ध्यान दें:डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इनसे आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। कृपया अपने विवेक से पढें।
1. दो फिल्में देखीं- ‘हैदर’ और ‘मैरीकॉम’। दोनों में वैसे तो कोई साम्य नहीं है, बिल्कुल अलग-अलग कहानी है और अलग अलग ही पृष्ठभूमि। लेकिन एक बात समान है। दोनों ही उन राज्यों से सम्बन्धित हैं जहां भारत विरोध होता रहता है। दोनों ही राज्यों में सेना को हटाने की मांग होती रहती है। हालांकि पिछले कुछ समय से दोनों ही जगह शान्ति है लेकिन फिर भी देशविरोधी गतिविधियां होती रहती हैं।
लेकिन मैं कुछ और कहना चाहता हूं। ‘हैदर’ के निर्माताओं ने पहले हाफ में जमकर सेना के अत्याचार दिखाए हैं। कुछ मित्रों का कहना है कि जो भी दिखाया है, वो सही है। लेकिन मेरा कहना है कि यह एक बहुत लम्बे घटनाक्रम का एक छोटा सा हिस्सा है। हालांकि सेना ने वहां अवश्य ज्यादातियां की हैं, नागरिकों पर अवश्य बेवजह के जुल्म हुए हैं लेकिन उसकी दूसरी कई वजहें थीं। वे वजहें भी फिल्म में दिखाई जानी थीं। दूसरी बात कि अगर दूसरी वजहें नहीं दिखा सकते थे समय की कमी आदि के कारण तो सेना के अत्याचार भी नहीं दिखाने चाहिये थे। कश्मीर मामला पहले से ही संवेदनशील मामला है, इससे गलत सन्देश जाता है।
फिर दूसरे हाफ में एक नाटकीय परिवर्तन आया। पहले जहां यह एक समाजप्रधान कहानी लग रही थी, पूरे कश्मीर की कहानी लग रही थी, दूसरे हाफ में यह व्यक्तिप्रधान कहानी बन गई। सेना तुरन्त गायब हो गई और हैदर अपनी मनमानी करता रहा। कभी वो सीमा पार चला जाता, कभी वो अपने बाप की मौत का बदला लेने की फिराक में रहता। सेना गायब। बकवास कहानी।
एक चीज अच्छी लगी जो कि अक्सर फिल्मों में होता नहीं है। पूरी शूटिंग कश्मीर में हुई है। कश्मीरी पृष्ठभूमि, कश्मीरी पहनावा, कश्मीरी मौसम।
‘मैरी कॉम’ इससे बहुत शानदार फिल्म है। भारत और मणिपुर के उग्रवादी संगठनों के बीच होने वाली किसी भी लडाई को इसमें नहीं दिखाया। हालांकि जब मैरीकॉम गर्भवती थी, उस समय शहर भर में कर्फ्यू लगा था, यह इसी लडाई की वजह से लगा था। उनकी गाडी को उग्रवादी संगठनों ने घेर लिया था, लेकिन उनका नेता मैरी को जानता था, इसलिये जाने दिया। इसके अलावा कोई और दंगे फसाद वाला दृश्य नहीं आया। आज भी इन संगठनों की वजह से मणिपुर में हिन्दी फिल्में नहीं चलतीं। मैरीकॉम पर बनी फिल्म को उसी के राज्य वाले नहीं देख सकते।
2. महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हुए। नतीजे आये। हरियाणा में तो भाजपा स्पष्ट बहुमत से जीत गई है लेकिन महाराष्ट्र में मामला कुछ पेचीदा दिख रहा है। पहले स्थान पर भाजपा, दूसरे पर शिवसेना, तीसरे पर कांग्रेस और चौथे पर एनसीपी। इसमें तो कोई दो-राय नहीं कि चुनावों से पहले भाजपा और शिवसेना में कितने भी मतभेद रहे हों लेकिन आखिरकार राज्य में सरकार यही दोनों दल मिलकर बनाने वाले हैं। हालांकि एनसीपी ने भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने की बात कही है। एनसीपी के समर्थन से भाजपा को किसी और समर्थन की जरुरत नहीं है। लेकिन भाजपा ऐसा कभी नहीं करने वाली। शिवसेना उसकी पुरानी सहयोगी रही है, कुछ वाद-विवाद के बावजूद, कुछ लेन-देन के बावजूद, कुछ नफे-नुकसान के बावजूद गठबन्धन शिवसेना से ही करना पडेगा। हां, एनसीपी को साथ लेकर चलने में कोई परेशानी नहीं है। इससे सबसे बडा फायदा यह होगा कि शिवसेना काबू में रहेगी।
