डिग्री तक के लिये पर्याप्त कपडे हैं। जितने कपडे मैंने पहन रखे हैं, बैग में उससे भी ज्यादा कपडे हैं।
बाहर निकलकर विकास को फोन किया। विकास सीआरपीएफ में है और इस समय ड्यूटी जेल में है, बुआ का लडका है, भाई है। लेह के मुख्य चौक से चार पांच किलोमीटर दूर श्रीनगर रोड पर हवाई अड्डा है, जबकि मनाली रोड पर सात किलोमीटर दूर जेल है। टैक्सी वाले ने डेढ सौ रुपये मांगे। मैंने विकास से कहा कि दस किलोमीटर के लिये मैं डेढ सौ रुपये नहीं दूंगा। उसने कहा कि एयरपोर्ट से बाहर निकलकर सडक पार कर ले, दस दस रुपये वाली टैक्सियां चलती हैं, वहां से मुख्य चौक पर दोबारा टैक्सी बदलकर फिर से दस रुपये वाली में बैठकर जेल पर आ जा।
सीआरपीएफ की एक टुकडी हवाई अड्डे पर भी है। बाद में विकास की सलाह के अनुसार खाना बांटने वाली सीआरपीएफ की गाडी से मैं जेल में पहुंच गया।
जिन्दगी में पहली बार लद्दाख आया और आते ही जेल में।
आप अगर वायुयान से दिल्ली से लेह पहुंचते हैं, तो यह शरीर के साथ भीषण अत्याचार है। मैं वैसे भी कमजोर शरीर वाला हूं, तो मेरे लिये यह अत्याचार और भी भीषण है। मस्तिष्क ने तापमान परिवर्तन तो स्वीकार कर लिया, लेकिन वायुदाव परिवर्तन स्वीकार करना बहुत बडी बात है।
पिछले दिनों दिल्ली में तापमान एक डिग्री तक पहुंच गया था और आर्द्रता सौ प्रतिशत। सौ प्रतिशत आर्द्रता का अर्थ है कि वायु में और अधिक पानी नहीं समा सकता, गीले कपडे नहीं सूख सकते। सूखे कपडों को थोडी देर बाहर टांग दो, गीलापन आ जायेगा। रात में ओस इसी वजह से पडती है। दिल्ली की सर्दी की यही समस्या है कि कितने ही कपडे पहनकर चलो, कपडों में गीलापन आ ही जायेगा। इस प्रकार दिल्ली में तापमान जब एक डिग्री हुआ तो दो तरफा मार पडी- कम तापमान और उच्च आर्द्रता।
लद्दाख में ऐसा नहीं है। यह चूंकि मरुस्थल है, इसलिये आर्द्रता कम ही रहती है। इस दिनों यह पचास प्रतिशत थी। कपडों के गीले होने का सवाल ही नहीं। हालांकि ठण्ड जबरदस्त होती है लेकिन रात में ओस नहीं पडती, बरफ भी नहीं गिरती। इसी कारण दिल्ली की सर्दी और लेह की सर्दी मुझे समान मालूम हुई।
वायुदाब की कमी का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि जब शाम को मैंने अपनी पानी की खाली बोतल भरने के लिये खोली तो ढक्कन को हल्का सा ढीला करते ही ढक्कन बडी तेजी से उड गया और काफी दूर जा गिरा। बोतल दिल्ली में ही खाली हो चुकी थी, उसमें पानी नहीं था, मात्र हवा भरी थी। जब मैं लेह आ गया तो बोतल में दिल्ली के प्रेशर वाली हवा ही भरी रही जबकि यहां हवा का प्रेशर करीब चालीस प्रतिशत कम है। ढक्कन के ढीला करते ही उसमें उच्च दाब वाली हवा के कारण ढक्कन का दूर जा गिरना पक्का था। इसी कारण मैंने सोच रखा था कि दो दिनों तक लेह में खाली पडा रहूंगा। इस कम वायुदाब के अनुसार शरीर अपने आप सन्तुलित हो जायेगा।
रात सोते समय पैर का पंजा सो गया। पंजे व दो-तीन उंगलियों में चींटी सी चलने लगी, बेचैनी हो गई। किसी तरह पैर हिला-हिलाकर पंजा जगाया गया। नींद आई तो कुछ देर बाद एडी सो गई। बडी समस्या है- अजीब अजीब बीमारियां। कहीं यह वायुदाब के कारण ही तो नहीं है। हृदय ने पैर के सुदूर सीमावर्ती इलाकों में खून की सप्लाई कम कर दी। इसका मतलब निम्न रक्तदाब? क्या वायुदाब कम होने से रक्तदाब भी कम हो जाता है?
लेह में ज्यादातर दुकानें बन्द हैं, कुछ खुली हैं। विकास के मित्र राजेन्द्र के साथ एक ट्रेकिंग वाली दुकान पर गया। चादर ट्रेक के लिये पूछताछ की। खर्चा बताया एक आदमी का चौबीस हजार रुपये। इससे पहले कि आंखों के सामने अन्धेरा छाता, हम वहां से खिसक लिये।
सभी टूर ऑपरेटरों का अपना बंधा-बंधाया रूटीन है। मेरी जरुरत किसी ने नहीं सुनी। मैं कहता कि मुझे मात्र स्लीपिंग बैग और एक पोर्टर चाहिये, जो चार दिनों का राशन ले जा सके। ज्यादा सामान हो तो दो का खर्चा भी उठा लूंगा। वे कहते कि एक गाइड, दो पोर्टर व एक हेल्पर के बिना काम नहीं चलेगा। चार की बजाय छह दिन लगेंगे। स्लीपिंग बैग के अलावा टैंट भी चाहिये।
मैं अपने जी पर पत्थर रखकर दस हजार तक खर्च करने को तैयार था। आखिर सर्दियों में लद्दाख बार-बार नहीं आया जाता। लेकिन मेरी किसी ने नहीं सुनी।
एक टैक्सी वाले से बात की, वो कल मुझे चिलिंग ले जायेगा। लेह से करीब 70 किलोमीटर दूर है चिलिंग। जांस्कर नदी के किनारे बसा हुआ।

17 जनवरी 2013
सुबह उठा तो सीआरपीएफ वाले साथी नहाने को कहने लगे। बोले कि गर्म पानी है, नहा ले। भला उनके यहां बिजली व मिट्टी के तेल की क्या कमी- पानी गर्म करने के लिये। मैंने मना कर दिया कि लद्दाख की इस दस दिन की यात्रा में एक बूंद भी पानी सिर पर नहीं डालना है। फिर कहने लगे कि फ्रेश तो हो ले। मैंने उसके लिये भी मना कर दिया कि जब शरीर को जरुरत होगी, अपने आप संकेत मिल जायेंगे। बे-वजह इतनी ठण्ड में मैं नंगा होने वाला नहीं हूं। आखिरकार उनकी घेराबंदी व जिद के आगे गर्म पानी से मुंह धोना पड गया।

(पिछली पोस्ट की तरह यह पोस्ट भी बिना फोटू की है और मैटीरियल भी काफी कम है। इसका कुछ और कारण है। पिछली पोस्ट मेरी पहली हवाई यात्रा पर केन्द्रित थी, आज की पोस्ट उससे मेल नहीं खाती। अगली पोस्ट सिन्धु घाट की रहेगी, वो भी आज की पोस्ट से बे-मेल है।)


अगले भाग में जारी...


लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान

लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान

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नाश्ता करके सिन्धु घाट की तरफ चल पडा। थोडा आगे चोगलमसर है। लेह से चोगलमसर करीब आठ किलोमीटर है। लेकिन इस पूरी दूरी में अच्छी खासी बसावट है जिससे चोगलमसर लेह का ही हिस्सा लगता है। चोगलमसर के बाद आबादी खत्म हो जाती है।
सिन्धु नदी- मानसरोवर से शुरू होकर कराची में खत्म होने से पहले यह तीन देशों- चीन, भारत व पाकिस्तान में बहती है। पंजाब की पांच नदियों में यह प्रमुख है लेकिन लद्दाख की भी यह प्रमुख नदी है।
मुम्बई के एक मित्र का आग्रह है कि मैं उनके लिये सिन्धु जल लेकर आऊं। वे भारत की सात नदियों के जल का संग्रह करना चाहते हैं जिनमें से छह नदियां यानी गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी व एक और उनके पास संग्रहीत हैं। सातवीं के रूप में वे सिन्धु को चाहते हैं। कोशिश करूंगा उनके लिये सिन्धु जल लेकर जाने की।
मैं चाहता हूं कि वे अपने संग्रह को बढायें। इसमें प्रेम का प्रतीक चेनाब, मोहपाशरहित विपाशा यानी ब्यास, मानसरोवर से आने वाली सतलुज, पूर्वोत्तर का जीवन ब्रह्मपुत्र, बिहार का शोक कोसी, अयोध्या वाली सरयू, दक्षिण की गंगा कावेरी के अलावा महानदी, चम्बल, काली, गण्डक, सोन, रावी, झेलम आदि इक्कीस नदियों को अपने यहां पनाह दें।
ठण्ड की वजह से सिन्धु के किनारे जम गये हैं। कुछ लोग इस जमें बर्फीले पानी से अपनी गाडियां धो रहे हैं। मैं हैरान हूं कि इतने ठण्डे जल में वे किस हिम्मत के बल पर काम कर रहे हैं? साथ ही चिन्ता भी है कि सिन्धु जल की बोतल कैसे भरूंगा।
साढे बारह बजे वापस जेल में पहुंच गया।
ठीक एक बजे ड्राइवर इब्राहिम का फोन आया। वो गाडी लेकर आ चुका था। उस समय हमारा खाने का दौर चल रहा था। साथी लोग उसे भी जेल में ले आये। बिना गुनाह के जेल में आना पीडा देता है लेकिन जिन्दगी बर्बाद न हो और स्वेच्छा से जेल से बाहर जा सकें तो आनन्द भी मिलता है। वो भी अपने मित्रों से कहेगा कि आधे घण्टे के लिये जेल की हवा खाकर आया हूं।
डेढ बजे यहां से चल पडे चिलिंग के लिये। चलने से पहले विकास से स्लीपिंग बैग ले लिया। विकास ने यह बैग 1100 रुपये में मेरठ से खरीदा था। इतने पैसों में निम्न गुणवत्ता का बैग आता है, फिर भी मैंने इसे साथ ले लिया। रास्ते में एक दुकान से कोल्ड क्रीम भी ले ली।
सर्दियों में लद्दाख बाकी दुनिया से पूरी तरह कट जाता है। जोजीला व द्रास में भयंकर बर्फ पड जाने से श्रीनगर वाली रोड बन्द हो जाती है जबकि उधर रोहतांग, बारालाचाला, तंगलंगला आदि दर्रों पर बर्फ की वजह से मनाली रोड भी बन्द हो जाती है। इसी वजह से लद्दाख के मुख्य आकर्षण जैसे पेंगोंग झील भी पहुंच से दूर हो जाते है।
ऐसे में एक ऐसी जगह है जहां सर्दियों में भी रौनक होती है- जांस्कर नदी। अत्यधिक ठण्ड की वजह से जांस्कर नदी जम जाती है। इस जमी हुई नदी पर स्थानीय लोग जहां आना-जाना करते हैं वहीं साहसी पर्यटक ट्रेकिंग करते हैं। नदी के ऊपर जमी बर्फ को चादर कहते हैं और इस ट्रेक को चादर ट्रेक। चादर ट्रेक केवल सर्दियों में ही किया जा सकता है। मेरा सर्दियों में लद्दाख आने का एक मकसद चादर ट्रेक भी करना था।
श्रीनगर रोड पर लेह से निकलते हैं तो पहले पत्थर साहिब गुरुद्वारा आता है। मैंने गाडी में बैठे बैठे ही ड्राइवर से पूछा कि क्या यहां जूते निकालने पडेंगे। उसने कहा कि हां। मैंने कहा कि फिर रुक मत, सीधा चलता रह। इतनी ठण्ड में जूते उतारने की बात भी करना अपराध है।
आगे मैग्नेटिक हिल नामक पहाडी आई। इस पहाडी में चुम्बकीय गुणधर्म विद्यमान हैं। बताते हैं कि सडक पर बिल्कुल समतल में एक निशान बना है, जहां अगर गाडी खडी कर देंगे और गाडी को न्यूट्रल में छोड देंगे तो वो पहाडी की तरफ चलने लगती है। उस समय वहां कई गाडियां खडी थीं, मुझे पता नहीं चला कि वो निशान कहां लगा है। दो मिनट में दो फोटो खींचकर शीघ्र ही गाडी में बैठे और निम्मू की ओर रवाना हो गए।
निम्मू में सिन्धु और जांस्कर नदियों का संगम है। हमें यहां से श्रीनगर रोड छोडकर जांस्कर के किनारे वाली रोड पकडनी थी। यहां से 28 किलोमीटर दूर चिलिंग है, जहां आज मुझे रुकना है और कल चादर ट्रेक शुरू कर देना है। ज्यादातर हिस्से में नदी जमी हुई मिलती है। जहां सिन्धु नदी चौडी उपत्यका में बहती है, वहीं जांस्कर इसके विपरीत तंग उपत्यका को अपनाती है। चौडा होने की वजह से सिन्धु को काफी गर्मी मिल जाती है, इसलिये नहीं जम पाती। जांस्कर नदी जम जाती है।

सिन्धु घाट

आंशिक रूप से जमी सिन्धु





चोगलमसर के पास एक बौद्ध मन्दिर






जेल में

गुरुद्वारा पत्थर साहिब





लेह-श्रीनगर रोड



निम्मू-चिलिंग रोड

निम्मू- सिन्धु व जांस्कर का संगम

अगले भाग में जारी...

लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान

जांस्कर घाटी में बर्फबारी

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साढे तीन बजे चिलिंग पहुंच गये। यहां कहीं रुकने का ठिकाना ढूंढना था। इसमें ड्राइवर इब्राहिम ने काफी सहायता की। यहां कोई होटल नहीं है लेकिन होमस्टे है, जहां घर के सदस्यों के साथ मेहमान बनकर रुकना होता है। हमारे जाते ही घर की मालकिन ने कमरे के बीच में रखी अंगीठी सुलगा दी।
मैंने इब्राहिम से पूछा कि कितने पैसे हुए। लेह से चलते समय हमने पैसों के बारे में कोई बात नहीं की थी। बोला कि चौबीस सौ। मैं एक हजार तक के लिये तैयार था। चौबीस सौ रुपये देने मेरे बस से बाहर की बात थे। लेह से चिलिंग करीब सत्तर किलोमीटर दूर है।
आखिरकार मैं हजार से बढकर बारह सौ पर पहुंच गया, वो सोलह सौ तक आ गया। वो एक ही जिद पकडे रहा कि बारह सौ में उसे भयंकर घाटा हो जायेगा। मैंने कहा कि इससे ज्यादा देने में मुझे भयंकर घाटा होगा। उसने क्रोधित होकर कहा कि तुम कुछ मत दो, ये बारह सौ भी रख लो। मैंने उससे लेकर अपने पास रख लिये और सीधे कह दिया कि इससे ज्यादा बिल्कुल नहीं दूंगा। आखिरकार वो बारह सौ लेकर ही चला गया।
होमस्टे का मतलब है घर में मेहमान। बाल्टी भरकर सूखी लकडियां आ गईं, अंगीठी जलती रही। चाय भी आती रही। कमरे में जमीन पर ही तीन बिस्तरे बिछे थे। मुझे एक रजाई और मोटा कम्बल मिला रात में ओढने के लिये।
अगर कल विमान के उतरते समय तापमान माइनस दस डिग्री था, तो अब कम से कम माइनस बीस तक पहुंच गया होगा।
रात को खाने में राजमा चावल मिले। इस घर में बूढे-बुढिया के अलावा उनकी दो बेटियां और दो नाती भी थे। रात को कुछ समय उन सबके पास बैठने का मौका मिला। बौद्ध परिवार है, तो पूजा पाठ करने में ज्यादा समय लगता है। उस समय बूढा मन्त्रों वाला चक्र घुमाते हुए भजन गाने में व्यस्त था। बुढिया और एक बेटी सूत कात रही थीं। बच्चे किताब पढ रहे थे, होमवर्क कर रहे थे, हालांकि आजकल सर्दियों की छुट्टियां चल रही हैं। दूसरी बेटी खाना बनाने में लगी थी।
गुड नाइट कहकर मैं सो गया।

18 जनवरी 2013
आज मुझे चादर ट्रेक की शुरूआत कर देनी थी। चिलिंग गांव से आठ किलोमीटर आगे तक सडक बनी है, उसके बाद असली ट्रेक शुरू होता है। रात घर के सदस्यों से मैंने बात की कि सुबह मुझे कुछ दिनों के लिये एक आदमी चाहिये, जो चादर ट्रेक में साथ देगा। जो भी पैसे बनेंगे, उसे मिल जायेंगे। घरवालों ने, सुबह पता करेंगे, ऐसा कह दिया।
बिस्तर के पास ही एक बडी खिडकी थी जिस पर पर्दा लटका था। सुबह आठ बजे आंख खुली। पर्दा हटाकर खिडकी से बाहर झांका तो होश उड गये। बाहर सबकुछ सफेद था। बरफ पड रही थी। जैसे ही पैरों को पता चला कि बाहर बर्फबारी हो रही है, तो और ज्यादा सिकुड गये। मेरे पैर कभी भी बर्फ पर चलने के लिये राजी नहीं हुए हैं। मैं हमेशा बर्फ पर चलने से कतराता हूं।
यह बर्फबारी अप्रत्याशित थी। दूर-दूर तक उम्मीद भी नहीं थी कि यहां बरफ भी पड सकती है। कल जब लेह में था तो पिताजी ने फोन करके बताया था कि मेरठ में जबरदस्त ओले पड रहे हैं। रात सपना दिखाई दिया कि मेरठ में बर्फ के फाहे गिर रहे हैं। आंख खुली तो सपना सच मिला। मेरठ की बजाय लद्दाख ही सही।
सर्दियों में उत्तर भारत में पछुवा हवाएं चलती हैं। इन्हें पश्चिमीं विक्षोभ भी कहते हैं। ये यूरोप व साइबेरिया की तरफ से आती हैं, तो जाहिर है कि ये जबरदस्त ठण्डी होती है। जब ये भूमध्य सागर के ऊपर से गुजरती हैं, तो इनमें पर्याप्त नमी भी हो जाती है। जैसे ही ये अफगानिस्तान पार करके पाकिस्तान व पंजाब में घुसती हैं तो हिमालय के पहाडों के कारण दो भागों में विभक्त हो जाती हैं। एक भाग पंजाब, हरियाणा, यूपी के मैदानों से होकर दक्षिण पूर्व की ओर बढने लगता है और कभी कभी ओलावृष्टि कर देता है।
दूसरा भाग हिमालय में घुस जाता है। कश्मीर, डलहौजी, मनाली, शिमला व उत्तराखण्ड में इसी की वजह से बर्फबारी होती है। लद्दाख हिमालय के पार की धरती है। ये हवाएं अक्सर हिमालय को पार नहीं कर पातीं, इसलिये लद्दाख इनके प्रकोप से सालभर बचा रहता है। फिर भी कुछ दुस्साहसी हवाएं हिमालय के छह छह हजार मीटर ऊंचे पहाडों को पार कर जाती हैं व लद्दाख में पहुंच जाती हैं। कल मेरठ में जो ओले पडे थे, आज यहां जो बर्फ पड रही हैं, ये सब सहोदर हैं।
अभी तक तकरीबन चार इंच बर्फ पड चुकी है। अत्यधिक ठण्ड की वजह से यह बर्फ अगले एक महीने तक पिघलने वाली भी नहीं है। इस बर्फबारी की वजह से मुझे गांव में कोई सहयात्री भी नहीं मिला। अब मुझे या तो अकेले आगे चादर ट्रेक पर जाना है या वापस लेह लौट जाना है।
चादर ट्रेक के लिये मेरी योजना जङला (Zangla) तक जाने की थी। वैसे तो चादर ट्रेक सौ किलोमीटर से भी ज्यादा होता है और ट्रेकर जांस्कर के मुख्यालय पदुम तक चले जाते हैं। कुछ लोग आधा चादर करते हैं जो करीब चालीस किलोमीटर का होता है और नेरक या लिङशेड (Lingshed) तक जाते हैं। नेरक और लिङशेड जांस्कर नदी के किनारे आमने-सामने स्थित दो गांव हैं। नेरक से करीब बीस किलोमीटर आगे जङला है।
मुझे चूंकि बर्फ पर चलने में डर लगता है। पहले भी मैंने कई ट्रेक किये हैं, बर्फ पर चलने की मजबूरी आई तो या तो लम्बा रास्ता काटकर बर्फ से बचकर निकला हूं या कभी कभी वापस भी लौटा हूं। कई बार रो-रोकर बर्फ पर चलना भी पडा है। चूंकि नदी जम जाती है, इसलिये पैरों ने कभी भी इस जमी नदी पर चलना मंजूर नहीं किया। नदी से कुछ ऊपर चिलिंग से नेरक और आगे जङला तक जाने के लिये पगडण्डी है। इसी पगडण्डी पर जाने की मेरी योजना थी। जमीन वृक्ष-वनस्पति विहीन है, इसलिये नीचे नदी में बर्फ की वजह से कैसी संरचना बन रही है या कोई जमा हुआ झरना है, सब ऊपर पगडण्डी से देखा जा सकता है। जरुरत पडी तो फोटो खींचने के लिये पगडण्डी से नीचे नदी पर उतरना भी मंजूर हो गया।
अब बर्फबारी की वजह से यह पगडण्डी और भी खतरनाक हो गई होगी। सीधे खडे पहाडों पर पतली सी पगडण्डी और उस पर जमी बर्फ, इस तथ्य से पैरों ने इस पगडण्डी पर चलने से इंकार कर दिया। नीचे जमी हुई नदी पर चलना पहले से ही निषिद्ध था। इसलिये चादर पर चलना खटाई में पडने लगा।
अङमो (Angmo)- घर की एक सदस्या- ने दो-तीन घण्टे तक बाहर बर्फबारी के बीच सडक पर घूमने के लिये हामी भर ली। कुछ दूर तक बच्चे भी साथ चले, लेकिन फिर वे लौट आये। जब हम गांव से चलकर सडक पर पहुंचे तो बर्फ से ढकी सडक पर गाडी के पहियों के निशान दिखे। यानी कुछ देर पहले कोई गाडी यहां से गुजरी है। यह गाडी तिलत यानी सडक के आखिरी बिन्दु तक गई होगी। इस मौसम में यहां चादर ट्रेक बेहद लोकप्रिय होता है, तो ट्रेकर लेह से सुबह गाडी से आते हैं और दो किलोमीटर नदी पर चलकर तिलत सुमडो नामक जगह पर पहुंचकर तम्बू लगाकर आराम करते हैं।
बर्फबारी मैंने पहले भी देखी है लेकिन बेहद अल्प समय तक के लिये। इतना अल्प कि उससे बर्फ की सफेद चादर बिछना तो दूर जमीन पर बर्फ का कोई निशान भी नहीं रहता है। हालांकि पुरानी जमी बर्फ पर काफी चला हूं। आज पहला मौका था बिल्कुल ताजी बर्फ पर चलने का। पक्की सडक पर चल रहा था तो पैरों के पास सन्देश गया कि बर्फ पर चलना कोई खतरनाक काम नहीं है, वो भी सडक पर। रेत भरी सडक पर चलने के मुकाबले बर्फ भरी सडक पर चलना ज्यादा सुरक्षित होता है। बर्फ में चिपकने का गुण जो होता है।
चार किलोमीटर आगे एक छोटी सी बस्ती मिली, इसे काठमाण्डू कहते हैं। यह कोई गांव नहीं है। असल में निम्मू से पदुम होते हुए दारचा तक सडक बनाने का प्रोजेक्ट चल रहा है। दारचा लेह-मनाली रोड पर है। उसी प्रोजेक्ट का एक केन्द्र यहां काठमाण्डू में भी है। कुछ ट्रक और मशीनें यहां हैं। मजदूरों के रहने के लिये छोटे छोटे तम्बू और घर भी बने हैं। इसके अलावा काठमाण्डू का एक और महत्व है। यह स्थान मारखा नदी और जांस्कर नदी के संगम पर है। मारखा घाटी अपने सौन्दर्य के लिये काफी प्रसिद्ध है। मारखा घाटी में जो भी गांव हैं, उनके लिये बाहरी दुनिया से सम्पर्क करने का यह पहला स्थान है। जांस्कर के उस तरफ जाने के लिये पुल तो नहीं है, लेकिन तारगाडी जरूर है। पुल का काम चल रहा है। लेह से सप्ताह में दो दिन रविवार और गुरूवार को आने वाली बस यहां तक आती है।
काठमाण्डू से एक किलोमीटर आगे भी इसी तरह की एक बस्ती है। यहां ज्यादातर सेना के लोग रहते हैं या सीमा सडक संगठन के लोग। हमें देखते ही पांच छह कुत्ते हम पर भौंकते हुए दौडे, जिससे अङमो काफी डर गई। तुरन्त बर्फ उठाकर गोला बनाकर फेंकने से ये कुत्ते हमसे दूर ही रहे।
यहां से आगे जांस्कर नदी पूरी तरह जमी हुई दिखती है। तीन किलोमीटर आगे वो स्थान है जहां तक सडक बनी है। यहां हमें वो गाडी खडी मिल गई। एक ग्रुप आज ट्रेकिंग की शुरूआत कर रहा था, जबकि एक अन्य ग्रुप का आज आखिरी दिन है। शुरूआत करने वाले लोग आज लेह से आये हैं और खत्म करने वाले लोग इसी गाडी से लेह चले जायेंगे। यहां से करीब दो किलोमीटर आगे तिलत सुमडो है, जहां कैम्पिंग ग्राउंड और एक गुफा है। ये दो किलोमीटर जमी नदी पर चलकर तय करने होते हैं। यहां सुमडो दो नदियों के संगम को कहते हैं। आम बोलचाल में इस जगह को तिलत ही कहकर काम चल जाता है।
चिलिंग से तिलत की दूरी आठ किलोमीटर है। हमें ढाई घण्टे लगे यहां तक आने में। आखिरी दो किलोमीटर तय करने में मेरे पैरों में खासकर घुटने और ऊपर वाले जोड में दर्द होने लगा।
दस पांच मिनट रुककर मैं और अङमो वापस चल पडे। कुत्ते फिर भौंके, काठमाण्डू में एक नेपाली दुकान में चाय और मैगी खाये गये। मना करने पर भी चाय-मैगी के सत्तर रुपये अङमो ने दिये। शाम पांच बजे अन्धेरा होने तक चिलिंग पहुंच गये। दो घण्टे के लिये निकले थे, पांच घण्टे लगा दिये।
इस वापसी की यात्रा में तो जान ही निकल गई। घुटनों का दर्द बढता ही रहा। हर कदम आगे बढाना मुश्किल हो रहा था। जब चिलिंग पहुंचे तो बडा आराम मिला।
खाने में सुबह रोटी मिली थी। लेकिन सब्जी नहीं। बल्कि मक्खन और कई तरह के जैम मिले। रोटी पर मक्खन और जैम लगाकर रोल बनाकर खाने में आनन्द आ गया। चाय भी मक्खन डालकर पी, स्वादिष्ट लगी।
अब शाम के खाने में दाल चावल मिले। साथ में आमलेट भी। एक थाली में चावल, उसके ऊपर दाल, फिर आलू गोभी की थोडी सी सब्जी और सबसे ऊपर आमलेट। मैं चूंकि आमलेट खा लेता हूं इसलिये मुझे कोई परेशानी नहीं हुई। अगर कोई आमलेट ना खाने वाला होता, तो वो समूची थाली को वापस फेर देता। मैंने घरवालों से इसके लिये आपत्ति जताई और उन्हें समझाया कि हमारे मैदानों के सभी लोग अण्डा नहीं खाते। आपको पहले पूछना चाहिये था कि अण्डा खा लेते हो या नहीं। मान लो कि मैं अण्डा नहीं खाता तो आपके चावलों के ऊपर से आमलेट हटा लेने पर भी मैं ये चावल नहीं खा सकता था क्योंकि ये आमलेट के सीधे सम्पर्क में थे। 
शरीर के सभी अंगों में बहस होने लगी कि चादर ट्रेक करना है या नहीं। इस ट्रेक में पैरों को सबसे ज्यादा आपत्ति थी, ये अभी भी जमी नदी पर चलने को राजी नहीं थे। फिर थके भी बहुत ज्यादा थे, आज दर्द भी था। दिमाग ने पैरों को आदेश दिया कि आज सोलह किलोमीटर बर्फ पर चले हो, आदत पड गई है, कल चादर पर चलना ही होगा, सुबह तक दर्द भी ठीक हो जायेगा। सर्दियों में लद्दाख आने का एक मकसद यह भी था। पैरों का तर्क था कि कई फीट चौडी सडक पर चार पांच इंच बर्फ में चलना अलग बात है और नदी पर जमी बर्फ की चादर पर अलग बात। उस बर्फ के नीचे नदी बह रही है, पता नहीं कहां कमजोर चादर हो और टूट जाये, उस मामले में हमें ही सर्वाधिक नुकसान होगा।
आखिरकार निर्णय आत्मा पर छोड दिया गया- अन्तरात्मा पर।
निर्णय आया- चूंकि ट्रेकिंग का मकसद पगडण्डी पर चलने का था, ना कि नदी पर। अब पगडण्डी बन्द हो गई है तो और खराब परिस्थियों को देखते हुए चादर ट्रेक रद्द किया जाये। घुमक्कडी कोई दौड नहीं है कि जो जीता वही सिकन्दर। चादर के मुहाने तक पहुंच गये, जनवरी में लद्दाख में घूमना मिल रहा है, यही बहुत बडी उपलब्धि है।
सभी अंगों ने आत्मा के इस निर्णय का स्वागत किया। सबसे पहले पैरों ने।
आज शुक्रवार था, परसों लेह जाने वाली बस आयेगी। कल यहीं रुककर यहां का जनजीवन देखेंगे, परसों लेह चले जायेंगे।


चिलिंग में बर्फबारी




योकमापा- लद्दाख इको होमस्टे (चिलिंग)

घर का एक सदस्य



घर का दूसरा सदस्य

रोटी, मक्खन और जैम

चाय की चुस्की


जांस्कर घाटी के भ्रमण पर निकल पडे


यह है सडक। एक गाडी के पहियों के निशान दिख रहे हैं।


अङमो और उसका भानजा

काश! यह सडक नेरक तक बनी होती। वैसे भी नेरक की दूरी यहां बहुत कम लिखी हुई है। नेरक यहां से कम से कम चालीस किलोमीटर दूर है।


जांस्कर नदी




जांस्कर नदी- कहीं बह रही है, कहीं जम गई है।



यह कोई सांप वगैरा नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि बर्फ में चिपकने का गुण होता है।




यहीं तक सडक बनी है। यहां से करीब दो किलोमीटर आगे तिलत सुमडो है। तिलत तक जाने के लिये नीचे नदी के ऊपर से होकर जाना पडता है।

पूर्णरूपेण जमी जांस्कर नदी।

फिर वापस चिलिंग में

लाल लाल फूलों के ऊपर जमा बर्फ


अगले भाग में जारी...

