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रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर

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नग्गर का जिक्र हो और रोरिक आर्ट गैलरी का जिक्र न हो, असम्भव है। असल में रोरिक ने ही नग्गर को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दी है। निकोलस रोरिक एक रूसी चित्रकार था। उसकी जीवनी पढने से पता चलता है कि एक चित्रकार होने के साथ-साथ वह एक भयंकर घुमक्कड भी था। 1917 की रूसी क्रान्ति के समय उसने रूस छोड दिया और इधर-उधर घूमता हुआ अमेरिका चला गया। वहां से वह भारत आया लेकिन नग्गर तब भी उसकी लिस्ट में नहीं था। पंजाब से शुरू करके वह कश्मीर गया और फिर लद्दाख, कराकोरम, खोतान, काशगर होते हुए तिब्बत में प्रवेश किया। तिब्बत में उन दिनों विदेशियों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध था। वहां किसी को मार डालना फूंक मारने के बराबर था। रोरिक भी मरते-मरते बचा और भयंकर परिस्थितियों का सामना करते हुए उसने सिक्किम के रास्ते भारत में पुनः प्रवेश किया और नग्गर जाकर बस गये। एक रूसी होने के नाते अंग्रेज सरकार निश्चित ही उससे बडी चौकस रहती होगी।
खैर, चित्रकारी में वह प्रसिद्ध तो पहले से ही था, भारत आकर जब वह स्थापित हो गया तो और भी ज्यादा प्रसिद्धि मिलने लगी। 13 दिसम्बर 1947 को यहीं पर उनकी मृत्यु हुई। उनके घर को ही अब संग्रहालय का रूप दे दिया गया है और रोरिक आर्ट गैलरी के नाम से जाना जाता है। इसी में उनके चित्रों का संग्रह है। इन्हीं में से एक चित्र जवाहर लाल नेहरू व इन्दिरा गांधी का भी है। इन्दिरा बडी अच्छी लग रही है। रोरिक का घर बिल्कुल साफ सुथरा है और बन्द ही रहता है। दर्शकों को बाहर ही बाहर गैलरी में घूम-घूमकर व खिडकियों-दरवाजों के अन्दर झांक-झांककर इसे देखना होता है। वास्तव में इसके ठाठ देखकर बडा दिल जलता है। तब वे जिस कार का प्रयोग करते थे, वह भी यहां सुरक्षित खडी है। इसमें प्रवेश का शुल्क पचास रुपये है।
आर्ट गैलरी से कुछ पहले नग्गर का किला भी है। पहले यह कुल्लू के राजाओं का महल हुआ करता था। बाद में उन्होंने इसे अंग्रेजों को बेच दिया। आजादी के बाद यह भारत सरकार के नियन्त्रण में आ गया और इसे दर्शनीय स्थल बनाने हेतु राष्ट्रीय धरोहर बना दिया गया। आज इसमें हिमाचल पर्यटन का एक होटल है। यह इस इलाके की अन्य इमारतों की तरह लकडी व पत्थर से बना है व भूकम्परोधी है। इसमें भी प्रवेश का शुल्क लगता है, फोटो खींचने का शुल्क अलग से है। हम यहां तक आते-आते पसीने पसीने हो गये थे। कारों में मनाली घूमने आये रईस साफ-सुथरे ‘टूरिस्टों’ की भीड में हमने घुसना ठीक नहीं समझा और इसे बाहर से ही प्रणाम करके आगे बढ चले।
निकोलस रोरिक का घर

इस फोटो में बायें नेहरू है तो बीच में इन्दिरा।




यहां से दिखता ब्यास घाटी का विहंगम नजारा



रोरिक की एक कलाकृति


रोरिक की कार


अगले भाग में जारी...

चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव


चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव

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अशोकमधुरको शक था कि हम ठीक रास्ते पर जा रहे हैं। या फिर सर्वसुलभ जिज्ञासा होती है सामने वाले से हर बात पूछने की। हालांकि मैंने हर जानकारी जुटा रखी थी। उसी के अनुसार योजना बनाई थी कि आज दर्रे के जितना नजदीक जा सकते हैं, जायेंगे। कल दर्रा पार करके मलाणागांव में रुकेंगे और परसों मलाणा से जरी होते हुए कुल्लू जायेंगे और फिर दिल्ली। रोरिक आर्ट गैलरी 1850 मीटर की ऊंचाई पर है। चन्द्रखनी 3640 मीटर पर। दूरी कितनी है ये तो पता नहीं लेकिन इस बात से दूरी का अन्दाजा लगाया जा सकता है कि आमतौर पर हम जैसे लोग इस दूरी को एक दिन में तय नहीं करते। दो दिन लगाते हैं। इससे 18-20 किलोमीटर होने का अन्दाजा लगाया जा सकता है। 18 किलोमीटर में या 20 किलोमीटर में 1850 से 3640 मीटर तक चढना कठिन नहीं कहा जा सकता। यानी चन्द्रखनी की ट्रैकिंग कठिन नहीं है।
अब बात आती है कि रास्ता कितना चलता-फिरता है। मलाणा देश-दुनिया से बिल्कुल कटा हुआ गांव है। इसके लिये मलाणी स्वयं जिम्मेवार हैं। उन्होंने कभी बाहर वालों से सम्पर्क नहीं किया। वे अपनी ही छोटी सी घाटी में जीते रहे। इससे पता चलता है पहले कभी इस दर्रे से आवाजाही नहीं के बराबर रही होगी। अब चूंकि मलाणा अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर आ चुका है तो निश्चित ही आवाजाही बढी है। फिर मलाणा तक सडक भी बन चुकी है तो जिसे मलाणा जाना है, वह सडक मार्ग से जाना पसन्द करेगा। इस वजह से भी लग रहा था कि चन्द्रखनी दर्रे पर आवाजाही नहीं मिलेगी।
लेकिन मनाली से नजदीकी व आसान होना इसे लोकप्रिय बनाते हैं। कुछ फोटो भी मैंने देखे थे जिनमें जंगल के बीच पर्याप्त चौडी पगडण्डी साबित करती है कि यहां से खूब आवागमन होता है। और सबसे बडी बात कि गर्मियों में हिमाचल के अन्य भागों की तरह यहां भी गद्दी व गुज्जर गुजर-बसर करते हैं। इन सब बातों की जानकारी मुझे पहले से ही थी। यह सब अशोक व मधुर को भी बता रखा था, फिर भी वे नग्गर में स्थानीयों से पूछ बैठे। उन्होंने जो गुमराह करने की कोशिश की, अशोक भाई परेशान हो गये कि बिना गाइड के तो वहां जाना ठीक नहीं है। लेकिन पुनः मेरे समझाने से मान गये।
रोरिक आर्ट गैलरी से आगे कच्ची सडक शुरू हो जाती है। यह सडक यहां से चार-पांच किलोमीटर आगे एक गांव तक जाती है। उस गांव का नाम फिलहाल ध्यान नहीं आ रहा है। इसी सडक पर करीब एक किलोमीटर चलने के बाद दाहिने हाथ कुछ सीढियां ऊपर की तरफ जाती दिखाई देती हैं। हमें इन्हीं पर चल देना है। ये सीढियां रूमसू गांव जाने का लघुपथ है, अन्यथा सडक भी थोडा चक्कर लगाकर रूमसू से गुजरती है।
उधर सुरेन्द्रनग्गर पहुंच चुका था और खाना खा रहा था।
अभी तक हम सडक के रास्ते ही आये थे, उतनी ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडी। लेकिन अब जब पगडण्डी पर चलना शुरू कर दिया, तो तीनों के समझ में आ गया कि यात्रा आसान नहीं होने वाली। दस मिनट बाद ही सभी धराशायी होकर इधर-उधर बैठ गये। मेरे मुंह से हांफते हुए निकला- किसने कहा था चन्द्रखनी आने को? मधुर ने मरी सी आवाज में कहा- तुमने। मैंने तुरन्त कहा- तो मना नहीं कर सकते थे? समझा नहीं सकते थे? ... आज के बाद ट्रैकिंग बन्द।
आगे चले तो जरा ही देर में रूमसू गांव दिख गया। एक से पूछा तो पता चला कि यहां चाय नहीं मिलेगी। हमें चाय की जरुरत महसूस होने लगी थी। बाकियों का तो पता नहीं लेकिन अगर मैं हिमालय के किसी भी हिस्से में ट्रैकिंग कर रहा हूं तो चाहे मुझे दस दस मिनट में चाय पिलाये जाओ, कभी मना नहीं करूंगा। ऐसी थकान में चाय का अलग ही आनन्द होता है।
शीघ्र ही हम रूमसू के हृदय स्थान पर पहुंच गये। यहां जमलू देवता का मन्दिर था। मन्दिर के आसपास भी बडे बडे लकडी व पत्थर के मकान थे जो अब पुराने होने के कारण जर्जर होने लगे थे। ऐसे मकान भूकम्परोधी होते हैं। मैं यहां जमलू को देखकर आश्चर्यचकित रह गया क्योंकि जमलू मलाणा घाटी का आराध्य देव है। मेरी जानकारी के अनुसार केवल मलाणा और उससे कुछ ही दूर स्थित रसोल गांव में ही जमलू की सत्ता चलती है। मैंने यहां बैठे बुजुर्गों से पूछा भी कि यहां जमलू कहां से आ गया? उन्होंने ज्यादा तो कुछ नहीं कहा, बस इतना ही कहा कि यहां भी मलाणा की तरह जमलू की पूजा की जाती है। एक गलती और कर दी मैंने। मुझे यह भी पता लगाना था कि अगर यहां जमलू है तो मलाणी इस गांव में शादी भी करते होंगे। अभी तक पता था कि मलाणी केवल रसोल वालों से ही विवाह सम्बन्ध रखते हैं। रसोलियों की मलाणियों से और मलाणियों की रसोलियों से। हजारों सालों से यही होता आ रहा है। लेकिन यहां जमलू के होने से मुझे पक्का यकीन है कि रूमसू के साथ साथ आसपास के कुछ गांवों का विवाह सम्बन्ध उधर मलाणा घाटी से अवश्य होगा। और हां, जमलू देव अपने मन्दिर को किसी बाहरी व्यक्ति को छूने की इजाजत नहीं देते। हमें भी इजाजत नहीं थी, इसलिये बाहर से ही फोटो खींचकर काम चला लिया।
सुरेन्द्र रोरिक आर्ट गैलरी से आगे निकल आया था।
तभी निगाह पडी मन्दिर के पीछे घास के एक मैदान पर। वहां काफी सारी लडकियां मस्ती कर रही थीं और एक-दूसरे के फोटो खींच रही थीं। पहले तो सोचा कि वे भी चन्द्रखनी जा रही हैं। हम तीनों ने दिवास्वप्न देखने शुरू कर दिये कि वे भले ही कितना भी धीमा चलें, हमें उनसे आगे नहीं निकलना है। उनके साथ ही रहना है। कुछ देर बाद वे वापस हमारी तरफ आने लगीं। बहुत सारी थीं, बाद में पता चला कि चालीस थीं। हम जमलू मन्दिर के सामने एक छोटी सी दीवार पर बैठे थे। वे भी जमलू के सामने आ गईं और फोटो खींचने लगीं। और सारी की सारी एक से बढकर एक खूबसूरत। यह एक स्वर्गीय नजारा था। वाह जमलू, तेरी माया!
जल्दी ही वे नीचे की तरफ चली गईं यानी नग्गर की तरफ। हमने ग्रामीणों से पूछा तो उन्होंने बताया कि ये मनाली से आई थीं और हर दूसरे तीसरे दिन कोई न कोई ग्रुप आता रहता है। असल में यह सारा काम यूथ हॉस्टल का था। किसी और का भी हो सकता है। यूथ हॉस्टल इसी तरह के आयोजन करता है। हो सकता है कि यह आयोजन कोई ‘केवल महिलाओं के लिये’ हो। यहां आना, ग्रामीण संस्कृति को देखना, जंगल में घूमना आदि उनके इस आयोजन का ही हिस्सा होता है।
उनके साथ कुछ लडके भी थे। वे निश्चित ही ग्रुप लीडर रहे होंगे। मैं जला-भुना जा रहा था उन लडकों को देखकर। उल्लू जैसी सबकी शक्लें, पता नहीं इन्हें घर पर कोई काम-धाम नहीं होता क्या? यूथ हॉस्टल वाले किसी को भी बना देते हैं ग्रुप लीडर। बस उनके दो कैम्पों में भाग लो और आप ग्रुप लीडर बनने की योग्यता हासिल कर लोगे। वैसे मैं भी यूथ हॉस्टल का आजीवन सदस्य हूं। लूंगा... अब उनके किन्हीं दो कैम्पों में भाग लूंगा और ग्रुप लीडर बनूंगा। इसी तरह कोई लडकियां लीड करने को मिलेंगी तो ग्रुप लीडर बन जाऊंगा, अन्यथा अगली बार के लिये इन्तजार कर लूंगा।
मधुर ने एक बडी प्यारी बात कही- नीरज भाई, मैं आपके साथ बहुत दिन से घूमना चाहता था। अशोक भी घूमना चाहता था। और भी बहुत से लोग होंगे जो आपसे कहते होंगे कि साथ घूमना है। क्या कभी किसी लडकी ने भी कहा है साथ घूमने को? मेरा मुंह लटक गया। मैं भला क्या जवाब देता?
तभी सुरेन्द्र का फोन आया कि उसने रूमसू में प्रवेश कर लिया है, अब कहां जाए? मैंने बताया कि लडकियों की लाइन दिख रही है? बोला कि हां, यह तो बडी लम्बी लाइन है। ... तो बस, वे सब अभी कुछ ही देर पहले हमारे पास थीं। वह समझ गया और हाय, हाय करता हुआ हमसे आ मिला। हाय हाय जहां हिन्दी में विलाप का सूचक है, वहीं अंग्रेजी में हालचाल पूछने-बताने का। वैसे तो सुरेन्द्र रंग के हिसाब से सांवला है लेकिन अन्दर से बिल्कुल काला है। आते ही बोला कि इतनी सारी लडकियां? मैं भी मनाली जा रहा हूं। हालांकि हमें पता था कि वो वापस जाने के लिये नहीं आया है।
यहां मन्दिर के पास ही परचून की एक दुकान थी, शायद रूमसू की एकमात्र दुकान हो। यहां कुछ बिस्कुट-नमकीन खा लिये, कुछ साथ ले लिये। कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल भी ले ली। परांठे तो पहले से ही रखे थे।
तीन बजे जब चलने का इरादा बना तो बूंदाबांदी होने लगी। उसी दुकान में शरण ले ली। चन्द्रखनी की तरफ व ब्यास के दूसरी तरफ बडा भंगाल की चोटियों पर खूब काले बादल जमा थे। हिमालय में दोपहर बाद ऐसा होना ताज्जुब की बात नहीं है। तभी एक प्रभावशाली दिखने वाला बुजुर्ग हमारे पास आया। पूछने लगा कि आप कभी चन्द्रखनी गये हो? ... नहीं गये।... तो आपके लिये अकेले उधर जाना बहुत खतरनाक है। आप रास्ता भटक जाओगे। कोई गाइड ले लो।... नहीं, वहां तक अच्छा रास्ता बना है। अगर भटकेंगे तो किसी से पूछ लेंगे। उसने हमें और डराने की कोशिश की कि मौसम खराब है, रास्ते में कोई नहीं मिलेगा, भालू भी हैं। लेकिन इन बातों का हम पर कोई असर नहीं होना था। वे बुजुर्ग बेचारे फिर मन्दिर के सामने चबूतरे पर जा बैठे।
बारिश पांच-दस मिनट में फिर थम गई। थमते ही हम निकल पडे। संयोग से सुरेन्द्र कुछ पीछे रह गया, हम तीनों आगे निकल गये। करीब सौ मीटर जाने पर जब देखा कि सुरेन्द्र कहीं नहीं दिखाई दे रहा तो कुछ देर उसकी प्रतीक्षा की। यहां फोन नेटवर्क था तभी उसका ही फोन आया। असल में वह किसी दूसरी पगडण्डी पर चला गया था। मैं जहां भी कहीं जाता हूं तो उस जगह का भूगोल गौर से देखता हूं। उम्मीद थी कि वह किधर गया है और जिधर भी गया है, अगर बढता रहे तो आगे जल्दी ही हम मिल जायेंगे। हम ज्यादा दूर नहीं थे लेकिन घनी झाडियों व पेडों की वजह से देख नहीं पा रहे थे। मधुर ने आवाज लगाई, कुछ ऊपर से सुरेन्द्र की जवाबी आवाज आई। फिर तो वह अपनी पगडण्डी पर बढता गया और हम अपनी पर। आखिरकार थोडा आगे जाने पर मिल गये।

मधुर गौड

अशोक भार्गव

जाटराम

रूमसू गांव




जमलू मन्दिर

रूमसू से दिखतीं बडा भंगाल की चोटियां
अगले भाग में जारी...

चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव

चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात

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अच्छी खासी चढाई थी। जितना आसान मैंने सोच रखा था, यह उतनी आसान थी नहीं। फिर थोडी-थोडी देर बाद कोई न कोई आता-जाता मिल जाता। पगडण्डी भी पर्याप्त चौडी थी। चारों तरफ घोर जंगल तो था ही। निःसन्देह यह भालुओं का जंगल था। लेकिन हम चार थे, इसलिये मुझे डर बिल्कुल नहीं लग रहा था। जंगल में वास्तविक से ज्यादा मानसिक डर होता है।
आधे-पौने घण्टे चलने के बाद घास का एक छोटा सा मैदान मिला। चारों अपने बैग फेंककर इसमें पसर गये। सभी पसीने से लथपथ थे। मैं भी बहुत थका हुआ था। मन था कि यहीं पर टैंट लगाकर आज रुक जायें। लेकिन आज की हमारी योजना चन्द्रखनी के ज्यादा से ज्यादा नजदीक जाकर रुकने की थी ताकि कल हम दोपहर बादल होने से पहले-पहले ऊपर पहुंच जायें व चारों तरफ के नजारों का आनन्द ले सकें। अभी हम 2230 मीटर पर थे। अभी दिन भी था तो जी कडा करके आगे बढना ही पडेगा।
दो घण्टे बाद यानी सवा पांच बजे तक जी पूरा निकल चुका था। एक कदम भी आगे बढाने का मन नहीं था। रास्ते में ही बैठ गये। ऐसा नहीं था कि रास्ता कठिन है या चढाई भयंकर है। लेकिन पता नहीं क्या बात थी कि चला ही नहीं जा रहा था। भूख लगने लगी। सभी ने एक एक परांठे खाये, कुछ बिस्कुट खाये और पानी पी लिया। हां, याद आया। पानी समाप्त हो चुका था। अशोक के पास कोल्ड ड्रिंक की एक बोतल थी जिसमें अब तक चार घूंट ही बची थी। सभी को प्यास लगी थी, अशोक से मांगी तो उसने मना कर दिया। यहां मुझे पता चला कि उसने कोल्ड ड्रिंक क्यों ली थी और क्यों अब हमें नहीं देना चाह रहा था। असल में उसके पास बीयर की एक बोतल थी। वह दिल्ली से ही बीयर लेकर आया था लेकिन बस में बैग चोरी हो जाने के कारण वह बोतल भी चली गई। बाद में उसने कुल्लू में दूसरी बोतल ली। मुझे कुछ भी पता नहीं चला कि ऐसा उसने कब किया। अब जब वह बीयर व कोल्ड ड्रिंक मिलाकर पीने लगा तो मुझे गुस्सा तो बहुत आया लेकिन कर भी क्या सकता था? मधुर व सुरेन्द्र व मैं तीनों नशेडी नहीं हैं।
जब खा-पीकर यहां से चलने को हुए तो नीचे से एक गुज्जर आया। उसका डेरा आगे कुछ दूर था। उसने हमें धिक्कारा कि तुम पहले कभी यहां नहीं आये, बिना गाइड के आ गये, तुम जैसा महामूर्ख दुनिया में कोई नहीं है। खुद तो अनपढ था लेकिन हमसे पूछने लगा कि बिना नक्शा लिये तुम इस इलाके को कैसे पार करोगे? काफी दूर तक वह हमारे साथ चला और हमें धिक्कारता ही रहा। मुझे उस पर बहुत गुस्सा आ रहा था लेकिन कुछ सोचकर शान्त रहा। आखिर हम आज नहीं तो कल उसके डेरे के पास से गुजरेंगे, तब हमें वहां कुछ खाने-पीने को मिलेगा। वह हमें जी-भरकर जली-कटी सुनाता रहा लेकिन हम भी उसकी हां में हां मिलाते रहे। यहां आने के लिये पछतावा भी जाहिर किया और वादा भी किया कि भविष्य में आयेंगे तो बिना गाइड के नहीं आयेंगे। इसका हमें अगले दिन फायदा मिला। बताऊंगा सबकुछ।
बीयर पीकर अशोक घोडा बन गया। अभी तक वह हांफता हुआ सबसे पीछे चलता था लेकिन अब उस गुज्जर के साथ साथ चलने लगा और हमसे बहुत आगे निकल गया। हम तीनों हैरानी से एक-दूसरे का मुंह देखते रहे। हमसे कदम नहीं बढाये जा रहे थे और वह भागा जा रहा था। बाद में जब मिले तो हम तीनों ने उससे सबसे पहले यही पूछा- बीयर और भी बची है क्या?
खाना खाने के बाद आधे घण्टे चले कि एक बडा सा मैदान मिला। ऊंचाई 2525 मीटर थी। इसमें कहीं कहीं समतल भाग भी था और एक तम्बू भी लगा हुआ था। वह किसी गुज्जर का था और अभी वहां नहीं था। हमने इस जगह को देखते ही यहीं घुटने गाड दिये। आज यहीं रुकेंगे। गुज्जर ने बहुत समझाया कि यहां से बस आधा घण्टा और लगेगा और आप इससे अच्छी जगह पर पहुंच जाओगे। हमारा डेरा भी वहीं है। वहां पानी भी है। पानी हमारे पास समाप्त हो चुका था और हमें इसकी सख्त आवश्यकता थी। हमें आधे घण्टे और चलने में उतनी परेशानी नहीं थी लेकिन इन लोगों का समय और दूरी मापने का पैमाना बिल्कुल इनकी मर्जी पर आधारित होता है। इसने अगर आधा घण्टा कहा है तो वह एक घण्टा भी हो सकता है और दो-ढाई घण्टे भी। हमारा गला सूखा जा रहा था, यहां इस मैदान में पानी नहीं था इसलिये मजबूरन यहां से चलना पडा। उसने आधा घण्टा कहा है तो मैं कम से कम एक घण्टा मानकर चल रहा था। हालांकि उस समय मधुर ने बडी समझदारी दिखाई। उसके बैग में एक लीटर पानी था। स्वयं प्यासा होने के बावजूद भी उसने पानी नहीं निकाला। बाद में जब हम टैंट लगा चुके, तब उसने निकाला और सभी ने उसे पीया व अगले दिन के लिये भी रखा। यह मधुर की दूरदर्शिता ही थी।
मात्र बीस मिनट लगे और हम दूसरे मैदान में पहुंच चुके थे। गुज्जर ने बिल्कुल ठीक बताया था। ऐसा अक्सर नहीं होता। सामने उनके मवेशी चर रहे थे और बच्चों व महिलाओं की भी आवाजें आ रही थीं। असल में उनका डेरा इस मैदान से जरा सा ऊपर घने पेडों के बीच था। उसने हमें डेरे तक चलने को भी कहा लेकिन हम यहीं पर जम गये। आज रात यहीं रुकना था, इसलिये जल्दी ही ठीक जगह देखकर टैंट लगा लिये। सात बज चुके थे। पश्चिमाभिमुख होने के कारण अभी तक यहां उजाला था जो अब धीरे धीरे अन्धेरे में बदलता जायेगा।
यहां पानी तो था लेकिन साफ नहीं था। कुछ ऊपर जो गुज्जर डेरा था, पानी वहीं से होता हुआ आ रहा था। मवेशियों का गोबर घुल-घुलकर इसमें खूब आ रहा था। अच्छा हुआ कि मधुर के पास पानी था।
अगर मैं अकेला होता तो गुज्जरों के पास पहुंच जाता और वहीं रुकता या उनके पास टैंट लगाता। यहां चारों तरफ भयंकर जंगल था और भालू बहुत थे। हालांकि भालू यथासम्भव मनुष्य से दूर ही रहते हैं लेकिन अगर कभी आमना-सामना हो जाये तो खून-खराबा होते देर नहीं लगती। हमेशा मनुष्य का ही खून बहता है। लेकिन आज हम चार थे। ऐसा नहीं था कि हम चार मिलकर एक भालू का सामना कर लेंगे। अगर कोई भालू भूला-भटका इधर आ भी रहा हो तो आवाज सुनकर वह बीच रास्ते में ही इधर-उधर हो लेगा। चार मनुष्य आपस में कितनी भी कम बातें करें लेकिन बातचीत तो होती ही है, आवाज तो होती ही है।
सूखी लकडियां बीनकर आग जला ली। यह जगह समुद्र तल से 2675 मीटर की ऊंचाई पर थी, फिर मौसम भी खराब था इसलिये काफी सर्दी थी। अन्धेरे में मैदान के एक किनारे पर जंगल के पास आग जलाकर चारों बैठे थे। आनन्द तो आ ही रहा था लेकिन डर भी लग रहा था। बातों-बातों में भूतों व जंगली जानवरों के किस्से शुरू हो गये तो मैंने उन किस्सों को बन्द करवाया। मुझे जंगल में बहुत डर लगता है खासकर रात को। हर एक चीज भुतहा दिखने लगती है। सन्नाटा भी डराने लगता है। पत्ता टूटकर गिरता है तो लगता है कि कोई कदम बढाकर इधर आ रहा है। हालांकि बाकियों के मौजूद होने से डर कुछ कम लग रहा था लेकिन फिर भी डर तो लग ही रहा था। ऐसे में भूतों के किस्से डर को कई गुना बढा देते हैं।

