हम ऋषिकेश में हैं और आज हमें सौ किलोमीटर दूर दुगड्डा जाना है साइकिल से। इसके लिये हमने यमकेश्वर वाला रास्ता चुना है- पहाड वाला। दिन भर में सौ किलोमीटर साइकिल चलाना वैसे तो ज्यादा मुश्किल नहीं है लेकिन पूरा रास्ता पहाडी होने के कारण यह काम चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
कुछ दिनों पहले मैंने अपने एक दोस्त करण चौधरीका जिक्र किया था जो एमबीबीएस डॉक्टर भी है। हमारी जान-पहचान साइकिल के कारण ही हुई। करण ने तब नई साइकिल ली थी गियर वाली। उसने इण्डियामाइकपर पूछा कि दिल्ली से पचास किलोमीटर की रेंज में कौन सी ऐसी जगह है जहां आसानी से साइकिल से जाया जा सकता है। संयोग से वो प्रश्न मेरे सामने भी आ गया। मैंने बता दिया कि सुल्तानपुर नेशनल पार्क चले जाओ। बस, हो गई जान-पहचान।
अब दूसरी बात। करण से जान-पहचान होने से पहले मुझे साइकिल की जरुरत थी। मेरा ऑफिस मेरे ठिकाने से एक किलोमीटर दूर है, तो रोज पैदल आना-जाना भारी लगता था। हालांकि एक किलोमीटर पैदल चलने में दस मिनट ही लगते हैं लेकिन फिर भी बोरियत होती थी। सोचा कि एक साइकिल ले लूं। ऑफिस के साथ साथ इधर उधर के छोटे मोटे काम भी हो जाया करेंगे।
और जब साइकिल लेने गया तो साधारण साइकिल भी तीन हजार से कम की नहीं मिली। दुकान पर पतले पहियों वाली रेसिंग साइकिल भी खडी थी- हीरो की हॉक नू एज। उसके दाम पता किये तो साढे तीन हजार निकले। आखिरकार यही ले ली। इसे चलाने में शुरू शुरू में दिक्कत भी आई लेकिन जल्दी ही अच्छी तरह हाथ साफ हो गया।
एक बार मैं इसे लेकर मेरठ के लिये चला। हमारा गांव दिल्ली के मेरे ठिकाने से 80 किलोमीटर दूर है। गाजियाबाद तक घण्टे भर में पहुंच गया। आनन्द आ गया।
जब तक मुरादनगर में गंगनहर पर पहुंचा, तो सारा जोश ठण्डा पड चुका था। अब तक मैं चालीस किलोमीटर दूर आ चुका था। अभी भी इतना ही और चलना था। तारे दिखने लगे। आखिरकार नहर वाला रास्ता पकड लिया क्योंकि मुझे चक्कर आने लगे थे और मैं उस अति व्यस्त मेरठ रोड पर किसी ट्रक या बस के नीचे नहीं गिरना चाहता था।
किसी तरह घर पहुंचा। जाते ही साइकिल एक तरफ फेंक दी। घरवालों ने और पडोसियों ने अच्छी खासी सुनाई। अगले दिन जब वापस दिल्ली के लिये चला तो साइकिल की तरफ देखने का भी मन नहीं हुआ। कई दिनों बाद घरवाले ही उसे दूध के ट्रक पर लादकर दिल्ली पहुंचा गये। ऊपर से लेकर नीचे तक पैरों का जो हाल हुआ, वो बताने लायक नहीं है।
इस घटना के दो सप्ताह बाद ही फिर से साइकिल उठा ली। अब की बार गुडगांव पहुंच गया। एक जानकार हैं गुडगांव में योगेन्द्र सोलंकी, उनके यहां रुका और अगले दिन वापस दिल्ली। तीस किलोमीटर जाना और अगले दिन इतना ही वापस आना, काफी मजेदार रहा। इस बार कोई परेशानी नहीं हुई।
इतना होने के कुछ महीनों बाद यानी पिछले महीने ही फिर से साइकिल उठाई और चल दिया पुनः मेरठ की ओर। मुरादनगर पहुंचकर पिछले अनुभव से तुलना की तो आश्चर्यजनक परिणाम निकले। इस बार लगा कि कुछ भी ऊर्जा नष्ट नहीं हुई है। अभी भी मैं तरोताजा महसूस कर रहा था। इतना तरोताजा कि उस दिन 75 किलोमीटर चलाने के बाद अगले दिन दिल्ली भी साइकिल से ही लौटा।
इसी दौरान करण की साइकिल भी मेरे पास कई दिनों तक खडी रही। मेरी वाली साइकिल में गियर नहीं थे जबकि करण वाली में गियर थे। हालांकि हर साइकिल में गियर होते हैं, लेकिन साधारण साइकिलों को गियरलेस साइकिल ही माना जाता है। जब करण की साइकिल कई दिनों तक चलाई, तो मुझे भी तलब लग गई गियर वाली साइकिल लेने की लेकिन ऐसी साइकिलें ज्यादा खर्चे की मांग करती हैं।