कुछ लोग कह रहे हैं कि भाजपा को किसी भी हालत में ‘कमीनी’ एनसीपी से समर्थन नहीं लेना चाहिये। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि ‘कमीनेपन’ के बावजूद भी इस पार्टी के 41 विधायक अगले पांच साल के लिये विधानसभा में जाने वाले हैं। ये 41 और कांग्रेस के 42 विधायक और 20 अन्य विधायक यानी कुल लगभग 100 विधायक सरकार के विरोध में रहेंगे। बेवजह सदन में हल्ला और शोर शराबा करेंगे। एनसीपी समर्थन दे रही है, ले लो। आगे चलकर विरोध कम ही होगा। सरकार तो बन ही चुकी है, कांग्रेस से भी शिष्टाचार के नाते समर्थन मांगा जा सकता है। जिस तरह मोदी के प्रधानमन्त्री बनने पर नवाज शरीफ को दिल्ली आने का निमन्त्रण दिया गया था और वो बेचारा मुश्किल में पड गया था कि जाऊं या न जाऊं और आखिरकार उसे आना पडा; इसी तरह कांग्रेस भी मुश्किल में पडेगी। आखिरकार आना पडेगा। इस समय गंगाजी भाजपा के साथ साथ बह रही है और बहती गंगा में हाथ धो लेने में ही समझदारी है।
उधर केजरीवाल दिल्ली में भाजपा को ललकार रहा है। कह रहा है कि भाजपा इसलिये चुनाव नहीं कराना चाह रही क्योंकि उसे आम आदमी पार्टी से हार जाने का खतरा है। आज जब यह खबर पढी तो बडी देर तक हंसी आती रही।
3. फेसबुक पर एक वार्तालाप पढा। काम का था, इसलिये सबके साथ साझा कर रहा हूं।
अमित कुमार पाठक ने अपनी वॉल पर लिखा -‘‘आज एक गिनीज बुक वाला रिकार्ड बना है। 22 यानी कल दिल्ली से गोरखपुर जाने वाली सारी 12 ट्रेनों की सारी तत्काल सीटें 180 सेकण्ड में फुल। रोजी रोटी के लिये घर से निकले लोगों को कोई हक नहीं है अपने मां-बाप के साथ दिवाली मनाने का।”
इस पर कुछ लोगों ने जवाब भी दिये। चुनिन्दा जवाब भी साझा कर रहा हूं।
शरद अहलावत जी ने कहा –“तो तुमको क्या लगता है वो टिकट वहां पर जाकर हनीमून मनाने वालों ने या वहां पर जाकर पिकनिक मनाने वालों ने बुक की है? जिन्होंने बुक की हैं वो भी रोजी-रोटी कमाकर ही मां-बाप के पास जा रहे होंगे। अब डिमांड ही इतनी बढा रखी है तो सप्लाई भी कितना करें?... वैसे ये भी हो सकता है कि ये साजिश पाकिस्तान या चीन वालों की हो। सारी सीट बुक करा ली हों, जिससे गोरखपुर में कोई दिवाली न मना पाए।”
अमित कुमार पाठक –“यहां पे ये सब तर्क ठीक है। लेकिन गलती से पूर्वांचल जा रही ट्रेनों में जनरल बोगी में न चढ पाये लोगों को अगर ज्ञान दिया तो LIC भी क्लेम रिजेक्ट कर देगी।”
शरद अहलावत –“यही तो कल हम भी बोल रहे थे। अब तुमने भी स्वीकार कर लिया। जब तुमने बोला था कि एक बिहारी मेट्रो में टिकट ले लेता है पर ट्रेन में नहीं लेता है तो ये मैनेजमेण्ट फेल्यॉर है। पर अब उनको अगर ज्ञान दो तो LIC क्लेम की धमकी? और बिहार में ट्रेन में रेलवे पुलिस व टीटीई के साथ क्या होता है, वो सबको पता है। बस यहां ये ज्ञान देने से भी काम नहीं चलता है कि आज रिकार्ड बना 180 सेकण्ड में सीट फुल होने का। कभी जनसंख्या या भ्रष्टाचार के बारे में भी बात करो। लोगों को बस दूसरों को दोष देना आता है। कभी अपनी गलतियां नजर नहीं आतीं।... रेलवे मिनिस्टर भी जिन आंकडों के आधार पर ट्रेन चलाता होगा, वो उसको अफसर या नौकरशाह ही देते होंगे। वो तो पूर्वांचल में जाकर लोगों की गिनती करके तो नहीं लाता होगा ना? और ये भी जगजाहिर है कि ऐसी नौकरियों में सबसे ज्यादा लोग पूर्वांचल या बिहार से हैं। फिर आज तक वहां के ही किसी आईएएस/आईपीएस/नौकरशाह ने क्यों वहां की माली हालत नहीं सुधारने की कोशिश की? क्यों वहां पर पैदा होकर, पढ लिख कर, अफसर बन कर सेटल कहीं और हो जाते हैं? ... समस्याएं बहुत हैं वहां और समाधान नहीं मिला है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि गलती सारी सिस्टम की है। वहां के लोग भी उतने ही जिम्मेदार हैं। खाने के लिये कुछ मिले या न मिले, मनोरंजन पूरा होना चाहिये और मनोरंजन क्या होता है, वो तो बोलने की जरुरत नहीं है।”
अमित कुमार चौधरी –“दिवाली पर कभी कभी घर वालों को बुला लिया करो। बार-बार घर क्यों जाते हो?”