थकान से पस्त




यह पेडों पर पता नहीं क्या लगा था। बिल्कुल मशरूम से लग रहे हैं।

इसी मैदान में हमने घुटने गाड दिये थे।


इसमें कुछ तम्बू भी लगे थे, जो सभी खाली थे।

बीयर पीने के बाद अशोक घोडा बन गया। इस चित्र में सबसे पीछे सुरेन्द्र खडा है, उससे आगे हाथ में डण्डा लेकर मधुर और अशोक सबसे आगे भागा जा रहा है।


इसी मैदान में हम टैण्ट लगायेंगे।




आग जला ली।




अगले भाग में जारी...

चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव

डायरी के पन्ने-23

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ध्यान दें:डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इनसे आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। कृपया अपने विवेक से पढें।

1. 27 जून को जब ‘आसमानी बिजली के कुछ फोटो’ प्रकाशित किये तो उस समय सबकुछ इतना अच्छा चल रहा था कि मैं सोच भी नहीं सकता था कि तीन महीनों तक ब्लॉग बन्द हो जायेगा। अगली पोस्ट 1 जुलाई को डायरी के पन्ने प्रकाशित होनी थी। यह ‘डायरी के पन्ने’ ही एकमात्र ऐसी श्रंखला है जिसमें मुझे एक दिन पहले ही पोस्ट लिखनी, संशोधित करनी, ब्लॉग पर लगानी व सजानी पडती है। भले ही मैं दूसरे कार्यों में कितना भी व्यस्त रहूं, लेकिन निर्धारित तिथियों पर ‘डायरी के पन्ने’ प्रकाशित होने ही हैं। 30 जून को भी कुछ ऐसा ही हुआ। पिछले पन्द्रह दिनों में मैंने डायरी का एक शब्द भी नहीं लिखा था। बस कुछ शीर्षक लिख लिये थे, जिन पर आगामी डायरी में चर्चा करनी थी। 30 तारीख को मैं उन शीर्षकों को विस्तृत रूप देने में लग गया। मैं प्रत्येक लेख पहले माइक्रोसॉफ्ट वर्ड में लिखता हूं, बाद में ब्लॉग पर लगा देता हूं। उस दिन, रात होते होते 6700 शब्द लिखे जा चुके थे। काफी बडी व मनोरंजक डायरी होने वाली थी।
रात को ऑफिस चला गया। अगले दिन यानी 1 जुलाई की सुबह वापस लौटा तो जोरों की नींद आ रही थी। लेकिन डायरी अभी भी वर्ड में ही पडी थी, उसे ब्लॉग पर प्रकाशित करना था। और यह प्रकाशन कोई साधारण प्रकाशन नहीं होता कि वर्ड से कॉपी करके लाओ और इधर पेस्ट करके पब्लिश बटन दबा दो। पेस्ट करने के बाद भी बहुत सारी एडिटिंग करनी होती है। ज्यादातर एडिटिंग एचटीएमएल मोड में जाकर करता हूं। फिर निर्धारित जगहों पर लिंक भी लगाने होते हैं। लिंक के लिये पहले उस साइट को खोलना पडेगा, फिर यूआरएल कॉपी करके ब्लॉग में पेस्ट करना पडेगा। धीमी नेट स्पीड पर इस काम में बहुत समय लगता है। आखिरकार जब सबकुछ हो गया, तो दस बज चुके थे। नींद की हालत ये थी कि एडिटिंग करते समय मैं कई बार ‘लुढक’ चुका था। जबरदस्ती आंखें खोल रखी थीं। जिस समय पब्लिश बटन दबाने जा रहा था, तो बस यही सोच रखा था कि लैपटॉप बन्द भी नहीं करूंगा और बिस्तर पर लुढक जाऊंगा।
लेकिन पोस्ट प्रकाशित नहीं हुई। बटन दबाता, प्रोसेसिंग चलती रहती और आखिरकार प्रकाशन की मनाही हो जाती। दूसरे ब्राउजर में भी कोशिश की लेकिन बात नहीं बनी। रिफ्रेश किया, नये सिरे से ब्लॉग खोलकर कोशिश की लेकिन कुछ नहीं हुआ। इसके लिये असल में कई बातें जिम्मेदार थीं। लेकिन मुख्य रूप से जिम्मेदार धीमी नेट स्पीड थी। आखिरकार जब एक घण्टा और हो गया तो मैं सबकुछ बन्द करके सोने चला गया और साथ ही साथ मोबाइल से फेसबुक पर एक अपडेट भी डाल दिया- Good Bye Blogging.
इस घटना को आज तीन महीने हो गये। तब के मुकाबले अब ज्यादा बेहतर है- लैपटॉप भी और नेट स्पीड भी। इस बीच जो भी कुछ हुआ, वो मायने नहीं रखता। आज एक दफे तो मन में आया भी कि पिछली अप्रकाशित डायरी को ही प्रकाशित कर दूं लेकिन बासी चीज बासी होती है। समसामयिक घटनाओं को अगर आप तीन महीने बाद पढेंगे तो उसमें से बासीपन की बू आयेगी ही। 6700 शब्द ड्राफ्ट में पडे हैं, शायद डिलीट भी कर दूं लेकिन वे चूंकि बासी हो चुके हैं, इसलिये प्रकाशन योग्य नहीं रहे।
चलिये, अब बताता हूं इन तीन महीनों में मैंने क्या किया। लिखने का कुछ काम नहीं हुआ। आठ दिन छत्तीसगढ में बिताये, आठ दिन जांस्कर में और आठ ही दिन पैसेंजर ट्रेन यात्राओं में। इनमें से कोई भी यात्रा वृत्तान्त नहीं लिखा। लैपटॉप की आदत ही खत्म सी हो गई। समय ज्यादातर किताबें पढने व टीवी देखने में बीतता रहा। इसी की देखा-देखी एक दिन मोबाइल बन्द कर दिया। पूरे दिन बिना मोबाइल के रहा, यहां तक की ऑफिस में भी। फिर सोचा कि अब जमाना ही इन्हीं चीजों का है, अब इन्हें छोडकर आदिम युग में जाना मूर्खता ही कही जायेगी।

2.दिनेशराय द्विवेदी जीकोटा में रहते हैं और बडे वकील हैं। एक दिन इन्होंने लिखा कि भारत वस्तुतः एक राष्ट्र नहीं है, बल्कि कई राष्ट्रों का एक संघ है। इससे मेरा बहुत दिनों से चला आ रहा एक द्वन्द्व समाप्त हो गया।
बात हिन्दी के मुद्दे से शुरू होती है। जब भी हम देश में हिन्दी को लागू करने की बात करते हैं, तो अहिन्दीभाषी प्रदेशों में विरोध शुरू हो जाता है। होना भी चाहिये। अगर कल हमसे कहा जाये कि हमारे लिये बंगाली सीखनी आवश्यक है या तमिल सीखनी आवश्यक है तो क्या हम विरोध नहीं करेंगे? जहां मातृभाषा हिन्दी नहीं है, उनसे अगर कहा जाये कि आपको हर काम अब हिन्दी में करना है तो निश्चित ही विरोध होगा। फिर हमारे हिन्दीप्रेमी राष्ट्रभक्त आरोप लगाते हैं कि गैर हिन्दीभाषी देशप्रेमी नहीं होते।
हिन्दी कहां कहां बोली जाती है? असल में हिन्दीभाषी इलाका बडा छोटा सा है। हैरान मत होना, इस बात को समझना पहले। पूरे उत्तर भारत समेत बिहार, झारखण्ड, एमपी, छत्तीसगढ, राजस्थान को हिन्दीभाषी कहा जाता है लेकिन ऐसा नहीं है। इनमें से बहुत बडा इलाका ऐसा है जहां के निवासी दो-दो भाषाएं बोलते हैं और हिन्दी उनकी द्वितीयक भाषा है। उनकी मूल भाषा की लिपि देवनागरी है, स्कूली पढाई लिखाई हिन्दी में होती है लेकिन फिर भी हिन्दी वहां की प्राथमिक भाषा नहीं है। केवल हिन्दी जानने वाला उनकी प्राथमिक भाषा को नहीं समझ सकता। ये इलाके हैं पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ और राजस्थान। मध्य प्रदेश को भी इसमें जोड सकते हैं। ये राज्य हिन्दी भाषी नहीं हैं। हालांकि इन राज्यों की पूरी की पूरी जनसंख्या हिन्दी जानती है लेकिन केवल द्वितीयक भाषा के तौर पर ही। पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड में भोजपुरी है। वह एक बेहद समृद्ध भाषा है। उसका तो सिनेमा भी भारत से बाहर विदेशों तक में पैर पसार चुका है। छत्तीसगढ में छत्तीसगढी बोली जाती है। अगर आपको छत्तीसगढी नहीं आती है, तो आप लाख दिमाग लगा लो, इस भाषा के एक भी शब्द को नहीं समझ पायेंगे। हालांकि छत्तीसगढी देवनागरी में लिखी जाती है। इसी तरह राजस्थानी है। दिल्ली के नजदीक के जो इलाके हैं- अलवर, भरतपुर आदि, यहां की राजस्थानी तो कुछ कुछ समझ में आ भी जाती है लेकिन बाकी जिलों की भाषा नहीं। कुछ शब्द समझ आ जायें तो इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरी भाषा समझ आ रही है।
उत्तराखण्ड में गढवाली कुमाऊंनी हैं, हिमाचल में हिमाचली है, लाहौल-स्पीति में तिब्बती है। ये भी हिन्दी से बिल्कुल भिन्न भाषाएं हैं। अब बचा क्या? मन तो कर रहा है कि हरियाणवी को भी गैर हिन्दी कर दूं। और वास्तव में है भी ऐसा ही। हरियाणवी भी हिन्दी से अलग भाषा है जो काफी हद तक हिन्दी से मिलती जुलती है।
पंजाब में पंजाबी बोली जाती है और लिखी जाती है गुरमुखी लिपि में। लेकिन अगर आपके सामने कोई पंजाबी में बात कर रहा हो तो आप उसकी लगभग पूरी बात समझ जायेंगे, भले ही आपको पंजाबी पढनी-लिखनी न आती हो। लेकिन अगर आपके सामने भोजपुरी या राजस्थानी में बात हो रही हो तो आप उतना नहीं समझ सकेंगे। छत्तीसगढी और कम समझेंगे, मराठी बिल्कुल नहीं समझेंगे, बंगाली व गुजराती भी काफी हद तक समझ लेंगे। इस लिहाज से पंजाबी भाषा राजस्थानी-भोजपुरी के मुकाबले हिन्दी के ज्यादा नजदीक हुई। हरियाणवी और नजदीक हो गई। कोई भाषा हिन्दी के कितनी नजदीक है या कितनी दूर है, इससे कोई फर्क नहीं पडता।
अब तो आपको पता चल ही गया होगा कि मूल हिन्दी कहां बोली जाती है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जो एक भाषाविद भी थे, के अनुसार मूल हिन्दी मेरठ के आसपास बोली जाती है। मेरठ के आसपास कहने का अर्थ है कि मुजफ्फरनगर सहारनपुर तक भी। अपनी जीवन-यात्रा में उन्होंने कई बार इस बात का उल्लेख किया है। एक बार वे मुजफ्फरनगर गये थे तो उन्होंने लिखा है- मैं धन्य हो गया मूल हिन्दी की धरती पर कदम रखकर।
कोई भाषा अगर देवनागरी में लिखी जाती है तो इसका यह कतई अर्थ नहीं है कि वो हिन्दी है। वो नेपाली भी हो सकती है और अरुणाचली भी।

3.फेसबुक पर एक मित्र हैं- शम्भू नाथ शुक्ला। कोई बडे आदमी हैं। अक्सर अपडेट देते रहते हैं कि फलां टीवी चैनल ने इंटरव्यू के लिये बुलाया, फलां ने बहस के लिये बुलाया। छोडिये इस टीवी की दुनिया को। फेसबुक पर ही लौट आते हैं। ये स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहते हैं यानी सेकूलर। और हैं भी ये कट्टर सेकूलर। कट्टर सेकूलर वो होता है जो सभी धर्मों की भयंकर इज्जत करता है सिवाय भारतीय मूल धर्मों के खासकर हिन्दुत्व के। शुक्ला साहब तीस दिनों तक चलने वाले रोजों का समर्थन करते हैं, जबकि एक दिन वाले व्रत को फालतू और अन्धविश्वास बताते हैं। उनके अपडेट फेसबुक मुझे भी दिखा देता है तो मैं भी कभी कभी टिप्पणियां कर देता हूं। ज्यादातर विरोध में ही करता हूं। वे ठहरे बडे आदमी, क्यों हर किसी का जवाब देंगे?
एक और खूबी है साहब में। ये कम्यूनिस्ट भी हैं। कम्यूनिस्ट हमेशा एक ही देश की प्रशंसा करता है और वो देश है चीन। उनके लिये चीन से ज्यादा ईमानदार, सीधा, सच्चा देश दुनिया में कोई भी नहीं है। लगा दिया एक अपडेट कि भारत ने चीन का 45000 वर्ग किलोमीटर इलाका दबा रखा है। इतिहास बताने लगे कि पंजाब की सेना ने एक बार चीन पर हमला किया था तो चीनियों ने उन्हें ल्हासा से भगाया था। अंग्रेजों ने सीधे-सादे ईमानदार चीन की जमीन पर ही भारत-चीन सीमा रेखा खींच दी। यह पढकर मेरा खून जल उठा, वाकई नफरत हो गई कम्यूनिस्टों से। मैंने जवाब दिया कि आप जो चीन-चीन कर रहे हैं, वो इलाका उस समय तिब्बत देश था। पंजाब ने पहले लद्दाख को जीता, फिर लद्दाख की ही मदद से तिब्बत को जीतने चल दिया लेकिन कैलाश मानसरोवर के पास जब वे पहुंचे तो बर्फ पड गई व दोनों की संयुक्त सेनाएं वहीं फंस गईं व सर्दियां गुजरने का इन्तजार करने लगीं। तभी चीन व तिब्बत की संयुक्त सेनाओं ने इन पर आक्रमण कर दिया। ये भारतीय सेनाएं तो बेचारी ल्हासा तक भी नहीं पहुंची थीं, फिर चीनियों ने भगाया किसको था? फिर मैंने पूछा कि आप जो 45000 वर्ग किलोमीटर की बात कर रहे हैं कि भारत ने चीन का इलाका दबा रखा है, वो इलाका कौन सा है और कब दबाया था?
कम्यूनिस्ट साहब जो कभी हम जैसे तुच्छ अज्ञानी लोगों के जवाब नहीं देते थे, पहली बार जवाब दिया। लताड दिया मुझे- “चुप, तुम्हे बडों से बात करने की अक्ल नहीं है। पहले अक्ल सीखकर आओ, फिर इतिहास की बात करना।”

4.दिल्ली चिडियाघरमें एक लडका सफेद बाघ के बाडे में जा घुसा। बाद में उसे बाघ ने मार डाला। मीडिया में उस लडके के प्रति बडी हमदर्दी मची हुई है। सभी उसे निर्दोष और चिडियाघर प्रशासन को दोषी ठहरा रहे हैं। मैंने चिडियाघर देखा हुआ है। यहां ज्यादातर जानवर खुले में हैं। खुले में अर्थात किसी पिंजरे में नहीं हैं। उनके छोटे से इलाके के बाहर एक गहरी खाई है जो अक्सर पानी से भरी रहती है, कभी नहीं भी भरी होती। खाई के दूसरी तरफ बडी ऊंची सीधी दीवार है जिसके पास से दर्शक बाघ को देखते हैं। तेंदुए को छोडकर सभी बडे जानवरों के बाडे इसी तरह के हैं। तेंदुआ बडा दुस्साहसी जानवर होता है। वह जोड-जाड करके कूद-फांद करके किसी तरह इस तरह की खाई को पार कर सकता है, इसलिये उसका बाडा चारों तरफ से दोहरी जाली से ढका है। किसी को तेंदुआ दिखे तो ठीक, नहीं दिखे तो भी ठीक।
उधर सफेद बाघ के लिये ऐसा करना आसान नहीं है। लेकिन अगर कोई आदमी उस दीवार को फांदकर उसके बाडे में प्रवेश कर ही जायेगा, तो बेचारा बाघ भी करेगा क्या? बताते हैं लडका बारहवीं का छात्र था। निश्चित ही अपने यार-दोस्तों के साथ आया होगा। मैंने चिडियाघर में ऐसे लडकों को खूब देखा है। वे शान्त बैठे जानवरों को खूब छेडते हैं, चिल्लाते हैं और यहां तक कि पत्थर भी फेंकते हैं। अब अगर वो लडका बाघ के बाडे में घुसता है तो ऐसे लडकों को मैं बस आवारा ही कहूंगा। अगर वो आवारागर्दी छोडकर डिस्कवरी या ज्योग्राफी चैनल एकाध बार देख लेता तो वह जान से हाथ नहीं धोता। मरना तो था ही, मौत तो निश्चित थी; इतना जानकर भी अगर वो एक बार बाघ के सामने डटकर खडा हो जाता, तो उसकी जान बच जाती। हालांकि मेरा सामना कभी ऐसे हालातों से नहीं हुआ है, बात बनानी बडी आसान है। लेकिन फिर भी मैं सही कह रहा हूं। उस लडके की ही सारी गलती है। अगर आप जानबूझकर बाघ के मुंह में सिर घुसाओगे तो बाघ आपको खायेगा ही खायेगा। इसमें चिडियाघर प्रशासन की क्या गलती है? आप जानबूझकर मरने जा रहे हो और कोस प्रशासन को रहे हो? शर्म की बात है।
वीडियो देखने से स्पष्ट पता चल रहा है कि बाघ ने लडके को खाने के लिये नहीं मारा था। वो बाघ इसी चिडियाघर में ही पैदा हुआ था, जन्म से ही मनुष्यों को देखता आ रहा था। मनुष्य ही उसे खाने को नियमित देता था। उसे मनुष्य से कोई डर नहीं था। मनुष्य को वह चूंकि जन्म से देखता आ रहा था, इसलिये उसे वह अपना मित्र समझता था। जब लडका उसके बाडे में उतरा, तो बाघ उसके पास आया लेकिन बहुत देर तक वह उसे कुतूहल से देखता रहा। उसे पता ही नहीं था कि अब क्या करूं। उसे तो बेचारे को खेलना भी नहीं आता था। बाद में दर्शकों ने जब पत्थर मारने व शोरगुल करना शुरू कर दिया तो बाघ ने इंसानियत दिखाते हुए लडके को पत्थरों से बचाने के लिये उठाया और दूर ले गया। यह बिल्ली परिवार की जन्मजात प्रवृत्ति होती है। अपने बच्चों को भी वे सुरक्षित जगह पर ले जाने के लिये इसी तरह उठाते हैं। बच्चों की गर्दन मजबूत होती है और लम्बे लम्बे बाल भी होते हैं लेकिन मनुष्य की गर्दन पर ऐसा कुछ नहीं होता। इसी बचाने की प्रक्रिया में खून बह जाने से लडके की मृत्यु हो गई।

