लद्दाख यात्रा की तैयारी
एक सरकारी कर्मचारी होने के नाते मेरा यह दायित्व है कि मैं हर चार साल में एक बार सरकारी खर्चे से भारत के किसी भी हिस्से की यात्रा करके आऊं। इस यात्रा में हमें पूर्वोत्तर और जम्मू कश्मीर के लिये हवाई खर्चा भी मिलता है। पूर्वोत्तर और जम्मू कश्मीर में पर्यटन को बढावा देने के लिये ऐसा होता है। वैसे तो इन इलाकों में कोई जाना नहीं चाहता, लेकिन हवाई जहाज के लालच में कुछ लोग चले जाते हैं।
जब हवाई खर्चा मिल ही रहा है तो क्यों ना लद्दाख जाया जाये। सर्दियों में लद्दाख जाने का एकमात्र साधन वायुयान ही है, इसलिये वहां जाने की और ज्यादा इच्छा होने लगी। शेष भारत में किसी भी मौसम में जाया जा सकता है, लेकिन लद्दाख के साथ ऐसा नहीं है। सर्दियों में लद्दाख कैसा होता है, यह जानने की बडी तीव्र आकांक्षा थी।
एक मित्र है ललित भारद्वाज। एक बार मेरे साथ त्रियुण्डगया था। वहीं से मैंने जान लिया कि यह मेरी ‘बिरादरी’ का इंसान नहीं है। एक दिन उसने बातों बातों में मुझसे आग्रह किया कि कहीं चलते हैं। दिसम्बर 2012 की बात है। मैंने तुरन्त लद्दाख का नाम लिया। उसने बिना सोचे समझे हां कह दी।
अगले ही दिन उसकी आंख खुल गई। उसने अपने स्तर पर लद्दाख की जानकारी जुटाई होगी, उसे पता चल गया कि वहां जनवरी में तापमान शून्य से पच्चीस डिग्री नीचे तक चला जाता है। उसने मुझसे तुरन्त सम्पर्क करके मना कर दिया। जबकि मैं पूरा मन बना चुका था। मैंने खूब कहा कि वहां पांच चार कपडे और ज्यादा ही तो पहनने पडेंगे, लेकिन उस पर कोई असर नहीं हुआ। आखिरकार यह कहकर उसने मुझसे पीछा छुडाया कि तू चला जा, अगर मौसम सहनशक्ति के अन्दर हुआ तो मैं भी आ जाऊंगा। उन दिनों उत्तर भारत में कडाके की ठण्ड पड रही थी। कम से कम उत्तर भारतीय ऐसी ठण्ड को झेलकर इससे ज्यादा ठण्डे इलाके में जाने की सोच भी नहीं सकता था।
जब मुझे पता चलता कि आज दिल्ली में तापमान चार डिग्री है, कल पांच डिग्री था, तो रूह तक कांप जाती कि मात्र एक डिग्री के अन्तर से जाडे में इतना फर्क पड जाता है तो अचानक बीस पच्चीस डिग्री का अन्तर शरीर कैसे झेलेगा? दोस्तों ने भी डराया कि अगर जुकाम हो गया तो नाक से बर्फ की गोलियां टपकेंगी।
फिर भी लगन थी कि जनवरी में लद्दाख जाना है। देखना है कि वहां जीवन कैसे चलता है? कैसे लोग जमी हुई नदी के ऊपर पैदल आना-जाना करते हैं? कैसे गैर-लद्दाखी जैसे कि सेना के जवान वहां रहते हैं?