अमित कुमार पाठक –“अमित चौधरी, तुम्हारा बस चले तो वैष्णों माता से बोल दे कि एक-दो ब्रांच दिल्ली में खोल दें, जम्मू जाने में बहुत परेशानी होती है।”
शरद अहलावत –“अमित पाठक, तुम्हारे लॉजिक से तो भाई वैष्णों माता के दर्शन बस नवरात्रों में ही करने चाहिये। किसी और दिन करोगे तो मां मुंह फेर लेगी और आपकी यात्रा सिस्टम में इनवैलिड मार्क कर दी जायेगी। ... भाई, कभी मां बाप को बुलाओ, कभी तुम जाओ। कभी कभी यहां भी त्यौहार मनाओ। मां-बाप से मिलने ऑफ सीजन में जाओ। रेलवे की इज्जत का भी ख्याल रखो भाई।”
हालांकि मैंने इस वार्तालाप में कुछ लिखा तो नहीं लेकिन अच्छा लगा। एक मित्र हैं आशीष शाण्डिल्य। यहीं पास में सरकारी क्वार्टर में रहते हैं। दिल्ली के ही रहने वाले हैं। घर पर उनके अच्छे सम्बन्ध हैं लेकिन कभी भी दिवाली पर कुछ किलोमीटर दूर अपने घर नहीं जाते। कहते हैं- दिवाली पर हमें अपने घर के दरवाजे बन्द नहीं रखने चाहिये। यहां हम रहते हैं, हमारा परिवार है। भले ही किराये का हो, लेकिन है तो घर ही। है तो ठिकाना ही। फिर क्यों यहां के दरवाजे बन्द करें? पूरा साल पडा है बाहर आने जाने के लिये, मां-बाप रिश्तेदारों से मिलने के लिये लेकिन दिवाली पर हमें वहीं होना चाहिये जहां हम पूरे साल सपरिवार रहते आये हैं।
मैं शरद अहलावत जी की प्रत्येक टिप्पणी से सहमत हूं।
4. पिछले दिनों प्रधानमन्त्री ने ‘मेक इन इण्डिया’ का कॉन्सेप्ट दिया। जिस तरह हमारे यहां बाहर की बनी चीजें आती हैं, मेड इन चाइना, मेड इन जापान आदि तो उसी तरह बाहर भी मेड इन इण्डिया चीजें जायें। कॉन्सेप्ट तो अच्छा है लेकिन हमारे यहां एक बडी भारी मुसीबत की प्रथा चली आ रही है और वो प्रथा है- जुगाड। इसे हम भारतीय बडी शान से देखते हैं, लेकिन वास्तव में यह एक कलंक है। जुगाड का अर्थ है आपने विज्ञान की, इंजीनियरी की मां-बहन कर दी।
एक वाकया याद आ रहा है। कुछ दिन पहले हम कश्मीरी गेट पर एक प्रसिद्ध दुकान पर कुछ टर्फर टेस्ट करने गये थे। टर्फर भारी वजन उठाने की एक मशीन होती है जिसे हाथ से चलाया जाता है। इसमें कुछ इस तरह का सिस्टम होता है कि प्रयोगकर्ता मशीन के हैण्डल को पकडकर आगे-पीछे करता रहता है और टनों का लोड उठता चला जाता है। टर्फर कई क्षमताओं के होते हैं। हमें अपनी आवश्यकतानुसार पौन टन, डेढ टन और तीन टन के टर्फर को टेस्ट करना था। पौन टन का अर्थ है कि वो टर्फर पौन टन यानी 750 किलो के वजन को उठाने के लिये बनाया गया है, डेढ टन का 1500 किलो और तीन टन का टर्फर 3000 किलो वजन को उठायेगा। इनमें कुछ सुरक्षात्मक उपाय भी किये जाते हैं जिससे अगर भूल-चूक से तय क्षमता से ज्यादा वजन उठ जाये तो जान-माल की हानि न हो। अक्सर जो क्षमता मशीनों पर दिखाई जाती हैं, वास्तव में मशीनें उससे कुछ ज्यादा क्षमता के लिये डिजाइन की जाती हैं।
वैसे तो हमें टेस्ट करके कि मशीनें ठीक काम कर रही हैं, वापस आ जाना चाहिये था लेकिन निर्माणकर्ता ने जब अपनी शेखी बघारनी शुरू की और चीनी मशीनों की आलोचना शुरू की तो मेरा माथा ठनका। मैं कुछ देर और रुक गया। कई नतीजे सामने आये। पूछताछ की तो पता चला कि इन तीनों में तकनीकी तौर पर कोई अन्तर ही नहीं था। डेढ टन वाले और तीन टन वाले में मात्र एक बोल्ट का फर्क था। डेढ टन वाले में वो बोल्ट यहां लगा है तो तीन टन वाले में उससे इंच भर दूर। तीन और पौन टन में चेन का अन्तर था। एक में मोटी चेन लगी थी तो दूसरे में कुछ पतली। अगर हम डेढ टन वाले में भी मोटी चेन लगा देते तो वो तीन टन के बराबर हो जाता।