5.हाल ही में भारत का मंगलयान मंगल की कक्षा में प्रवेश कर गया। पूरी दुनिया हैरान है, हर भारतीय एक दूसरे की पीठ थपथपा रहा है। लेकिन जब इसका प्रक्षेपण हुआ था, तब ऐसा नहीं था। ज्यादातर भारतीय इसकी आलोचना कर रहे थे। उनका कहना था कि जब देश की इतनी बडी आबादी गरीब है, ऐसे में करोडों के खर्चे वाला ऐसा काम नहीं करना चाहिये। आज भी कुछ लोगों का तो यहां तक मानना है कि अगर उस पैसे को गरीबों में बांट दिया जाता तो ज्यादा बेहतर होता। जबकि ऐसा नहीं है। आप हर आदमी को कुछ हजार रुपये देकर उसकी गरीबी दूर नहीं कर सकते। आदमी असल में धन से नहीं बल्कि अपनी सोच की वजह से गरीब या अमीर होता है। मैंने बहुत से ऐसे देखे हैं जिनके पास बहुत थोडी सी अनुपजाऊ जमीन थी। वो जमीन बाद में किसी प्रोजेक्ट भी भेंट चढ गई और उस गरीब आदमी को उसका अच्छा मुआवजा मिला। कई तो लखपति भी हो गये लेकिन जल्दी ही वे फिर से गरीब हो गये व सडकों पर आ गये। बहुत से निर्धन ऐसे देखे हैं जिन्होंने अपने एक-एक रुपये की महत्ता समझी, उसे ठीक जगह खर्च किया। आज वे धनवान हैं। बहुत से धनवानों को भी मिट्टी में मिलते देखा है।
यानी निर्धन होना या धनवान होना कोई पैसे का खेल नहीं है बल्कि आदमी की सोच का नतीजा है। हालांकि हर कोई धनवान होना चाहता है लेकिन चाहने में व सोच में बडा अन्तर है। मंगलयान का पैसा अगर गरीबों में बांट देंगे, उन्हें लखपति बना देंगे, तो कल वे फिर उसी स्थिति में आ जायेंगे। केवल पैसों से ही गरीबी दूर नहीं होती।

6.कश्मीर में बाढ आई। कथित राष्ट्रवादियों में खुशी की लहर दौड गई। अगर पाकिस्तान में ऐसी बाढ आती, पूरा लाहौर तबाह हो जाता, तब भी इतनी खुशी नहीं दिखती, जितनी अपने ही कश्मीर को बर्बाद होते देखने से हुई। सच बताऊं तो मुझे भी खुशी मिलती थी कि आज वे कश्मीरी जिनके लिये भारत कोई दूसरा देश है, हाथ फैलाये लाचार थे। सेना ने जबरदस्त बचाव कार्य किया। इसके बावजूद भी कुछ कश्मीरियों ने सेना पर ही पत्थरबाजी कर दी। यह बिल्कुल शर्मनाक हरकत है। मन में आता कि बाढ और भीषण हो जाये। डल झील काजीगुण्ड से बारामूला तक फैल जाये।
चलिये, इसी बहाने 1947 में चलते हैं। साढे पांच सौ के आसपास रियासतें थीं उस समय भारत में। भारत व पाकिस्तान को विभाजित करती हुई रेडक्लिफ लाइन खींची जा चुकी थी। लेकिन इसके बावजूद भी दोनों देशों की रियासतों को ये अधिकार था कि वे किसी भी देश में शामिल हो सकती थीं या स्वतन्त्र देश भी बन सकती थीं। भारतीय सीमा के अन्दर कुछ रियासतों ने पाकिस्तान में शामिल होने का निश्चय किया। इनमें हैदराबाद व जूनागढ मुख्य थीं। उधर कश्मीर ने तय किया कि वह एक स्वतन्त्र देश बनेगा। उस समय कश्मीर भारत के लिये बिल्कुल भी सिरदर्द नहीं था। वो भले ही पाकिस्तान में शामिल हो जाता, भारत पर इसका कोई ज्यादा असर नहीं पडना था, क्योंकि उसकी सीमा पाकिस्तान से ज्यादा मिलती थी, भारत से कम। दूसरी बात, 1947 तक भारत के नक्शे में वर्तमान पाकिस्तान व बांग्लादेश भी थे, तो हमारी मातृभूमि यानी भारतमाता ईरान से लेकर म्यांमार तक फैली हुई थी। फिर 1947 आया, विभाजन हुआ, सीमाएं बनीं तो भारतामाता का एक बहुत बडा हिस्सा कटकर अलग हो गया। अचानक नये नक्शे बने, नई भारतमाता बनी। भारत के अभिन्न अंग सिन्ध, पश्चिमी पंजाब, पूर्वी बंगाल आदि अलग हो गये। इसी दौरान अगर कश्मीर भी भारत से अलग हो जाता, तो कोई फर्क नहीं पडना था। जहां अचानक माता का इतना बडा हिस्सा अलग हुआ, वहां एक नन्हा सा हिस्सा और सही।
लेकिन एक बात और भी थी। हैदराबाद व जूनागढ पाकिस्तान में शामिल होने जा रहे थे। ये दोनों रियासतें पूरी तरह भारतीय सीमा के अन्दर थीं। तो भारत ने सोचा कि अगर यहां पाकिस्तान बन जायेगा तो यह एक नासूर की तरह होगा, एक फोडे की तरह होगा जो भविष्य में भारत के लिये घातक ही होगा। इसलिये इसका इलाज करना जरूरी समझा व सेनाएं भेज दीं। उधर कश्मीर की सीमा भारत से उतनी स्पर्श नहीं करती थी, जितनी पाकिस्तान से। अगर वह पाकिस्तान में मिलता या स्वतन्त्र देश बनता तो उसे भारत से बाहर ही बाहर रहना था, नासूर नहीं बनता। कश्मीर के स्वतन्त्र होने के निर्णय पर भारत ने चुप रहकर उसे एक तरह की मंजूरी भी दे दी थी।
बलूचिस्तान जो आज पाकिस्तान में है, ने भारत में रहने की इच्छा जाहिर की थी लेकिन जो भारत ने हैदराबाद में किया, वही पाकिस्तान में बलूचिस्तान में किया। चन्द दिनों पहले ही बलूचिस्तान भारत का हिस्सा था, वह भारत में रहना भी चाहता था लेकिन आज हमें उसके भारत में न रहने का कोई दुख नहीं है। इसी तरह अगर कश्मीर अलग हो जाता, तब भी आज हमें कोई दुख नहीं होता।
लेकिन पाकिस्तान सब्र नहीं कर सका। उसने कश्मीर पर हमला बोल दिया। चूंकि भारत के लिये कश्मीर अलग देश बन चुका था, इसलिये कोई दो देश पाकिस्तान व कश्मीर लडे, भिडें; उससे भारत को कोई वास्ता नहीं था। वास्ता तब पडा, जब कश्मीर भारत के पास सहायता मांगने आया। भारत ने शर्त रखी कि अगर तुम भारत का हिस्सा बनो तो हम सहायता करेंगे, अन्यथा नहीं। उसके बाद क्या हुआ, यह तो सबको मालूम ही है। कश्मीर ने बाकायदा यानी साढे पांच सौ रियासतों की तरह भारत में विलय कर लिया और भारत का अभिन्न अंग बन गया।

7.गांधी जयन्ती पर प्रधानमन्त्री की पहल पर देशभर में सफाई अभियान चला। इसमें मुख्यतः सडकों पर झाडू लगाई गई और फोटो खींची गई। प्रधानमन्त्री ने चूंकि इस अभियान की शुरूआत की, इसलिये उन्हें सांकेतिक तौर पर झाडू लगानी थी। उन्होंने कई स्थानों पर ऐसा किया भी। साथ ही बडे बडे गणमान्य लोगों ने भी यहां-वहां सफाई की। शाम तक सोशल नेटवर्किंग साइटों पर सफाई अभियान की फोटो काफी संख्या में दिखने लगीं। इनमें से बहुत से लोगों ने ऐसी जगह झाडू लगाई, जहां पहले से ही चकाचक सफाई थी। बहुतों ने जिन्दगी में पहली बार झाडू पकडी केवल फोटो खिंचवाने के लिये। यह सफाई अभियान नहीं बल्कि झाडू के साथ फोटो अभियान बन गया।
वास्तव में झाडू मारने से गन्दगी समाप्त नहीं होती। झाडू से केवल गन्दगी इधर से उधर हो जाती है। आपके सामने गन्दगी पडी है, आपने झाडू मार दी, गन्दगी दूसरे के सामने चली गई। दूसरा भी झाडू मारेगा, तीसरे के सामने चली जायेगी। ऐसा होता रहेगा लेकिन गन्दगी कभी समाप्त नहीं होगी। आप अपनी पूरी ऊर्जा लगा दो, पूरा पैसा लगा दो, पूरा समय लगा दो; लेकिन झाडू से कभी भी सफाई नहीं कर सकोगे। चारों तरफ का कूडा एकत्र करके एक जगह डाल दोगे, कूडे का पहाड बन जायेगा लेकिन कूडा कभी समाप्त नहीं होगा। आपके सामने पडा था, अब दूसरे के सामने पडा है।
सफाई का सर्वोत्तम तरीका है गन्दगी न फैलाना। हमें वास्तव में झाडू मारने की प्रतिज्ञा नहीं करनी है, सौ घण्टे सफाई करने की भी प्रतिज्ञा नहीं करनी है बल्कि गन्दगी न फैलाने की प्रतिज्ञा करनी है। लेकिन ऐसा होना असम्भव है। आज हमारी जरुरतें इतनी बढ चुकी हैं कि हमेशा अपशिष्ट उत्सर्जित होते ही रहते हैं। हमेशा कूडा बनता ही रहता है। चाहे हम भारतीय हों या कोई यूरोपियन या अमरीकन, सभी अपशिष्ट उत्सर्जित करते हैं। लेकिन दोनों में फर्क बस इतना है कि वहां इस अपशिष्ट का उचित निस्तारण होता है जबकि हमारे यहां नहीं होता। आज अगर जरुरत है तो बस इसी बात की कि भारत में गन्दगी का उचित निस्तारण हो। कूडे का ढेर लगाते जाओ, ढेर लगाते जाओ, ढेर लगाते जाओ; इससे कोई फर्क नहीं पडता। हमारे घर के सामने पडा था, पूरे शहर ने अपने-अपने सामने पडा कूडा उठाकर एक जगह डाल दिया और ढेर लगा दिया। कह दिया कि सफाई हो गई। लेकिन यह सफाई नहीं है। अब प्रशासन की जिम्मेदारी है कि इस ढेर को उचित तरीके से नष्ट कर दे।
हम साधारण नागरिक इतना तो कर ही सकते हैं कि बेवजह इधर-उधर गन्दगी न करें, कूडा कूडेदान में ही डालें। बाहर घूमने जाते हैं, पिकनिक मनाने जाते हैं, खाने-पीने के पैकेटों के रैपर आदि वहीं फेंक देते हैं, ऐसा न करें। इन्हें जेब में या बैग में रखकर ले जा सकते हैं और कूडेदान मिलने पर उसमें डाल सकते हैं। कूडेदान में कूडा डालने से हमने अपनी जिम्मेदारी निभा दी, अब आगे प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह उस कूडेदान की गन्दगी को बाद में इधर-उधर फेंकता है या उचित निस्तारण करता है। बहुत से लोगों को बार-बार थूकने की आदत होती है, इस आदत को बदलें। खुले में न मूतें। कुछ लोग खुले में मूतने के इतने शौकीन होते हैं कि अगर सामने शौचालय भी हो, तब भी खुले में ही मूतेंगे।
ये छोटी छोटी बातें हैं। फोटो खिंचवाने के लिये झाडू हाथ में लेने से बेहतर है कि इन छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखा जाये।

8.एशियाई खेल सम्पन्न हो गये। भारत की कबड्डी टीम ने स्वर्ण पदक जीता। मैं महिला कबड्डी मैच तो नहीं देख सका लेकिन पुरुष कबड्डी के कई मैच देखे। फाइनल मैच में पहले हाफ तक ईरान ने जो भयंकर बढत बनाई, लग रहा था कि भारत हार जायेगा। लेकिन कप्तान राकेश कुमार और सदाबहार रेडर जसवीर ने ऐसा नहीं होने दिया। राकेश घायल भी हो गया लेकिन तब भी मैदान में डटा रहा। उधर कुछ ही दिन पहले प्रो कबड्डी लीग के मैच हुए थे, जिसमें जयपुर पिंक पैंथर्स की टीम विजेता बनी थी। इसमें सारा रोल जसवीर का था। आज फाइनल में भी जसवीर ही हीरो रहा।
एक बात समझ में नहीं आती। भारत ने अपनी क्रिकेट टीम एशियाई खेलों में क्यों नहीं भेजी? जिस तरह क्रिकेट भारत का धर्म है, भारत को अपनी दोनों टीमें भेजनी चाहिये थीं। मैंने फेसबुक पर भी पूछा लेकिन मित्रों ने बिल्कुल हवाई हवाब दिये। सबसे ज्यादा जवाब आया- खिलाडियों को सिर्फ पैसा चाहिये। एशियाई खेलों में उन्हें पैसा नहीं मिलेगा इसलिये नहीं गये। जबकि ऐसा नहीं है। अगर भारत सरकार क्रिकेट टीम को भेजती तो कौन खिलाडी मना करता? एक तरफ तो क्रिकेट खेलने वाले देश कोशिश कर रहे हैं कि ओलम्पिक में क्रिकेट शामिल हो जाये, दूसरी तरफ एशियाई खेलों में भी भाग नहीं ले रहे।
हालांकि कुछ मित्रों ने कहा कि भारत की आधिकारिक क्रिकेट टीम ही नहीं है। जिस क्रिकेट टीम को खेलते हुए हम देखते हैं, वो असल में किसी प्राइवेट संस्था बीसीसीआई की टीम है। लेकिन यह कोई जवाब नहीं है। जो टीम भारत के झण्डे तले दुनियाभर में विश्व कप खेलती है, एशियाई कप खेलती है, चैम्पियन्स कप खेलती है, उसे इंचियोन भी भेजा जाना चाहिये था। कल ओलम्पिक में क्रिकेट शामिल हो जायेगा, तब यही बीसीसीआई की टीम ही वहां खेलने जायेगी।

कई मित्रों को शिकायत है कि मैं कम लिख रहा हूं। और लम्बी पोस्टें होनी चाहिये। इस बारे में मुझे वैसे तो कोई सफाई नहीं देनी, लेकिन एक बात पूछना चाहता हूं। क्या पूरे यात्रा-वृत्तान्त की एक ही पोस्ट बना दूं? यानी महा-पोस्ट। मान लो दस पोस्टों में कोई यात्रा-वृत्तान्त पूरा होता था, अब एक ही पोस्ट में पूरा हो जाया करेगा। इससे दोनों पक्षों को लाभ मिलेगा- मुझे भी और आपको भी। मुझे दस पोस्टें नहीं अपलोड करनी पडेंगी, एक ही पोस्ट से काम चल जाया करेगा और आपको कोई यात्रा-वृत्तान्त पढने में महीनों का इन्तजार नहीं करना पडेगा। धारावाहिक नहीं बनेगा। ‘अगले भाग में जारी...’ ऐसा लिखा नहीं मिलेगा।
इस बात का जवाब जरूर दें। आपकी टिप्पणियां ही पोस्टों का भविष्य तय करेंगीं।



यह एक स्टेशन है ‘घाघरा’। चूंकि फोटो मैंने ही खींचा है, इसलिये मुझे तो पता ही है कि यह कहां है, किस लाइन पर है। लेकिन आपको भी पता लगाना है इसका। आप किसी भी तरीके से पता लगाने की कोशिश कीजिये, किसी भी वबसाइट पर जाइये, किसी से भी पूछिये (मुझे छोडकर) या नीचे टिप्पणियां देखकर ही बता दीजिये। इतनी सुविधा होने के बावजूद भी अगर आपने गलत उत्तर बताया तो अगली डायरी में आपकी मजाक उडाऊंगा और अगर सही बता दिया तो ससम्मान आपका नाम बडे बडे काले अक्षरों में लिखूंगा। आपको बताना है कि यह स्टेशन किस राज्य में है और किस लाइन पर है?

चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक

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अगले दिन यानी 18 जून को सात बजे आंख खुली। रात बारिश हुई थी। मेरे टैंट में सुरेन्द्र भी सोया हुआ था। बोला कि बारिश हो रही है, टैंट में पानी तो नहीं घुसेगा। मैंने समझाया कि बेफिक्र रहो, पानी बिल्कुल नहीं घुसेगा।
सुबह बारिश तो नहीं थी लेकिन मौसम खराब था। कल के कुछ परांठे रखे थे लेकिन उन्हें बाद के लिये रखे रखा और अब बिस्कुट खाकर पानी पी लिया। सुनने में तो आ रहा था कि दर्रे के पास खाने की एक दुकान है लेकिन हम इस बात पर यकीन नहीं कर सकते थे।
मैंने पहले भी बताया था कि इस मैदान से कुछ ऊपर गुज्जरों का डेरा था। घने पेडों के बीच होने के कारण वह न तो कल दिख रहा था और न ही आज। हां, आवाजें खूब आ रही थीं। अभी तक हमारा सामना गद्दियों से नहीं हुआ था लेकिन उम्मीद थी कि गद्दी जरूर मिलेंगे। आखिर हिमाचल की पहचान खासकर कांगडा, चम्बा व कुल्लू की पहचान गद्दी ही तो हैं। गुज्जर व गद्दी में फर्क यह है कि गुज्जर गाय-भैंस पालते हैं जबकि गद्दी भेड-बकरियां। गुज्जर ज्यादातर मुसलमान होते हैं और गद्दी हिन्दू। ये गुज्जर पश्चिमी उत्तर प्रदेश व राजस्थान वाली गुर्जर जाति नहीं हैं।
इस मैदान को पार कर जब चढाई व जंगल शुरू हो गये तो गुज्जरों का डेरा भी दिखने लगा। तभी सुरेन्द्र को ध्यान आया कि उसका तौलिया नीचे ही छूट गया है। वह तौलिया लेने नीचे दौड पडा। उसकी जगह अगर मैं होता तो तौलिया लेने कभी नीचे नहीं जाता।
डेरा चन्द्रखनी वाले मुख्य रास्ते से करीब पचास मीटर हटकर था। हमें भूख तो नहीं थी लेकिन कुछ खास खाया भी नहीं था। अगर भूख लगनी शुरू हो जायेगी और खाना नहीं मिला तो फजीहत होनी तय थी। बस, थोडा प्रयास करना था और हम यहां कुछ खा सकते थे। मैंने अशोक से कहा कि वहां जाकर चाय के लिये पूछ आ लेकिन उसने जाने से बचने के लिये कुछ भी खाने-पीने से मना कर दिया। मधुर चीखने में माहिर था। उसने यहीं से चीखकर पूछा कि चाय मिल जायेगी क्या। गुज्जर उस समय यहां से विस्थापित होने की तैयारी कर रहे थे। काफी सारा सामान अगले डेरे में जा चुका था, बहुत थोडा सामान ही बचा था।
मधुर की आवाज सुनकर एक महिला की आवाज आई कि कुछ नहीं मिलेगा। हम निराश हो गये। तभी दूसरी महिला की आवाज आई कि आ जाओ। हम खुशी से दौड पडे। उसने बताया कि चाय तो नहीं है, बस दूध ही बचा है, चीनी भी नहीं है। मैंने कहा कि इसे ही गर्म कर दो। उसने एक छोटी पतीली में वहीं आग जलाकर दूध गर्म करके हमें दे दिया। अशोक ने दूध पीने से मना कर दिया। मधुर ने जैसे ही पहली घूंट भरी, बुरा सा मुंह बनाया। जब मैंने घूंट भरी, तो समझ गया कि मधुर ने मुंह क्यों बनाया था। असल में यह भैंस का दूध था। अगर आप नियमित थैलीबन्द या गाय का दूध पीते हैं, तो अचानक भैंस का दूध नहीं पी सकते। यह काफी नमकीन होता है। फिर इसमें चीनी भी नहीं थी। सुरेन्द्र ने भी एक गिलास के बाद और लेने से मना कर दिया। इसलिये मुझे ढाई-तीन गिलास दूध पीना पडा। वैसे तो मुझे भी भैंस के दूध की आदत नहीं है, दिल्ली में रहता हूं, थैलीबन्द दूध पीता हूं लेकिन इस दूध की पौष्टिकता को देखते हुए पी जाना पडा। दूध के साथ हम बिस्कुट भी खा रहे थे। उस महिला से हमसे बिस्कुट मांगे अपने बच्चों के लिये लेकिन हमें स्वयं अपनी चिन्ता थी और बिस्कुट ही हमारे आसरे थे इसलिये ज्यादा बिस्कुट हम उन्हें नहीं दे सकते थे। आधा पैकेट दे दिया। और दूध के लिये पचास रुपये भी।
गुज्जर व गद्दियों का कोई निश्चित ठिकाना नहीं होता। हिमालय में ये अपने अपने ‘माल’ के साथ गर्मियों में ऊंचाईयों पर जाते हैं और सर्दियों में नीचे आ जाते हैं। ये एक स्थान पर डेरा बनाते हैं, कुछ दिन बाद उसे छोडकर आगे बढ जाते हैं। आज इन गुज्जरों के आगे बढने का दिन था। हम कुछ ही दूर चले थे कि पीछे से वही महिला आती दिखाई दी। वह एक नम्बर की बातूनी थी। बताया कि वे कुछ आगे इस चन्द्रखनी वाले रास्ते को छोड देंगे और कुछ बायें जाकर डेरा लगायेंगे। अगर हम कहीं भटक जायें तो उनके ठिकाने पर आ जायें। वह बार-बार यही बात कहती रही। जब हमारा और उसका रास्ता अलग हो गया तब भी चिल्लाकर बताती रही- कहीं भटक जाओ तो हमारे यहां आ जाना। हमारा डेरा वहां है... देखो, वहां उस तरफ।
हमें बार-बार फोटो खींचते देखकर उसने पूछा कि आपको एक फोटो के कितने पैसे मिलते हैं? मैंने बताया कि एक भी नहीं। ... तो खींच क्यों रहे हो?... अपने मजे और यादगार के लिये।... कुछ दिन पहले एक विदेशी आया था। उसने बताया था कि बहुत पैसे मिलते हैं। हालांकि हमने उसे सन्तुष्ट करने की कोशिश की लेकिन वह सीधी-सादी अनपढ महिला सन्तुष्ट नहीं हुई। उसे लग रहा था कि ये बहुत मालदार हैं और लगातार फोटो इसीलिये खींचे जा रहे हैं ताकि और ज्यादा मालदार हो जायें।... काश! ऐसा हो पाता।
दस बजे जब हम 3000 मीटर की ऊंचाई पर थे तो एक बडा लम्बा चौडा मैदान मिला। इसे देखकर तबियत खुश हो गई। गढवाल में ऐसे मैदानों को बुग्याल कहते हैं। यह काफी ऊपर तक था। बीच बीच में पेड इसकी खूबसूरती और बढा रहे थे। मौसम खराब था ही, इसलिये बादल भी आ-जा रहे थे। अच्छा नजारा था।
इस मैदान को पार किया तो गद्दियों का एक डेरा मिला। इनकी भेडें इसी मैदान में चर रही थीं। उस समय डेरे पर दो महिलायें थीं। मौसम और भी खराब होने लगा था और हवा बडी तेज चल रही थी। इन्होंने बताया कि कुछ ही दूर एक होटल है जहां खाना मिल जायेगा। हमें भूख लगने लगी थी और चलने में परेशानी हो रही थी। खाना मिलने की बात सुनकर कुछ जान में जान आई और आगे बढ चले।
मैदान के बाद फिर से पेड दिखने लगे लेकिन अब बडे पेड समाप्त हो गये थे व छोटे पेड व झाडियां ही ज्यादा थीं। बीच-बीच में मिलने वाले छोटे छोटे ढलानदार मैदान नजारे को और भी खुशनुमा बना रहे थे। जमीन से बिल्कुल मिलकर तैरते बादल माहौल को रहस्यात्मक बना रहे थे।
बारह बजे जब 3200 मीटर पर थे तो बारिश होने लगी। रेनकोट पहनने पडे। गनीमत थी कि यह धौलाधार जैसी बारिश नहीं थी। धौलाधार में बारिश तो ज्यादा होती ही है, उससे भी ज्यादा गडगडाहट होती है और बिजलियां गिरती हैं। यहां पानी बहुत तेज गिर रहा था, हवा भी चल रही थी लेकिन गडगडाहट नहीं थी। एक जगह बैठे तो सर्दी लगने लगी। फिर उठने का मन नहीं किया। कल के चार परांठे बचे थे। चारों ने एक-एक खा लिए।
रेनकोट पहने होने के बावजूद हम चारों पूरी तरह भीग चुके थे। समझ नहीं आता कि रेनकोट के अन्दर पानी कहां से जा रहा था। क्या रेनकोट ही चू रहा है? असल में लगातार चढते रहने की वजह से पसीना खूब आ रहा था। रेनकोट ने शरीर पर एक रक्षा कवच बना दिया था। इस कवच के बाहर बेहद ठण्डा वातावरण था और अन्दर गर्म और नम वातावरण। जब अन्दर की नम हवा कवच को स्पर्श करती तो वह भी ठण्डी हो जाती और तुरन्त संघनित भी हो जाती यानी नमी पानी में परिवर्तित हो जाती। इससे कपडे और तेजी से गीले होने लगते। नतीजा हमें और ज्यादा ठण्ड लगने लगी।
ठण्ड से बचने का सर्वोत्तम तरीका था उठो और चलो। हमने ऐसा ही किया। कुछ देर बाद बारिश रुक गई और बादल इधर उधर हो गये। छोटे छोटे ढलानदार मैदान मिलते गये। चलने से पहले मेरा अन्दाजा था कि 3200 मीटर के बाद पेड पौधे मिलने बन्द हो जायेंगे लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऐसा हुआ लगभग 3400 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचकर। हिमालय में एक निश्चित ऊंचाई के बाद पेड पौधे नहीं उगते। सिर्फ घासफूस और छोटी छोटी झाडियां ही होती हैं। ऐसे में हम दूर दूर तक देख सकते हैं। जब हम पेडों के साम्राज्य से बाहर निकले तो सामने एक ‘होटल’ दिखाई दिया।
यह लकडी और तिरपाल की एक झोंपडी थी जिसमें से धुआं उठता दिखा। समझते देर नहीं लगी कि यही वो जगह है जिसके बारे में हम नीचे से सुनते आ रहे हैं कि खाना मिलेगा। जल्दी ही हम इसके अन्दर थे। इसके बराबर में एक झोंपडी और थी जहां रजाई-गद्दे थे और रात को वहां आराम से सोया जा सकता था।
चन्द्रखनी दर्रा यहां से बहुत नजदीक दिख रहा था क्योंकि हमारे और दर्रे के बीच में कोई भी अवरोध नहीं था।
अब ज्यादा कुछ कहने की आवश्यकता नहीं है कि हमने क्या-क्या खाया, क्या-क्या पीया, क्या-क्या किया। हालांकि हमारे पास दो टैंट थे लेकिन तय हुआ कि एक ही टैंट लगायेंगे। मधुर और अशोक रजाईयों में सोयेंगे।
आज हमने 2675 मीटर की ऊंचाई से पैदल चलना शुरू किया था और अब 3425 मीटर पर थे अर्थात केवल 750 मीटर ही ऊपर चढे। लेकिन लग रहा था कि 1000-1500 मीटर ऊपर आ गये हों। सामने दर्रा होने और पर्याप्त समय होने के बावजूद भी हमारी किसी की भी हिम्मत आगे बढने की नहीं हुई। हालांकि दर्रे पर टैंट लगाने लायक पर्याप्त से ज्यादा जगह थी।
कुछ देर बाद कुछ विदेशी आये। उनके बाद एक भारतीय दम्पत्ति आये। इन पति-पत्नी के साथ इनके 8-10 साल के दो बच्चे भी थे। अपना राशन-पानी और बडा टैंट, स्लीपिंग बैग ये स्वयं ढो रहे थे। ये दिल्ली के रहने वाले थे। आदमी तो दिल्लीवासी लग रहा था लेकिन उसकी पत्नी दिल्ली की नहीं थी। हमने पूछा तो नहीं लेकिन वह शक्ल-सूरत से लद्दाखियों से मिलती-जुलती थी। उनका सारा वार्तालाप अंग्रेजी में था जिससे मेरा यकीन बढ गया कि यह लद्दाख की ही है। हालांकि दिल्ली के कुछ ‘बडे’ लोग अपने बच्चों से भी अंग्रेजी में ही बोलते हैं। सुरेन्द्र ने कहा कि महिला गढवाली लग रही है। मैंने तुरन्त नकार दिया। गढवाल में तो बडी सुन्दर महिलाएं होती हैं। हां, ऐसा हो सकता है कि वह गढवाल के हिमालय-पार के इलाके की हो जैसे कि नेलांग और माणा।
यहां से कुल्लू हिमालय की कुछ ऊंची चोटियां दिखाई देती हैं। बायें मनाली की तरफ हनुमान टिब्बा और सामने इन्द्रासन। इनके अलावा बडा भंगाल और स्पीति की तरफ की भी कई चोटियां दिखाई देती हैं।
जब यहां टैंट लग गया तो सुरेन्द्र ने कहा कि उसके सिर में दर्द हो रहा है, उसे कुछ आराम करना है। ऊंचाई पर जाने पर अक्सर सिर में दर्द होने लगता है। वह टैंट में लेट गया और टैंट की चैन बन्द कर ली। मैं बाहर ही घूमता रहा और इधर उधर जा-जाकर नजारे देखने लगा। कुछ देर बाद वापस लौटा और जब चैन खोली तो शराब की दुर्गन्ध का भभका बाहर आया। सुरेन्द्र के साथ अशोक भी बैठा था। मैं शराब का विरोधी हूं लेकिन अगर सामने वाले ने पीनी शुरू कर ही दी है तो उसे रोकने में अपना दिमाग खराब नहीं करता हूं। मैंने कहा कि अगर तुम्हें पीनी ही है तो क्यों टैंट में घुसकर पी रहे हो? बाहर खुले में बैठकर पीयो। बोले कि नहीं, कोई ऐतराज करेगा तो...। मैंने कहा कि यहां कोई ऐतराज करने वाला नहीं है। अगर तुम्हें और चाहिये तो ‘होटल’ वाले से ले सकते हो। ये लोग घर की बनी हुई शराब पीते हैं।
फिर हिदायत दी कि तुम दोनों रजाई में सोओगे, नहीं तो रातभर टैंट में बदबू आती रहेगी। सुरेन्द्र बोला कि नहीं, बदबू नहीं आयेगी। इस बारे में कुछ देर तक बहस होती रही। हालांकि इसके बाद टैंट की चैन खुली रखी ताकि बदबू बाहर निकल जाये।
हम दो दिन चलकर यहां तक आये थे। लेकिन यह घाटी हिमालय की बाकी घाटियों की तरह टेढी-मेढी न होकर सीधी है। सामने ब्यास घाटी दिखती है और मनाली भी। इसका ढाल पश्चिमाभिमुख है तो डूबता सूरज व उसकी लालिमा देर तक दिखती रही। यह एक वाकई जादुई नजारा था। अन्धेरा हो जाने पर जादुई नजारे दिखाने का काम मनाली ने संभाल लिया। ब्यास की विस्तृत घाटी, मनाली और उसके परे सोलांग की रोशनियों ने रात को भी समां बांधे रखा।
यह जगह सभ्यता से दूर तो है लेकिन चूंकि सभ्यता सामने दिख रही थी तो मोबाइल नेटवर्क भी अनवरत काम करता रहा। कम से कम मेरा एयरटेल तो ठीक काम कर रहा था और इंटरनेट भी चल रहा था। इतनी ऊंचाई पर अत्यधिक ठण्ड में टैंट और स्लीपिंग बैग में घुसकर इंटरनेट चलाना वाकई मजेदार और अद्वितीय अनुभव था।

रात यहीं सोये थे।

गुज्जर डेरे पर हमारे लिये दूध गर्म हो रहा है।



दुग्धपान



एक बडा मैदान






गद्दण




सामने दिखता चन्द्रखनी दर्रा

सुरेन्द्र सिंह रावत के साथ

मधुर गौड के साथ। सफेद तम्बू में कुछ विदेशी रुके थे।

घाटी में ऊपर उठते बादल


इन्दौर वासी अशोक भार्गव



चन्द्रखनी दर्रा और उसके परे बर्फीली चोटियां


यहां मोबाइल नेटवर्क अच्छा काम कर रहा था।


यहां से सूर्यास्त के रंग देखने लायक होते हैं।






सूर्यास्त का एक दुर्लभ नजारा... साइज कम करने से फोटो में ब्लर आ गये हैं।




टैण्ट के अन्दर सुरेन्द्र
अगले भाग में जारी...

चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव

चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती

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अगले दिन यानी 19 जून को सुबह आठ बजे चल पडे। आज जहां हम रुके थे, यहां हमें कल ही आ जाना था और आज दर्रा पार करके मलाणा गांव में रुकना था लेकिन हम पूरे एक दिन की देरी से चल रहे थे। इसका मतलब था कि आज शाम तक हमें दर्रा पार करके मलाणा होते हुए जरी पहुंच जाना है। जरी से कुल्लू की बस मिलेगी और कुल्लू से दिल्ली की।
अब चढाई ज्यादा नहीं थी। दर्रा सामने दिख रहा था। वे दम्पत्ति भी हमारे साथ ही चल रहे थे। कुछ आगे जाने पर थोडी बर्फ भी मिली। अक्सर जून के दिनों में 3600 मीटर की किसी भी ऊंचाई पर बर्फ नहीं होती। चन्द्रखनी दर्रा 3640 मीटर की ऊंचाई पर है जहां हम दस बजे पहुंचे। मलाणा घाटी की तरफ देखा तो अत्यधिक ढलान ने होश उडा दिये।
चन्द्रखनी दर्रा बेहद खूबसूरत दर्रा है। यह एक काफी लम्बा और अपेक्षाकृत कम चौडा मैदान है। जून में जब बर्फ पिघल जाती है तो फूल खिलने लगते हैं। जमीन पर ये रंग-बिरंगे फूल और चारों ओर बर्फीली चोटियां... सोचिये कैसा लगता होगा? और हां, आज मौसम बिल्कुल साफ था। जितनी दूर तक निगाह जा सकती थी, जा रही थी। धूप में हाथ फैलाकर घास पर लेटना और आसमान की तरफ देखना... आहाहाहा! अनुभव करने के लिये तो आपको वहां जाना ही पडेगा।
मलाणा घाटी में मलाणा गांव से भी आगे एक जगह है नगरोणी। यह कोई गांव नहीं है, बस जगह का नाम है। वहां जाने के लिये राशन और टैंट-स्लीपिंग बैग साथ ले जाने पडते हैं। खूबसूरत जगह ही होगी। उसका एक रास्ता यहां चन्द्रखनी से भी जाता है। मलाणा के लिये नीचे उतरना शुरू कर दो, नगरोणी के लिये सीधे चलते जाओ। उस दिल्ली वाले परिवार को आज नगरोणी ही जाना था। हमारे पास समय नहीं था, इसलिये हमें मलाणा जाना पडेगा।
दर्रे से करीब एक किलोमीटर दूर वो जगह आती है जहां पगडण्डियों का तिराहा है। नगरोणी का रास्ता यहीं से अलग होता है। मलाणा की तरफ भयंकर ढलान शुरू हो जाती है। यह ढलान धीरे धीरे भयंकरतर और भयंकरतम होती जाती है। खडे खडे ही बजरियों पर नीचे फिसलने लगते हैं। नीचे बिल्कुल पाताल लोक तक देखने पर भी ढलान का अन्त नहीं दिख रहा था। बहुत नीचे मलाणा नाला नन्हीं सी लकीर की तरह दिखाई देता है। यह वाकई रोंगटे खडे कर देने वाला नजारा था।
मधुर चीखने में माहिर था। जब कभी किसी को आवाज लगानी होती थी तो हम मधुर को ही कहते थे। वह ज्यादा फ्रीक्वेंसी वाली आवाज में बडा तेज चीखता था। यहां ढलान पर उसने चीखना शुरू कर दिया- हेलो... हेलो...। उसकी देखा-देखी अशोक व सुरेन्द्र भी शुरू हो गये। आगे नीचे कुछ स्थानीय लोग जा रहे थे। आवाज सुनकर उन्होंने पीछे मुडकर देखा। मैंने मना किया तो बोले कि हम एंजोय कर रहे हैं। मैंने कहा कि ऐसी खतरनाक जगह पर हेलो, हेलो चीखने का एक ही मतलब होता है कि तुम किसी मुसीबत में हो और बचाव के लिये किसी को बुला रहे हो। आगे कुछ लोग जा रहे हैं, अगर वे आ गये तो क्या कहोगे? मधुर ने कहा कि कह देंगे कि हमने तुम्हें बुलाया ही नहीं।
यह एक नम्बर की घटिया हरकत थी। आनन्द ही मनाना था तो ऊपर दर्रे पर मनाते, चीखते, नाचते, गाते। यहां क्या तुक है? और वो भी हेलो, हेलो बोलना। फिर भी नहीं माने तो मैंने चेतावनी दी- देखो, मैं क्रोधित हो जाऊंगा। बस, समझदार थे, मान गये। नहीं तो नासमझ लोग आनन्द मनाने के बहाने चीखना और शोर-शराबा करना ही जानते हैं।
यह बडी जानलेवा उतराई थी। मुझे नहीं पता था कि मलाणा गांव कितनी ऊंचाई पर है, इसलिये दूरी का अन्दाजा लगाना असम्भव था। नीचे नदी भी दिख रही थी लेकिन एक घण्टे बाद, दो घण्टे बाद भी वह उतनी ही नीचे थी। रास्ता एक बरसाती नाले से होकर था जिसमें अब बिल्कुल भी पानी नहीं था। बडे बडे पत्थर और झाडियां ही बस। बरसात में जब इसमें पानी आता होगा तो कई बार लोगों के बिल्कुल सिर पर भी गिर जाता होगा। हम यह सोचकर हैरान थे कि इसमें पानी कितनी तेजी से बहता होगा।
लेकिन इससे भी ज्यादा हैरान तब हुए जब नीचे से दो लोगों को आते देखा। जहां उतरना ही इतना खतरनाक है, वहां ऊपर चढना तो और भी खतरनाक था। ये दोनों विदेशी थे- एक महिला, एक पुरुष। पसीने से लथपथ और आंखें-मुंह लाल। पता नहीं यह लाल चढाई व गर्मी की वजह से थी या ये मलाणा से चरस का सुट्टा मारकर आये हैं। कुछ देर बाद एक लडकी और मिली। बुरी हालत थी। यह मुम्बई की थी। मेरे मुंह से एकदम निकला- किसी ने मना नहीं किया इधर से आने को? बोली कि क्या कोई और भी रास्ता है चन्द्रखनी जाने का? हमने बताया कि उधर मनाली की तरफ से है। बिल्कुल प्लेन है, सीधा रास्ता, ज्यादा चढाई नहीं है। बेचारी गालियां देने लगी अपने ‘गाइड’ को जो अभी बहुत नीचे था। मैंने पूछा कि मलाणा में चरस का सुट्टा नहीं लगाया? उसने मना कर दिया।
दो घण्टे तक अनवरत उतरने के बाद एक छोटी सी समतल जगह मिली। यह चट्टान की आड में एक गुफा थी। यहां बकरियों की खूब लीद पडी थी। यहां हमें वे दिल्ली वाले दम्पत्ति मिले। हमसे कुछ ही आगे आगे वे उतर रहे थे। उनकी भी हालत बडी खराब थी। जब पूछा कि आप तो उधर नगरोणी की तरफ जाने वाले थे तो बोले कि इधर ही आ गये। भूख लग आई थी और अभी भी मलाणा का कोई नामो निशान नहीं दिख रहा था। बिस्कुट का एक पैकेट बचा था। मन तो था कि निगाह बचाकर अकेला ही खा जाऊं लेकिन मिल-बांटकर खाना पडा। पानी सभी के पास समाप्त हो गया था।
पन्द्रह मिनट रुककर फिर चल पडे। यहां से निकलते ही इतनी तीखी ढलान पर छोटे छोटे खेत दिखने लगे। आस बंधी कि मलाणा आने ही वाला है लेकिन जालिम ने फिर भी पौन घण्टा लगा दिया आने में।