डॉक्टर करण से बात हुई तो उसने दो लोगों के सम्पर्क सूत्र बता दिये। वो पिछले साल जनवरी में ही लेह गया था, तो उसके कुछ जानने वाले थे।
घर पर बात की तो तुरन्त एक परिचित विकास का पता चल गया। विकास सीआरपीएफ में है और लेह में ही तैनात है। विकास से बात करके रहने-खाने की चिन्ताओं से रहित हो गया।
अक्सर लोग लेह और लद्दाख को अलग-अलग मानते हैं। असल में हकीकत यह है कि जम्मू कश्मीर राज्य के भौगोलिक रूप से तीन भाग हैं- जम्मू, कश्मीर और लद्दाख। जम्मू क्षेत्र में जवाहर सुरंग से पहले का इलाका आता है और इसमें कठुआ, साम्बा, जम्मू, ऊधमपुर, डोडा, किश्तवाड, राजौरी, रियासी आदि जिले आते हैं। कश्मीर क्षेत्र में जवाहर सुरंग के बाद का इलाका आता है और इसमें अनन्तनाग, श्रीनगर, बडगाम, बारामूला, कुपवाडा आदि जिले आते हैं। बचा लद्दाख, श्रीनगर- लेह मार्ग पर सोनमर्ग से कुछ आगे जोजिला दर्रा पार करते ही लद्दाख क्षेत्र शुरू हो जाता है और इसमें कारगिल और लेह जिले शामिल हैं। फिर भी आम बोलचाल में लेह को लद्दाख कह दिया जाता है। लेह और लद्दाख अलग-अलग नहीं हैं।
पहली हवाई यात्रा
मैंने आज तक कभी भी वायुयान से यात्रा नहीं की थी। एक हिचकिचाहट भी थी पहली बार यात्रा करने की। इस कारण मैं चाहता था कि इस पहली यात्रा में कोई साथी मिल जाये। छत्तीसगढ से प्रकाश यादव और गुजरात से जगदीश ने साथ चलने की इच्छा जाहिर की। यादव साहब की इच्छा थी कि एक दो दिन लेह में रुककर वापस लौट आना है, जबकि जगदीश साहब चाहते थे मेरे साथ पूरी यात्रा में साथ देना।
जब ऑनलाइन बुकिंग करा ली और ई-टिकट पर कहीं भी सीट नम्बर नहीं लिखा मिला तो दिल की धडकनें बढ गईं। मैं ठहरा ट्रेनों में यात्रा करने वाला, सबसे पहले दिमाग में आया कि वेटिंग चल रही है, इसी लिये सीट नहीं मिली। पता नहीं यात्रा वाले दिन तक सीट कन्फर्म होगी भी या नहीं।
यार लोगों से बातचीत हुई तो सारा मंजर समझ में आ गया। यात्रा वाले दिन ही काउंटर से बोर्डिंग पास मिलेगा, जिस पर सीट नम्बर भी लिखा मिलेगा। साथ ही एक सुझाव और मिला कि काउंटर पर ही बता देना कि खिडकी वाली सीट चाहिये।
15 जनवरी- यात्रा से एक दिन पहले यादव और जगदीश दोनों का फोन आया कि वे नहीं जायेंगे। उनकी मनाही सुनकर अपना मुंह लटक गया। मुख्य परेशानी हवाई यात्रा को लेकर थी, इसे ठीक-ठाक निपटाने में इन दोनों का बहुत बडा हाथ होता, लेकिन इनके मना करने से मैं बिल्कुल अकेला पड गया।
टिकट पर लिखा था कि फ्लाइट से दो घण्टे पहले हवाई अड्डे पहुंचना पडेगा, ताकि सुरक्षा जांच और अन्य कामों के लिये पर्याप्त समय मिल सके। फ्लाइट का समय सुबह साढे छह बजे था, यानी मुझे साढे चार बजे तक वहां पहुंच जाना पडेगा। मेरा ठिकाना पूर्वी दिल्ली यमुनापार में शास्त्री पार्क में है। हवाई अड्डा दिल्ली के दक्षिण पश्चिमी कोने में है। कम से कम एक घण्टे पहले घर से निकलना पडेगा। आखिरकार सारी परेशानियों को समझते हुए तय हुआ कि रात ग्यारह बारह बजे तक हवाई अड्डे पहुंच जाना बेहतर रहेगा।