निर्माणकर्ता ने बताया कि जो विदेशी टर्फर होते हैं, वे वजन में इतने हल्के होते हैं कि कब फेल हो जाये, कुछ नहीं कह सकते। वे बॉडी शीट मेटल की बनाते हैं और हम पूरी बॉडी कास्टिंग करते हैं। उनकी मशीन में छोटे छोटे पुर्जे लगे होते हैं, हम बडे पुर्जे लगाते हैं ताकि फेल होने की गुंजाइश न रहे। उसने एक गियर दिखाया- यह विदेशी मशीन का गियर है। ये देखो, इसमें दांते भी बहुत छोटे हैं, क्या ये दांते इतना भारी वजन उठा लेंगे। मैंने देखा कि उस विदेशी और इनके भारतीय गियर में कम से कम तीन किलो का फर्क था। मैंने विदेशी मशीन देखने की इच्छा जाहिर की तो वो उनके पास नहीं थी। केवल गियर था, ताकि वे ग्राहकों को वो नन्हा सा नाजुक सा गियर दिखाकर भ्रम में डाले रहें।
जब हम प्रत्येक मशीन की क्षमता टेस्ट कर रहे थे तो एक गडबडी और सामने आई। हाथ से संचालित होने वाली मशीन से तीन टन वजन उठाने के लिये कुछ विशेष तामझाम की जरुरत होती है। विशेष मैकेनिज्म की जरुरत होती है। उनके पास था ये मैकेनिज्म। एक बडी सी तराजू जैसा प्रबन्ध था। इसके एक सिरे पर ठोस लोहे का बडा सा गुटका लगा था, दूसरी तरफ डण्डे पर थोडी थोडी दूरी पर कई हुक थे। हर हुक पर उसकी क्षमता लिखी थी। टर्फर की रस्सी को इस हुक में लगायेंगे तो यह पौन टन के बराबर होगा, इसमें लगायेंगे तो यह एक टन होगा, उससे अगला डेढ टन, उससे अगला, दो टन। इसी तरह इसी ‘तराजू’ में दस टन तक का वजन उठा सकते थे। इसी हुक वाले डण्डे के नीचे करीब एक मीटर की दूरी पर दो पुली लगी थीं, जिनसे आवश्यकतानुसार टर्फर वाली रस्सी डाली जाती थी।
खैर, उन्होंने टेस्ट करना शुरू किया। बीच में ही उन्होंने रस्सी एक पुली से हटाकर दूसरी पुली पर डाल दी। मैंने पूछा कि ऐसा क्यों किया? बोले कि इससे कुछ नहीं होगा। मैंने कहा कि होगा क्यों नहीं? पहले रस्सी हुक वाले डण्डे पर नब्बे डिग्री के कोण पर जुडी थी, अब साठ डिग्री के कोण पर है। पता है इससे वजन में कितना फर्क नहीं पडेगा? बोले कि सर, ज्यादा फर्क नहीं पडेगा। मैंने कहा कि दोगुना फर्क पडेगा। अब आप तीन टन नहीं बल्कि छह टन वजन उठा रहे हो। उसने तुरन्त कहा कि अच्छी बात तो है।
भले ही हमें यह अच्छी बात लगती हो कि विदेशी मशीनें, चीनी मशीनें कम वजन पर फेल हो जाती हैं, वहीं हमारी भारतीय मशीनें दोगुना तीन गुना वजन भी उठा लेती हैं। लेकिन यह बडी शर्मनाक बात है। मशीनों का वर्गीकरण किया ही इसलिये जाता है कि हर मशीन तय वजन ही उठाये। प्रयोगकर्ता को तो पता ही होता है कि वो कितना वजन उठाने जा रहा है, इसलिये वह उसी क्षमता वाली मशीन लेगा। 800 किलो के लिये 750 की क्षमता वाली मशीन कभी नहीं लगायेगा, हालांकि 750 वाली अपनी क्षमता के कम से कम डेढ गुने तक के लिये सुरक्षित डिजाइन की गई होती है। अगर आपको 500 किलो वजन उठाना है और आपके पास 750, 1500 व 3000 की क्षमता वाली मशीनें हैं तो आप तीनों में से कोई भी प्रयोग करने को स्वतन्त्र हो। ऐसे में जाहिर है आप 750 वाली मशीन ही प्रयोग करेंगे।