चादर ट्रेक- गुफा में एक रात

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तिलत सुमडो से करीब दो किलोमीटर पहले जहां सडक खत्म होती है, आने वाली गाडियां वापस मुड जाती हैं, नीचे नदी तक उतरने के लिये पहले आवागमन कर चुके लोगों की वजह से पगडण्डी बन गई है। उतराई ज्यादा तो नहीं है, लेकिन है बडी खतरनाक। ऊपर से कल गिरी बर्फ ने इसे और खतरनाक बना दिया है। किसी तरह नीचे उतर ही गया।
चादर पर पहला कदम रखा।
इतने क्रान्तिक तापमान में पानी जम जाता है, बर्फ कांच की तरह हो जाती है। हालांकि कल बर्फबारी हुई तो इस कांच पर भुरभुरी बर्फ की तीन चार इंच मोटी परत जम गई। इससे फिसलन निःसन्देह कम हुई है। यह भुरभुरी बर्फ अभी भी वैसी ही चर्र-चर्र की आवाज कर रही है, जैसी कि सडक पर कर रही थी।
धूप निकली है। चश्मा लगा रखा है। नहीं तो कभी का अन्धा हो गया होता।
अचानक पैरों के नीचे से खोखलेपन जैसी आवाज आने लगी। आपातकालीन इन्द्रियां वैसे तो पहले से ही सजग होकर बैठी हैं, अब आदेश दे दिया कि नीचे बर्फ की मोटाई काफी कम है, बर्फ के नीचे हवा भी है, तभी इस तरह की आवाज आ रही है। आवाज कुछ कदम तक ही रही, लेकिन इन कदमों में ही बुरी हालत हो गई।
बर्फ पानी पर क्यों तैरती है? क्योंकि बर्फ का घनत्व पानी के मुकाबले कम होता है, यानी बर्फ पानी से हल्की होती है। जब पानी का बर्फ बनाते हैं तो आपने देखा होगा कि फ्रिज में पानी से भरी ट्रे से बर्फ बनने पर बाहर छलकने लगती हैं, तल तो उसका ऊंचा हो ही जाता है। यही कारण है कि पानी जब बर्फ बनता है तो फैलता है। नदियों पर भी यही नियम लागू होता है।
जब नदी के पानी की बर्फ बनती है और फैलती है तो उसमें टूट-फूट भी होती है। दरारें पड जाती हैं। कहीं कहीं छोटे ज्वालामुखी जैसी संरचनाएं बन जाती हैं। यहां भी पूरी सतह पर दरारें पडी हुई हैं। हालांकि ये दरारें हजारों सालों से चलते आये ग्लेशियरों जैसी बडी बडी विशाल दरारें तो नहीं होतीं, इंच इंच भर की दरारें होती हैं। इधर से उधर पैर रखने में भी मुझे बडा डर लग रहा है।
एक स्थान पर कुछ मीटर तक पगडण्डी ऐसी है जैसे किसी ने खुदाई कर रखी हो। कांच जैसी बर्फ के काफी टुकडे दिख रहे हैं। पक्का डर है कि यहां बर्फ की मोटाई बिल्कुल भी नहीं है। सिर में घण्टे बजने लगे कि बेटा, यहां पैर रखते ही तू नदी में गिर पडेगा। इसलिये पगडण्डी से इतर नजर घुमाई। सोचा कि इस खुदी हुई बर्फ से बचकर निकलता हूं। जैसे ही पगडण्डी से बाहर पहला कदम रखा, बरफ चर्र की आवाज के साथ टूट गई और पैर छह इंच नीचे जा धंसा। चीख निकल गई, हालांकि कोई सुनने वाला नहीं है।
पैर उठाकर देखा तो कुदरत का सारा खेल समझ में आ गया। यह भी समझ में आ गया कि सामने खुदी हुई बर्फ क्यों है।
यहां बर्फ की कई परतें हैं। सबसे ऊपर एक इंच मोटी परत और फिर चार पांच इंच का खाली स्थान। उसके नीचे फिर मोटी बर्फ। जैसे ही सबसे ऊपर वाली पर पैर रखा, वो टूट गई, पैर चार इंच नीचे खाली स्थान में जा धंसा। जब यहां लगातार आदमियों के पैर पडते रहे तो ऊपर वाली इंच भर मोटी परत खुदी हुई लगने लगी। इस अनुभव के बाद समझ में आया कि इस खुदाई के नीचे मोटी सुरक्षित परत है, कोई दिक्कत की बात नहीं है।
एक स्थान पर बर्फ में दो फीट व्यास का एक कुंड था, जिसमें पानी दिख रहा था। इसके पास पैरों के निशान भी दिख रहे थे जिससे पता चल रहा था कि लोगों ने यहां कुण्ड के ऊपर बर्फ पर बैठकर पानी पीया है। मेरी बोतल भी खाली हो चुकी थी, लेकिन आगे भर लूंगा, यह सोचकर मैंने बोतल नहीं भरी। हालांकि बोतल न भरने का मुझे अगले दिन तक पछतावा रहा।
एक बडा अजीब सा वातावरण बन गया था। वायुमण्डल सबसे ठण्डी जगह है जबकि नदी में बहता पानी सबसे गर्म। हालांकि दोनों का तापमान शून्य से नीचे ही है। वायु और पानी के बीच में जो बर्फ की परत है, वो वायु और पानी के संघर्ष की गाथा कहती है। जहां वायु प्रबल है, वहां बर्फ की मोटाई ज्यादा है और जहां पानी प्रबल है वहां बर्फ या तो है नहीं या पतली है। इन दोनों के संघर्ष का फायदा प्रत्यक्ष रूप से मुझे मिल रहा है। मैं चाहता हूं कि मेरे रास्ते में वायु की प्रबलता रहे। बर्फ जितनी मोटी होगी, उतना ही मैं सुरक्षित महसूस करूंगा।
तिलत सुमडो। सुमडो कहते हैं दो नदियों के संगम को। यहां भी जांस्कर नदी में कोई दूसरी नदी आकर मिलती है। जांस्कर के उस तरफ कैम्प साइट है, जहां ट्रेकर तम्बू लगा लेते हैं। मेरे पास तम्बू तो था नहीं, इसलिये मेरी निगाहें एक गुफा को ढूंढ रही थीं। ज्यादा समय नहीं लगा गुफा मिलने में। गुफा नदी के इसी तरफ कुछ ऊपर चढकर थी और इसके मुंह पर चार फीट ऊंची पत्थरों की एक दीवार भी बनी थी। गुफा तक पहुंचने का रास्ता बडा तीक्ष्ण था और रेत व बर्फ के मिश्रण से होकर जाता था। एक ही झटके में ऊपर पहुंच गया और बडी देर तक हांफता रहा।
यह एक मध्यम आकार की गुफा थी, जिसमें पांच छह आदमी आराम से सो सकते थे। कुछ राख और अधजली लकडियां भी पडी थीं। गुफा की छत और दीवारों पर धुआं आसानी से चिपका देखा जा सकता था।
बोतल में पानी नहीं था। नीचे दोनों नदियां पूरी तरह जमी हुई थीं, इसलिये वहां भी कोई सम्भावना नहीं दिख रही थी। कुछ देर पहले बर्फ में एक ‘कुआं’ दिखाई पडा था, मुझे वहां से बोतल भर लेनी थी। गुफा के बाहर चारों तरफ भुरभुरी बर्फ जमी पडी थी, काफी मशक्कत के बाद थोडी सी बोतल में भर ली और बाद में स्लीपिंग बैग के अन्दर घुसकर अपने साथ रख ली तो दो घूंट पानी मिल गया।
मैं तीन बजे के आसपास यहां पहुंच गया था। अच्छी धूप निकली थी, मैं अभी भी दो घण्टे तक चलकर और आगे जा सकता था लेकिन गुफा की उपलब्धता के कारण यही रुक जाना पडा। अभी तक उम्मीद थी कि कोई ना कोई ग्रुप आ जायेगा, लेकिन जैसे जैसे समय बीतता गया, कोई नहीं आया तो घबराहट भी होने लगी। आदमी भी कितना अजीब है! जब शहरों में चारों तरफ आदमियों से घिरा रहता है, तब भी घबराता है और जब कहीं सन्नाटेदार स्थान पर होता है, तब भी घबराता है। यहां दूर दूर तक कोई नहीं था, मैं अभी से रात अकेला होने के बारे में सोचकर घबराने लगा।
इस इलाके में हिम तेंदुआ और भेडिया देखे जाने की बातें आती रहती हैं। इससे डर और भी बढ गया। चार बजे तक मैं वापस जाने की सोचने लगा- अगर अभी भी निकल पडता हूं तो दो घण्टे में काठमांडू यानी मारखा-जांस्कर संगम तक पहुंच सकता हूं, वहां रुक जाऊंगा। फिर सोचा- जो होगा देखा जायेगा।
स्लीपिंग बैग में घुसकर जमीन पर ही लेट गया, मेरे पास कोई मैट्रेस भी नहीं थी। शून्य से कम तापमान में जमीन भी गर्म नहीं थी। पूरी रात मेरे नीचे की जमीन ठण्डी ही रही। समय समय पर नदी में पत्थर गिरने या बर्फ के चटकने की आवाजें आती रहीं, जिससे एक मिनट के लिये भी डर कम नहीं होने पाया। हमेशा लगता रहा कि कोई तेंदुआ गुफा की तरफ आ रहा है, उसके चढने से पत्थर गिर रहे हैं और आवाज आ रही है। हालांकि समय बीतने के साथ आदत पडती गई और डर भी कम होता गया।
सामने की ऊंची चोटियों पर साढे छह बजे तक भी धूप रही। उसके बाद भी अन्धेरा नहीं हुआ। आज शुक्ल पक्ष की नवमी या दशमी थी, इसलिये सूरज छिपने से पहले चांद निकल आया। घाटी में उजाला बरकरार रखने का जिम्मा उसने ले लिया।
स्लीपिंग बैग विकास का था, उन्होंने इसे मेरठ से ग्यारह सौ का खरीदा था। इसमें घुसने से पहले ही इसके दोष सामने आने लगे। यह मुझ से भी छोटा था। बडी मुश्किल से काफी मशक्कत के बाद इसकी चेन बन्द कर सका। इसके अन्दर ही पानी की बोतल रखनी पडी, साथ ही मोबाइल भी ताकि रात-बेरात समय का अन्दाजा हो सके। चाहता था कि कैमरा भी अन्दर ही रखूं लेकिन इतनी जगह नहीं बची। कैमरे को इस क्रान्तिक तापमान में बाहर रहना पड गया।
रात एक बजे मेरी आंख खुली। मैं ठण्ड से बुरी तरह कांप रहा था। सिर पर दो मंकी कैप, हाथों में दस्ताने, पैरों में दो गर्म लोवर और उनके ऊपर एक पैंट, ऊपर तीन गर्म इनर, एक गर्म ऊनी शर्ट और सबसे ऊपर शक्तिशाली जैकेट पहले हुए था। तीन जोडी जुराबें पहन रखी थीं, जो ऊनी और मोटी मोटी थी। जूते भी नहीं निकाले थे, जूते पहने हुए ही स्लीपिंग बैग में घुसा हुआ था, फिर भी पैर की उंगलियां इतनी सर्द हो चुकी थीं कि मालूम होता था कि कहीं ठण्ड से गल न जायें। हालांकि बैग में अभी भी कुछ गर्म कपडे और थे लेकिन उनमें से किसी भी एक को पहनने के लिये मुझे जैकेट उतारनी पडती जिसके लिये मैं इस समय सोच भी नहीं सकता था। हां, एक काम जरूर किया कि जूतों के ऊपर भी एक जोडी जुराबें चढा लीं। फिर भी उंगलियों की सर्दी कम नहीं हुई।
अगर चार दिन पहले यानी बर्फ पडने से पहले, दिन में जबकि अच्छी धूप निकली हुई थी, हवा नहीं चल रही थी; तापमान माइनस दस डिग्री था तो अब यह कम से कम माइनस पच्चीस से नीचे पहुंच गया होगा।
करवट ले ली जिससे शरीर का भूमि सम्पर्क क्षेत्रफल कम हो गया। हाथों को छाती से चिपका लिया जिससे छाती को गर्मी मिलने लगी। जूतों पर जुराब चढा लेने से भी कुछ आराम मिला। नींद आ गई।
पांच बजे आंख खुली। बारह घण्टे पहले सोच रहा था कि इस समय तितल सुमडो से आगे के लिये चल देना है, तभी शाम तक नेरक पहुंच सकता हूं। वह बात याद आई लेकिन जिस स्थिति में इस समय पडा हुआ था, उसमें इंच भर भी हिलना नामुमकिन था। उठकर चलना तो बहुत दूर की बात है। जिन्दगी में पहले शायद इतने कपडे कभी नहीं पहने थे और इतनी सर्दी भी कभी महसूस नहीं हुई थी।
फिर आंख खुली नौ बजे। यहां जांस्कर एक तंग घाटी से बहती है, इसलिये बारह बजे से पहले यहां धूप का सवाल ही नहीं। लेकिन दूर के पहाडों पर अच्छी धूप दिखाई पड रही थी।
अगर अब नेरक के लिये निकलता हूं तो शाम तक पहुंचना नामुमकिन है। इसका अर्थ है कि अगली रात फिर किसी गुफा में इसी तरह कांपते हुए बितानी पडेगी।
शरीर ने विद्रोह कर दिया। हर अंग को पता था कि आज रविवार है और दोपहर एक बजे चिलिंग से लेह के लिये बस जायेगी। यहां से चिलिंग पहुंचने में करीब साढे तीन घण्टे लगेंगे। नौ बज चुके हैं। इसलिये शीघ्र ही सामान बांध दिया और चिलिंग चलने की तैयारी होने लगी।
हाथों में दो जोडी दस्ताने पहन रखे थे लेकिन फिर भी सामान समेटने के दौरान उंगलियां पूरी तरह सुन्न हो चुकी थी।
जब साढे नौ बजे गुफा से निकला तो नेरक की तरफ से तीन जने आते दिखाई दिये। पूछने पर पता चला कि वे सुबह पांच बजे पिछले कैम्प से चल पडे थे।
वाकई कुछ लोगों को ऊपर वाला स्पेशल मिट्टी से बनाता है।
उनका इरादा आज तिलत में ही रुकने का था। एक स्थानीय गाइड ने मुझसे पूछा कि कहां तक जाओगे, मैंने बता दिया लेह तक। चिलिंग से एक बजे वाली बस पकडनी है। बोला कि आज हमारा एक ग्रुप लेह से आयेगा। पता नहीं कब हमारी गाडी आ जाये। अभी आपको नौ दस किलोमीटर और पैदल चलना है चिलिंग जाने के लिये। अगर हमारी गाडी पहले आ गई और आप हमें रास्ते में मिल गये तो हम आपको अपनी गाडी से ले जायेंगे। मैंने कहा तथास्तु।
कल जब मैं चादर पर चलकर गुफा तक गया था, उसके मुकाबले अब चादर की मोटाई ज्यादा हो गई होगी- रातभर अति निम्न तापमान के कारण। फिर भी रास्ता वही था, जिस पर मैं कल चला था लेकिन अब बिल्कुल भी डर नहीं लग रहा था। कब वो स्थान आ गया जहां चादर छोडकर ऊपर सडक पर चढना था, पता ही नहीं चला।
सडक पर धूप थी। सूरज की तरफ मुंह करके तकरीबन बीस मिनट तक बैठा रहा। उंगलियों में रक्त संचार शुरू हुआ, इनमें चेतना लौटनी शुरू हो गई।
ऐसे में फोटो कैसे खिंच सकते थे?
वाकई चादर ट्रेक पर फोटो खींचना महान हिम्मत का काम है, जहां दो दो जोडी दस्तानों के बावजूद भी उंगलियां सुन्न पडी हों। फोटो खींचने के लिये दस्ताना उतारना पडता है। अगर हमें कहीं इंटरनेट पर चादर ट्रेक के फोटो देखने को मिलते हैं, तो हमें फोटोग्राफर के प्रति कृतज्ञ होना चाहिये। चादर ट्रेक के फोटो महा-विपरीत परिस्थितियों में खींचे जाते हैं।
चादर ट्रेक वैसे तो 100 किलोमीटर से भी लम्बा है। पदुम तक आना-जाना 200 किलोमीटर से ज्यादा होता है। ज्यादातर लोग नेरक तक जाते हैं जो आना-जाना 80 किलोमीटर के आसपास है। मैं मात्र तिलत सुमडो तक ही गया जो आना-जाना तकरीबन चार किलोमीटर है। इस बात का मुझे कोई विक्षोभ नहीं है बल्कि खुशी है कि मैं भी उस बिरादरी में शामिल हो गया जिसने चादर देखी है और उस पर चले हैं।