ब्यास घाटी की ओर का नजारा




चन्द्रखनी दर्रा हिमालय के सुन्दरतम दर्रों में से एक है।














दर्रों पर स्थानीय लोग झण्डियां व पत्थर रख देते हैं।




चन्द्रखनी के बाद ढलान है।


यहां से सीधे नीचे उतरना है। कल्पना कीजिये एक बार।




ऊपर बायें कोने में मेरे तीनों साथी धीरे धीरे नीचे उतरते दिख रहे हैं।


टिप्पणियां करने में कंजूसी ठीक नहीं।


चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव

मलाणा- नशेडियों का गांव

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मलाणा समुद्र तल से 2685 मीटर की ऊंचाई पर बसा एक काफी बडा गांव है। यहां आने से पहले मैं इसकी बडी इज्जत करता था लेकिन अब मेरे विचार पूरी तरह बदल गये हैं। मलाणा के बारे में प्रसिद्ध है कि यहां प्राचीन काल से ही प्रजातन्त्र चलता आ रहा है। कहते हैं कि जब सिकन्दर भारत से वापस जाने लगा तो उसके सैनिक लम्बे समय से युद्ध करते-करते थक चुके थे। सिकन्दर के मरने पर या मरने से पहले कुछ सैनिक इधर आ गये और यहीं बस गये। इनकी भाषा भी आसपास के अन्य गांवों से बिल्कुल अलग है।
एक और कथा है कि जमलू ऋषि ने इस गांव की स्थापना की और रहन-सहन के नियम-कायदे बनाये। प्रजातन्त्र भी इन्हीं के द्वारा बनाया गया है। आप गूगल पर Malana या मलाणा या मलाना ढूंढो, आपको जितने भी लेख मिलेंगे, इस गांव की तारीफ करते हुए ही मिलेंगे। लेकिन मैं यहां की तारीफ कतई नहीं करूंगा। इसमें हिमालयी तहजीब बिल्कुल भी नहीं है। कश्मीर जो सुलग रहा है, वहां आप कश्मीरी आतंकवादियों से मिलोगे तो भी आपको मेहमान नवाजी देखने को मिलेगी लेकिन हिमाचल के कुल्लू जिले के इस दुर्गम गांव में मेहमान नवाजी नाम की कोई प्रथा दूर-दूर तक नहीं है। ग्रामीणों की निगाह केवल आपकी हरकतों पर रहेंगी और मामूली सी लापरवाही आपकी जेब पर भारी पड जायेगी।
कुल्लू के अन्य गांवों की तरह यहां भी घर लकडी के बनाये जाते हैं। गांव के बीच में जमलू का मन्दिर है। और भी कई दूसरे मन्दिर हैं। यहां गैर-मलाणियों को अछूत माना जाता है। उन्हें गांव में केवल निर्धारित पथ पर ही चलना होता है। यदि आपने किसी देवस्थान या घर को स्पर्श कर लिया तो आपकी खैर नहीं। पूरा गांव एक नम्बर का निकम्मा है। निकम्मों की जमात हर घर के सामने बैठी रहती है और आने-जाने वालों पर निगाह रखती है। आपके किसी इमारत को छूने भर से ही आप पर प्रथम दृश्ट्या 2500 रुपये का जुर्माना लग जायेगा। वो तो अच्छा है कि हर घर पर तख्ती टंगी है कि छूना मना है, छूने पर 2500 रुपये का जुर्माना लगेगा। जमलू मन्दिर के बाहर तो फोटो खींचने की भी मनाही लिखी दिखी।
यह छुआछूत की बुराई तो कुछ भी नहीं। असल बुराई तो कुछ और है। यहां चरस और अफीम की खेती होती है। चरस की कीमत बाजार में कितनी है, इसे हर मलाणी जानता है। इसे यहां मलाणा क्रीम कहते हैं। आपको कदम कदम पर टोका जायेगा कि क्रीम चाहिये क्या। यहां चरस उगाने, बेचने और इस्तेमाल करने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं है। हालांकि मलाणा से बाहर ले जाने पर प्रतिबन्ध है। लेकिन मलाणा क्रीम आसानी से अन्तर्राष्ट्रीय बाजारों में पहुंच जाती है। यहां की चरस अच्छी गुणवत्ता वाली मानी जाती है, इसलिये ज्यादा महंगी भी है।
अच्छी खासी खेती होती है और हर खेत में नशा ही उगाया जाता है। जिसके पास जमीन ज्यादा, उसकी आमदनी भी ज्यादा। लालच का आलम यह है कि अभी जिस खतरनाक रास्ते से हम आये हैं, जहां खडे होने की भी जगह नहीं मिलती है, वहां भी फुट फुट भर के खेत बना रखे हैं। हालांकि सरकार चरस की खेती को हतोत्साहित कर रही है और मलाणियों को फ्री में गेहूं आदि के बीज बांट रही है लेकिन कौन अपने लाखों के कारोबार को छोडकर गेहूं उगायेगा?
मलाणा से कुछ दूर एक और गांव है रसोल। पता नहीं चरस वहां भी पैदा होती है या नहीं। मुझे यकीन है कि होती होगी। मलाणी केवल रसोल में ही विवाह सम्बन्ध बनाते हैं और रसोल वाले केवल मलाणा में। हजारों सालों से ऐसा ही होता आ रहा है। आपस में ही शादी-ब्याह। निश्चित रूप से आनुवांशिक बीमारियां पैदा हो गई होंगी।
गांव के बाहर कुछ रेस्ट हाउस बने हैं, जो निःसन्देह मलाणियों के ही हैं। यहां कोल्ड ड्रिंक से लेकर भारतीय, चाईनीज, इटैलियन, कॉंटिनेंटल, ये, वो, सब तरह का खाना मिलता है। रुकने को कमरे भी। भारतीयों से ज्यादा विदेशी यहां आते हैं। 99 प्रतिशत लोग नशेडी होते हैं। चरस को देश से बाहर ले जाने का सारा काम भी विदेशियों पर ही है। इसमें मुख्य भूमिका निभाते हैं कसोल के इजराइली। कसोल पूरी तरह इजराइलियों की बस्ती है। जी हां, वही कसोल जो मणिकर्ण से तीन-चार किलोमीटर पहले पडता है। कसोल मलाणा क्रीम की मण्डी है।
मलाणा से मलाणा नाला ज्यादा दूर नहीं है। उस तरफ सडक है। गांव से सडक की दूरी करीब ढाई-तीन किलोमीटर है। ये ढाई-तीन किलोमीटर जबरदस्त चढाई भरे हैं। नशेडियों को यहां पहुंचने के लिये खूब पसीना बहाना पडता है लेकिन उसके बाद जो उन्हें मिलता है, वो उनके लिये ज्यादा कीमती है। मलाणा नशेडियों का मक्का है। ये नशेडी जब मलाणा घूमकर वापस लौटते हैं तो इसके गुण तो गायेंगे ही। इंटरनेट पर जो भी कुछ इसकी शान में लिखा गया है, सब नशेडियों ने ही लिखा है।
भयंकर गन्दगी है यहां। न लोग साफ, न ही उनके घर व गलियां। जरुरत भी क्या है? बैठे बिठाये लाखों में खेलते हैं। अब प्रशासन को चाहिये कि मलाणा के साथ सख्ती से पेश आये। अब इन्हें गेहूं के बीज बांटना बन्द करके इनकी चरस पर ही चोट करनी चाहिये। खडी फसल को बर्बाद करते रहना चाहिये। आने-जाने वालों पर कडी नजर रखी जाये और उनकी नियमित कठोर जांच की जाये। जमलू मन्दिर को अपने नियन्त्रण में ले लेना चाहिये। हालांकि कोई हिमाचली ऐसा नहीं कर सकेगा, इसके लिये बाहर से भी बुलाया जा सकता है। इससे मलाणियों में छुआछूत की भावना कम होगी। क्रोधित होकर जमलू अगर तांडव कर दे तो उसे भी सबक सिखाया जा सकता है।
मलाणा वास्तव में हिमाचल और आखिरकार भारत पर एक कलंक है। अपनी विलक्षण संस्कृति होना ठीक है लेकिन नशा किसी भी हालत में ठीक नहीं है।

मलाणा से दिल्ली
कुल्लू से रोज यहां एक बस आती है। बाकी सारा आवागमन टैक्सियों से होता है। जरी जाने के लिये 800 रुपये में एक गाडी बुक की। ड्राइवर जरी का रहने वाला था। खफा था वो भी मलाणियों से। पूरे रास्ते इनकी आलोचना ही करता रहा।
मलाणा नाले पर एक बांध बना है और उसका पानी सुरंगों से होकर जरी के पास पावर प्लांट में जाता है। एक और बांध और भी आगे बनाया जा रहा है। यह सडक उस नये बांध तक सामान ले जाने के लिये ही बनाई गई है। लेकिन सडक बनने से पहले पुराने बांध से नये बांध तक सामान पहुंचाने के लिये रज्जु-मार्ग का प्रयोग किया जाता था। यह रज्जु मार्ग अब भी है और इसकी तारों पर जगह-जगह ट्रालियां लटकी हैं। अब यह रज्जु-मार्ग बन्द है।
जरी से हमें कुल्लू की बस मिल गई। लेकिन भून्तर के पास इसमें पंक्चर हो गया। पंक्चर ठीक कराकर आगे बढे तो जाम लगा मिला। ड्राइवर ने बस तुरन्त वापस मोड ली और ब्यास के बायें किनारे पर बनी सडक से कुल्लू पहुंच गया। भून्तर से मनाली तक ब्यास के दोनों तरफ सडकें हैं। मुख्य सडक दाहिनी तरफ वाली है। बायीं तरफ वाली मुख्य नहीं है इसलिये ट्रैफिक नहीं होता।
हम तीन दिनों से पैदल चल रहे थे, थक गये थे। इसलिये हम चाहते थे कि दिल्ली किसी वोल्वो बस से ही जायेंगे। लेकिन जब काउंटर पर जाकर पता किया तो वोल्वो तो क्या, साधारण बस के भी लाले पड गये। अगले एक सप्ताह तक सभी बसें पूरी तरह भरी हैं। यह जून का महीना था और सभी लोग छुट्टियां मनाने मनाली जाते हैं। हिमाचल की बसों में ऑनलाइन बुकिंग होती है तो बसें पहले ही भर जाती हैं।
अब क्या करें? काउंटर वाले ने बताया कि कोई हरियाणा की बस आयेगी तो उसमें चले जाना। हरियाणा की बसों में पहले से बुकिंग नहीं होती। जाओ और किसी भी खाली सीट पर बैठ जाओ। थोडा घूमे-फिर तो पता चला कि कम से कम सौ सवा सौ यात्री किसी हरियाणा की बस की प्रतीक्षा में हैं। बढिया भीड थी। अशोक ने कहा कि हममें से जो भी कोई पहले बस में चढेगा, वो बाकियों के लिये सीट घेर लेगा। लेकिन मैंने कहा- मनाली में भी ऐसा ही हाल हो रहा होगा भीड का। यहां जो भी बस आयेगी, वो मनाली से ही आयेगी। जाहिर है कि भरी ही होगी। अगर बस कुल्लू से पहले ही पूरी भर गई तो हरियाणा वाले बस को यहां नहीं लायेंगे, बाईपास से निकाल ले जायेंगे। फिर भी अगर कोई बस अगर आ भी गई तो उसमें इक्का-दुक्का सीटें ही होंगी या फिर एक सीट यहां, एक सीट वहां। एक आदमी चार सीटें नहीं घेर सकता। सभी अपनी-अपनी सीटों के लिये स्वयं जिम्मेदार होंगे।
तभी हरियाणा की एक बस आती दिखी। भीड टूट पडी। कुछ ही सीटें खाली थीं। हमने हालात का सटीक पूर्वानुमान लगाया था और प्रवेश द्वार के पास ही खडे हो गये थे, इसलिये चारों को सीटें मिल गईं।
समाप्त।

मलाणा गांव


मलाणा के बच्चे

जमलू मन्दिर


चेतावनी लिखी है कि गांव के बीच बने रास्ते पर ही चलें। किसी इमारत को न छुएं। नहीं तो 2500 रुपये जुर्माना।

जरी से मलाणा आने वाली सडक

सडक से मलाणा जाने का द्वार। पीछे मलाणा गांव दिख रहा है।

रज्जु-मार्ग और सीमेण्ट आदि ढोने वाली ट्रालियां

मलाणा जाने का एक और रास्ता
टिप्पणियां करने में कंजूसी ठीक नहीं।

चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव

मुगलसराय से गोमो पैसेंजर ट्रेन यात्रा

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दिल्ली से मुगलसराय
1 सितम्बर 2014, सोमवार
सितम्बर की पहली तारीख को मेरी नंदन कानन एक्सप्रेस छूट गई। सुबह साढे छह बजे नई दिल्ली से ट्रेन थी और मुझे ऑफिस में ही सवा छह बज गये थे। फिर नई दिल्ली जाने की कोशिश भी नहीं की और सीधा कमरे पर आ गया। इस बार मुझे मुगलसराय से हावडा को अपने पैसेंजर ट्रेन के नक्शे में जोडना था। ऐसा करने से दिल्ली और हावडा भी जुड जाते। दिल्ली-मुम्बई पहले ही जुडे हुए हैं। पहले भी हावडा की तरफ जाने की कोशिश की थी लेकिन पीछे हटना पडता था। इसका कारण था कि भारत के इस हिस्से में ट्रेनें बहुत लेट हो जाती हैं। चूंकि स्टेशनों के फोटो भी खींचने पडते थे, इसलिये सफर दिन में ही कर सकता था। इस तरह मुगलसराय से पहले दिन चलकर गोमो तक जा सकता था और दूसरे दिन हावडा तक। हावडा से वापस दिल्ली आने के लिये वैसे तो बहुत ट्रेनें हैं लेकिन शाम को ऐसी कोई ट्रेन नहीं थी जिससे मैं अगले दिन दोपहर दो बजे से पहले दिल्ली आ सकूं। थी भी तो कोई भरोसे की नहीं थी सिवाय राजधानी के। राजधानी ट्रेनें बहुत महंगी होती हैं, इसलिये मैं इन्हें ज्यादा पसन्द नहीं करता।
इसका तरीका निकाला कि हावडा से रातोंरात पटना आया जाये। दिन में पटना से मुगलसराय तक पैसेंजर यात्रा की जाये और शाम को वाराणसी से चलकर अगले दिन सुबह तक दिल्ली लौटा जाये। इसमें मुझे एक और अतिरिक्त छुट्टी लेनी पडेगी। लेकिन सुकून इस बात का रहेगा कि दिल्ली और पटना भी जुड जायेंगे।
अब कैसे मुगलसराय जाऊं? एक बार तो मन में आया कि साधारण डिब्बे में चलता हूं। लेकिन रातभर का जगा होने के कारण व बिहार रूट होने के कारण साधारण डिब्बे में चढना ही पाप था। कमरे पर आकर ट्रेनों में सीटें देखीं तो तीन ट्रेनों में खाली सीटें मिली- रांची राजधानी, भुवनेश्वर राजधानी और भागलपुर गरीब रथ में चेयरकार। गरीब रथ का कोई भरोसा नहीं था कि पांच बजे से पहले मुगलसराय पहुंच जायेगी या नहीं। इसका रिकार्ड आजकल भी छह छह घण्टे विलम्ब से चलने का है, तो इससे जाने का इरादा बदल लिया। अब बची राजधानियां। वैसे तो मैं पंजाब या राजस्थान भी जा सकता था। वहां अभी भी मेरे अनदेखे कई रेलमार्ग बचे हुए हैं, लेकिन ऐसा करने से मुगलसराय-हावडा मार्ग एक बार फिर अनछुआ रह जायेगा। आखिर जी कडा करके भुवनेश्वर राजधानी में आरक्षण करा लिया। लगभग 1500 रुपये लगे।
शाम चार सवा चार बजे नई दिल्ली से भुवनेश्वर राजधानी चलती है। इस समय नई दिल्ली से कई राजधानियां निकलती हैं। बराबर वाले प्लेटफार्म पर पटना राजधानी खडी थी जो भुवनेश्वर के बाद चलेगी।
तय समय पर गाडी चल पडी। चलने से पहले मैंने प्लेटफार्म से ‘मॉंक हू सोल्ड हिज फेरारी’ का हिन्दी अनुवाद खरीद लिया। बर्थ ऊपर वाली थी और जाकर लेट गया और किताब पढने लगा। समय पर खाने-पीने को आता रहा।
यह मेरी राजधानी ट्रेन में दूसरी यात्रा थी। पहली यात्राभी कोई ज्यादा अच्छी नहीं रही थी। और इस यात्रा में ट्रेन की हालत देखकर तरस आ गया। राजधानी भारत की सबसे वीआईपी ट्रेन है। सुना है कि पूर्व की तरफ जाने वाली राजधानियां खराब हालत में हैं और दक्षिण व पश्चिम की तरफ जाने वाली शानदार हालत में। देखते हैं उन शानदार राजधानियों में बैठने का मौका कब मिलेगा? इस ट्रेन में टॉयलेट गन्दगी से भरा हुआ था और ट्रेन के हिलने से गन्दगी फर्श पर फैल भी रही थी। डिब्बे की छत की शीट जगह-जगह से थोडी उखडी भी थी।
वातानुकूलित ट्रेनों में सबसे बेकार की चीज मुझे जो लगती है, वो है अटेंडेंट। अटेंडेंट समाज के सबसे घटिया समुदाय का आदमी होता है यानी अनपढ समुदाय का। फिर राजधानियों में ‘बडे’ लोग यात्रा करते हैं तो वो अनपढ आदमी स्वयं को सबका बॉस समझने लगता है। कुछ काम न करना और सबको हिदायतें देते रहना उसका काम होता है।
इसी कूपे में एक साहब भी यात्रा कर रहे थे। ये महाशय कोई बडे सरकारी अधिकारी थे। इनके साथ एक नौकर भी था। मैंने पूछा तो नहीं लेकिन बोलचाल से साफ पता चल जाता है। नीचे बैठे दूसरे लोगों से वे बात कर रहे थे और बिना पीएम, सीएम और गवर्नर के बात नहीं कर रहे थे। मसलन, मुझे गवर्नर साहब को अटैंड करने जाना था, गवर्नर साहब से इतनी देर बात हुई आदि। बडे लोगों के हावभाव तो अपने ही आप बदल जाते हैं लेकिन ये सभ्य बडे आदमी थे। सामने वाले से शालीनता से बात कर रहे थे। बाद में मैंने भी कुछ बातें कीं, तब भी वही शालीनता बरकरार रही। अच्छा लगता है जब कोई बडा आदमी इस तरह बात करता है।
रात दो बजे गाडी मुगलसराय पहुंची। इसके तुरन्त बाद ही बराबर वाले प्लेटफार्म पर पटना राजधानी भी आ गई। उत्तर मध्य रेलवे की इलाहाबाद डिवीजन के इस मार्ग पर केवल राजधानी ट्रेनों की ही इज्जत है। बाकी सभी ट्रेनें लेट चलती हैं, सिवाय उत्तर-मध्य रेलवे की गाडियों को छोडकर जैसे प्रयागराज और कालिन्दी।