लेकिन समस्या यही है कि तीनों भारतीय मशीनें तकनीकी तौर पर एक ही हैं। उन पर बस ठप्पा लगा है ताकि आप पहचान सको। अगर गलती से 750 वाली पर 3000 का ठप्पा लग जाये तो यकीन मानिये कि वो 3000 किलो वजन भी उठा लेगी। जबकि विदेशी मशीनें जो हल्की होती हैं, 1000 पर ही फेल हो जायेंगी। वास्तव में मशीनों पर अगर तय क्षमता से ज्यादा वजन डालेंगे तो उन्हें फेल हो जाना चाहिये अन्यथा वर्गीकरण करने का क्या औचित्य? क्यों फिर इतनी अलग-अलग तरह की मशीनें बना रखी हैं? फिर तो बस एक सबसे मजबूत मशीन बना लो, वही सारे काम कर लेगी। क्या 3000 किलो की क्षमता वाला टर्फर 500 किलो वजन नहीं उठा सकता? निश्चित ही उठा लेगा। फिर क्यों अलग-अलग क्षमता के टर्फर बना रखे हैं? अगर आपको अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में टिकना है तो इन चीजों का ध्यान रखना पडेगा। इसी वजह से चीनी वस्तुएं वैश्विक बाजार पर कब्जा करती जा रही हैं।
एक और उदाहरण। पिछले दिनों मध्य प्रदेश के एक बच्चे ने एक मॉडल बनाया कि अगर ट्रेनों पर पवनचक्कियां लगा दी जायें तो उनसे काफी बिजली बनाई जा सकती है। बच्चे तो बच्चे हैं जी। उन्हें क्या पता कि बाहर वास्तव में हवा नहीं चल रही है? चल तो ट्रेन रही है। जितनी ताकत इंजन लगायेगा, उतनी ही तेज ट्रेन चलेगी और उतनी ही तेज हवा भी लगेगी। ट्रेन को हवा को काटते हुए आगे बढना होता है।
तेज चलने वाली चीजें इसी तरह डिजाइन की जाती हैं कि उन पर हवा का कम से कम प्रतिरोध हो। हवा अगर सामने से आ रही है तो आपको ज्यादा ताकत लगानी पडेगी और अगर पीछे से आपको धकेल रही हो तो कम ताकत लगानी पडेगी। प्रतिरोध कम से कम होना चाहिये। कारें, हाई-स्पीड ट्रेनें, हवाई-जहाज आदि इसी एयर-डायनेमिक मॉडल से बनाये जाते हैं। हवा कम से कम लगनी चाहिये। ऐसे में अगर ट्रेन पर पवनचक्कियां लगा दी जायें, तो हवा का प्रतिरोध बढेगा, ट्रेन की गति कम हो जायेगी और इंजन को ज्यादा ताकत लगानी पडेगी। जितनी ऊर्जा पवनचक्कियों से मिलती, उससे भी ज्यादा ऊर्जा इंजन को अतिरिक्त खर्च करनी पडेगी।
बच्चे हैं... उसने सोचा कि हवा से पवनचक्कियां चलती हैं, ट्रेन में हवा बहुत लगती है तो ट्रेन पर पवनचक्की ही लगा दो। निश्चित रूप से बच्चे को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। कुछ सोच तो रहा है। नहीं तो हमारे यहां बच्चों को कुछ भी सोचने की आजादी नहीं है। लेकिन इसे वास्तव में ट्रेन पर लगाना बेवकूफी होगी। मैंने पढा है कि इस दिशा में बडे लोग विचार-विमर्श कर रहे हैं। अरे, इसमें तो विचार-विमर्श करने की जरुरत ही नहीं है।
मेक इन इण्डिया तभी साकार होगा, जब हमें ‘जुगाड’ से छुटकारा मिलेगा। दो पढे लिखे मित्र बात कर रहे थे। विषय था मोटरसाइकिलें। मुझे मोटरसाइकिलों की कोई जानकारी नहीं है, तो ध्यान नहीं कि वे किस-किस की तुलना कर रहे थे। सुविधा के लिये मान लेते हैं कि वे बजाज और होण्डा की मोटरसाइकिलों की तुलना कर रहे थे। एक मित्र कह रहा था कि बजाज की मोटरसाइकिलें अच्छी होती हैं। दूसरे ने विरोध किया कि बजाज अपनी बाइकों में हल्के पुर्जे लगाता है, होण्डा अच्छे पुर्जे लगाता है। हल्के और घटिया होने की वजह से बजाज की बाइकें सस्ती भी हैं।
तभी मैं बीच में कूद पडा- बजाज हल्के और सस्ते पुर्जे लगाता है तो बुराई क्या है। सभी अपने यहां रिसर्च और डेवलपमेण्ट करते हैं। बाजार में प्रतियोगिता इतनी है कि कोई भी स्थापित ब्राण्ड रिस्क नहीं लेना चाहेगा। जो आपको हल्के पुर्जे लग रहे हैं, वे पुराने भारी पुर्जों से भी मजबूत हैं। ऊपर से सस्ते भी। आपको और क्या चाहिये?