चिलिंग गांव

इसी घर में मैं रुका हुआ था।

जमी हुई जांस्कर नदी पर ट्रेकिंग


लकडी की स्लेज पर सामान खींचा जाता है।






जमी हुई नदी यानी चादर

यह एक ज्वालामुखीय संरचना है। जो बर्फ बनने के दौरान हुई टूट-फूट का नतीजा है।

सामने अन्तिम छोर पर तिलत सुमडो है।




सामने एक समतल चबूतरा दिख रहा है, वही तिलत सुमडो कैम्प साइट है। फोटो गुफा से खींचा गया है।

ऊपर गुफा से खींचा गया एक और फोटो। नदी में दरारें साफ दिख रही हैं।

गुफा से खींचा गया एक और फोटो।
अगले भाग में जारी...

डायरी के पन्ने- फरवरी 2013 प्रथम

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[हर महीने की पहली और 16 तारीख को डायरी के पन्ने छपा करेंगे।]

1 फरवरी 2013, दिन शुक्रवार
1. सुबह एक फोन आया जयपुर से। वे दैनिक भास्कर से थे और चाहते थे कि मैं उन्हें नीलकंठ महादेवके फोटो उनकी साइट पर लगाने दूं। मैंने अनुमति दे दी। शाम को विधान का फोन आया कि भास्कर की साइट पर तुम्हारे फोटो लगे हैं। मैंने भी देखा। उनकी थीम थी राजस्थान के मन्दिरों में सम्भोग और अध्यात्म का रिश्ता। इसमें उन्होंने उदयपुर, बाडमेर के साथ नीलकंठ महादेव के कुल मिलाकर बारह फोटो लगा रखे हैं। ज्यादातर मेरे फोटो हैं लेकिन वर्णन तितर-बितर तरीके से कर रखा है। दैनिक भास्कर का वह पेज यहां क्लिक करकेदेखा जा सकता है।

2 फरवरी 2013, दिन शनिवार
1.दिसम्बर और जनवरी में रेलयात्राएं नहीं की जा सकीं। मैं अक्सर इन दो महीनों में रेलयात्राएं नहीं करता हूं क्योंकि कोहरे के कारण ट्रेनें घण्टों लेट हो जाती हैं। इसकी पूर्ति फरवरी में होती है। पिछले महीने दिल्ली से अहमदाबाद, उदयपुर, रतलाम, कोटा और दिल्ली की रेलयात्राओं का आरक्षण कराया था। लेकिन बुरी तरह तलब लगी है यात्रा करने की। आज एक और रेलयात्रा की योजना बनी- दिल्ली से श्रीगंगानगर, सूरतगढ, अनूपगढ। कुछ ही महीने पहले श्रीगंगानगर से सूरतगढ वाली लाइन मीटर गेज से बडे गेज में परिवर्तित हुई है। दिल्ली से श्रीगंगानगर 5 फरवरी को निकलूंगा और सात फरवरी को वापस लौटूंगा। डेबिट कार्ड से रिजर्वेशन होने से चार किलोमीटर दूर शाहदरा जाकर लाइन में नहीं लगना पडता।
2.आज कई दिनों बाद नहाया। सायंकालीन ड्यूटी (दो से दस बजे तक) थी। अच्छी धूप निकली थी, मैं बिना टोपा लगाये ऑफिस चला गया। ऐसा करने से सुबह तक गले से संकेत मिलने लगे कि नजला-जुकाम होने वाला है। कमजोर शरीर वालों को अपना शरीर व्याधिरहित रखने के लिये बडी सावधानियां रखनी होती हैं। मैं हर साल नवम्बर और फरवरी में बीमार पडता हूं। शुरू में जुकाम होता है, बाद में खांसी, बुखार भी आ जाते हैं जो पन्द्रह बीस दिन से पहले पीछा नहीं छोडते। डाक्टर के पास जाने से कतराता हूं। 

3 फरवरी 2013, दिन रविवार
1.एक झन्नाटेदार खबर मिली कि घुमक्कड डॉट कॉमनामक पर्यटन साइट किसी ने हैक कर ली है और सारी पोस्टें मिटा दी हैं। यह व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिये जश्न मनाने की बात थी लेकिन समूहगत तौर पर नहीं। मेरे काफी मित्र वहां लिखते हैं, उनका भयंकर नुकसान अपने नुकसान से कम नहीं होता। जश्न मनाने की बात इसलिये कि वहां मेरा हमेशा से विवाद होता आया है। खैर, पकौडी बनाकर जश्न मनाया गया। अगले दिन साइट मालिकों ने मेहनत की और सारी पोस्टें यथारूप दिखने लगीं।
2.यूथ हॉस्टल का परिचय पत्र आ गया। जनवरी में इसके लिये आवेदन किया था। साथ ही 1 मई से 11 मई तक हिमाचल में सौरकुंडी पास की ट्रेकिंग के लिये भी नाम दे दिया। जब नाम दे दिया, खाते से पैसे कट गये तो अक्ल आई कि यह ट्रेकिंग ग्यारह दिनों की होगी। हालांकि मुझे इन ग्यारह दिनों के लिये मेट्रो की तरफ से स्पेशल छुट्टियां मिलेंगी, लेकिन अब सोच रहा हूं कि यह वक्त की बडी बर्बादी होगी। छुट्टियों की मेरे पास कोई कमी नहीं है, इस समय मेरे खाते में सौ से ज्यादा छुट्टियां बची हुई हैं। अपने खाते से छुट्टियां लेकर ग्यारह दिनों में कोई बहुत बडा काम कर सकता हूं। रही बात इस ट्रेकिंग की तो मुझे लगता है कि अपने प्रयासों से मैं इस ट्रेक को तीन दिन में निपटा सकता हूं। दुविधा में हूं।
3.हमारे जंगले की बाहरी तरफ एक कबूतरी ने दो अण्डे दिये। खास बात है कि जंगले में शीशा लगा है, अन्दर शीशे से सटकर ही मेरा बिस्तर है। शीशे के दूसरी तरफ कूलर रखा है जो गर्मियों से ही वहां रखा हुआ है। कबूतरी ने शीशे और कूलर के बीच की खाली जगह का इस्तेमाल अपना आशियाना बनाने में किया। कुछ महीने पहले भी उसने अण्डे दिये थे, मुझे देखते ही कबूतरी अण्डों को छोडकर उड जाया करती थी। उसे क्या मालूम कि यहां शीशा है? शिशु-हत्या के पाप से बचने के लिये मैंने शीशे पर अखबार चिपका दिया था। सही सलामत बच्चे हो गये और उड गये। उसके बाद मैंने घोंसला उजाड दिया ... अब पुनः कबूतरों ने वहीं घोसला बनाया। मैंने लाख कोशिश की लेकिन मेरे लद्दाख भ्रमण के दौरान कबूतरी ने अण्डे दे दिये। अब तय किया कि शीशे पर अखबार नहीं चिपकाऊंगा। लेकिन इस कपोतद्वय की हिम्मत देखिये कि ये अब उडने को तैयार नहीं है। मेरा सिर शीशे पर लगा रहता है, उस तरफ कबूतरी भी शीशे से चिपककर अण्डों को सेती रहती है। शुरू में डर जाती थी, उड जाती थी लेकिन अब नहीं उडती। एक अण्डा सेते समय नीचे गिर गया और फूट गया। एक अभी भी बचा है।




4 फरवरी 2013, दिन सोमवार
1.मौसम खराब। मौसम विभाग ने चेतावनी जारी की है कि उत्तर भारत बारिश की चपेट में आ गया है जो अगले कई दिनों तक जारी रहेगी। कल श्रीगंगानगर के लिये निकलना है, बारिश में यात्रा नहीं करना चाहता, दुविधा में हूं।

2.लग रहा है कि बीमार होने से बच जाऊंगा। दो दिन पहले गले में जो खराबी आने के लक्षण प्रकट हुए थे, अब नहीं हैं। हालांकि इस दौरान मिलावटी रिफाइंड तेल से बनी जी भरकर पकौडियां खाईं। मिलावटी तेल इसलिये कि यह हमेशा घी की तरह जमा रहता है, जबकि शुद्ध तेल कभी जमता नहीं है। जब मैं खरीदकर लाया था, तो इस बात का पता नहीं था। अब फेंकना भी नहीं चाहता, अपने पसीने के कमाई लगी हुई है इसमें। डॉक्टर और मेरी तो पता नहीं किस जन्म की दुश्मनी है, मैं उसकी शक्ल भी नहीं देखना चाहता। बिना दवाई के ही आराम मिल रहा है।

5 फरवरी 2013, दिन मंगलवार
1.श्रीगंगानगर यात्रा रद्द। रात्रि ड्यूटी थी। चार तारीख की रात साढे ग्यारह बजे से एक बजे तक बूंदाबांदी हुई, फिर साढे तीन बजे दोबारा कुछ और तेज बूंदाबांदी शुरू हुई। पांच बजे तो आधे घण्टे तक मूसलाधार बारिश होती रही, फिर कम हो गई। छह बजे आरक्षण रद्द कर दिया। मैं वैसे तो पानी सिर के ऊपर डालना नहीं चाहता, लेकिन सर्दियों में बारिश का पानी अगर एक बूंद भी सिर पर पड जाये तो भारी पाप समझता हूं। 
2.बारिश हो, रात्रि सेवा हो और सिर पर दो चार बूंद पानी ना पडे, ऐसा असम्भव है। कुछ बूंदे पानी अपने ऊपर भी गिर गईं, दोपहर बाद सोकर उठा तो आधे घण्टे तक रुक-रुककर छींकें आती रहीं। जुकाम हो गया। जिस बात का डर था, वो होनी शुरू हो गई है।
3.कल यानी बुधवार को मेरा साप्ताहिक अवकाश है। लेकिन इस बार कुछ कारणों से अवकाश रद्द हो गया है। मुझे नाइट ड्यूटी करनी पडेगी। मैं अवकाश रद्द होने को अपने लिये बहुत शुभ मानता हूं। इस रद्द अवकाश के स्थान पर मुझे महीने भर के अन्दर एक छुट्टी लेनी पडेगी, जो मैं अक्सर अगले किसी अवकाश के साथ ले लेता हूं, दो दिन की छुट्टियां मिल जाती हैं। इलाहाबाद जाकर महाकुम्भ देखने की योजना बन रही है, 24 फरवरी को जाकर 27 को वापस आना।
4.राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी जीवन यात्रा भाग-2’ का पठन पूरा। भाग-3 शुरू। हाहाहा! बेचारा राहुल! अपनी रूसी घरवाली के बुलावे पर तीसरी बार रूस जा रहा है। मैं तो उसे आजन्म कुंवारा ही समझता रहा। मुझे क्या पता था कि महाराज ने रूस में अपना वंश चला रखा है।
5.कहते हैं कि किताबें अपने कद्रदान को खुद ढूंढती हैं। ऐसा ही आज हुआ। पुस्तक मेले में चला गया। उम्मीद थी कि एकाध पुस्तक ही पसन्द आयेगी लेकिन बिमल डे से लेकर प्रेमचन्द तक मुझे बडा शक्तिशाली कद्रदान समझ बैठे। देखते ही देखते 28 किताबें खरीद डालीं और 3100 से ज्यादा रुपये खर्च हो गये।

6 फरवरी 2013, दिन बुधवार
1. जुकाम अपने चरम पर। नाक से गंगा-जमुना बहनी शुरू हो गई है। अब दिन-रात इसी में डूबे रहेंगे, महाकुम्भ अपने घर में ही।

11 फरवरी 2013, दिन सोमवार
1. शामली से ईश्वर सिंह मिलने आये। बार-बार कहते रहे कि जाटराम के दर्शन करके मैं धन्य हो गया। वैसे उनकी आयु लगभग चालीस साल से भी ज्यादा है। युवावस्था में फौज में भर्ती हुए। वहां ट्रेनिंग के दौरान वरिष्ठ अफसरों द्वारा गाली-गलौच और मारपीट से तंग आकर नौकरी छोड दी। घुमक्कडी का जबरदस्त शौक था इसलिये घर से निकल गये, साधु बन गये। भारत के कोने-कोने में घूमे, वापस घर लौटे। अब धुन है कि एक घुमक्कड शास्त्र तो राहुलजी लिख गये, दूसरा हम लिखेंगे। घुमक्कड-पुस्तकालय भी खोलेंगे। काफी देर तक बातें हुईं, अच्छा लगा।
2.गांव से पिताजी और छोटा भाई आशु दिल्ली आए। कल सुबह तीनों बाप-बेटे मथुरा जायेंगे।

12 फरवरी 2013, दिन मंगलवार
1.सुबह सात बजे दिल्ली से आगरा जाने वाली पैसेंजर पकड ली। बारह बजे तक मथुरा। बाकी यात्रा विवरण बाद में विस्तार से प्रकाशित किया जायेगा।

13 फरवरी 2013, दिन बुधवार
1.गोवर्धन परिक्रमा की। यात्रा विवरण बाद में प्रकाशित किया जायेगा। रात ग्यारह बजे तक दिल्ली वापस लौट आये।