मुगलसराय से गोमो
सुबह साढे पांच बजे आसनसोल पैसेंजर है। पूरे दिन उसी ट्रेन में बैठे रहना है। नींद आयेगी। मैंने एक गलती कर दी कि ओढने बिछाने को कुछ भी नहीं लाया अन्यथा पैदल पार पथ पर अच्छी हवा लग रही थी। सबसे पहले गोमो का टिकट लिया और उसके बाद डेढ सौ रुपये देकर डोरमेट्री में एक बिस्तर ले लिया और सो गया। पांच बजे उठा। जब तक नहाया, तब तक ट्रेन मुगलसराय आ चुकी थी।
ठीक समय पर गाडी यहां से चल पडी। हां, अब मैं भोजपुरी भाषी प्रदेश में हूं तो कहना चाहिये कि गाडी ठीक समय पर खुल गया। लेकिन अगले स्टेशन गंज ख्वाजा पहुंचते पहुंचते एक घण्टे लेट हो चुकी थी। इसके बाद चन्दौली मझवार और सैयद राजा स्टेशन हैं। सैयद राजा उत्तर प्रदेश का आखिरी स्टेशन है। इसके बाद बिहार आरम्भ हो जाता है और बिहार का पहला स्टेशन है कर्मनाशा। यह नाम इसी नाम की नदी के कारण पडा। बहुत समय पहले ‘कर्मनाशा की बाढ’ नाम की एक कहानी पढी थी, पाठ्यक्रम में थी। मुझे पक्का तो याद नहीं लेकिन उसमें एक ऐसी महिला की कहानी है जो विवाह से पहले ही मां बन गई थी। उसके बाद कर्मनाशा में बाढ आ गई तो अन्धविश्वासी गांव वालों ने इस बाढ का जिम्मेदार उस महिला को ही माना। इसके बाद तो ध्यान नहीं क्या हुआ लेकिन शायद यह एक सुखान्त कहानी थी।
इसके बाद तो स्टेशन आते गये, जाते गये लेकिन भीड नहीं बढी। बाहर चारों तरफ केवल एक ही फसल दिखाई दे रही थी और वो थी धान। बिहार, बंगाल, झारखण्ड, ओडिशा और पूरे पूर्वोत्तर में धान ही मुख्य फसल है। धान का अर्थ है कि यहां पानी की कोई कमी नहीं है। लेकिन अगर बारिश में थोडा भी विलम्ब हो जाये तो यहां सूखा पडते भी देर नहीं लगती। मैं अक्सर शेष भारत की खेती की तुलना पश्चिमी यूपी, हरियाणा और पंजाब से करता हूं। जाहिर है यहां भी करूंगा। वहां धान मुख्य फसल नहीं है बल्कि मुख्य फसल है गेहूं। गेहूं शुष्क जलवायु की फसल होती है। ऐसा पुराने काल से होता आ रहा है। फिर मानसून की मामूली सी जानकारी रखने वाला भी जानता है कि भारत में मानसून दो चरणों में प्रवेश करता है। पहले चरण में पश्चिमी घाट यानी केरल कर्नाटक से शुरू होकर दक्षिणी प्रायद्वीप को लांघकर बंगाल की खाडी में चला जाता है। दूसरे चरण में बंगाल की खाडी से पुनः प्रकट होता है बंगाल-ओडिशा में। यहां से यह उत्तर की ओर बढता है और हिमालय के कारण पश्चिमोत्तर दिशा में बढने लगता है। इसी मार्ग में सम्पूर्ण धान प्रदेश आ जाता है यानी बिहार भी। हरियाणा-पंजाब तक पहुंचते पहुंचते जाहिर है मानसून बिहार-बंगाल के मुकाबले क्षीण ही होता है। इसलिये हरियाणा-पंजाब में हमेशा बिहार-बंगाल के मुकाबले कम बारिश होती है।
मेरा इतना सब कहने का मतलब है कि बिहार फिर क्यों इतना पिछडा है? मौसम मेहरबान, जमीन उपजाऊ, मेहनतकश लोग; फिर क्या वजह है कि बिहार भारत का बदतम प्रदेश है? पंजाब और बिहार में प्राकृतिक तौर पर बडी समानताएं हैं। दोनों ही राज्य पूर्ण मैदानी हैं, दोनों के उत्तर में हिमालय है। हिमालय से नदियां निकलकर सीधे दोनों राज्यों में प्रवेश करती हैं और जमीन को उपजाऊ बनाती हैं। दोनों राज्यों में पर्यटन भी कोई ज्यादा नहीं है। एक में जहां ले-देकर अमृतसर है तो दूसरे में बोधगया। इनके अलावा कुछ नहीं। सामाजिक परिवेश की मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है लेकिन दोनों में पहले जमींदारी प्रथा थी। एक जमींदार होता था और कई-कई गांव उसकी हद में होते थे।
फिर क्यों इतनी असमानताएं हैं? इसका जवाब अमृतसर और कटिहार के बीच चलने वाली आम्रपाली एक्सप्रेस देगी। इसमें कम से कम नब्बे प्रतिशत यात्री बिहारी होते हैं। दूसरे राज्यों में पलायन करना बिहारियों में भर-भर कर भरा होता है। और पलायन भी किसलिये? मजदूरी करने... गोबर ढोने... पत्थर कूटने... चिनाई करने। इस बारे में अजीत सिंहकुछ इस प्रकार लिखते हैं-
“एक आदमी बेचारा अनपढ गंवार अंगूठा टेक ... उसके पास दो बीघा खेत हैं सूखा बंजर... न दाना न पानी... न वर्षा न नहर न कुआं... घास का तिनका तक नहीं उगता कि बकरी ही खा के पेट भर ले... उसके बच्चे भूखे मरते हैं... दर दर की ठोकरें खाते हैं... लोगों की गालियां सुनते हैं... ऐसे आदमी को आप क्या कहेंगे... उससे आप सिर्फ सहानुभूति ही जता सकते हैं।
एक दूसरा आदमी है जिसके पास दुनिया का सबसे उपजाऊ खेत... भरपूर बारिश... जमीन में बीस फीट पे पानी... शानदार मौसम... सभी फसलों के लिये उपयुक्त जमीन और जलवायु... ऊपर से पढा लिखा अफलातून... उसके बाप दादा सब अरस्तू और सुकरात... उसके दादा के दरवाजे पर हाथी झूमता था... परदादा उसका दुनिया पे राज करता था... अब उसके बच्चे अगर भूखे मरते हों... दुनिया भर में दर दर की ठोकरें खाते हों... दुनिया भर में तिरस्कृत हों... धिक्कारे जायें... तो ऐसे आदमी को आप क्या कहेंगे?... गाली देंगे कि नहीं?... यही ना कहेंगे कि अबे तुझे तो दुनिया का सबसे सम्पन्न आदमी होना चाहिये और तेरे बच्चे ठोकरें खा रहे हैं?
यही हाल है हमारे यूपी बिहार का... मैं जब भी यूपी बिहार पे कोई पोस्ट लिखता हूं युद्ध शुरू हो जाता है... लोग तलवार निकाल लेते हैं... अरे भैया गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र जाकर देखो... सूखा बियावान बंजर... न पानी न खेती बाडी... फिर भी हमसे कितना आगे हैं... और एक हम... गंगा किनारे वाले... धरती का सबसे उपजाऊ प्रदेश... अनाज छींटा दो बस खेत में... सोना उगलने वाली धरती... प्रचुर मात्रा में पानी... दोनों फसलें मिलती हैं... दलहन तिलहन सब होता है... फल सब्जियों का भण्डार... ऊपर से इतने मेधावी... इतने आईएएस देने वाले... पढे लिखे... बाप हमारे मगध पाटलिपुत्र से दुनिया पे राज कर गये... और हम साले यहां लोगों का गोबर फेंक रहे हैं पंजाब, हरियाणा, गुजरात में?... जूठे बर्तन मांजते हैं 3000 रुपये में?... रिक्शा खींचते हैं... मजदूरी करते हैं और फिर भी धिक्कारे जाते हैं।
दुनिया पे राज करने वाले आज फकीर बने घूमने को मजबूर... अरे भैया हमने तो सिर्फ याद दिलाया है कि बेटा तुम्हारे बाप के दरवाजे हाथी झूमता था... तुम साले सिक्कड लिये हमारे ही पीछे दौड पडते हो...
लालू मुलायम मायावती से बचो भैया... फिर हाथी झूमेगा तुम्हारे दुआरे... तुम्हारे लडके भी घी खायेंगे दाल में डाल के...”
गौरतलब है कि अजीत सिंह ‘बिहारी’ हैं।
चलिये, बहुत हो गया। नहीं तो बिहारी मित्र जो इसे पढ रहे हैं, वे नाराज हो जायेंगे। अरे हां, एक खास बात और रह गई। पंजाब में जो नदियां हैं, वे हिमाचल से आती हैं यानी भारत का पानी भारत में। हिमाचल में बडे बडे बांध बने हैं। सारा नियन्त्रण हमारे ही हाथ में है। जबकि बिहार की हिमालयी नदियों का पानी नेपाल से आता है। नेपाल ने जो दे दिया, उसी से गुजर-बसर करनी है। ज्यादा दे दिया तो बाढ भी झेलनी है। लेकिन यह समस्या सरकारों को सुलझानी थी। न भारत सरकार इस मामले में कुछ कर रही है और बिहार सरकार तो... माशा अल्लाह।
सासाराम जंक्शन एक घण्टे की देरी से पहुंची। सासाराम से एक लाइन आरा भी जाती है। सासाराम से आगे करवन्दिया और पहलेजा के बाद डेहरी ऑन सोन स्टेशन है। यह सोन नदी के किनारे स्थित है। डेहरी का अर्थ क्या हुआ? डेहरी अर्थात देहरी यानी द्वार। डेहरी ऑन सोन यानी सोन के द्वार पर। सही नाम है।
सोन नदी पार करके सोन नगर जंक्शन स्टेशन है। यहां से एक लाइन दक्षिण की ओर झारखण्ड में गढवा रोड और बरवाडीह की ओर चली जाती है। बडा भयंकर नक्सली इलाका है वह। लेकिन अगर रेलवे को झारखण्ड जैसे राज्यों से आर्थिक लाभ उठाना है तो ऐसे इलाकों में ट्रेन तो चलानी ही पडेगी। वहां रेलगाडियों को रोकना, उडाना बिल्कुल आम बात है। कुछ समय पहले राजधानी एक्सप्रेस भी नक्सलियों ने बन्धक बना ली थी। इसके अलावा लोको पायलटों और गार्डों को भी बन्धक बना लिया जाता है। कई-कई दिन बाद छोडा जाता है अक्सर तब जब उनकी कोई मांग मान ली जाती है।
सोन नगर के बाद चिरैला पौथू है और उसके बाद पुनपुन नदी। पुनपुन पार करते ही एक बोर्ड दिखाई देता है जिस पर लिखा है- अनुग्रह नारायण रोड घाट स्टेशन। यहां ट्रेन नहीं रुकी और अगले स्टेशन अनुग्रह नारायण रोड पर रुकी। यह घाट स्टेशन कभी आबाद स्टेशन रहा होगा या फिर आज भी किसी तीज त्यौहार के अवसर पर रुकती भी होगी। इसी तरह का एक और गुमनाम स्टेशन है- देवरिया कुरम्हा नरेश हाल्ट, जो अनुग्रह नारायण रोड से अगला स्टेशन है। इसका भी जिक्र किसी रेलवे साइट पर नहीं मिलता। फिर तो ट्रेन चलती रही, रुकती रही, स्टेशन निकलते गये, यात्री चढते रहे, उतरते रहे- फेसर, बघोई कुसा, जाखिम, देव रोड, रफीगंज, इस्माइलपुर, गुरारू, परैया, कष्ठा और गया जंक्शन। ट्रेन गया बिल्कुल ठीक समय पर पहुंची यानी पौने बारह बजे। गया से एक लाइन पटना भी जाती है। सुना है उस पर बडी भारी भीड होती है ट्रेनों में। भीड वाली ट्रेनों में यात्रा करते मेरे होश उडते हैं।
गया से साढे बारह बजे प्रस्थान किया यानी आधे घण्टे विलम्ब से। ट्रेन में भीड बिल्कुल नहीं थी। अगला स्टेशन है शहीद ईश्वर चौधरी हाल्ट। जितने हाल्ट आपको बिहार में मिलेंगे, उतने शायद ही किसी और राज्य में मिलें। बताते हैं कि यह सब लालू की करामात है। लालू जब रेलमन्त्री थे, तब उन्होंने ऐसा किया। यात्री अपने गांवों के सामने ट्रेन की चेन खींच देते थे। लालू ने ऐसे स्थानों को हाल्ट बना दिया। इससे ट्रेनें आधिकारिक तौर पर रुकने लगीं और टिकट काउण्टर खोल देने से रेलवे को आमदनी भी बढी। वैसे पैसेंजर ट्रेनों से रेलवे को कोई आमदनी नहीं होती। जितने ज्यादा स्टेशनों पर ट्रेन रुकेगी, उसका प्रचालन खर्च उतना ही ज्यादा बढेगा। इससे अच्छा होता कि ट्रेनों से चेन स्थायी रूप से ही निकलवा देते। खींचो बेटा, अब क्या खींचोगे?
मानपुर जंक्शन से एक लाइन कियूल की तरफ चली जाती है। फिर बन्धुआ, टनकुप्पा, बंशीनाला हाल्ट, पहाडपुर, गुरपा स्टेशन आते हैं। गुरपा के बाद छोटा नागपुर की पहाडियां शुरू हो जाती हैं। बिहार-झारखण्ड सीमा इन्हीं छोटा नागपुर की पहाडियों से होकर ही जाती है। यहां पूरा पहाडी मार्ग है और ट्रेनों की गति साठ किलोमीटर प्रति घण्टा होती है। बीच बीच में ब्लॉक हट बने हुए हैं। पता नहीं ब्लॉक हट का क्या अर्थ है लेकिन ये यहां पैसेंजर ट्रेनों के लिये हाल्ट का काम करते हैं। लगातार तीन ब्लॉक हट हैं- यदुग्राम ब्लॉक हट, बसकटवा ब्लॉक हट और नाथगंज ब्लॉक हट। फिर दिलवा स्टेशन आता है। देश में दूसरी जगहों पर भी ब्लॉक हट हैं लेकिन वहां ट्रेनें नहीं रुकतीं। यहां कोई प्लेटफार्म नहीं था और न ही स्टेशन का बोर्ड लगा था। बस घोर जंगल में रेलवे लाइन के किनारे एक घर सा बना था और उसी की दीवार पर नाम लिखा था। ट्रेन रुकती और चल देती। मैं बडा किंकर्तव्यविमूढ रहा कि इन ब्लॉक हटों को अपनी स्टेशन-लिस्ट में शामिल करूं या न करूं। बाद में जब झारखण्ड और आगे बंगाल में बाकायदा ब्लॉक हट व ब्लॉक हाल्ट के स्टेशन देखे, बोर्ड देखे तो तय कर लिया कि इन्हें अपनी लिस्ट में शामिल करूंगा।
यहां फोन नेटवर्क नहीं था, इसलिये पता चलना मुश्किल था कि बिहार से झारखण्ड में कब प्रवेश कर गये? गुरपा बिहार में है और दिलवा झारखण्ड में। लेकिन बीच में जो तीन ब्लॉक हट हैं, वे किस राज्य में हैं, यह पता नहीं चल सका। एक-दो यात्रियों से पूछा भी लेकिन सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिला। आखिरकार उन्हें बिहार में मान लिया गया। तो इस प्रकार दिलवा झारखण्ड का पहला स्टेशन बन गया। मैं दिलवा में नीचे प्लेटफार्म पर उतरा और पहली बार झारखण्ड की धरती को देखने के लिये ईश्वर को धन्यवाद दिया।
दिलवा में पुरी जाने वाली पुरुषोत्तम एक्सप्रेस और हटिया जाने वाली झारखण्ड स्वर्ण जयन्ती एक्सप्रेस निकलीं। बराबर में यात्री बातें कर रहे थे। भाषा भिन्नता होने के बावजूद भी ज्यादातर बात मेरी समझ में आ रही थी। विषय राजनीति ही था। लालू की भर्त्सना की जा रही थी। एक ने कहा कि लालू की छोटी सोच का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उसने गरीब रथ चलाई, जबकि मोदी बुलेट ट्रेन चलवायेंगे। दूसरे ने कहा कि यह तो कुछ भी नहीं है। लालू ने फुलवरिया के लिये पैसेंजर ट्रेन की घोषणा की थी और कहा था कि हम अपने गांव पैसेंजर ट्रेन से जायेंगे। होते-होते बात बिहार के वर्तमान मुख्यमन्त्री जीतन राम पर आ गई। उसने हाल ही में कहा था कि बाढ पीडित चूहे खाकर गुजारा करें, मैंने भी चूहे खाये हैं। बडी आलोचना होती रही।
दिलवा से आगे लालबाग ब्लॉक हट, गझंडी, कोडरमा, लाराबाद ब्लॉक हट, हीरोडीह, सरमाटांड, यदुडीह ब्लॉक हाल्ट, परसाबाद, दरसा ब्लॉक हाल्ट, चौबे, केशवारी ब्लॉक हाल्ट, हजारीबाग रोड, गडिया बिहार, चिचाकी, करमाबाद, चौधरीबान्ध, चेगरो ब्लॉक हट, पारसनाथ, निमियाघाट, भोलीडीह ब्लॉक हाल्ट और आखिरकार गोमो जंक्शन पहुंचते हैं। गोमो का पूरा नाम नेताजी सुभाष चन्द्र बोस जंक्शन गोमोह है।
गोमो से करीब चालीस किलोमीटर दूर बोकारो है जहां मित्र अमन मलिकजी रहते हैं। मैंने इस यात्रा की जानकारी फेसबुक पर सार्वजनिक कर दी थी। वे लगातार सम्पर्क में थे। सबसे पहले जब उन्होंने पूछा कि गोमो में कहां रुकोगे तो मैंने कहा कि या तो किसी होटल में या फिर स्टेशन पर ही। बोले कि गोमो में तो कोई होटल ही नहीं है। फिर कहा कि वे भी गोमो आ रहे हैं और साथ ही कहीं रुक जायेंगे। पूरे गोमो में उनके जानकार और रिश्तेदार हैं। यही बात मुझे परेशान करने लगी कि वे अपने चार काम छोडकर मेरे लिये गोमो आयेंगे जबकि मुझे वहां से सुबह-सुबह आगे के लिये निकल जाना है।
कुछ देर बाद फिर फोन आया कि जिनके यहां रुकना था, वे आज गोमो में नहीं हैं तो तुम धनबाद चले जाओ। वहां रुकने की कोई समस्या नहीं है। मैंने उन्हें बताया कि मैं आज धनबाद नहीं जा सकता क्योंकि गोमो पहुंचते-पहुंचते ही अन्धेरा हो जायेगा और मैं गोमो से धनबाद के बीच के स्टेशनों के फोटो नहीं ले पाऊंगा। हां, ऐसा करूंगा कि पारसनाथ रुक जाता हूं। वह बडा जैन तीर्थ है और दिल्ली-कोलकाता हाइवे पर भी है तो होटल मिल ही जायेंगे। फिर भी उन्होंने धनबाद जाने का दबाव डाले रखा। मैंने यहीं एक गलती कर दी। मुझे कह देना चाहिये था कि ठीक है, धनबाद ही चला जाऊंगा। वे कम से कम निश्चिन्त तो हो जाते। और रुक पारसनाथ में जाता। मैं भी अडा रहा कि नहीं, आज धनबाद नहीं जाऊंगा। फिर उन्होंने समाधान निकाला और कुछ देर बाद कहा कि गोमो ही आ जाओ। वहीं मिलते हैं। रुकने को हो जायेगा।
आखिरकार आधे घण्टे की देरी से सवा छह बजे ट्रेन गोमो पहुंच गई। मैंने जब अमन जी को बताया कि गोमो पहुंच चुका हूं तो वे रास्ते में थे और कहा कि उन्हें आधा घण्टा और लगेगा। उन्होंने मेरा नम्बर अपने मित्र को दिया और मित्र स्टेशन के बाहर पहले से ही तैनात थे। ज्यादा देर नहीं हुई फिर अमन साहब को आने में। गोमो असल में रेलवे की जमीन पर स्थित है। यह काफी बडा जंक्शन है और यहां से चारों दिशाओं में मालगाडियां आने-जाने में लगी ही रहती हैं। यात्री गाडियां तो हैं ही।
काफी लम्बा लेख हो गया। अब ये बताने की जरुरत नहीं है कि अमन के और भी कई मित्र व सम्बन्धी एकत्र हो गये। एक ढाबे पर तीन घण्टे तक खाना-पीना होता रहा और आखिरकार गोमो से करीब आठ-दस किलोमीटर दूर अमन के एक ठिकाने पर जाकर सो गये।