5. पिछले दिनों चीनी प्रधानमन्त्री भारत दौरे पर थे तो कैलाश मानसरोवर का सडक मार्ग खोले जाने की बात जोर-शोर से उठने लगी। चीनी प्रधानमन्त्री ने इसका कुछ संकेत दिया था। फिर फेसबुक पर कुछ बुजुर्गों के अपडेट भी देखे कि वे मरने से पहले कैलाश दर्शन कर लेंगे।
वास्तव में भारत और तिब्बत के बीच कई स्थानों पर सडक मार्ग हैं। लद्दाख में है, हिमाचल में शिपकी-ला है, उत्तराखण्ड में भी माणा पास तक सडक बन गई है, सिक्किम में नाथू-ला है और अरुणाचल में तवांग में है। इनमें पर्यटकों के लिये सबसे सुगम नाथू-ला है। नाथू-ला से भारत के सिक्किम और तिब्बत की चुम्बी घाटी के बीच ट्रक भी चलते हैं। हिमाचल में तो पुरानी हिन्दुस्तान-तिब्बत सडक है ही। शिपकी-ला से उस तरफ तिब्बत है। लेकिन शिपकी-ला तक किसी भारतीय का पहुंचना ही बेहद मुश्किल है। सडक बनी है तो मुश्किल क्यों है? कई विभागों से परमिट लेने होते हैं जो कि आसानी से मिलते नहीं हैं। आपकी बहुत ऊंची पहुंच होनी चाहिये, तभी शिपकी-ला का परमिट बनता है। चले भी गये तो फोटो खींचना भीषण अपराध है। उधर नाथू-ला पर जमकर फोटोग्राफी होती है।
चीन ने तिब्बत में भी बहुत तरह के प्रतिबन्ध लगा रखे हैं। खासकर भारत से लगते इलाकों में। कोई विदेशी तो दूर, स्वयं चीनी भी अपनी मर्जी से तिब्बत भ्रमण नहीं कर सकते। उन्हें किसी चीनी सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त ट्रैवल एजेण्ट के माध्यम से ही वहां जाना होता है। यहां तक कि ल्हासा वाली ट्रेन में भी आप केवल ट्रैवल एजेण्ट के साथ ही बैठ सकते हैं। ये ट्रैवल एजेण्ट सुप्रशिक्षित होते हैं कि पर्यटकों को कहां-कहां घुमाना है और कहां-कहां नहीं, क्या-क्या बताना है और क्या-क्या नहीं। जब स्वयं चीनियों के लिये भी इतना प्रतिबन्ध है तो भारतीयों के लिये क्या हाल होगा, आप स्वयं अन्दाजा लगा सकते हैं। भारत और चीन का झगडा तिब्बत को लेकर ही है। चीन का एक नम्बर का दुश्मन दलाई लामा भारत में रहकर अपनी सरकार चला रहा है। फिर कैसे चीन इतनी आसानी से तिब्बत में अपनी सडकें भारतीयों के लिये खोल देगा?
बीसीएमटूरिंग पर एक यात्रा-वृत्तान्तपढा। कोलकाता का रहने वाला एक परिवार पूरा तिब्बत व जिनजियांग प्रान्त घूमकर आया। निश्चित ही उन्होंने करोडों खर्च किये होंगे और कई महीनों तक सौ तरह के परमिटों का इन्तजार किया होगा। वे ल्हासा भी घूमे और मंगोलिया सीमा तक गये, काशगर गये और पाकिस्तान-चीन सीमा भी देखी। काशगर से एक सडक सीधे नगारी होते हुए कैलाश मानसरोवर तक आती है। यह वही सडक है जिसे चीन में अक्साईचिन से होकर बनाया है। अक्साईचिन भारत का हिस्सा है, जिसे चीन ने कब्जा रखा है। तो उन लोगों ने एडी-चोटी का जोर लगा लिया काशगर से कैलाश जाने का लेकिन परमिट नहीं मिला। उन्होंने करोडों खर्च किये, लगभग पूरा तिब्बत देखा, महीने भर तक वहां घूमते रहे लेकिन कैलाश नहीं जा पाये। निश्चित ही उन्हें इस बात का ताउम्र मलाल रहेगा।
अभी भी भारतीय नेपाल के रास्ते सडक मार्ग से कैलाश जाते हैं। अभी भी नाथू-ला से सीमा के दोनों ओर व्यापारिक आवागमन हो रहा है। लेकिन यकीन मानिये चीन भारतीयों के लिये तिब्बत को नहीं खोलने वाला। आप कितने भी खुश हो लो, कितने भी उछल लो लेकिन तिब्बत आपके लिये बन्द ही रहेगा।
6. अब बात करते हैं
पिछली डायरीसे सम्बन्धित। पिछली डायरी में मैंने हरियाणवी, राजस्थानी, भोजपुरी आदि भाषाओं को अलग भाषा माना था, न कि हिन्दी की ही बोलियां। इस सन्दर्भ में जो पहली स्तरीय टिप्पणी आई, वो थी गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी की-
“नीरज जी, मुझे आपके यात्रा-वृत्तान्त स्तरीय व रोचक होते हैं। आपकी यह पोस्ट काफी विस्तार लिये है। मैं केवल शुरु की एक दो बातों के बारे में कहना चाहती हूँ। पहली बात तो भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्त्व-सम्पन्न राष्ट्र है। राष्ट्रों का संघ नही। ऐसा कहना इसकी अखण्डता पर प्रश्न उठाना है। यह 29 राज्यों 7 केन्द्रशासित राज्यों का संघ है।