और लो, खर्चा भी मिल गया। दीवाली पर मेट्रो ने जी भरकर बोनस दे दिया। इतना बोनस आज तक कभी नहीं दिया गया था। इधर बोनस आया और उधर एक महंगी साइकिल ले ली। दिल पर जोर तो बहुत पडा लेकिन वो बोनस की थी, इसलिये दिल जल्दी मान भी गया।
30 अक्टूबर का दिन जयपुर जाने के लिये निर्धारित था। जयपुर- चूरू मीटर गेज लाइन पर यात्रा करनी थी। साथ के साथ चूरू- बीकानेर पैसेंजर ट्रेन से भी जाना था। 31 अक्टूबर की रात बीकानेर से दिल्ली आने का रिजर्वेशन भी था।
तीस तारीख की दोपहर को जब जयपुर जाने के लिये तैयार हो रहा था तो करण का फोन आया कि साइकिल उठा ले, कहीं चलना है। मैंने पूछा कि कहां, तो बोला कि कहीं भी। मैंने सुझाव दिया कि हरिद्वार चलते हैं, वहां से जंगल वाले रास्ते से कोटद्वार चले जायेंगे। सहमति हो गई।
तीन दिन बाद यानी 2 नवम्बर की सुबह सुबह करण को पाकिस्तान जाना था। वहां उसे साउथ एशिया यूथ का कुछ प्रोग्राम था, उसमें भाग लेना था। वीजा आदि की सारी औपचारिकताएं हो चुकी थी। लाहौर जाने वाली बस का टिकट भी बुक हो गया था। करण की एक बडी महत्वाकांक्षी योजना थी- साइकिल से दक्षिण एशिया की यात्रा करना। शुरूआत इसी पाकिस्तान यात्रा से ही करनी थी उसे। उसने कभी भी पहले साइकिल नहीं चलाई थी, इसलिये जाने से पहले एक-दो दिन साइकिल चलाकर वो थोडा बहुत अनुभव और अभ्यास करना चाहता था।
हरिद्वार चलने की सहमति हो गई। आनन्द विहार बस अड्डे से दोनों साइकिलों को तीन सौ रुपये में बस की छत पर रख दिया गया। रात नौ बजे ऋषिकेश पहुंचे। बीकानेर से दिल्ली का रिजर्वेशन रद्द कराना पडा- चालीस रुपये का नुकसान हो गया- हाय।
अगले दिन यानी 31 अक्टूबर की हमारी योजना थी कि सौ किलोमीटर दूर दुगड्डा पहुंचेंगे। एक तारीख को दुगड्डा से कोटद्वार और कण्व आश्रम देखकर रात होने तक दिल्ली वापस। इसी के अनुसार काम चल रहा था। क्योंकि अगर मैदान में 15 की स्पीड से साइकिल चलाई जा सकती है, तो पहाड पर दस की स्पीड से चल जायेगी। अगर कहीं चढाई है तो आगे चलकर उतराई भी तो है, दस का औसत मिल ही जायेगा।
राम झूले से गंगा पार करके साइकिल दुगड्डा रोड पर दौडा दी। इसी सडक पर लक्षमण झूले से 16 किलोमीटर आगे एक तिराहा है जहां से तीसरी सडक नीलकण्ठजाती है। उस तिराहे से नीलकण्ठ की दूरी पांच किलोमीटर है।
जैसे जैसे आगे बढते गये, थकते गये और साइकिल के इक्कीस गियरों में जल्दी जल्दी गियर भी कम होते गये। आखिर में हालत यह हो गई कि बिल्कुल पहले गियर में चलने लगे और उसमें भी जल्दी जल्दी थकने लगे।
गियर वाली साइकिलें असल में पहाडों पर चलाने के लिये ही होती हैं। मेरी साइकिल में अगले पहिये पर संस्पेंशन (शॉकर) भी है और दोनों पहियों पर डिस्क ब्रेक है ताकि ढलान पर उतरते समय साइकिल पूरे कंट्रोल में रहे। कम गियर में साइकिल की स्पीड कम हो जायेगी और हमें चढाई पर कम ताकत लगानी पडेगी।
दोपहर का एक बज गया, जब हम नीलकण्ठ मोड पर पहुंचे। अभी भी दुगड्डा 84 किलोमीटर दूर था। मुझे हालांकि साइकिल का पहला अनुभव भी था- दो बार मेरठ और एक बार गुडगांव, जबकि करण को कोई अनुभव नहीं था, इसलिये करण की हालत भी ज्यादा अच्छी नहीं थी और तेज चढाई पर वो पैदल चल पडता था।