कश्मीरी गेट से सीधे हवाई अड्डे के लिये वातानुकूलित बसें चलती हैं। तब एयरपोर्ट मेट्रो बन्द थी। जैसे ही मैंने कहा कि एयरपोर्ट का टिकट दे दो तो कंडक्टर ने पूछा कि डोमेस्टिक या इंटरनेशनल। मुझे कौन सा लन्दन की फ्लाइट पकडनी थी, तुरन्त कहा डोमेस्टिक। उसने 75 रुपये का टिकट दे दिया। इंटरनेशनल का टिकट सौ रुपये का था।
डोमेस्टिक एयरपोर्ट नामक जगह पर उतर गया। कुछ अन्दर जाकर एक लडके से पूछा कि भाई, सुबह लेह वाली फ्लाइट कहां से मिलेगी? उसने पूछा कि कौन सी फ्लाइट है, मैंने बताया एयर इंडिया। बोला कि वो तो टर्मिनल थ्री से मिलती है। मेरा दिमाग खराब कि यह टर्मिनल थ्री कहां से आ गया। डोमेस्टिक और इंटरनेशनल तो समझ में आते हैं, टर्मिनल थ्री समझ से परे था। आखिरकार उसी ने बता दिया कि सामने से बस मिल जायेगी।
बस ने इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतार दिया। यही टर्मिनल थ्री है। यहां से अन्तर्राष्ट्रीय उडानें तो मिलती ही हैं, ज्यादातर राष्ट्रीय उडानें भी यहीं से संचालित होती हैं। एयर इंडिया की सभी उडानें यहीं से जाती हैं। मध्यरात्रि के बाद भी यहां काफी भीड थी। एक से पूछा कि एयर इंडिया की फ्लाइट कहां से उडती हैं, तो उसने हाथ से एक तरफ इशारा कर दिया और चला गया। यहां कोई खाली नहीं था, ज्यादातर होटल वाले, टैक्सी वाले और मुसाफिर थे।
जिस तरफ उसने हाथ से इशारा किया, मैं उधर ही चल पडा। सामने सूचना पट्ट था- प्रस्थान। मैं इसी ‘प्रस्थान’ के इशारे पर चलने लगा। आखिरकार कई मोड और सीढियां पार करता हुआ उस जगह पहुंचा जहां पहली बार सुरक्षाकर्मियों के दर्शन हुए। द्वार पर खडे सुरक्षाकर्मी ने मेरा टिकट देखा और कहा कि यह फ्लाइट तो सुबह साढे छह बजे है, अभी क्या करोगे आगे जाकर? जाओ, चार बजे के बाद आना। यह मेरे लिये निराश होने वाली बात नहीं थी क्योंकि मुझे अन्देशा हो गया था कि आगे मुझे भीड का हिस्सा नहीं बनना पडेगा, बल्कि सारा काम ‘स्वचालित’ तरीके से होता चला जायेगा।
अभी साढे बारह का समय था। मुझे करीब चार घण्टे यही बाहर बिताने पडेंगे। रेलवे स्टेशन होता तो कहीं भी पसर जाता, यहां पसरने में हिचकिचाहट हो रही है। लघुशंका के दबाव से मैं काफी दूर बने शौचालय की तरफ चला गया। शौचालय के पास कुछ दुकानों का निर्माण कार्य चल रहा है। इसी निर्माण में एयरपोर्ट के सफाई कर्मचारी पडे सो रहे थे। मुझे अच्छी जगह मिल गई। लघुशंका से निपटकर चार बजे तक यहीं मजे की नींद ली।
चार बजे मैं फिर से उसी द्वार पर पहुंच गया। टिकट और पहचान पत्र दिखाने के बाद आराम से अन्दर चला गया। सुरक्षाकर्मी से ही पूछ लिया था कि मेरी फ्लाइट एयर इंडिया की है, अब आगे कहां जाऊं। उसने बा-अदब इशारा करके बता दिया कि वो रहा एयर इंडिया का इलाका, वहां चले जाओ। आगे एयर इंडिया के कई काउंटर थे, मैं उनमें से एक पर पहुंचा। काउंटर पर एक महिला बैठी थीं, मैंने अपना ई-टिकट उन्हें दे दिया। उन्होंने कम्प्यूटर में कुछ खटर-पटर की और शीघ्र ही मुझे ‘बोर्डिंग पास’ दे दिया। इस पर सीट नम्बर भी लिखा था- 16 C.