दूसरी बात छत्तीसगढ़ी निमाड़ी आदि हिन्दी बोलियाँ हैं, अलग भाषा नही। स्थानीय प्रभाव से परिवर्तन आना तो स्वाभाविक है। ऐसा हर भाषा के साथ होता है। देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली व समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है।
रहा हिन्दी सीखने के विरोध की बात तो पहली बात तो किसी भी भाषा को सीखना अपने ज्ञान का दायरा बढ़ाना है। फिर आप अँग्रेजी को सीखने और अपनाने में इतने उत्सुक और गर्वित होते हैं जो कि विदेशी भाषा है तो फिर हिन्दी क्यों नही। हिन्दी के अलावा सभी भाषाएं केवल प्रान्तीय भाषाएं हैं। जैसे कि उड़िया केवल उड़ीसा में, मराठी महाराष्ट्र में, कन्नड़ कर्नाटक में वगैरा...। ये सभी भाषाएं समृद्ध हैं लेकिन जहाँ संचार भाषा का सवाल है तो भारतीय भाषाओं में केवल हिन्दी ही है। अब आप अंग्रेजी को तो राष्ट्रभाषा तो नही न बनाएंगे। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारा ही देश है जिसकी ऐसे ही विचारों के कारण अभी तक राष्ट्रभाषा संवैधानिक रूप से घोषित नही है जो बेहद जरूरी है। हालांकि जिन्हें यह नही मालूम वे राष्ट्रभाषा हिन्दी को ही मानते हैं और इसे तो आप भी मानते होंगे कि भाषा एकता में कितनी महत्त्वपूर्ण होती है।”
एक मित्र हैं
शंकर राजाराम। चेन्नई के रहने वाले हैं। घूमते बहुत हैं। जब भी दिल्ली आते हैं या यहां से गुजरते हैं तो हमारे यहां जरूर आते हैं। जाहिर है मूल रूप से तमिलभाषी हैं लेकिन हिन्दी भी बोलते हैं, हालांकि उतनी अच्छी नहीं। पुल्लिंग को बडी आसानी से स्त्रीलिंग बना देते हैं- नीरज, कैसी हो?
मैंने उनसे पूछा कि आप हिन्दी कैसे बोल लेते हो जबकि तमिलनाडु में हिन्दी का रिवाज नहीं है। बोले कि अगर आपको भारत में घूमना है, भारत को जानना है तो हिन्दी बोलनी ही पडेगी। शंकर राजाराम उन थोडे से लोगों में से एक हैं, जो हिन्दी की अहमियत जानते हैं। उन पर हिन्दी थोपी नहीं गई। अगर थोपी गई होती तो क्या पता वे हिन्दी के विरोधी ही बन जाते। थोपे जाने पर हम हर चीज का विरोध करते हैं, हर चीज का।
हिन्दी को अगर राष्ट्रभाषा बना दिया तो गैर-हिन्दीभाषी राज्यों में विरोध होगा ही। हालांकि केरल से लेकर मिजोरम तक ज्यादातर व्यक्ति हिन्दी जानते हैं। जरुरत है कि हिन्दी का महत्व इतना बढा दिया जाये, इतना बढा दिया जाये कि बाकियों को लगे कि हिन्दी सीखनी चाहिये। यह महत्व इस तरह बढाना होगा कि कहीं यह दूसरी भाषाओं का बलिदान न ले ले। इसी बलिदान, इसी डर की वजह से भाषाओं को लेकर झगडे होते हैं। असोम, महाराष्ट्र में हिन्दीभाषी पिटते हैं, कर्नाटक में पूर्वोत्तर वाले पिटते हैं, केवल भाषाई कारणों से।
हिमाचल के बौद्ध इलाकों में जैसे कि किन्नौर, लाहौल, स्पीति और लद्दाख में तिब्बती भाषा का प्रचलन है। उसका अपना साहित्य भी है। लेकिन स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार ने हिन्दी को बढावा दिया तो यह भाषा हाशिये पर चली गई। अब शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि उन्हें या तो अंग्रेजी पढनी पडेगी या फिर हिन्दी। मन में तो उनके आता होगा, विरोध भी वे करते होंगे कि वे अपने बच्चों को अपनी भाषा में क्यों नहीं पढा सकते? उन पर हिन्दी थोप दी गई। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिये था। हिन्दी जरूरी है लेकिन उनकी अपनी भाषा की बलि पर नहीं।
उनकी संख्या थोडी सी है, उनका विरोध आसानी से दब गया। लेकिन बडी जनसंख्या वालों का विरोध नहीं दबा करता। दूसरे राज्यों में ऐसा ही हो रहा है। हिन्दी जानते सभी हैं लेकिन जब उन्हें लगता है कि हिन्दी अतिक्रमण कर रही है, उनकी अपनी भाषा को खतरा है तो वे विरोध करेंगे ही। बेहतर यही है कि हिन्दी का प्रचार सुनियोजित तरीके से हो। अभी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का समय नहीं आया है। देश इसके लिये तैयार नहीं है और न ही हिन्दी।