नीलकण्ठ मोड पर पहुंचकर, हमें चूंकि नीलकण्ठ नहीं जाना था, मैंने कहा कि भाई, रुक। कुछ विमर्श करना है। आज हम किसी भी हालत में दुगड्डा नहीं पहुंच पायेंगे- रात नौ बजे तक भी नहीं। बोला कि ठीक है, आज तीस किलोमीटर आगे यमकेश्वर तक जायेंगे, समय बचेगा तो आगे बढ चलेंगे। जहां भी अन्धेरा हो जायेगा, वहीं रुक जायेंगे।
मैंने कहा कि इस सडक पर यमकेश्वर से दुगड्डा के बीच में कहीं भी रुकने की उम्मीद मत करना। ऐसा नहीं होता है। मुझे वो घटना याद आ गई जब हम श्रीखण्ड महादेवसे वापस लौट रहे थे, हमारी एक बाइक में पंक्चर हो गया था, दूसरी पर तीन जने बैठे थे, अन्धेरा हो गया था और रास्ते में पडने वाले एक गांव में शरण नहीं मिली। रुकने का ठिकाना वहां से बीस किलोमीटर दूर था और हम अन्धेरे में बिल्कुल भी चलना नहीं चाहते थे। मजबूरी में हमें चलना पडा था और बीस किलोमीटर में एक घण्टे से ज्यादा समय लग गया था।
करण भी गजब मिट्टी का बना है। बोला कि चल, जो होगा, देखा जायेगा। मैंने कहा कि ऐसी बातें तब कही जाती हैं, जब हमारे पास मार्जिन हो, अतिरिक्त समय की गुंजाइश हो। तुम्हे परसों पाकिस्तान के लिये निकलना है, कोई मार्जिन नहीं है हमारे पास। ऐसा करते हैं कि नीलकण्ठ चलते हैं, रात होने तक वापस हरिद्वार चले जायेंगे। कल हरिद्वार से लालढांग के रास्ते कोटद्वार चलेंगे।
बोला कि हरिद्वार भी तो यहां से पचास-साठ किलोमीटर दूर है, यहां भी वही दिक्कत आयेगी। मैंने कहा कि नहीं, दोनों में बहुत फरक है। पहला, हमें पता है कि हरिद्वार तक रास्ता कैसा है, पूरे रास्ते भर ढलान ही ढलान है, साइकिल मजे से दौडेगी जबकि दुगड्डा के रास्ते का कोई आइडिया नहीं है। ढलान है या चढाई है या कितनी चढाई है। दूसरा, हरिद्वार जाते समय जहां भी हम चाहेंगे, वहीं रुक सकते हैं जबकि दुगड्डा की तरफ ऐसा नहीं है। तीसरा, अगर रातोंरात हमारा मन बदल गया तो हम आसानी से किसी भी समय दिल्ली की बस में बैठ सकते हैं जबकि इधर ऐसा सम्भव नहीं है।
आखिर में, करण का फैसला था कि सब हो जायेगा, दुगड्डा के लिये निकले हैं, दुगड्डा की तरफ ही जायेंगे। मैंने उसके इस फैसले का स्वागत किया और नीलकण्ठ को पांच किलोमीटर दूर से प्रणाम करके आगे बढ चले।
आधा किलोमीटर आगे ही गये थे कि करण ने साइकिल वापस मोड ली। इसका कारण था कि अब सडक पर गड्ढे बहुत ज्यादा बढ गये। नीलकण्ठ तक तो अच्छी सडक बनी है जबकि उसके आगे एक नम्बर की खराब सडक। एक बाइक वाला आ रहा था उधर से। उसने भी यही बताया कि आगे ऐसी ही सडक है और तीस किलोमीटर दूर यमकेश्वर तक चढाई भी है।
दुगड्डा रद्द, अब नीलकण्ठ की तरफ चल दिये। इस आखिरी पांच किलोमीटर में चढाई का लेवल बाकी के मुकाबले बहुत ज्यादा है। मैं तो खैर खींच ले गया साइकिल को किसी तरह, लेकिन करण नहीं खींच पाया। समुद्र तल से नीलकण्ठ मोड की ऊंचाई 688 मीटर है जबकि पांच किलोमीटर आगे नीलकण्ठ की ऊंचाई 888 मीटर है। यानी पांच किलोमीटर में दो सौ मीटर की चढाई, काफी ज्यादा मानी जाती है।
राम झूले से सुबह के समय गंगा (फोटो: करण) |
राम झूला (फोटो: करण) |
(फोटो: करण) |
(फोटो: करण) |
यह फोटो करण ने खींचा है और इस यात्रा का सर्वोत्तम फोटो मानता हूं मैं। |
करण चौधरी |
फोटो: करण |
फोटो: करण |
फोटो: करण |
फोटो: करण |
फोटो: करण |
नीलकण्ठ मोड |
करण ने मोड से नीलकण्ठ की ज्यादातर दूरी पैदल तय की। वैसे साइकिल से भी ज्यादा स्पीड नहीं मिल पा रही थी। |
नीलकण्ठ महादेव मन्दिर |
फोटो: करण |
थाली चालीस रुपये |
नीलकण्ठ साइकिल यात्रा
1. ऋषिकेश से नीलकण्ठ साइकिल यात्रा
2. नीलकण्ठ से हरिद्वार साइकिल यात्रा