मुझे बताया गया था कि बोर्डिंग पास बनवाते समय खिडकी वाली सीट के लिये बोलना पडता है, तभी मिलेगी। मुझे पता ही नहीं था कि यह बोर्डिंग पास नामक बला कहां बनती है। अब जब पास हाथ में आ गया, तब पता चला। अगली यात्राओं के लिये सबक मिल गया। सीट 16 C का मतलब है खिडकी से अधिकतम दूर।
एक और सुरक्षा द्वार से निकलना पडा। यहां मेरे बैग पर सिक्योरिटी चेक्ड का ठप्पा लग गया।
अभी पांच भी नहीं बजे थे और मैं पूरी तरह विमान में बैठने का अधिकारी हो चुका था।
फिर एक प्रतीक्षालय में बैठना पडा। एक तरफ कुछ स्क्रीन थीं जिनपर विमानों की उडानों का समय, दरवाजे खुलने का समय और बन्द होने का समय आ रहा था। दो तीन उडानें तीन चार घण्टे विलम्ब से भी चल रही थीं। बडी खुशी मिली कि विमान भी विलम्ब करते हैं। यह ‘कलंक’ हमारी ट्रेनों के मत्थे ही ज्यादा मढा जाता है।
दूसरी तरफ एक टीवी स्क्रीन लगी थी जिसपर न्यूज आ रहे थे। अंग्रेजी में थे, इसलिये अपने पल्ले नहीं पड रहे थे। मेरे सामने वाले सोफे पर एक लद्दाखी जोडा बैठा था। उनसे मात्र इतनी ही बात हुई कि मैं भी लेह जा रहा हूं।
अरे यह क्या? इंडियन एयरलाइंस की एक उडान थोइस जा रही है। थोइस लेह से आगे खारदूंगला पार करके नुब्रा घाटी में सियाचिन ग्लेशियर के काफी नजदीक है। खारदूंगला और नुब्रा जाने के लिये परमिट की जरुरत होती है, तो सीधी सी बात है कि थोइस भी बिना परमिट के नहीं जाया जा सकता। यह परमिट उडान बुक कराने से पहले हासिल किया जाता है या थोइस पहुंचकर? मेरे ख्याल से थोइस में ही ‘परमिट ऑन एराइवल’ की सुविधा मिलती होगी।
पौने छह बजे के आसपास स्क्रीन पर दिखने लगा कि लेह वाली फ्लाइट के दरवाजे खुल चुके हैं। हम दरवाजे खुलने की ही प्रतीक्षा कर रहे थे। बिना विलम्ब किये चल पडे और सीधे विमान के अन्दर पहुंचकर ही दम लिया। विमान अन्दर से हमारी ट्रेनों के एसी चेयरकार के जैसा लग रहा था। लेकिन हमारे यहां खिडकियां बडी बडी होती हैं, यहां छोटी छोटी सी हैं।
जब पता चला कि मेरी सीट खिडकी से अधिकतम दूर है, तो दिमाग खराब हो गया। हालांकि मेरी सीट पर एक सज्जन बैठे थे, मैंने उनसे कहा कि भाई, आपकी सीट कौन सी है तो बोले कि पन्द्रह बी। सोलह सी से ज्यादा नजदीक पन्द्रह बी है तो मैंने उन्हें और उन्होंने मुझे धन्यवाद दिया। उनके घर-परिवार के बाकी सदस्य सोलह सी के आसपास ही बैठे थे, इसलिये उन्होंने मुझसे सीटों की अदला-बदली कर ली।
मैंने कल से कुछ नहीं खाया था। पता था कि विमान में मुफ्त में भरपेट खाने को मिलेगा। लेकिन जब सामने जरा सा नाश्ता आया तो भूख कम होने की बजाय और बढ गई।
पन्द्रह मिनट भी नहीं लगे हमें हरियाणा पार करके हिमाचल की पहाडियों के ऊपर पहुंचने में। और जल्दी ही कुल्लू से आगे रोहतांग पार करके महा-हिमालय में जा घुसे। यहां इंच-इंच पर बर्फ का साम्राज्य था। इस दौरान मुझे फोटो खींचने का मौका नहीं मिला। वापसी में कोशिश करूंगा खिडकी के पास वाली सीट लेने की और तब जी-भरकर फोटो खींचूंगा।
जब हिमालय पार हो गया तो विमान लद्दाख के पर्वतों के ऊपर से उडने लगा। अब बर्फ काफी कम हो गई थी और ज्यादतर पहाड नग्न हिम-वनस्पति-विहीन नजर आ रहे थे।
लद्दाख यात्रा श्रंखला
1. पहली हवाई यात्रा- दिल्ली से लेह
2. लद्दाख यात्रा- लेह आगमन
3. लद्दाख यात्रा- सिन्धु दर्शन व चिलिंग को प्रस्थान