15 फरवरी 2013, दिन शुक्रवार
1. एक वाकया फेसबुक से। आगरा से किसी प्रीति शर्मा नामक लडकी का मित्र बनने का अनुरोध आया। फोटो भी लगा रखा था, चेहरा अच्छा आकर्षणयुक्त था। मैंने तुरन्त एक क्लिक करके उसे मित्र बना लिया। चैटिंग शुरू। मैं पहले भी दो बार ऐसे मामलों में धोखा खा चुका हूं। लेकिन दोनों बार आखिरकार अपने मित्र ही निकले जो नकली लडकी बनकर मेरे ‘जज्बातों’ से आनन्द उठाते थे। इस बार भी यही सोचा कि वही मित्र हैं। लेकिन भण्डा फूटने से पहले उस लडकी के साथ भरपूर चैटिंग कर ली जाये, ऐसा मैं सोचता था। आगरा वाली लडकी ने बडे ही शालीन तरीके से चैटिंग की जिससे मुझे उसके लडकी होने पर यकीन बढने लगा। उसने मुझे आगरा आने का आमन्त्रण भी दिया। मैंने मना कर दिया तो अचानक कहा कि "तुम्हें आगरा आना ही होगा। मैं तुम्हारे बिना नहीं जी सकती।" बस, यही मेरे कान खडे हो गये। चार घण्टे मित्र बने हुए नहीं, जीने मरने की बात! मैंने उससे फोन नम्बर मांगा। उसने कहा कि पापा के पास रहता है। मैंने कहा कि मेरा नम्बर लो, फोन करो। उसने मना कर दिया कि पैसे नहीं हैं। तब मैंने कहा कि पहले खुद को लडकी सिद्ध करो, फिर बात करना। तब तक के लिये तू अपने घर, मैं अपने घर। इसका जिक्र अपने छत्तीसगढी मित्र डब्बू मिश्रा के सामने किया, उन्होंने जांच पडताल की तो बताया कि उससे तुरन्त दूर हो जाओ। वो पाकिस्तानी है। घूमने के लिहाज से आगरा आया होगा, हैकर भी हो सकता है।

चिलिंग से वापसी और लेह भ्रमण

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20 जनवरी, रविवार। मैं तिलत सुमडो की गुफा में एक बेहद सर्द रात काटकर वापस लेह के लिये चल पडा। पता था कि आज एक बजे चिलिंग से लेह जाने वाली बस मिलेगी। तीन दिन बर्फ गिरे हो चुके थे, अब यह बर्फ काफी कडी हो गई थी। ऊपर से सडक पर चलती गाडियों ने इसे और भी कडा बना दिया जिससे अब इस पर चलना पहले दिन के मुकाबले मुश्किल हो रहा था।
तीन किलोमीटर चलने के बाद सडक बनाने वालों की बस्ती आई। यहां कई कुत्ते हैं और वे रास्ते पर किसी को आते-जाते देखते ही भौंकते हैं। मैं अब से पहले तीन बार यहां से गुजर चुका था, मुझे पता चल गया था कि कालू कुत्ता भौंकने की शुरूआत करता है, बाकी कुत्ते उसके बाद ऐसे भौंकते हैं जैसे मजबूरी में भौंक रहे हों। अब कालू नहीं दिखाई दिया, बाकी सभी इधर-उधर पसरे पडे थे, भौंका कोई नहीं। थोडा आगे चलने पर कालू दिखा, देखते ही आदतन भौंका लेकिन किसी दूसरे ने उसका साथ नहीं दिया। दो तीन बार बाऊ-बाऊ करके चुप हो गया।
मेरे पास कल से ही पानी नहीं था। रात थोडी सी भुरभुरी बर्फ बोतल में भरकर स्लीपिंग बैग में रख ली तो सुबह दो घूंट पानी मिल गया लेकिन यह पर्याप्त नहीं था। सडक बनाना चूंकि सेना का काम है इसलिये एक सैनिक मिला। मैंने उससे पानी मांगा। उन्होंने अविलम्ब गर्म पानी लाकर दे दिया। यह मिट्टी के तेल के स्टोव पर गर्म हुआ था, पानी से मिट्टी के तेल के धुएं की गन्ध आ रही थी। वो केरल का रहने वाला था। मैंने पूछा कि अभी कोई ट्रक लेह जायेगा क्या। उसने बताया कि आधे घण्टे पहले गया है, अब कल जायेगा।
मैंने बताया कि मुझे चिलिंग से एक बजे वाली बस पकडनी है। बोला कि चिलिंग जाने की क्या जरुरत है। बस तो यहां काठमांडू तक आती है। चिलिंग यहां से पांच साढे पांच किलोमीटर आगे है, काठमांडू आधा किलोमीटर ही आगे है। मैंने उसे धन्यवाद दिया और काठमांडू की ओर चल पडा।
मैंने पहले भी बताया है कि जांस्कर नदी और मारखा नदी का जहां संगम है, वही जगह काठमांडू कहलाती है। कुछ मजदूरों के घर हैं और एक नेपाली दम्पत्ति की चाय-पानी की दुकान है काठमांडू में। लेकिन यह जगह मारखा घाटी के कई गांवों के लिये बडे काम की है। आज चूंकि बस आयेगी, इसलिये लोगबाग दूर दूर से यहां आ रहे हैं। तार वाले पुल से जांस्कर पार करके इस तरफ आ रहे हैं। काफी भीड हो गई है। अभी तक बस नहीं आई है। चाय भी पी ली।
बस आई। आते ही भर गई। मैंने परिस्थितियों का पूर्वानुमान लगाते हुए पहले ही अपनी पसन्दीदा सीट कब्जा ली। छत पर सामान रखकर ठीक एक बजे बस यहां से लेह के लिये चल पडी।
रास्ते में चिलिंग पडा। अन्य सवारियों के साथ अङमो भी आ गई। इन्हीं के घर पर मैं दो दिन तक रुका रहा। मेरे पास चूंकि इनका चश्मा भी था जोकि मैंने सौ रुपये में इस शर्त पर लिया था कि अगर मौका मिला तो आ जाऊंगा, चश्मा वापस करके पैसे ले लूंगा, लेकिन अगर मौका नहीं मिला तो यह चश्मा मेरा।
अब चश्मा वापस करने का मौका तो मिल गया लेकिन पैसों की बात अङमो की बडी बहन से हुई थी, इसे पैसों की बाबत कुछ भी जानकारी नहीं है, इसलिये लेह उतरते समय मैंने चश्मा अङमो को दे दिया, पैसे नहीं मांगे।
रास्ते भर बर्फ मिली। हालांकि चार पांच इंच बर्फबारी ही हुई थी, जो अब तक धीरे धीरे गलती जा रही है। पहाड श्वेताम्बर से दिगम्बर होने लगे हैं।
लद्दाख के पहाडों को न तो हरिताम्बर होना पसन्द है, न ही श्वेताम्बर होना। बस दिगम्बर बने रहना चाहते हैं।
मोमो खाने की इच्छा थी। लेह बस अड्डे पर उतरकर सबसे पहले मुख्य बाजार की तरफ चला गया। ज्यादातर दुकानें बन्द मिलीं। एक होटल खुला था जहां छोले भटूरे और समोसे वगैरह मिल रहे थे, मोमो नहीं थे उसके पास। समोसे खाकर वापस जेल की तरफ चल पडा।
23 या 24 तारीख को मेरे वापस लौटने की खबर थी सभी के पास लेकिन तीन चार दिन पहले मुझे वापस आया देखकर पूछा, जिसका जवाब मैंने यही दिया कि ठण्ड मेरी सहनशक्ति से बाहर थी, इसलिये वापस आ गया हूं।
बर्फ गिरने के बाद सर्दी और भी बढ गई थी। तापमान मापने का हमारे पास कोई तरीका नहीं था, इसलिये मैं विमान से उतरते समय माइनस दस डिग्री को एक आधार बना लेता था। उस समय अच्छी धूप निकली थी और हवा भी नहीं थी जब मैं लेह हवाई अड्डे पर उतरा था। वो तापमान सहनशक्ति के अन्दर था, बिना दस्ताने पहने आराम से बाहर घूमा जा सकता था।
जबकि अब तापमान इतना कम हो गया था कि धूप में भी बिना दस्ताने के बाहर नहीं निकला जा सकता था। माइनस पन्द्रह से कम ही रहा होगा।
मैं चूंकि जेल में था इसलिये दो-चार बातें यहां की भी बतानी जरूरी हो जाती हैं। जेल एक अत्यन्त संवेदनशील जगह होती है, इसलिये मैंने हर तरह की छूट होने के बावजूद भी इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं ली। कैदियों की बैरक सिपाहियों की बैरक से करीब सौ मीटर दूर थी। कैदियों की सुरक्षा के लिये जम्मू-कश्मीर पुलिस के साथ सीआरपीएफ के जवान थे। सुबह नौ बजे के आसपास कैदियों को बाहर निकाला जाता। कुछ छोटा मोटा काम कराया जाता खासकर लकडी की चिराई जोकि रात को जलाने के काम आती।
सीआरपीएफ की बैरक में मिट्टी के तेल के हीटर लगातार जलते रहते जिससे अन्दर का तापमान काफी बढा होता। इन्हीं हीटरों पर सब्जी गर्म करने और रोटी सेंकने का काम लिया जाता। एक लकडी का हीटर भी था जिसके लिये कोयले आते। बिजली का हीटर भी था।
बैरक की खिडकियों पर शीशे लगे थे। अन्दर काफी आदमियों के होने के कारण उनकी सांस से जो नमी निकलती, सुबह तक शीशों पर जम जाती। दोपहर तक यह नमी बर्फ के रूप में शीशों पर देखी जा सकती थी।
अगले दिन मुझे नहला दिया गया। विकास ने बाल्टी भरकर पानी गर्म कर दिया, बाथरूप में रख दिया और मुझसे नहाने का ऐलान कर दिया। उसका समर्थन बाकी सभी ने किया। नहाना पडा।
नहाने के बाद तौलिया बाहर बरामदे में टांग दिया। घण्टे भर में ही ठण्ड से यह ऐसा हो गया जैसे कि गत्ता हो। बाद में इसे अन्दर बैरक में सुखाया गया।
एक दिन भारत की क्रिकेट टीम का कोई मैच था। विरोधी टीम ने काफी रन बनाये। इस मैच को पुलिस के दो तीन कश्मीरी जवान भी देख रहे थे। ये मुसलमान थे। इधर सीआरपीएफ में सबसे वरिष्ठ मुहम्मद युसुफ थे। युसुफ ने सिपाहियों से पूछा कि बताओ, तुम्हें क्या लगता है? कौन जीतेगा? उन्होंने तपाक से कहा कि भारत हारेगा। इतना सुनते ही युसुफ उन पर उबल पडे- साले कश्मीरियों, तुम्हारे मुंह से कभी भी भारत के बारे में शुभ वचन नहीं निकल सकते। यहीं का खाते हो और यहीं का विरोध करते हो। बाकी भारत के मुसलमानों को उतना नहीं मिलता, जितना कश्मीर के मुसलमानों को लेकिन ये रहेंगे हमेशा पाकिस्तान के साथ ही। सिपाहियों ने कहा कि पाकिस्तान में हमारी कौम रहती है। वहां हमारे भाई-बन्धु रहते हैं।
मामला काफी गर्म हो गया। दो मुसलमान देश के मुद्दे पर बहस कर रहे हैं। मैं भी कुछ कहना चाहता, संकोचवश नहीं कह सका, आखिर धर्म का मामला हमारे यहां बडा प्रबल है। खैर, इसकी पूर्ति युसुफ साहब ने बखूबी की।
मैच में जब भारत की अच्छी पकड हो गई, कश्मीरी सिपाही वापस चले गये।
मेरा लेह से जेल आना जाना काफी रहा। मारुति ओमनी टैक्सी के रूप में चलती हैं, जो लोकल सवारी का भी काम करती हैं। लेह से जेल तक किराया पन्द्रह रुपये था। लेह से जब भी मुझे जेल जाना होता, मैं किसी से नहीं पूछता था, बल्कि चोगलम, चोगलम आवाज सुनकर चुपचाप टैक्सी में जा बैठता था।
एक दिन कम्बल लेने गया। टैक्सी स्टैण्ड के पास ही एक चादर बाजार है। मुझे एक दुकान पर एक मोटी पश्मीना चादर पसन्द आ गई। इसकी कीमत बताई 3500 रुपये। दूसरी चादरों की कीमतें क्रमशः 2500, 2000 और 1600 रुपये पता चली। मैंने मोलभाव करके 3500 वाली को 2000 रुपये में तय कर लिया। पैक हो जाने के बाद जब मैं पैसे देने लगा तभी दुकान पर एक लद्दाखी महिला आई। उसने 1600 वाली चादर की कीमत पूछी, दुकानदार ने बताया 480 रुपये। महिला ‘ज्यादा है’ कहकर चली गई।
बस, मेरा माथा ठनक गया। अगर वह महिला मोलभाव करती तो यह चादर जो मुझे 1600 की बताई थी, उसे 200 तक में दे दी जाती। मैंने पैक हो चुकी चादर नहीं ली। 


मारखा घाटी से आने वाले लोग जांस्कर नदी को पार कर रहे हैं। जांस्कर में बर्फ के टुकडे तैरते देखे जा सकते हैं।

मारखा घाटी से आता काफिला

लेह जाने वाली सडक


लेह जाने वाली बस



सामने मारखा और जांस्कर का संगम है।


सिन्धु और जांस्कर का संगम



लेह

लेह


चोगलमसर से लेह शहर की ओर जाने वाली रोड। दूर बर्फीली चोटियों के बीच खारदूंगला है।



यह है लद्दाख





अगले भाग में जारी...

लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान
4. जांस्कर घाटी में बर्फबारी
5. चादर ट्रेक- गुफा में एक रात
6. चिलिंग से वापसी और लेह भ्रमण