7.अभी पिछले सप्ताह ही पंजाब पैसेंजर ट्रेन यात्रा की तैयारी की थी। इसमें पंजाब की वे लाइनें देखनी थीं जहां मैंने अभी तक पैसेंजर ट्रेनों में यात्रा नहीं की थी। लेकिन जब लुधियाना पहुंच गया और फिरोजपुर वाली पैसेंजर में बैठ गया तो मन में नकारात्मक विचार आने शुरू हो गये। पैसेंजर यात्रा बन्द करने के विचार। मन में आया कि फिरोजपुर से पंजाब मेल पकडकर वापस दिल्ली चला जाऊं लेकिन चार दिनों की छुट्टियां भी दिख रही थीं। पैसेंजर यात्रा नहीं करूंगा तो ये छुट्टियां खराब हो जायेंगी। आखिरकार स्टेशन के सामने एक कमरा ले लिया और सो गया। क्या पता अगले दिन विचार बदल जाये।
अगले दिन वास्तव में विचार बदले हुए थे। कोटकपूरा पहुंचा। अब मुझे फाजिल्का जाना था और वहां से फिरोजपुर और फिर जालंधर। लेकिन मुक्तसर तक भी नहीं पहुंच पाया था कि फिर से कल वाली कहानी शुरू हो गई। मुक्तसर उतर गया और फाजिल्का से आने वाली रेवाडी पैसेंजर में बैठ गया। हिसार से गोरखधाम पकडी और रात नौ बजे तक दिल्ली। तय कर लिया कि अब पैसेंजर यात्रा नहीं करूंगा। इसमें समय बहुत लगता है, बोरियत होती है और ब्लॉग पर पाठकों का अच्छा रेस्पॉंस भी नहीं मिलता। पिछले साल साइकिल यात्रा शुरू की थी, वो बन्द कर दी। क्योंकि जहां जहां साइकिल जा सकती है, वहां मोटरसाइकिल भी जा सकती है। फिर क्यों समय-खपाऊ साइकिल यात्रा करें? नौकरीपेशा इंसान के लिये समय प्रबन्धन बहुत बडी चीज है। कभी मोटरसाइकिल लेंगे, तो जहां साइकिल से जाने की इच्छा थी, मोटरसाइकिल से चले जायेंगे। इसी तरह पैसेंजर यात्रा बन्द की। कभी मन किया तो एक्सप्रेस से चला जाया करूंगा।
दूसरी बात, कई नावों की सवारी ठीक नहीं होती। एक दौर ऐसा आता है जब हमें अपनी पसन्द, शौक पहचानने पडते हैं। मुझे ट्रेन यात्राएं भी अच्छी लगती हैं, साइकिल यात्रा भी, ट्रेकिंग भी और भविष्य में मोटरसाइकिल आ जायेगी तो वो भी अच्छी लगेगी। लेकिन इनमें से एक को चुनना हो तो बाकियों को छोडना पडेगा। साइकिल यात्रा छोड दी। हिमालय के कारण ट्रेकिंग नहीं छोड सकता तो ट्रेन यात्रा छोड दी। एक ही जगह ध्यान केन्द्रित रहे तो अच्छा है। पैसेंजर यात्राओं में फोटोग्राफी पर भी असर पडता था। फोटो चलती ट्रेन से लेने पडते थे और ऐसे फोटो ऑटोमेटिक मोड पर ही ज्यादा ठीक आते हैं। मैन्यूअल मोड पर आपको फोटो लेने हों तो स्थिरता जरूरी है।
8. पिछली बार ‘घाघरा’ स्टेशन का फोटो दिखाया था और पूछा था कि यह स्टेशन कहां है? मुझे उम्मीद थी कि बहुत सारे मित्र इसका जवाब देंगे लेकिन सभी एक नम्बर के आलसी हैं। किसी के पास इतना समय नहीं होता कि टिप्पणी ही कर सकें। फिर एक उम्मीद और थी कि सभी लखनऊ-गोण्डा के बीच में स्थित ‘घाघरा घाट’ के बारे में बतायेंगे। लेकिन ‘घाघरा घाट’ के बारे में एक ही मित्र ने बताया। ‘घाघरा’ की सही स्थिति कईयों ने बता दी। तो अपने वचन को निभाते हुए हम सही जवाब देने वाले मित्रों का नाम बडे बडे काले अक्षरों में लिख रहे हैं-
1. रणजीत, 2. सचिन
हालांकि गोपाल लाल ने भी कहा कि यह स्टेशन झारखण्ड में होना चाहिये क्योंकि इसका नाम हिन्दी व अंग्रेजी में लिखा है। तो गोपाल जी, आपको बता दूं कि झारखण्ड पहले बिहार का हिस्सा था तो यहां स्टेशनों के नाम हिन्दी, अंग्रेजी के साथ उर्दू में भी लिखे जाते हैं। बंगाल सीमा के पास कुछ स्टेशन बंगाली में भी हैं, तो ओडिशा सीमा के पास कुछ उडिया में भी लिखे हैं। घाघरा स्टेशन टाटानगर-राउरकेला के बीच में झारखण्ड में स्थित है। यह बिल्कुल नया बना स्टेशन है, हाल्ट है। भविष्य में भले ही यहां उर्दू या उडिया भी आ जाये लेकिन अभी प्रारम्भिक दौर में हिन्दी और अंग्रेजी ही हैं।
आपको बताना है कि यह स्टेशन किस राज्य में है, कहां है? सही उत्तर देने वालों का नाम बडे बडे काले अक्षरों में अगली डायरी में लिखा जायेगा।