गोमो से हावडा लोकल ट्रेन यात्रा

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इस यात्रा वृत्तान्त को आरम्भ से पढने के लिये यहां क्लिक करें।
यह गोमो से आसनसोल जाने वाली एक मेमू ट्रेन थी जो आसनसोल में पांच मिनट रुककर बर्द्धमान के लिये चल देती है। बर्द्धमान से हावडा जाने के लिये थोडी-थोडी देर में लोकल ट्रेनें हैं जो कॉर्ड व मेन दोनों लाइनों से जाती रहती हैं। मैंने गोमो से ही सीधे हावडा का पैसेंजर का टिकट ले लिया। पूरे 300 किलोमीटर है।
सुबह सवा सात बजे ट्रेन चल पडी। गोमो से निकलकर रामकुण्डा हाल्ट था जहां यह ट्रेन नहीं रुकती। शायद कोई भी ट्रेन नहीं रुकती। पहले रुकती होगी कभी। इसके बाद मतारी, नीचीतपुर हाल्ट, तेतुलमारी, भूली हाल्ट और फिर धनबाद आता है। आठ बजकर दस मिनट पर धनबाद पहुंच गये। गोमो से यहां तक ट्रेन बिल्कुल खचाखच भरी थी। सुबह का समय और धनबाद जैसी जगह; भला ट्रेन क्यों न भरे? धनबाद में खाली हो गई और फिर नये सिरे से भर गई हालांकि इस बार उतनी भीड नहीं थी।
ट्रेन को यहां से तुरन्त ही चल देना चाहिये था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रुकी रही... रुकी रही... रुकी रही। साढे आठ... पौने नौ... नौ... सवा नौ... साढे नौ... पौने दस...। आखिरकार नौ बजकर पचास मिनट पर ट्रेन चली तकरीबन डेढ घण्टे की देरी से। अक्सर पूर्वी रेलवे की ये लोकल ट्रेनें कभी भी लेट नहीं होतीं। एक बार तो मन में आया कि इस भीड भरी ट्रेन को छोड दूं और कोडरमा से आने वाली लोकल में चढ जाऊं। कोडरमा लोकल भी बर्द्धमान तक जाती है और इसके पन्द्रह मिनट बाद ही यहां आने वाली है। इसमें इसके यात्री तो हैं ही, साथ ही कोडरमा लोकल के यात्री भी हैं, इसलिये डबल भीड है। लेकिन फिर सोचा कि ज्यादा स्यानापंती ठीक नहीं है। अभी तो गोमो लोकल ही डेढ घण्टे लेट हुई है, क्या पता कोडरमा लोकल भी यहां आकर रुक जाये। आखिरकार इसी में चढा रहा।
धनबाद से आगे डोकरा हाल्ट और प्रधान खांटा जंक्शन हैं। प्रधान खांटा से एक लाइन सिन्दरी टाउन व आगे आद्रा की तरफ जाती है। इससे अगला स्टेशन छोटा अम्बोना है। यहां स्टेशन का नाम बंगाली में भी लिखा देखकर हैरान रह गया। गौरतलब है कि धनबाद से अगला बडा स्टेशन आसनसोल है जो पश्चिमी बंगाल में स्थित है। इसका अर्थ हुआ कि धनबाद और आसनसोल के बीच में कहीं झारखण्ड और पश्चिमी बंगाल की सीमा है। फिर स्टेशनों के नाम हिन्दी, अंग्रेजी और उस राज्य की राजकीय भाषा में लिखे जाते हैं। अभी तक सभी नाम हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू में लिखे मिल रहे थे। यूपी, बिहार और झारखण्ड में उर्दू भी चलती है। अब जब छोटा अम्बोना को बंगाली में लिखा देखा तो इसका अर्थ था कि झारखण्ड पीछे छूट गया और पश्चिमी बंगाल शुरू हो गया। हैरानी इस बात की थी कि मेरी जानकारी के अनुसार पश्चिमी बंगाल इतनी जल्दी शुरू नहीं होना चाहिये था। मोबाइल में गूगल मैप और जीपीएस से अपनी सटीक स्थिति देखी तो पता चला कि मैं झारखण्ड में ही हूं और अभी भी तीस-चालीस किलोमीटर तक झारखण्ड है।
तो गलत कौन है? गूगल मैप में अक्सर त्रुटियां मिल जाती हैं लेकिन राज्यों की सीमाओं में कोई त्रुटि नहीं मिलती। अर्थात गूगल मैप गलत नहीं हो सकता। असल में यह सारा खेल रेलवे जोन व डिवीजन का है। प्रधान खांटा तक पूर्व मध्य रेलवे की धनबाद डिवीजन है और इसके बाद पूर्वी रेलवे की आसनसोल डिवीजन शुरू हो जाती है। पूर्वी रेलवे मुख्यतः पश्चिमी बंगाल में है तो उसने अपने अन्तर्गत आने वाले सभी स्टेशनों को बंगाली में भी लिख दिया है।
चलिये, आगे बढते हैं। छोटा अम्बोना के बाद कालुबथान, थापरनगर, मुगमा, कुमारधुबी, बराकर, कुलटी, सीतारामपुर जंक्शन, बराचक जंक्शन और आसनसोल जंक्शन हैं। कुमारधुबी और बराकर के बीच से बराकर नदी बहती है जो यहां झारखण्ड-बंगाल सीमा बनाती है। इस प्रकार कुमारधुबी झारखण्ड में है और बराकर पश्चिमी बंगाल में। सीतारामपुर से एक लाइन जसीडीह और आगे पटना तक जाती है, बराचक से एक लाइन इधर-उधर होती हुई आगे अण्डाल में इसी लाइन में मिल जाती है और आसनसोल से एक लाइन आद्रा, पुरुलिया जाती है।
वैसे तो यह ट्रेन (63542) आसनसोल तक ही थी लेकिन यही डिब्बे नये नम्बर (63516) से बर्द्धमान भी जाते हैं। इसलिये मुझे इससे उतरने की जरुरत नहीं थी। आसनसोल से आगे के स्टेशन हैं- काली पहाडी, रानीगंज, अण्डाल जंक्शन, वारिया, दुर्गापुर, राजबांध, पानागढ, मानकर, पाराज, गलसी, इशान चण्डी हाल्ट, खाना जंक्शन, तालित और बर्द्धमान जंक्शन। अण्डाल जंक्शन से एक लाइन बराचक तो जाती ही है, साथ ही दूसरी लाइन सिउडी भी जाती है। खाना जंक्शन से आप रामपुरहाट और आगे भागलपुर वाली लाइन पर यात्रा कर सकते हैं। जबकि बर्द्धमान इसलिये जंक्शन है क्योंकि यहां से एक नैरो गेज की लाइन कटवा जाती है। कटवा नैरो गेज लाइन पर कुछ ही दूर तक नैरो गेज की ट्रेन चलती है, फिर गेज परिवर्तन हो चुका है और ब्रॉड गेज की ट्रेन चल चुकी है।
आसनसोल से रानीगंज और दुर्गापुर तक एक औद्योगिक क्षेत्र है। साथ ही यहां कोयले की खानें भी हैं। बडे-बडे ताप बिजलीघर हैं। इसलिये इस मुख्य लाइन के अलावा भी अनगिनत छोटी-छोटी लाइनें यहां बिछी हैं। इनमें से बहुत सी लाइनें इसलिये भी बन्द हो चुकी हैं क्योंकि उनके नीचे से कोयला निकाल-निकालकर जमीन खोखली और कमजोर हो चुकी है। फिर भी यहां रेल की लाइनें देख-देखकर हैरानी होती हैं। गूगल मैप में इस पूरे रेल नेटवर्क को आसानी से देखा जा सकता है। सौ सौ किलोमीटर तक की ऐसी लाइनें हैं जहां केवल कोयला ढोने वाली मालगाडियां ही चलती हैं, कोई यात्री गाडी नहीं चलती।
बर्द्धमान में मेरे पास लगभग एक घण्टा था। यहां से हावडा के लिये लोकल ट्रेनों की कोई कमी नहीं है। दो लोकल ट्रेनें (37838 और 36842) अभी भी खडी थीं। इनमें से एक मेन लाइन से जायेगी और दूसरी कॉर्ड के रास्ते से।
बर्द्धमान से हावडा जाने की दो लाइनें हैं- एक मेन लाइन और दूसरी कॉर्ड (Cord) लाइन। कॉर्ड को हिन्दी में जीवा कहते हैं। यह एक गणितीय शब्द है। किसी वृत्त में परिधि पर किन्हीं भी दो बिन्दुओं को मिलाने वाली सीधी रेखा को जीवा कहा जाता है। इसी तरह बर्द्धमान से हावडा जाने का एक तो परिधीय मार्ग है जो बैण्डेल होते हुए जाता है। इसकी लम्बाई करीब 110 किलोमीटर है। दूसरा बिल्कुल सीधा मार्ग है जो करीब 90 किलोमीटर लम्बा है। दोनों ही मार्गों पर लोकल ट्रेनें चलती हैं।
मैंने गोमो से अब तक कुछ भी नहीं खाया था। भूख लग रही थी। सारी यात्रा दरवाजे पर खडे हुए ही तय की थी, इसलिये पैर भी दुख रहे थे। बहुत थकान हो रही थी। इसलिये तय किया कि एक घण्टे बाद जो लोकल (37840) आयेगी, उसमें जाऊंगा। स्टेशन से बाहर निकल आया। एक होटल में निरामिष दाल भात खाये। चालीस रुपये लगे। बंगाल मैं कई बार जा चुका हूं। जमकर हिन्दी बोलता हूं। लेकिन परदेशी समझकर किसी ने न तो कभी ठगने की कोशिश की और न ही हिन्दी बोलने से मना किया। बंगाल को मैं विशेष इज्जत से देखता हूं क्योंकि बंगालियों के माथे एक ठप्पा लगा हुआ है कि यह कौम भारत में सबसे ज्यादा घूमती है। हिमालय पर दुर्गम स्थानों पर ट्रैकिंग हो या किसी सुगम स्थान पर मौजमस्ती; बंगाली अवश्य मिलते हैं।
तीन बजकर पांच मिनट वाली लोकल (37840) मेन लाइन से जायेगी और तीन बजकर दस मिनट वाली (36844) कॉर्ड से। मैंने मेन लाइन से जाने का फैसला किया। हालांकि कॉर्ड वाली हावडा जल्दी पहुंचती है लेकिन मुझे कोई जल्दी नहीं थी। दोनों लोकल एक ही प्लेटफार्म से रवाना होती हैं। जब मेन लाइन वाली लोकल प्लेटफार्म पर खडी थी तो इसके चलने से पहले ही कॉर्ड वाली भी इसके पीछे आकर लग गई। पीछे वाली इतनी पास आकर रुकी कि फर्क करना मुश्किल था कि ये दो अलग अलग ट्रेनें हैं। किसी नये आदमी को अगर मेन लाइन पर जाना हो तो वह आसानी से भूलवश कॉर्ड वाली में चढ सकता था। इसी तरह अगर कॉर्ड लाइन पर जाना हो तो वह मेन लाइन वाली में चढ सकता था। लेकिन नया होने के बावजूद भी मुझे तो फर्क पता था, इसलिये मेन वाली में जा चढा। ठीक समय पर ट्रेन चल पडी।
बर्द्धमान से हावडा तक मेन लाइन के सभी स्टेशन इस प्रकार हैं- बर्द्धमान जंक्शन, गांगपुर, शक्तिगढ, पालसिट, रसूलपुर, निमो, मेमारी, बागिला, देबीपुर, बैंची, बैंचीग्राम, सिमलागड, पाण्डुया, खन्यान, तालाण्डु, मगरा, आदि सप्तग्राम, बैण्डेल जंक्शन, हुगली, चुचुडा, चन्दन नगर, मानकुण्डु, भद्रेश्वर, बैद्यबाटी, सेवडाफुली जंक्शन, श्रीरामपुर, रिसडा, कोननगर, हिन्द मोटर, उत्तरपाडा, बाली, बेलूड, लिलुआ और हावडा।
शक्तिगढ से मेन लाइन और कॉर्ड लाइनें अलग-अलग होती हैं। बैण्डेल से एक लाइन मालदा टाउन चली जाती है और एक लाइन हुगली पार करके सियालदह जाती है। इसी तरह सेवडाफुली जंक्शन से तीसरी लाइन ताडकेश्वर जाती है। ताडकेश्वर वाली लाइन कॉर्ड लाइन को पुल के द्वारा नब्बे डिग्री के कोण पर कमारकुण्डु में काटती है। इसी तरह बाली में भी कॉर्ड लाइन से सीधे सियालदह जाने वाली लाइन पुल के द्वारा इस मेन लाइन को काटती है। बाली में ही कॉर्ड और मेन लाइनें फिर से एक हो जाती हैं।
हावडा जायें और स्टेशन से बाहर निकलकर हावडा पुल न देखें? असम्भव है। इस पुल को बस देखते रहने का मन करता है। फोटो में यह बहुत छोटा नजर आता है। इसी कारण मैंने इसका बहुत साधारण सा एक ही फोटो लिया। पूरी तरह लोहे से बने इस पुल की विशालता का एहसास बस खडे होकर देखते रहने में है। साथ ही हावडा स्टेशन की विशालकाय इमारत भी हैरतअंगेज है।
शाम सात बजकर दस मिनट पर हावडा-अमृतसर मेल (13005) चलती है। इसमें मेरा पटना तक का आरक्षण था। ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर आठ पर आई। साधारण डिब्बों के सामने पुलिस वाले यात्रियों को लाइन में खडा कर रहे थे और पैसे लेकर उन्हें डिब्बे में प्रवेश करने दे रहे थे। लम्बी दूरी की ट्रेनों में हमेशा ऐसा देखने को मिलता है। साधारण टिकटधारियों को बैठने के लिये सीट चाहिये होती है। पुलिस वाले इसी का फायदा उठाते हैं। एक नम्बर की कुत्ती कौम है पुलिस।
रात साढे ग्यारह बजे ट्रेन जसीडीह पहुंचेगी। वहां मित्र आशीष गुटगुटियाने मिलने को कहा है। दिन भर का थका हुआ हूं, सुबह सवेरे फिर उठना है; इसलिये आज मैं आधी रात को नहीं जगना चाहता। हालांकि फेसबुक पर मैंने उन्हें मिलने से मना कर दिया था, लेकिन फिर भी वे मिलने को उत्सुक हैं। अभी तक उन्होंने फोन नहीं किया कि किस डिब्बे में हूं। हो सकता है कि आधी रात को फोन करके पूछें। इसलिये इसे साइलेण्ट कर लेता हूं। सुबह सवा चार बजे ट्रेन पटना पहुंचेगी, इसलिये सवा चार बजे का अलार्म लगा लेता हूं। फोन साइलेण्ट हो या स्विच ऑफ, अलार्म तो बज ही जाता है।
हालांकि आधी रात को उनका फोन नहीं आया।


नाम भले ही बंगाली में भी लिखा हो, लेकिन यह झारखण्ड में है।

बराकर इस लाइन पर पश्चिमी बंगाल का पहला स्टेशन है।










हावडा स्टेशन
अगले भाग में जारी...

डायरी के पन्ने-24

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ध्यान दें:डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इनसे आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। कृपया अपने विवेक से पढें।

1.  दो फिल्में देखीं- ‘हैदर’ और ‘मैरीकॉम’। दोनों में वैसे तो कोई साम्य नहीं है, बिल्कुल अलग-अलग कहानी है और अलग अलग ही पृष्ठभूमि। लेकिन एक बात समान है। दोनों ही उन राज्यों से सम्बन्धित हैं जहां भारत विरोध होता रहता है। दोनों ही राज्यों में सेना को हटाने की मांग होती रहती है। हालांकि पिछले कुछ समय से दोनों ही जगह शान्ति है लेकिन फिर भी देशविरोधी गतिविधियां होती रहती हैं।
लेकिन मैं कुछ और कहना चाहता हूं। ‘हैदर’ के निर्माताओं ने पहले हाफ में जमकर सेना के अत्याचार दिखाए हैं। कुछ मित्रों का कहना है कि जो भी दिखाया है, वो सही है। लेकिन मेरा कहना है कि यह एक बहुत लम्बे घटनाक्रम का एक छोटा सा हिस्सा है। हालांकि सेना ने वहां अवश्य ज्यादातियां की हैं, नागरिकों पर अवश्य बेवजह के जुल्म हुए हैं लेकिन उसकी दूसरी कई वजहें थीं। वे वजहें भी फिल्म में दिखाई जानी थीं। दूसरी बात कि अगर दूसरी वजहें नहीं दिखा सकते थे समय की कमी आदि के कारण तो सेना के अत्याचार भी नहीं दिखाने चाहिये थे। कश्मीर मामला पहले से ही संवेदनशील मामला है, इससे गलत सन्देश जाता है।
फिर दूसरे हाफ में एक नाटकीय परिवर्तन आया। पहले जहां यह एक समाजप्रधान कहानी लग रही थी, पूरे कश्मीर की कहानी लग रही थी, दूसरे हाफ में यह व्यक्तिप्रधान कहानी बन गई। सेना तुरन्त गायब हो गई और हैदर अपनी मनमानी करता रहा। कभी वो सीमा पार चला जाता, कभी वो अपने बाप की मौत का बदला लेने की फिराक में रहता। सेना गायब। बकवास कहानी।
एक चीज अच्छी लगी जो कि अक्सर फिल्मों में होता नहीं है। पूरी शूटिंग कश्मीर में हुई है। कश्मीरी पृष्ठभूमि, कश्मीरी पहनावा, कश्मीरी मौसम।
‘मैरी कॉम’ इससे बहुत शानदार फिल्म है। भारत और मणिपुर के उग्रवादी संगठनों के बीच होने वाली किसी भी लडाई को इसमें नहीं दिखाया। हालांकि जब मैरीकॉम गर्भवती थी, उस समय शहर भर में कर्फ्यू लगा था, यह इसी लडाई की वजह से लगा था। उनकी गाडी को उग्रवादी संगठनों ने घेर लिया था, लेकिन उनका नेता मैरी को जानता था, इसलिये जाने दिया। इसके अलावा कोई और दंगे फसाद वाला दृश्य नहीं आया। आज भी इन संगठनों की वजह से मणिपुर में हिन्दी फिल्में नहीं चलतीं। मैरीकॉम पर बनी फिल्म को उसी के राज्य वाले नहीं देख सकते।

2. महाराष्ट्र और हरियाणा में विधानसभा के चुनाव सम्पन्न हुए। नतीजे आये। हरियाणा में तो भाजपा स्पष्ट बहुमत से जीत गई है लेकिन महाराष्ट्र में मामला कुछ पेचीदा दिख रहा है। पहले स्थान पर भाजपा, दूसरे पर शिवसेना, तीसरे पर कांग्रेस और चौथे पर एनसीपी। इसमें तो कोई दो-राय नहीं कि चुनावों से पहले भाजपा और शिवसेना में कितने भी मतभेद रहे हों लेकिन आखिरकार राज्य में सरकार यही दोनों दल मिलकर बनाने वाले हैं। हालांकि एनसीपी ने भाजपा को बिना शर्त समर्थन देने की बात कही है। एनसीपी के समर्थन से भाजपा को किसी और समर्थन की जरुरत नहीं है। लेकिन भाजपा ऐसा कभी नहीं करने वाली। शिवसेना उसकी पुरानी सहयोगी रही है, कुछ वाद-विवाद के बावजूद, कुछ लेन-देन के बावजूद, कुछ नफे-नुकसान के बावजूद गठबन्धन शिवसेना से ही करना पडेगा। हां, एनसीपी को साथ लेकर चलने में कोई परेशानी नहीं है। इससे सबसे बडा फायदा यह होगा कि शिवसेना काबू में रहेगी।
कुछ लोग कह रहे हैं कि भाजपा को किसी भी हालत में ‘कमीनी’ एनसीपी से समर्थन नहीं लेना चाहिये। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि ‘कमीनेपन’ के बावजूद भी इस पार्टी के 41 विधायक अगले पांच साल के लिये विधानसभा में जाने वाले हैं। ये 41 और कांग्रेस के 42 विधायक और 20 अन्य विधायक यानी कुल लगभग 100 विधायक सरकार के विरोध में रहेंगे। बेवजह सदन में हल्ला और शोर शराबा करेंगे। एनसीपी समर्थन दे रही है, ले लो। आगे चलकर विरोध कम ही होगा। सरकार तो बन ही चुकी है, कांग्रेस से भी शिष्टाचार के नाते समर्थन मांगा जा सकता है। जिस तरह मोदी के प्रधानमन्त्री बनने पर नवाज शरीफ को दिल्ली आने का निमन्त्रण दिया गया था और वो बेचारा मुश्किल में पड गया था कि जाऊं या न जाऊं और आखिरकार उसे आना पडा; इसी तरह कांग्रेस भी मुश्किल में पडेगी। आखिरकार आना पडेगा। इस समय गंगाजी भाजपा के साथ साथ बह रही है और बहती गंगा में हाथ धो लेने में ही समझदारी है।
उधर केजरीवाल दिल्ली में भाजपा को ललकार रहा है। कह रहा है कि भाजपा इसलिये चुनाव नहीं कराना चाह रही क्योंकि उसे आम आदमी पार्टी से हार जाने का खतरा है। आज जब यह खबर पढी तो बडी देर तक हंसी आती रही।

3. फेसबुक पर एक वार्तालाप पढा। काम का था, इसलिये सबके साथ साझा कर रहा हूं।
अमित कुमार पाठक ने अपनी वॉल पर लिखा -‘‘आज एक गिनीज बुक वाला रिकार्ड बना है। 22 यानी कल दिल्ली से गोरखपुर जाने वाली सारी 12 ट्रेनों की सारी तत्काल सीटें 180 सेकण्ड में फुल। रोजी रोटी के लिये घर से निकले लोगों को कोई हक नहीं है अपने मां-बाप के साथ दिवाली मनाने का।”
इस पर कुछ लोगों ने जवाब भी दिये। चुनिन्दा जवाब भी साझा कर रहा हूं।
शरद अहलावत जी ने कहा –“तो तुमको क्या लगता है वो टिकट वहां पर जाकर हनीमून मनाने वालों ने या वहां पर जाकर पिकनिक मनाने वालों ने बुक की है? जिन्होंने बुक की हैं वो भी रोजी-रोटी कमाकर ही मां-बाप के पास जा रहे होंगे। अब डिमांड ही इतनी बढा रखी है तो सप्लाई भी कितना करें?... वैसे ये भी हो सकता है कि ये साजिश पाकिस्तान या चीन वालों की हो। सारी सीट बुक करा ली हों, जिससे गोरखपुर में कोई दिवाली न मना पाए।”
अमित कुमार पाठक –“यहां पे ये सब तर्क ठीक है। लेकिन गलती से पूर्वांचल जा रही ट्रेनों में जनरल बोगी में न चढ पाये लोगों को अगर ज्ञान दिया तो LIC भी क्लेम रिजेक्ट कर देगी।”
शरद अहलावत –“यही तो कल हम भी बोल रहे थे। अब तुमने भी स्वीकार कर लिया। जब तुमने बोला था कि एक बिहारी मेट्रो में टिकट ले लेता है पर ट्रेन में नहीं लेता है तो ये मैनेजमेण्ट फेल्यॉर है। पर अब उनको अगर ज्ञान दो तो LIC क्लेम की धमकी? और बिहार में ट्रेन में रेलवे पुलिस व टीटीई के साथ क्या होता है, वो सबको पता है। बस यहां ये ज्ञान देने से भी काम नहीं चलता है कि आज रिकार्ड बना 180 सेकण्ड में सीट फुल होने का। कभी जनसंख्या या भ्रष्टाचार के बारे में भी बात करो। लोगों को बस दूसरों को दोष देना आता है। कभी अपनी गलतियां नजर नहीं आतीं।... रेलवे मिनिस्टर भी जिन आंकडों के आधार पर ट्रेन चलाता होगा, वो उसको अफसर या नौकरशाह ही देते होंगे। वो तो पूर्वांचल में जाकर लोगों की गिनती करके तो नहीं लाता होगा ना? और ये भी जगजाहिर है कि ऐसी नौकरियों में सबसे ज्यादा लोग पूर्वांचल या बिहार से हैं। फिर आज तक वहां के ही किसी आईएएस/आईपीएस/नौकरशाह ने क्यों वहां की माली हालत नहीं सुधारने की कोशिश की? क्यों वहां पर पैदा होकर, पढ लिख कर, अफसर बन कर सेटल कहीं और हो जाते हैं? ... समस्याएं बहुत हैं वहां और समाधान नहीं मिला है, पर इसका मतलब यह नहीं है कि गलती सारी सिस्टम की है। वहां के लोग भी उतने ही जिम्मेदार हैं। खाने के लिये कुछ मिले या न मिले, मनोरंजन पूरा होना चाहिये और मनोरंजन क्या होता है, वो तो बोलने की जरुरत नहीं है।”
अमित कुमार चौधरी –“दिवाली पर कभी कभी घर वालों को बुला लिया करो। बार-बार घर क्यों जाते हो?”
अमित कुमार पाठक –“अमित चौधरी, तुम्हारा बस चले तो वैष्णों माता से बोल दे कि एक-दो ब्रांच दिल्ली में खोल दें, जम्मू जाने में बहुत परेशानी होती है।”
शरद अहलावत –“अमित पाठक, तुम्हारे लॉजिक से तो भाई वैष्णों माता के दर्शन बस नवरात्रों में ही करने चाहिये। किसी और दिन करोगे तो मां मुंह फेर लेगी और आपकी यात्रा सिस्टम में इनवैलिड मार्क कर दी जायेगी। ... भाई, कभी मां बाप को बुलाओ, कभी तुम जाओ। कभी कभी यहां भी त्यौहार मनाओ। मां-बाप से मिलने ऑफ सीजन में जाओ। रेलवे की इज्जत का भी ख्याल रखो भाई।”
हालांकि मैंने इस वार्तालाप में कुछ लिखा तो नहीं लेकिन अच्छा लगा। एक मित्र हैं आशीष शाण्डिल्य। यहीं पास में सरकारी क्वार्टर में रहते हैं। दिल्ली के ही रहने वाले हैं। घर पर उनके अच्छे सम्बन्ध हैं लेकिन कभी भी दिवाली पर कुछ किलोमीटर दूर अपने घर नहीं जाते। कहते हैं- दिवाली पर हमें अपने घर के दरवाजे बन्द नहीं रखने चाहिये। यहां हम रहते हैं, हमारा परिवार है। भले ही किराये का हो, लेकिन है तो घर ही। है तो ठिकाना ही। फिर क्यों यहां के दरवाजे बन्द करें? पूरा साल पडा है बाहर आने जाने के लिये, मां-बाप रिश्तेदारों से मिलने के लिये लेकिन दिवाली पर हमें वहीं होना चाहिये जहां हम पूरे साल सपरिवार रहते आये हैं।
मैं शरद अहलावत जी की प्रत्येक टिप्पणी से सहमत हूं।