लेह पैलेस और शान्ति स्तूप

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21 जनवरी को पूरे दिन आराम करता रहा। अगले दिन यानी 22 जनवरी को लेह घूमने निकल पडा। 25 तारीख को वापसी की फ्लाइट है और मेरे पास इतने दिनों तक कुछ भी काम नहीं है। ये तीन दिन अब लेह और आसपास दस पन्द्रह किलोमीटर तक घूमने में बिताये जायेंगे।
सबसे पहले पहुंचा लेह पैलेस। इस नौ मंजिले महल का निर्माण तिब्बत में स्थित पोटाला राजमहल के अनुरूप किया गया है। नामग्याल सम्प्रदाय के संस्थापक सेवांग नामग्याल ने 1533 में इसका निर्माण शुरू किया और इनके भतीजे सेंगे नामग्याल ने इसे पूरा किया। इसमें मुख्यतः मिट्टी की ईंटों का प्रयोग हुआ है, जैसा कि लद्दाख में हर जगह होता है।
पैलेस बन्द था। मुख्य द्वार पर ताला लगा हुआ था। इसके सामने सेमो पहाडी पर एक गोनपा भी दिख रहा था। यहां से गोनपा तक जाने के लिये कच्ची पगडण्डी बनी थी, मैं इस पर चल पडा। ज्यादा चढाई नहीं थी। ऊपर गोनपा से लेह शहर का बडा भव्य नजारा दिख रहा था। कमी थी बस समय की कि सूर्य मेरे सामने था, अगर सूर्योदय का समय होता तो यहां से शहर का और भी शानदार नजारा देखने को मिलता तथा और भी शानदार फोटो आते।
मैं गोनपा के अन्दर नहीं गया। बाहर ही बाहर से कुछ फोटो खींचे और वापस चल पडा। गोनपा तक एक सडक भी आती है, जो यहीं पर खत्म हो जाती है। लद्दाख के बाकी सभी हिस्सों की तरह यहां भी तीन चार इंच बर्फ जमी पडी थी। मैं पिछले कई दिनों से बर्फ पर ही चल रहा था, इसलिये अब वैसा डर नहीं लगता था, जैसा पहले लगता था। इस सडक पर कुछ दूर चलने पर पता चला कि यह खारदुंगला वाली सडक से निकली हुई है।
खारदुंग ला- यानी भारतीय रिकार्ड के अनुसार दुनिया की सबसे ऊंची सडक- 5600 मीटर से भी ज्यादा। यह ऊंचाई ब्रिटिश समय में मापी गई थी। अब अत्याधुनिक जीपीएस यन्त्र आ गये हैं, जिनसे पता चला है कि खारदुंग ला की ऊंचाई 5300 मीटर के आसपास है और यह दुनिया की सबसे ऊंची सडक नहीं है। तिब्बत और चिली में इससे भी ऊंची सडकें हैं। इस गलत जानकारी के कारण भारत की किरकिरी तो होती ही है। अब समय है कि भारत को अपने इस ‘विलक्षण’ रिकार्ड को अपडेट कर लेना चाहिये।
जिस दिशा से मैं गोनपा तक चढा था, अब उससे विपरीत दिशा में नीचे उतरा। यह पगडण्डी पहाडी के उत्तर दिशा में है और इस कारण इधर बर्फ काफी है। जल्दी ही नीचे उतरकर मैं एक सडक पर पहुंचा।
ऊपर पहाडी से दूर एक और गोनपा दिख रहा था। वो शान्ति स्तूप है। मैं इसी दिशा के अनुसार चल पडा। सडक पर जगह जगह पानी जमा हुआ था जिससे भयानक फिसलन बन गई थी। रास्ते में दो तीन छोटे छोटे तालाब भी मिले जो पूरी तरह जमे थे। एक तालाब पर बच्चे आइस हॉकी खेल रहे थे।
ढलानदार सडक पर जहां भी जमी बर्फ मिलती, मेरा हलक सूख जाता। फिसलने का डर था, हालांकि अति सावधानी के कारण कहीं फिसला नहीं।
शान्ति स्तूप का निर्माण जापानियों ने कराया है। जापान में बौद्ध धर्म है और वे भारत को बुद्ध भूमि होने के कारण काफी पवित्र मानते हैं। भारत और नेपाल में उन्होंने कई स्थानों पर इस तरह के शान्ति स्तूपों का निर्माण कराया। मैंने एक शान्ति स्तूप नेपाल के पोखरा मेंभी देखा था।
स्तूप तक पहुंचने के लिये वैसे तो सडक भी बनी है लेकिन पैदल मार्ग से जाने पर साढे पांच सौ सीढियां चढनी होती हैं। स्तूप 4000 मीटर से भी ज्यादा ऊंचाई पर है। मैं आज पांचवीं बार 4000 मीटर से ऊपर चढा हूं। इससे पहले अमरनाथ, श्रीखण्ड महादेव, तपोवनऔर रूपकुण्डकी यात्रा में इस लेवल को पार कर चुका हूं।
यहां से लेह और इसके आसपास का दृश्य और भी शानदार दिखता है। सूर्य पश्चिमांचल होने जा रहा था। दूर उत्तर दिशा में सफेदी ओढे पहाड नजर आ रहे थे। अचानक ध्यान आया कि वहीं पर खारदुंग ला है। मैं गूगल मैप और गूगल अर्थ पर नक्शे देखता रहता हूं, इसलिये मुझे पता है कि वहीं पर खारदुंग ला है। और गौर से देखा तो सफेदी के बीच टेढी मेढी जाती सडक भी दिख गई। यहीं से अनुमान लगाया कि खारदुंग ला खुला है। बाद में यह अनुमान सही निकला।
जब तक शान्ति स्तूप से नीचे उतरकर लेह के मुख्य बाजार में आया, तो छह बज चुके थे और अन्धेरा होने लगा था। आज मोमो की एक दुकान मिल गई। साढे छह के बाद जब जेल पहुंचा तो सर्दी सहनशक्ति से बाहर हो चुकी थी।
एक बात मन को कचोटने लगी। मैं परसों से यहां खाली पडा हूं। कल तो जेल से बाहर भी नहीं निकला। जेल से खारदुंग ला बिल्कुल स्पष्ट दिखता है। फिर क्यों ध्यान नहीं आया कि यह खारदुंगला है? मैं कल अगर परमिट ले लेता तो आज खारदुंगला पार करके दो दिनों के लिये नुब्रा घाटी जा सकता था जहां दो कूबड वाले ऊंट मिलते हैं। कल 23 तारीख की दोपहर तक परमिट मिलेगा, 24 को केवल खारदुंगला तक ही जाया जा सकता है।
इतना भी काफी है। कल खारदुंगला जाने का परमिट लूंगा और पता करूंगा कि सुबह कितने बजे वहां के लिये बस जायेगी।

लेह पैलेस

दरवाजे पर ताला लगा है।



लेह पैलेस के सामने ऊपर एक गोनपा- केसल सेमो

केसल सेमो से दिखता लेह शहर







खारदुंगला रोड पर दौडता ट्रक

चलो, यहां से नीचे उतरते हैं। पहले मैं इस तरह बर्फ पर चलने में बेहद डरता था लेकिन लद्दाख ने मुझे बर्फ पर चलना सिखा दिया।

ऊपर दाहिने कोने में केसल सेमो दिख रहा है। मैं वहीं से आया हूं।


शान्ति स्तूप


शान्ति स्तूप से दिखता खारदुंग ला। वहां जाती सडक भी दिख रही है।

शान्ति स्तूप से दिखता लेह पैलेस और केसल सेमो।



शान्ति स्तूप से लेह शहर का सायंकालीन दृश्य।

सूखे पेड ऐसे लग रहे हैं जैसे बडे पैमाने पर निर्माण कार्य चल रहा है।

बुरी तरह जमी बर्फ।



लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान
4. जांस्कर घाटी में बर्फबारी
5. चादर ट्रेक- गुफा में एक रात
6. चिलिंग से वापसी और लेह भ्रमण
7. लेह पैलेस और शान्ति स्तूप
8. खारदुंगला का परमिट और शे गोनपा


खारदुंगला का परमिट और शे गोनपा

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23 जनवरी 2013, मैंने खारदुंगला जाने की इच्छा साथियों से बताई। सुनते ही युसुफ साहब ने कहा कि परमिट की चिन्ता मत करो। तुम्हें सीआरपीएफ की तरफ से परमिट दिला देंगे। जल्दी मिल जायेगा और कोई कागज-पत्र भी नहीं चाहिये। हालांकि बाद में सीआरपीएफ की तरफ से परमिट नहीं बन सका। अब मुझे खुद जिला कमिश्नर के कार्यालय से परमिट बनवाना था।
विकास के साथ परेड वाली बस में बैठकर परेड ग्राउंड पहुंचा। यहां 26 जनवरी के मद्देनजर रोज दो-दो तीन-तीन घण्टे की परेड हो रही थी। परेड में सेना, भारत तिब्बत पुलिस, सीआरपीएफ, राज्य पुलिस, एनसीसी आदि थे। परेड मैदान के बगल में जिला कमिश्नर का कार्यालय है। मुख्य प्रवेश द्वार से अन्दर घुसते ही बायें हाथ एक ऑफिस है। यहां से खारदुंगला का परमिट बनता है। उन्होंने मुझसे कहा कि बाहर जाकर किसी भी फोटो-स्टेट वाली दुकान से दो इंडिया फार्म खरीदकर लाओ। साथ ही अपने पहचान पत्र की छायाप्रति भी।
काफी दूर जाकर एक फोटोस्टेट वाली दुकान मिली। आसानी से इंडिया फार्म मिल गया। पहचान पत्र की छायाप्रति करके वापस डीसी ऑफिस पहुंचा। बोले कि एक प्रार्थना पत्र लिखो कि खारदुंगला जाना है। इधर मैंने प्रार्थना पत्र लिखा, उधर इंडिया फार्म पर मोहर और हस्ताक्षर हो गये। परमिट तैयार। कल यानी 24 जनवरी को वहां जाऊंगा। 
नीचे बस अड्डे पर पहुंचा। इरादा था आज शे और ठिक्से गोनपा देखने का। जाते ही शे की बस मिल गई। बीस रुपये लगे शे जाने में। बस जेल के सामने से ही निकलकर गई।
शे गोनपा में आज पूजा चल रही थी। काफी लोग थे और मेले का माहौल था। गोनपा के सामने पंडाल लगा था और लोगबाग बैठे थे। लद्दाखी भाषा में धर्मगुरू प्रवचन कर रहे थे।
मुझे पता था कि शे गोनपा में बुद्ध की बडी विशाल मूर्ति है। इसे देखने की इच्छा थी। एक से इस बारे में पूछा तो पता चला कि वह मूर्ति पुराने गोनपा में है, यहां पर नहीं है। पुराना गोनपा यहां से करीब एक किलोमीटर दूर है।
पैदल एक किलोमीटर गया। रास्ता ढलान वाला था, लेह जाने वाली सडक पर ही चलते जाना था। शे पैलेस का एक सूचना पट्ट मिला। इसे सन 1650 के आसपास देल्दन नामग्याल ने बनवाया था। यहीं पहाडी पर शाक्यमुनि बुद्ध की तीन मंजिली ऊंची प्रतिमा है।
राजमहल के अन्दर से होता हुआ मैं पहले इस पहाडी के शीर्ष पर पहुंचा। जाकर पता चला कि शीर्ष पर नीचे से जो झंडियां आदि दिख रही थीं, वे यहां से अलग हटकर हैं। वहां जाने के लिये पहले नीचे महल तक उतरना पडेगा, फिर दूसरी दिशा में पुनः चढना पडेगा।
बुद्ध मूर्ति देखने की चाहत थी, इसलिये ऐसा करना पडा। राजमहल के पीछे से रास्ता जाता दिखा। आदमजात कोई नहीं मिली। सब के सब एक किलोमीटर दूर वाले गोनपा में पूजा में भाग ले रहे थे।
कुछ खण्डहर मिले। इनकी दीवारें मिट्टी की ईंटों की थी- कच्ची ईंटें। लद्दाख में चूंकि बारिश नाममात्र की होती है, इसलिये मिट्टी के घर कामयाब रहते हैं।
बर्फ ने कभी भी पीछा नहीं छोडा। यहां भी बर्फ की वजह से एक स्थान से आगे बढना मेरे लिये असम्भव हो गया। वापस नीचे उतर आया। बर्फ पर कुछ ही पैरों की निशान पडे थे जबकि बर्फ पडे चार दिन हो चुके थे। इसका अर्थ था कि अब इस स्थान को त्याग दिया गया है। कोई नहीं आता यहां।
वापस नीचे राजमहल में उतरा। सोचा कि शे की प्रसिद्धि तीन मंजिली ऊंची बुद्ध प्रतिमा के कारण है, वह बुद्ध प्रतिमा वहां ऊपर हो सकती है, जहां तक मैं नहीं पहुंच सका। नीचे से देखने पर बुद्ध प्रतिमा तो नहीं दिखाई पडी, लेकिन इतना अनुमान अवश्य हो रहा था कि वहां ऊपर कोई छत आदि नहीं है।
तो क्या प्रतिमा खुले में है?
या फिर राजमहल में है?
राजमहल में भी कोई नहीं था। ज्यादा बडा भी नहीं था। जांच पडताल की तो पता चला कि एक कमरा बन्द है। इसमें कई तालें और मोहर लगी हैं। यह कमरा काफी ऊंचा मालूम हुआ। हो सकता है कि बुद्ध प्रतिमा इसी के अन्दर हो। लेकिन मुझे नहीं लगता कि राजमहल के अन्दर प्रतिमा होगी।
मैंने लगभग दो घण्टे यहां बिताये। इस दौरान कोई नहीं आया। एकाध आदमी नीचे सडक के पास जरूर खडा दिखाई पडा। निराश होकर मैं भी सडक पर पहुंचा और ठिक्से जाने के लिये बस की प्रतीक्षा करने लगा।
शे महोत्सव की वजह से शे से आगे जाने के लिये कोई गाडी नहीं मिली। आखिरकार आधे घण्टे बाद वापस लेह की टैक्सी पकडी और जेल में पहुंच गया।


प्रवचन करते धर्मगुरू












शे पैलेस

वहां तक मैं नहीं पहुंच सका।

शे पैलेस से दिखता नजारा

शे पैलेस से दिखता मेले वाला स्थान

शे पैलेस से कुछ ऊपर पहाडी पर खण्डहर

शे से ठिक्से करीब पांच किलोमीटर दूर है। शायद यह ठिक्से गोनपा है, जो शे पैलेस से दिख रहा था।




अगले भाग में जारी...

लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान
4. जांस्कर घाटी में बर्फबारी
5. चादर ट्रेक- गुफा में एक रात
6. चिलिंग से वापसी और लेह भ्रमण
7. लेह पैलेस और शान्ति स्तूप
8. खारदुंगला का परमिट और शे गोनपा

लेह में परेड और युद्ध संग्रहालय

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आज मुझे खारदुंगला जाना था। कोई और दिन होता तो मैं नौ दस बजे सोकर उठता लेकिन आज सात बजे ही उठ गया। आज का पूरा दिन खारदुंगला को समर्पित था। सोच रखा था कि हर हाल में वहां तक जाना है और टैक्सी भी नहीं करनी है। बस मिलेगी तो ठीक है, नहीं तो कुछ आगे जाकर किसी ट्रक में बैठ जाऊंगा। ट्रक इस सडक पर चलते रहते हैं। परमिट था ही मेरे पास।
आज परेड मैदान पर गणतन्त्र दिवस परेड का रिहर्सल भी होना था। मेरे सीआरपीएफ वाले सभी साथी परेड के लिये तैयार हो रहे थे। विकास ने विशेष प्रार्थना की कि लेह में गणतन्त्र दिवस देखने को तो नहीं मिलेगा, लेकिन रिहर्सल जरूर देखना। रिहर्सल दस बजे के बाद होना था। मैंने ग्यारह बजे तक लेह में रुकने में आपत्ति की कि जल्दी से जल्दी खारदुंगला जाना है, लेकिन विकास ने अपने कुछ तर्क लगाकर मुझे रुकने पर बाध्य कर दिया।
कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें हम अपना सबकुछ समर्पित कर सकते हैं। हमारे जीवन निर्माण में इन लोगों का बहुत बडा हाथ होता है। लेकिन जब ये ही लोग हम पर अविश्वास करने लगते हैं तो बडा दुख होता है। इसी तरह का एक दुख मुझ पर भी आ पडा। जिन्हें मैं अपना सबकुछ समर्पित कर रहा हूं, उनके लिये कुछ भी कर सकता हूं, वही मुझ पर अविश्वास करने लगे। एक मित्र ने फोन करके मुझे सारी बात बताई। इस वाकये को कभी उपयुक्त समय आने पर विस्तार से बताऊंगा।
इसका नतीजा यह हुआ कि मन बहुत भारी हो गया। कहां तो खारदूंगला जाने की उत्सुकता और खुशी थी, कहां अब सब उदासी में परिवर्तित हो गया। खारदूंगला जाने की अब कोई खुशी नहीं बची।
परेड मैदान पहुंचा। चारों तरफ काफी दर्शक थे। धूप होने के बावजूद भी ठण्ड चरम पर थी। हाथों से दस्ताने नहीं उतारे जा सकते थे।
परेड में स्कूली बच्चे, स्काउट, गाइड, एनसीसी कैडेट, राज्य पुलिस, आईटीबीपी, सीआरपीएफ, बीएसएफ, सेना के अलावा लामा भी थे। सभी का अनुशासित तरीके से पैदल मार्च अच्छा लगा। सलामी के लिये शायद कमिश्नर आये हुए थे। कौन सा दूर से आना था! जिला कमिश्नर कार्यालय के सामने ही परेड मैदान है।
परेड खत्म होने तक ग्यारह बज चुके थे। मैं वैसे तो अभी भी खारदूंगला जा सकता था लेकिन मन बेहद उदास था। इच्छा थी कि कहीं एकान्त में धूप में दो तीन घण्टे बैठा रहूं। इसके लिये पिटुक गोनपा एक उपयुक्त स्थान था। पिटुक को अंग्रेजी में स्पिटुक (Spituk) कहते हैं। टैक्सी स्टैंड से एयरपोर्ट की तरफ जाने वाली टैक्सी पकडी और पिटुक के लिये चल दिया।
संयोग से यह वही टैक्सी थी जिससे मैं कुछ दिन पहले चिलिंग गया था। ड्राइवर इब्राहिम था। हालचाल के अलावा हममें कोई और बात नहीं हुई। गौरतलब है कि तब चिलिंग पहुंचने पर उसने मुझसे चौबीस सौ रुपये मांगे थे लेकिन मैंने बारह सौ में ही उसे चलता कर दिया था।
एयरपोर्ट से कुछ आगे कैंटीन है। ड्राइवर ने यही से टैक्सी वापस मोड ली कि आगे नहीं जाऊंगा। मैं पैदल चल पडा। करीब एक किलोमीटर आगे युद्ध संग्रहालय है। प्रवेश शुल्क दस रुपये है और फोटो खींचने का शुल्क पचास रुपये। मैंने साठ रुपये देकर पर्ची ले ली।
दो कमरों में लद्दाख के बारे में काफी जानकारी थी। लद्दाख की विभिन्न जातियों की वेशभूषा, जंगली जानवर, पेड पौधे, विभिन्न मोनेस्ट्री- यथा हेमिस, फ्यांग, ठिक्से, लिकिर, लामायुरु, पिटुक आदि के बारे में सामान्य जानकारी दी गई थी।
बाकी के हिस्से में लद्दाख के इतिहास, सैनिक जानकारी, हथियार आदि का काफी अच्छा संग्रह है। कारगिल युद्ध के समय प्रसिद्ध हुई चोटियों जैसे तोलोलिंग, टाइगर हिल आदि की भौगोलिक स्थिति दर्शाता नक्शा भी है।
सियाचिन गैलरी में सियाचिन ग्लेशियर से सम्बन्धित हर जानकारी है। इसमें सैनिकों की वेशभूषा, खानपान, रहन सहन, मानचित्र, उपकरण और चित्र संग्रह है।
युद्ध और गश्त के दौरान पाकिस्तानी सेना से मुठभेड होती रहती है। इसमें पाकिस्तानियों की डायरी और पत्र आदि भी मिलते हैं। अल्लाह से एक प्रार्थना भी की गई है-
“बिस्मिल्लाह रहमाने रहीम
दुआये दुश्मन के मिसाइल, रॉकेट, बम्ब, गोला और हर किस्म के हथियार को रफासुत हाफिज रहे।
या अल्लाह ताला बलाल ओ पी में 100 साल के लिये दुश्मन के हथियार से हाफिज रखें, आमीन।
या अल्लाह मदद... या अल्लाह मदद... या अल्लाह मदद... या अल्लाह मदद...
या अल्ला ताला खैर करे...
या वक्त के इमाम नूरे मौला साये करम सौ साल के लिये बलाल ओ पी में हर दुश्मन के हथियार से हाफिज रखे।
या अल्लाह ताला हम सब तेरे निगाह में हैं हमें अपना अपना मिले।
बलाल ओ पी दुश्मन के हर हथियार से हमें हाफिज रखे, आमीन सुम्मा अली।”
बलाल ओपी एक सैनिक बस्ती है।
इनके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण जानकारी है, वो है जनरल जोरावर सिंह के लद्दाख अभियानों का विस्तृत विवरण। कश्मीर के राजा गुलाब सिंह की सेना में जोरावर सिंह थे। सन 1835 के आरम्भ मे जोरावर सिंह ने पहला लद्दाखी अभियान किया। यह अभियान श्रीनगर, कारगिल के रास्ते किया गया था। इसी साल नवम्बर में दूसरा अभियान किया गया जो किश्तवाड से जांस्कर के रास्ते किया गया। इसी रास्ते नवम्बर 1837 और मई 1839 में जोरावर सिंह तीसरी और चौथी बार लद्दाख जा धमका। तभी से लद्दाख भारत का अंग हो गया।
पूर्वी लद्दाख में 1962 में चीनी आक्रमण का काफी वर्णन भी यहां है। पता चला कि जिस तरह नेफा में चीनी सेना गुवाहाटी तक पहुंच गई थी, ऐसा लद्दाख में नहीं हुआ। फिर भी चीन काफी बडे भारतीय भू-भाग पर कब्जा करने में सफल हो गया।
संग्रहालय से निकलकर मैं पिटुक के लिये चल पडा।

जेल की बैरक में

विकास- परेड के लिये तैयार

परेड स्थल

परेड स्थल

निरीक्षण





दूर शान्ति स्तूप दिख रहा है।

संग्रहालय में लद्दाख की एक जाति की वेशभूषा- यह जाति धा और हनु गांवों में रहती है। यह शुद्ध आर्य रक्त वाली जाति है।


सियाचिन में तैनात सैनिकों की वेशभूषा





एक पाकिस्तानी सैनिक की पे बुक और पहचान पत्र

एक पाकिस्तानी द्वारा अल्लाह से की गई सलामती की प्रार्थना



शक्तिशाली जाट


संग्रहालय का प्रवेश द्वार



अगले भाग में जारी...

लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान
4. जांस्कर घाटी में बर्फबारी
5. चादर ट्रेक- गुफा में एक रात
6. चिलिंग से वापसी और लेह भ्रमण
7. लेह पैलेस और शान्ति स्तूप
8. खारदुंगला का परमिट और शे गोनपा
9. लेह में परेड और युद्ध संग्रहालय

डायरी के पन्ने- मार्च 2013- प्रथम

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[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली और सोलह तारीख को छपते हैं।]
16 फरवरी 2013
1.दिन की शुरूआत बडी ही भयंकर हुई। सुबह साढे पांच बजे उठना पड गया। आज प्रातःकालीन ड्यूटी थी- सुबह छह से दोपहर दो बजे तक। मैं इस ड्यूटी को  बिल्कुल भी पसन्द नहीं करता हूं केवल जल्दी उठने की वजह से। जब भी मेरी यह ड्यूटी होती है तो मैं किसी से बदल लेता हूं। फिर मुझे या तो सायंकालीन ड्यूटी करनी पडती है या फिर रात्रि सेवा। लगातार सायंकालीन और रात्रि सेवा करते रहने की वजह से आदत भी पड गई कि ड्यूटी से आते ही सोना है। यही आदत सुबह वाली ड्यूटी में भी बरकरार रहती है। दो बजे जैसे ही घर आया, खाना खाकर सो गया। सात बजे शाम को उठा।
2.अपने एक मित्र हैं विपिन तोमर। ऑफिस में साथ ही काम करते हैं और वे मेरे सीनियर हैं। पिछले दिनों उन्होंने मुझसे पूछा कि मई में केरल जाने के बारे में बताओ। मैंने कहा कि अगर समय निकाल सकते हो तो फरवरी या मार्च में ही चले जाओ, मई में वहां जाना बडा मुश्किल हो सकता है- गर्मी और उमस के कारण। बोले कि बच्चे की छुट्टियों की वजह से मई से पहले नहीं जा सकते। मैंने कहा कि अभी फरवरी चल रही है, ट्रेनों में चार महीने पहले बुकिंग शुरू हो जाती है। इसलिये आपको मई में किसी भी ट्रेन में केरल जाने की सीटें नहीं मिल सकतीं। बोले कि इतने दिन पहले? हां, क्योंकि मई और जून के दो महीनों में सभी लोग बाहर निकलते हैं और सरकारी नौकरी वाले ज्यादातर लोग दक्षिण की तरफ ही भागते हैं। ट्रेनों में सीटों की उपलब्धता देखी तो वही हुआ जो मैंने कहा था- तिरुवनन्तपुरम जाने वाली किसी भी ट्रेन में सीट खाली नहीं थी। वे चूंकि सरकारी खर्चे से जाना चाहते हैं तो राजधानी से ही जाना और आना पसन्द कर रहे थे। जून का भी धीरे धीरे रोजाना एक एक दिन निकल रहा है, तो उन्हें सलाह दी कि जून में हो सकता है। जल्दी योजना बना लो, देर मत करो।
आज फिर उन्होंने कहा कि केरल जाने के लिये मार्च में ट्रेनें देखो। मैंने देखा तो पाया कि जाने के लिये राजधानी में मार्च के आखिर में सीटें खाली हैं लेकिन आने के लिये कोई विकल्प नहीं है सिवाय दूसरी ट्रेनों में नॉन-एसी स्लीपर सीटों के। वे थर्ड एसी के अलावा कोई दूसरी श्रेणी लेना भी नहीं चाहते। बात भी ठीक है, जब सरकार थर्ड एसी का किराया दे रही है, तो क्यों स्लीपर में यात्रा करें? और खोजबीन की तो एर्नाकुलम से आने वाली दूरन्तो एक्सप्रेस में काफी सीटें खाली मिल गईं। अब देखना है कि वे आरक्षण कराते हैं या सोचते ही रह जाते हैं।

18 फरवरी 2013, दिन सोमवार
तीन दिनी रेल यात्रा शुरू। सराय रोहिल्ला से अहमदाबाद तक पोरबन्दर एक्सप्रेस से गया। विस्तृत विवरण बाद में।

19 फरवरी 2013, दिन मंगलवार
अहमदाबाद से उदयपुर सिटी तक मीटर गेज ट्रेन से यात्रा। साथ में कुचामन से नटवर लाल और जोधपुर से प्रशान्त। उदयपुर से रात को ट्रेन पकडकर रतलाम चले गये। विस्तृत विवरण बाद में।

20 फरवरी 2013, दिन बुधवार
रतलाम से चित्तौडगढ होते हुए कोटा तक पैसेंजर ट्रेन यात्रा। नटवर ने कोटा- जयपुर पैसेंजर पकड ली, मैंने मेवाड एक्सप्रेस और प्रशान्त ने आधी रात के बाद ढाई बजे भोपाल- जोधपुर पैसेंजर। विस्तृत विवरण बाद में।

21 फरवरी 2013, दिन गुरूवार
राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी जीवन यात्रा भाग-3’ प्रगति पर। रूस से 17 अगस्त 1947 को लौटा और देश की तत्कालीन राजनीतिक स्थिति का विस्तृत वर्णन। मुझे एक बात पहली बार पता चली कि हैदराबाद के निजाम ने पाकिस्तान में सम्मिलित होने की सहमति दी थी। हिन्दुस्तान- पाकिस्तान का बंटवारा हो जाने पर पाकिस्तान के हिन्दू भारत आने लगे और भारत के मुसलमान पाकिस्तान जाने लगे। चूंकि हैदराबाद की सहमति पाकिस्तान की तरफ थी, इसलिये मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र से मुसलमान हैदराबाद जाने लगे, यूपी बिहार के मुसलमान वर्तमान पाकिस्तान चले गये।

22 फरवरी 2013, दिन शुक्रवार
1.रात तीन बजे तक जागने के कारण दोपहर को आंख खुली। उठते ही सायंकालीन ड्यूटी चला गया।
2.विपिन की केरल यात्रा के लिये आरक्षण करा दिया। लेकिन एक पंगा हो गया कि भुगतान के दौरान कुछ समय के लिये नेट कनेक्शन कट गया जिससे बैंक से पैसे तो कट गये लेकिन रेलवे तक नहीं पहुंचे। विपिन चिन्तित है, बात लाजिमी है।
3.कबूतरी का कपोतलाल सप्ताह भर का हो गया है। खिडकी के शीशे पर हाथ लगाते ही कबूतरी झपट पडती है।


23 फरवरी 2013, दिन शनिवार
1.छत्तीसगढ यात्रा के लिये दो दिन पहले दी गई छुट्टी की अर्जी मान्य हो गई है। यात्रा 26 फरवरी से 2 मार्च तक होगी।
2.कभी कभी बडी अजीब सी घटनाएं घट जाती हैं। घर पर मैं अकेला था। रात जैसे ही सोने के लिये लेटा, मिनट भर के अन्दर नींद ने शरीर पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया। तभी अचानक एक आवाज आई- नीरज। मैं तब तक सोया नहीं था, लगभग अच्छी तरह जगा था, आवाज बिल्कुल स्पष्ट थी। यह माताजी की आवाज थी। लग रहा था कि उन्होंने कुछ खाते हुए आवाज लगाई हो।
यह सुनकर ना तो उठकर कहीं जाने की जरुरत थी, ना हनुमान चालीसा पढने की और ना डरने, हैरान परेशान होने की। मैं निश्चल पडा रहा। हां, नींद जरूर भाग गई।
मिनट भर में पुनः वही स्थिति बनी, पुनः आवाज आई। इस बार साफ गले की आवाज थी, खाते हुए गले की नहीं। इस बार नींद नहीं भागी और मैं आठ घण्टे के लिये निद्रा लोक में चला गया।
गौरतलब है कि माताजी दो महीने पहले ही स्वर्गवासिनी हुई हैं।

24 फरवरी 2013, दिन रविवार
1.राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी जीवन यात्रा भाग-3’ का अध्ययन जारी। आजादी के बाद राजाओं पर विलय के लिये दबाव। इन्दौर व मारवाड के राजा विलय के लिये आनाकानी कर रहे हैं। उधर मेवाड के राजा ने सर्वप्रथम भारत में विलय होकर अपना कद बढा दिया।
2.शाकुम्भरी देवी- यानी शाक सब्जी देने वाली। यह एक आम मान्यता है जबकि यह नाम शाक सब्जी से नहीं उपजा बल्कि शक जाति से सम्बन्धित है। शाकुम्भरी यानी शकों का भरण करने वाली।

25 फरवरी 2013, दिन सोमवार
1.कल छत्तीसगढ के लिये निकल पडना है। सिर के बाल बहुत बडे हो गये हैं। लेकिन आलस इतना भर गया है कि कटाने की फुरसत ही नहीं। छत्तीसगढ से वापस लौटकर कोशिश करूंगा।

26 फरवरी 2013, दिन मंगलवार
1. पता चला कि 17 सितम्बर 1948 को हैदराबाद ने सैनिक कारवाही के बाद अधीनता स्वीकार कर ली। अच्छा हुआ कि मामला संयुक्त राष्ट्र में नहीं पहुंचा, नहीं तो भारत के पेट में रोज कश्मीर वाला कांड हुआ करता।
2.मार्च आने वाला है, फिर भी दिल्ली में जनवरी वाले कपडे पहनने पड रहे हैं। रात तापमान ग्यारह डिग्री तक पहुंच गया था। बढिया है, गर्मी से ठण्ड भली। ठण्ड से बचाव हो जाता है, लेकिन गर्मी से बचाव भारी भी पडता है और अगर बचाव ना हो तब भी भारी पडता है।
3.छत्तीसगढ यात्रा शुरू। तीन मार्च की सुबह तक दिल्ली लौटूंगा। विस्तृत विवरण बाद में।

27 फरवरी 2013, दिन बुधवार
1.सुबह आठ बजे दुर्ग आगमन। राजेश तिवारी जी के साथ मोटरसाइकिल से डोंगरगढ भ्रमण। यात्रा विवरण बाद में।

पिटुक गोनपा (स्पिटुक गोनपा)

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युद्ध संग्रहालय से पिटुक गोनपा करीब दो किलोमीटर कारगिल रोड पर है। मैं पैदल ही चलता चलता पहुंच गया।
पहले भी कह चुका हूं कि मन बुरी तरह उदास था, मैं किसी एकान्त धूपदार स्थान पर घण्टे भर के लिये बैठना चाहता था। पिटुक के पास इसी पहाडी पर एक छोटा सा मैदान है जिसके एक सिरे पर बुद्ध मूर्ति है। मैं वहां चला गया। अभी भी हर जगह बर्फ थी लेकिन पिछले कई दिनों से लगातार अच्छी धूप निकलने के कारण यह कितने ही स्थानों से पिघल चुकी थी। मैदान तक जाने वाली सीढियों में अन्तिम कुछ सीढियां बर्फरहित थी। यह स्थान मुझे बैठने के लिये उपयुक्त लगा।
घण्टे भर तक बैठा रहा, साथ कुछ किशमिश लाया था, खाता रहा। हवाई पट्टी यहां से नातिदूर है। इस दौरान वायुसेना का एक विमान भी उतरा।
घण्टे भर बाद यहां से निकलकर पिटुक गोनपा में चला गया। कोई नहीं दिखा। कुछ देर बाद एक स्थानीय परिवार भी गोनपा देखने आया। मैं उनके पीछे पीछे हो लिया। इससे पहले मुझे डर था कि कोई लामा मुझे या मेरे जूतों को देखकर भगा ना दे, लेकिन इनके पीछे पीछे लगे रहने से यह चिन्ता दूर हो गई। ये लोग मन्त्रों से भरे पहियों यानी मानी को घुमाते हुए चल रहे थे। मेरी इनमें कोई श्रद्धा नहीं थी।
यह गेलुक्पा सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और इसकी स्थापना ग्यारहवीं शताब्दी में हुई थी। यह काफी विशाल है और इसमें मुख्य प्रतिमा भगवान बुद्ध की है। प्रतिमा इस समय एक कमरे में ताले में बन्द थी। कमरे के बाहर सोयाबीन के तेल की बोतलें काफी मात्रा में थी। गोनपा में सोयाबीन का तेल चढाया जाता है।
इस पहाडी के सर्वोच्च स्थान पर भी कुछ बना है। हिन्दू इसे काली माता का मन्दिर कहते हैं जबकि मुझे वहां जाने पर कहीं भी हिन्दुत्व के लक्षण नहीं दिखे। सोयाबीन की बोतलों का यहां भी विशाल संग्रह है। सोयाबीन के बीच में एकाध सरसों के तेल की शीशी भी थी। अन्दर कोल्ड ड्रिंक से लेकर अंग्रेजी दारू तक की बोतलें मैंने यहां देखीं। दारू शायद काली के लिये थी। सिद्ध हो गया कि यह काली मन्दिर भी है।
केवल काली मन्दिर के अन्दर फोटो खींचने की मनाही थी। पुजारी, जिसे लामा भी कह सकते हैं, ने मुझे देखकर चार दाने चिबोनी के दे दिये और बडी अजीब सी शक्ल बना ली। इशारा काफी था। मैंने एक रुपया निकालने के चक्कर में जेब में हाथ डाला और पांच का सिक्का निकल गया। काली दरबार में पांच रुपये जमा करने पडे।
वापस मेन रोड पर आया। टैक्सी पकडी और दस रुपये में मेन चौक पर, यहां से सडक पार करके चोगलमसर वाली टैक्सी ली और जेल तक जाने के पन्द्रह रुपये और लगे।
दिल्ली से चलने से पहले मुम्बई से एक फोन आया था कि लेह से सिन्धु जल लेकर आना है। अभी मेरे पास काफी समय था, कल फ्लाइट वैसे तो ग्यारह बजे के बाद है लेकिन पता नहीं समय मिल सके या नहीं। इसलिये यह कर्तव्य आज ही पूरा करना था। जिस बोतल को मैं दिल्ली से अब तक पानी पीने के लिये प्रयोग कर रहा था, उसी बोतल को लेकर पुनः सिन्धु घाट पहुंचा। बोतल भरने में पसीने छूट गये।
पिछले चार दिनों से मैं लेह में ही घूम रहा था, अब बोरियत होने लगी थी। रोजाना वही दिनचर्या, वही नजारे...
कल सुबह यात्रा समाप्त करके दिल्ली के लिये उड जाना है।

सामने पहाडी पर पिटुक गोनपा है।






लेह हवाई पट्टी

पिटुक गोनपा का प्रवेश द्वार



गोनपा के अन्दर


इसी में बुद्ध प्रतिमा है और ताला बन्द है।




सोयाबीन के तेल की शीशियां

काली माता मन्दिर से दिखता पिटुक गोनपा




यह मन्त्रों वाली मानी है। इस पर ‘ॐ मणि पद्मे हुं’ स्पष्ट पढा जा सकता है।
अगले भाग में जारी...

लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान
4. जांस्कर घाटी में बर्फबारी
5. चादर ट्रेक- गुफा में एक रात
6. चिलिंग से वापसी और लेह भ्रमण
7. लेह पैलेस और शान्ति स्तूप
8. खारदुंगला का परमिट और शे गोनपा
9. लेह में परेड और युद्ध संग्रहालय
10. पिटुक गोनपा (स्पिटुक गोनपा)
11. लेह से दिल्ली हवाई यात्रा (6 मार्च)

लेह से दिल्ली हवाई यात्रा

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25 जनवरी 2013 की सुबह थी। आज मुझे दिल्ली के लिये उड जाना है। सीआरपीएफ के कुछ मित्र भी आज दिल्ली जायेंगे। उन्हें सरकार की तरफ से वारंट मिलता है जो जम्मू के लिये ही मान्य होता है। उन्हें चूंकि दिल्ली जाना है, इसलिये वे जोड-तोड करने जल्दी ही विमानपत्तन चले गये। बाद में पता चला कि उनका जोड तोड सही नहीं बैठा और उन्हें जम्मू वाली उडान पकडनी पडी।
सवा ग्यारह बजे उडान का समय है। मैं नौ बजे ही पहुंच गया। पहचान पत्र दिखाकर पत्तन के अन्दर घुसा तो देखा कि काफी लम्बी पंक्ति बनी हुई है। मैं समझ गया कि ये सभी दिल्ली वाली उडान के यात्री हैं। एक कोने में बिजली वाला हीटर चल रहा था और दूसरी तरफ एक बडे से ब्लॉअर से गर्म हवा आ रही थी। मैं और कुछ यात्री ब्लॉअर के पास खडे हो गये।
जब मैं दिल्ली से यहां आया था तो अनुभव के अभाव में खिडकी वाली सीट नहीं ले पाया था। अब पूरी कोशिश रहेगी कि खिडकी वाली सीट ले लूं।
साढे दस बजे जब प्रतीक्षा कक्ष से और आगे जाने की अनुमति मिली, तब तक लाइन और भी लम्बी हो गई थी। अगर मैं नियमों के अनुसार सबसे पीछे जा लगता, तो पसन्दीदा सीट मिलने का सवाल ही खत्म हो जाता। भारतीय रेल का यात्री होने का फायदा यहां मिला, अपने साथ दो तीन यात्री और ले लिये तथा एक जबरदस्त लाइन-तोड कर दिया। पांच छह लोगों को लाइन तोडते देखकर जब तक हल्ला मचता, तब तक मैं अन्दर दाखिल हो चुका था।
दिल्ली से आते समय बैग को हैंड बैग की श्रेणी में रखकर अपने साथ लाने की अनुमति मिल गई थी। अब गणतन्त्र दिवस के मद्देनजर घोषणा हो गई कि छोटा बडा हर सामान लगेज में जायेगा। हालांकि इसके बावजूद कैमरे को अपने साथ ले जाने दिया।
दिल्ली से सप्ताह में तीन दिन लेह के लिये एयर इंडिया की उडानें हैं। जो विमान दिल्ली से लेह जाता है, वही बीस मिनट बाद दो दिन जम्मू और एक दिन श्रीनगर के लिये उड जाता है। वहां से यह शीघ्र ही वापस लेह लौट आता है तथा सवा ग्यारह बजे दिल्ली के लिये चल पडता है। यानी हम जिस विमान से जायेंगे, वह जम्मू से आने वाला है।
यह जम्मू से आधा घण्टा विलम्ब से आया। जिसकी वजह से यह दिल्ली के लिये सवा घण्टा विलम्ब से चला।
एक सुरक्षा द्वार पर जैकेट उतरवाई गई व कैमरे के कवर पर सुरक्षित होने का ठप्पा लग गया। सिन्धु जल की बोतल देखकर कहा कि इसमें से एक घूंट पानी पीओ। मुझे भला क्या परेशानी होती एक घूंट पीने में! बैग जिस स्थान से लगेज में चला गया था, वहां से सिन्धु जल की बोतल मुझे दे दी गई कि यह लगेज में नहीं जायेगी, इसे साथ लेकर जाओ।
जब पौने बारह बजे विमान में बैठने की अनुमति मिली, तो आखिरी सुरक्षा द्वार पार करते समय बोतल रखवा दी गई। मैंने खूब कहा कि भाई, यह साधारण पानी नहीं है, बल्कि सिन्धु जल है, लेकिन उन्होंने कुछ नहीं सुना। आखिरकार सिन्धु जल की वह बोतल मुझे वही छोड देनी पडी।
ठीक साढे बारह बजे विमान अस्सी मिनट की देरी से दिल्ली के लिये उड गया। मुझे खिडकी वाली सीट मिल गई थी।
दस मिनट में ही हम महा-मिहालय के ऊपर से गुजरने लगे। चारों तरफ बर्फ का ही साम्राज्य था। मुझे अच्छी तरह पता था कि हम किस दिशा में उड रहे हैं और कहां से गुजर रहे हैं। इसीलिये मैं नीचे लेह-मनाली रोड के अवशेष ढूंढने में लगा था। लेकिन भारी बर्फ की वजह से वे मिल नहीं रहे थे।
आखिरकार हिमाचल प्रदेश में बारलाचाला के आसपास यह सडक दिखाई पडी। हालांकि इस सडक पर कम से कम ढाई सौ किलोमीटर तक जाडों में कोई मानव-जाति निवास नहीं करती, इसलिये इस दूरी में सडक का कोई प्रयोग नहीं है। गर्मियों की बात अलग है।
रोहतांग पार करके बर्फ कम होने लगी और हरियाली दिखने लगी। विमान के नीचे दाहिनी तरफ मनाली और कुल्लू थे लेकिन ये दिखाई नहीं दिये।
रामपुर के पास से विमान निकलता हुआ रोहडू के ऊपर पहुंचा। दाहिनी तरफ विशाल शिमला दिखने लगा। इसके बाद पौंटा साहिब के ऊपर से उडता हुआ यूपी में दाखिल हुआ। दाहिने यमुना दिखने लगी। मैदान में आते ही कोहरे से सामना हुआ लेकिन फिर भी नीचे सबकुछ समझ में आ रहा था। यमुना के उस पार कुरुक्षेत्र, करनाल के बाद पानीपत दिखने लगा। तेल शोधक कारखानों से निकलता धुआं भी दिख रहा था।
यहां से विमान ने दिशा बदली और यमुना पार करके हरियाणा में प्रवेश कर गया। सोनीपत हमारे बायें से निकल गया। जब लग रहा था कि बहादुरगढ के ऊपर से गुजरते हुए हम एयरपोर्ट पहुंचेंगे, तभी अचानक विमान ने पलटी मारी और पुनः यमुना पार करके यूपी के गाजियाबाद जिले के आसमान में पहुंच गया। हिण्डन हवाई पट्टी से ऊपर से निकलकर दिलशाद गार्डन और वैशाली मेट्रो स्टेशनों के दर्शन कराता दक्षिण दिल्ली की तरफ बढने लगा।
दिल्ली में फिर यमुना पार करके पश्चिम दिशा में रिंग रोड के सहारे चलते चलते आखिरकार एयरपोर्ट पहुंच गये। यहां लगेज में रखा बैग पाने में कोई खास परेशानी नहीं हुई। एक हैरत की बात यह है कि सामान प्राप्ति के बाद कोई चेकिंग नहीं होती और आप सीधे विमानपत्तन से बाहर निकल जाते हो। इसमें कोई आपका सामान भी ले जा सकता है। या फिर आप भी किसी का सामान ले जा सकते हो।
खुशी की बात पता चली कि एयरपोर्ट मेट्रो कई महीने बन्द रहने के बाद शुरू हो गई है। हालांकि इसे फुल स्पीड पर नहीं चलाया जा रहा था बल्कि स्पीड कम करके चलाया गया लेकिन बस में कश्मीरी गेट तक लगने वाले डेढ दो घण्टे के मुकाबले पौन-एक घण्टे में नई दिल्ली पहुंचना सुकून की बात ही थी।

लेह श्रीनगर रोड

यह भी लेह श्रीनगर रोड है।

लेह की हवाई पट्टी और बगल में श्रीनगर रोड

महा-हिमालय के बर्फीले पर्वत

शायद ये नुन व कुन चोटियां हैं, जो कारगिल-पदुम रोड के पास हैं।


महा-हिमालय का अनन्त तक फैला विस्तार


इस चित्र में नीचे लेह मनाली रोड स्पष्ट दिख रही है लेकिन इस पर आजकल भारी मात्रा में बर्फ जमा है जो मई जून में हटेगी।

यह कौन सी जगह है? वायुयान दक्षिण की तरफ उड रहा है, यह दृश्य मेरे दाहिनी तरफ का है, इसलिये चन्द्रा व भागा का संगम नहीं हो सकता। इतना पक्का है कि यह स्थान है हिमाचल में ही।



जैसे जैसे और दक्षिण में आते गये, बर्फ कम होती गई और जंगल शुरू हो गये।



सीट के सामने लगी स्क्रीन पर आते आंकडे

शर्तिया कह सकता हूं कि यह ब्यास नदी है।

यह है शिमला।

जब पहाड खत्म हो गये, मैदान में प्रवेश करने लगे तो कोहरे ने घेर लिया।

पानीपत

यमुना में चमकता सूर्य का प्रतिबिम्ब। इधर उत्तर प्रदेश है और यमुना के उस तरफ हरियाणा।

नीचे केन्द्र में वैशाली मेट्रो स्टेशन दिख रहा है। वैशाली में मेट्रो लाइन खत्म हो जाती है।

दिल्ली- फरीदाबाद रोड व मेट्रो की बदरपुर वाली लाइन। एक मेट्रो ट्रेन भी दिख रही है।

लोटस टेम्पल


एयरपोर्ट पहुंचने वाले हैं। यह है दिल्ली- जयपुर रोड व बगल में एयरपोर्ट मेट्रो लाइन भूमिगत होते हुए।
लद्दाख यात्रा समाप्त।

लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान
4. जांस्कर घाटी में बर्फबारी
5. चादर ट्रेक- गुफा में एक रात
6. चिलिंग से वापसी और लेह भ्रमण
7. लेह पैलेस और शान्ति स्तूप
8. खारदुंगला का परमिट और शे गोनपा
9. लेह में परेड व युद्ध संग्रहालय
10. पिटुक गोनपा (स्पिटुक गोनपा)
11. लेह से दिल्ली हवाई यात्रा

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