4. पिछले दिनों प्रधानमन्त्री ने ‘मेक इन इण्डिया’ का कॉन्सेप्ट दिया। जिस तरह हमारे यहां बाहर की बनी चीजें आती हैं, मेड इन चाइना, मेड इन जापान आदि तो उसी तरह बाहर भी मेड इन इण्डिया चीजें जायें। कॉन्सेप्ट तो अच्छा है लेकिन हमारे यहां एक बडी भारी मुसीबत की प्रथा चली आ रही है और वो प्रथा है- जुगाड। इसे हम भारतीय बडी शान से देखते हैं, लेकिन वास्तव में यह एक कलंक है। जुगाड का अर्थ है आपने विज्ञान की, इंजीनियरी की मां-बहन कर दी।
एक वाकया याद आ रहा है। कुछ दिन पहले हम कश्मीरी गेट पर एक प्रसिद्ध दुकान पर कुछ टर्फर टेस्ट करने गये थे। टर्फर भारी वजन उठाने की एक मशीन होती है जिसे हाथ से चलाया जाता है। इसमें कुछ इस तरह का सिस्टम होता है कि प्रयोगकर्ता मशीन के हैण्डल को पकडकर आगे-पीछे करता रहता है और टनों का लोड उठता चला जाता है। टर्फर कई क्षमताओं के होते हैं। हमें अपनी आवश्यकतानुसार पौन टन, डेढ टन और तीन टन के टर्फर को टेस्ट करना था। पौन टन का अर्थ है कि वो टर्फर पौन टन यानी 750 किलो के वजन को उठाने के लिये बनाया गया है, डेढ टन का 1500 किलो और तीन टन का टर्फर 3000 किलो वजन को उठायेगा। इनमें कुछ सुरक्षात्मक उपाय भी किये जाते हैं जिससे अगर भूल-चूक से तय क्षमता से ज्यादा वजन उठ जाये तो जान-माल की हानि न हो। अक्सर जो क्षमता मशीनों पर दिखाई जाती हैं, वास्तव में मशीनें उससे कुछ ज्यादा क्षमता के लिये डिजाइन की जाती हैं।
वैसे तो हमें टेस्ट करके कि मशीनें ठीक काम कर रही हैं, वापस आ जाना चाहिये था लेकिन निर्माणकर्ता ने जब अपनी शेखी बघारनी शुरू की और चीनी मशीनों की आलोचना शुरू की तो मेरा माथा ठनका। मैं कुछ देर और रुक गया। कई नतीजे सामने आये। पूछताछ की तो पता चला कि इन तीनों में तकनीकी तौर पर कोई अन्तर ही नहीं था। डेढ टन वाले और तीन टन वाले में मात्र एक बोल्ट का फर्क था। डेढ टन वाले में वो बोल्ट यहां लगा है तो तीन टन वाले में उससे इंच भर दूर। तीन और पौन टन में चेन का अन्तर था। एक में मोटी चेन लगी थी तो दूसरे में कुछ पतली। अगर हम डेढ टन वाले में भी मोटी चेन लगा देते तो वो तीन टन के बराबर हो जाता।
निर्माणकर्ता ने बताया कि जो विदेशी टर्फर होते हैं, वे वजन में इतने हल्के होते हैं कि कब फेल हो जाये, कुछ नहीं कह सकते। वे बॉडी शीट मेटल की बनाते हैं और हम पूरी बॉडी कास्टिंग करते हैं। उनकी मशीन में छोटे छोटे पुर्जे लगे होते हैं, हम बडे पुर्जे लगाते हैं ताकि फेल होने की गुंजाइश न रहे। उसने एक गियर दिखाया- यह विदेशी मशीन का गियर है। ये देखो, इसमें दांते भी बहुत छोटे हैं, क्या ये दांते इतना भारी वजन उठा लेंगे। मैंने देखा कि उस विदेशी और इनके भारतीय गियर में कम से कम तीन किलो का फर्क था। मैंने विदेशी मशीन देखने की इच्छा जाहिर की तो वो उनके पास नहीं थी। केवल गियर था, ताकि वे ग्राहकों को वो नन्हा सा नाजुक सा गियर दिखाकर भ्रम में डाले रहें।
जब हम प्रत्येक मशीन की क्षमता टेस्ट कर रहे थे तो एक गडबडी और सामने आई। हाथ से संचालित होने वाली मशीन से तीन टन वजन उठाने के लिये कुछ विशेष तामझाम की जरुरत होती है। विशेष मैकेनिज्म की जरुरत होती है। उनके पास था ये मैकेनिज्म। एक बडी सी तराजू जैसा प्रबन्ध था। इसके एक सिरे पर ठोस लोहे का बडा सा गुटका लगा था, दूसरी तरफ डण्डे पर थोडी थोडी दूरी पर कई हुक थे। हर हुक पर उसकी क्षमता लिखी थी। टर्फर की रस्सी को इस हुक में लगायेंगे तो यह पौन टन के बराबर होगा, इसमें लगायेंगे तो यह एक टन होगा, उससे अगला डेढ टन, उससे अगला, दो टन। इसी तरह इसी ‘तराजू’ में दस टन तक का वजन उठा सकते थे। इसी हुक वाले डण्डे के नीचे करीब एक मीटर की दूरी पर दो पुली लगी थीं, जिनसे आवश्यकतानुसार टर्फर वाली रस्सी डाली जाती थी।
खैर, उन्होंने टेस्ट करना शुरू किया। बीच में ही उन्होंने रस्सी एक पुली से हटाकर दूसरी पुली पर डाल दी। मैंने पूछा कि ऐसा क्यों किया? बोले कि इससे कुछ नहीं होगा। मैंने कहा कि होगा क्यों नहीं? पहले रस्सी हुक वाले डण्डे पर नब्बे डिग्री के कोण पर जुडी थी, अब साठ डिग्री के कोण पर है। पता है इससे वजन में कितना फर्क नहीं पडेगा? बोले कि सर, ज्यादा फर्क नहीं पडेगा। मैंने कहा कि दोगुना फर्क पडेगा। अब आप तीन टन नहीं बल्कि छह टन वजन उठा रहे हो। उसने तुरन्त कहा कि अच्छी बात तो है।
भले ही हमें यह अच्छी बात लगती हो कि विदेशी मशीनें, चीनी मशीनें कम वजन पर फेल हो जाती हैं, वहीं हमारी भारतीय मशीनें दोगुना तीन गुना वजन भी उठा लेती हैं। लेकिन यह बडी शर्मनाक बात है। मशीनों का वर्गीकरण किया ही इसलिये जाता है कि हर मशीन तय वजन ही उठाये। प्रयोगकर्ता को तो पता ही होता है कि वो कितना वजन उठाने जा रहा है, इसलिये वह उसी क्षमता वाली मशीन लेगा। 800 किलो के लिये 750 की क्षमता वाली मशीन कभी नहीं लगायेगा, हालांकि 750 वाली अपनी क्षमता के कम से कम डेढ गुने तक के लिये सुरक्षित डिजाइन की गई होती है। अगर आपको 500 किलो वजन उठाना है और आपके पास 750, 1500 व 3000 की क्षमता वाली मशीनें हैं तो आप तीनों में से कोई भी प्रयोग करने को स्वतन्त्र हो। ऐसे में जाहिर है आप 750 वाली मशीन ही प्रयोग करेंगे।
लेकिन समस्या यही है कि तीनों भारतीय मशीनें तकनीकी तौर पर एक ही हैं। उन पर बस ठप्पा लगा है ताकि आप पहचान सको। अगर गलती से 750 वाली पर 3000 का ठप्पा लग जाये तो यकीन मानिये कि वो 3000 किलो वजन भी उठा लेगी। जबकि विदेशी मशीनें जो हल्की होती हैं, 1000 पर ही फेल हो जायेंगी। वास्तव में मशीनों पर अगर तय क्षमता से ज्यादा वजन डालेंगे तो उन्हें फेल हो जाना चाहिये अन्यथा वर्गीकरण करने का क्या औचित्य? क्यों फिर इतनी अलग-अलग तरह की मशीनें बना रखी हैं? फिर तो बस एक सबसे मजबूत मशीन बना लो, वही सारे काम कर लेगी। क्या 3000 किलो की क्षमता वाला टर्फर 500 किलो वजन नहीं उठा सकता? निश्चित ही उठा लेगा। फिर क्यों अलग-अलग क्षमता के टर्फर बना रखे हैं? अगर आपको अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में टिकना है तो इन चीजों का ध्यान रखना पडेगा। इसी वजह से चीनी वस्तुएं वैश्विक बाजार पर कब्जा करती जा रही हैं।
एक और उदाहरण। पिछले दिनों मध्य प्रदेश के एक बच्चे ने एक मॉडल बनाया कि अगर ट्रेनों पर पवनचक्कियां लगा दी जायें तो उनसे काफी बिजली बनाई जा सकती है। बच्चे तो बच्चे हैं जी। उन्हें क्या पता कि बाहर वास्तव में हवा नहीं चल रही है? चल तो ट्रेन रही है। जितनी ताकत इंजन लगायेगा, उतनी ही तेज ट्रेन चलेगी और उतनी ही तेज हवा भी लगेगी। ट्रेन को हवा को काटते हुए आगे बढना होता है।
तेज चलने वाली चीजें इसी तरह डिजाइन की जाती हैं कि उन पर हवा का कम से कम प्रतिरोध हो। हवा अगर सामने से आ रही है तो आपको ज्यादा ताकत लगानी पडेगी और अगर पीछे से आपको धकेल रही हो तो कम ताकत लगानी पडेगी। प्रतिरोध कम से कम होना चाहिये। कारें, हाई-स्पीड ट्रेनें, हवाई-जहाज आदि इसी एयर-डायनेमिक मॉडल से बनाये जाते हैं। हवा कम से कम लगनी चाहिये। ऐसे में अगर ट्रेन पर पवनचक्कियां लगा दी जायें, तो हवा का प्रतिरोध बढेगा, ट्रेन की गति कम हो जायेगी और इंजन को ज्यादा ताकत लगानी पडेगी। जितनी ऊर्जा पवनचक्कियों से मिलती, उससे भी ज्यादा ऊर्जा इंजन को अतिरिक्त खर्च करनी पडेगी।
बच्चे हैं... उसने सोचा कि हवा से पवनचक्कियां चलती हैं, ट्रेन में हवा बहुत लगती है तो ट्रेन पर पवनचक्की ही लगा दो। निश्चित रूप से बच्चे को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। कुछ सोच तो रहा है। नहीं तो हमारे यहां बच्चों को कुछ भी सोचने की आजादी नहीं है। लेकिन इसे वास्तव में ट्रेन पर लगाना बेवकूफी होगी। मैंने पढा है कि इस दिशा में बडे लोग विचार-विमर्श कर रहे हैं। अरे, इसमें तो विचार-विमर्श करने की जरुरत ही नहीं है।
मेक इन इण्डिया तभी साकार होगा, जब हमें ‘जुगाड’ से छुटकारा मिलेगा। दो पढे लिखे मित्र बात कर रहे थे। विषय था मोटरसाइकिलें। मुझे मोटरसाइकिलों की कोई जानकारी नहीं है, तो ध्यान नहीं कि वे किस-किस की तुलना कर रहे थे। सुविधा के लिये मान लेते हैं कि वे बजाज और होण्डा की मोटरसाइकिलों की तुलना कर रहे थे। एक मित्र कह रहा था कि बजाज की मोटरसाइकिलें अच्छी होती हैं। दूसरे ने विरोध किया कि बजाज अपनी बाइकों में हल्के पुर्जे लगाता है, होण्डा अच्छे पुर्जे लगाता है। हल्के और घटिया होने की वजह से बजाज की बाइकें सस्ती भी हैं।
तभी मैं बीच में कूद पडा- बजाज हल्के और सस्ते पुर्जे लगाता है तो बुराई क्या है। सभी अपने यहां रिसर्च और डेवलपमेण्ट करते हैं। बाजार में प्रतियोगिता इतनी है कि कोई भी स्थापित ब्राण्ड रिस्क नहीं लेना चाहेगा। जो आपको हल्के पुर्जे लग रहे हैं, वे पुराने भारी पुर्जों से भी मजबूत हैं। ऊपर से सस्ते भी। आपको और क्या चाहिये?

5. पिछले दिनों चीनी प्रधानमन्त्री भारत दौरे पर थे तो कैलाश मानसरोवर का सडक मार्ग खोले जाने की बात जोर-शोर से उठने लगी। चीनी प्रधानमन्त्री ने इसका कुछ संकेत दिया था। फिर फेसबुक पर कुछ बुजुर्गों के अपडेट भी देखे कि वे मरने से पहले कैलाश दर्शन कर लेंगे।
वास्तव में भारत और तिब्बत के बीच कई स्थानों पर सडक मार्ग हैं। लद्दाख में है, हिमाचल में शिपकी-ला है, उत्तराखण्ड में भी माणा पास तक सडक बन गई है, सिक्किम में नाथू-ला है और अरुणाचल में तवांग में है। इनमें पर्यटकों के लिये सबसे सुगम नाथू-ला है। नाथू-ला से भारत के सिक्किम और तिब्बत की चुम्बी घाटी के बीच ट्रक भी चलते हैं। हिमाचल में तो पुरानी हिन्दुस्तान-तिब्बत सडक है ही। शिपकी-ला से उस तरफ तिब्बत है। लेकिन शिपकी-ला तक किसी भारतीय का पहुंचना ही बेहद मुश्किल है। सडक बनी है तो मुश्किल क्यों है? कई विभागों से परमिट लेने होते हैं जो कि आसानी से मिलते नहीं हैं। आपकी बहुत ऊंची पहुंच होनी चाहिये, तभी शिपकी-ला का परमिट बनता है। चले भी गये तो फोटो खींचना भीषण अपराध है। उधर नाथू-ला पर जमकर फोटोग्राफी होती है।
चीन ने तिब्बत में भी बहुत तरह के प्रतिबन्ध लगा रखे हैं। खासकर भारत से लगते इलाकों में। कोई विदेशी तो दूर, स्वयं चीनी भी अपनी मर्जी से तिब्बत भ्रमण नहीं कर सकते। उन्हें किसी चीनी सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त ट्रैवल एजेण्ट के माध्यम से ही वहां जाना होता है। यहां तक कि ल्हासा वाली ट्रेन में भी आप केवल ट्रैवल एजेण्ट के साथ ही बैठ सकते हैं। ये ट्रैवल एजेण्ट सुप्रशिक्षित होते हैं कि पर्यटकों को कहां-कहां घुमाना है और कहां-कहां नहीं, क्या-क्या बताना है और क्या-क्या नहीं। जब स्वयं चीनियों के लिये भी इतना प्रतिबन्ध है तो भारतीयों के लिये क्या हाल होगा, आप स्वयं अन्दाजा लगा सकते हैं। भारत और चीन का झगडा तिब्बत को लेकर ही है। चीन का एक नम्बर का दुश्मन दलाई लामा भारत में रहकर अपनी सरकार चला रहा है। फिर कैसे चीन इतनी आसानी से तिब्बत में अपनी सडकें भारतीयों के लिये खोल देगा?
बीसीएमटूरिंग पर एक यात्रा-वृत्तान्तपढा। कोलकाता का रहने वाला एक परिवार पूरा तिब्बत व जिनजियांग प्रान्त घूमकर आया। निश्चित ही उन्होंने करोडों खर्च किये होंगे और कई महीनों तक सौ तरह के परमिटों का इन्तजार किया होगा। वे ल्हासा भी घूमे और मंगोलिया सीमा तक गये, काशगर गये और पाकिस्तान-चीन सीमा भी देखी। काशगर से एक सडक सीधे नगारी होते हुए कैलाश मानसरोवर तक आती है। यह वही सडक है जिसे चीन में अक्साईचिन से होकर बनाया है। अक्साईचिन भारत का हिस्सा है, जिसे चीन ने कब्जा रखा है। तो उन लोगों ने एडी-चोटी का जोर लगा लिया काशगर से कैलाश जाने का लेकिन परमिट नहीं मिला। उन्होंने करोडों खर्च किये, लगभग पूरा तिब्बत देखा, महीने भर तक वहां घूमते रहे लेकिन कैलाश नहीं जा पाये। निश्चित ही उन्हें इस बात का ताउम्र मलाल रहेगा।
अभी भी भारतीय नेपाल के रास्ते सडक मार्ग से कैलाश जाते हैं। अभी भी नाथू-ला से सीमा के दोनों ओर व्यापारिक आवागमन हो रहा है। लेकिन यकीन मानिये चीन भारतीयों के लिये तिब्बत को नहीं खोलने वाला। आप कितने भी खुश हो लो, कितने भी उछल लो लेकिन तिब्बत आपके लिये बन्द ही रहेगा।

6. अब बात करते हैं पिछली डायरीसे सम्बन्धित। पिछली डायरी में मैंने हरियाणवी, राजस्थानी, भोजपुरी आदि भाषाओं को अलग भाषा माना था, न कि हिन्दी की ही बोलियां। इस सन्दर्भ में जो पहली स्तरीय टिप्पणी आई, वो थी गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी की-
“नीरज जी, मुझे आपके यात्रा-वृत्तान्त स्तरीय व रोचक होते हैं। आपकी यह पोस्ट काफी विस्तार लिये है। मैं केवल शुरु की एक दो बातों के बारे में कहना चाहती हूँ। पहली बात तो भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्त्व-सम्पन्न राष्ट्र है। राष्ट्रों का संघ नही। ऐसा कहना इसकी अखण्डता पर प्रश्न उठाना है। यह 29 राज्यों 7 केन्द्रशासित राज्यों का संघ है।
दूसरी बात छत्तीसगढ़ी निमाड़ी आदि हिन्दी बोलियाँ हैं, अलग भाषा नही। स्थानीय प्रभाव से परिवर्तन आना तो स्वाभाविक है। ऐसा हर भाषा के साथ होता है। देश में सबसे अधिक बोली जाने वाली व समझी जाने वाली भाषा हिन्दी है।
रहा हिन्दी सीखने के विरोध की बात तो पहली बात तो किसी भी भाषा को सीखना अपने ज्ञान का दायरा बढ़ाना है। फिर आप अँग्रेजी को सीखने और अपनाने में इतने उत्सुक और गर्वित होते हैं जो कि विदेशी भाषा है तो फिर हिन्दी क्यों नही। हिन्दी के अलावा सभी भाषाएं केवल प्रान्तीय भाषाएं हैं। जैसे कि उड़िया केवल उड़ीसा में, मराठी महाराष्ट्र में, कन्नड़ कर्नाटक में वगैरा...। ये सभी भाषाएं समृद्ध हैं लेकिन जहाँ संचार भाषा का सवाल है तो भारतीय भाषाओं में केवल हिन्दी ही है। अब आप अंग्रेजी को तो राष्ट्रभाषा तो नही न बनाएंगे। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हमारा ही देश है जिसकी ऐसे ही विचारों के कारण अभी तक राष्ट्रभाषा संवैधानिक रूप से घोषित नही है जो बेहद जरूरी है। हालांकि जिन्हें यह नही मालूम वे राष्ट्रभाषा हिन्दी को ही मानते हैं और इसे तो आप भी मानते होंगे कि भाषा एकता में कितनी महत्त्वपूर्ण होती है।”
एक मित्र हैं शंकर राजाराम। चेन्नई के रहने वाले हैं। घूमते बहुत हैं। जब भी दिल्ली आते हैं या यहां से गुजरते हैं तो हमारे यहां जरूर आते हैं। जाहिर है मूल रूप से तमिलभाषी हैं लेकिन हिन्दी भी बोलते हैं, हालांकि उतनी अच्छी नहीं। पुल्लिंग को बडी आसानी से स्त्रीलिंग बना देते हैं- नीरज, कैसी हो?
मैंने उनसे पूछा कि आप हिन्दी कैसे बोल लेते हो जबकि तमिलनाडु में हिन्दी का रिवाज नहीं है। बोले कि अगर आपको भारत में घूमना है, भारत को जानना है तो हिन्दी बोलनी ही पडेगी। शंकर राजाराम उन थोडे से लोगों में से एक हैं, जो हिन्दी की अहमियत जानते हैं। उन पर हिन्दी थोपी नहीं गई। अगर थोपी गई होती तो क्या पता वे हिन्दी के विरोधी ही बन जाते। थोपे जाने पर हम हर चीज का विरोध करते हैं, हर चीज का।
हिन्दी को अगर राष्ट्रभाषा बना दिया तो गैर-हिन्दीभाषी राज्यों में विरोध होगा ही। हालांकि केरल से लेकर मिजोरम तक ज्यादातर व्यक्ति हिन्दी जानते हैं। जरुरत है कि हिन्दी का महत्व इतना बढा दिया जाये, इतना बढा दिया जाये कि बाकियों को लगे कि हिन्दी सीखनी चाहिये। यह महत्व इस तरह बढाना होगा कि कहीं यह दूसरी भाषाओं का बलिदान न ले ले। इसी बलिदान, इसी डर की वजह से भाषाओं को लेकर झगडे होते हैं। असोम, महाराष्ट्र में हिन्दीभाषी पिटते हैं, कर्नाटक में पूर्वोत्तर वाले पिटते हैं, केवल भाषाई कारणों से।
हिमाचल के बौद्ध इलाकों में जैसे कि किन्नौर, लाहौल, स्पीति और लद्दाख में तिब्बती भाषा का प्रचलन है। उसका अपना साहित्य भी है। लेकिन स्वतन्त्रता के बाद भारत सरकार ने हिन्दी को बढावा दिया तो यह भाषा हाशिये पर चली गई। अब शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि उन्हें या तो अंग्रेजी पढनी पडेगी या फिर हिन्दी। मन में तो उनके आता होगा, विरोध भी वे करते होंगे कि वे अपने बच्चों को अपनी भाषा में क्यों नहीं पढा सकते? उन पर हिन्दी थोप दी गई। जबकि ऐसा नहीं होना चाहिये था। हिन्दी जरूरी है लेकिन उनकी अपनी भाषा की बलि पर नहीं।
उनकी संख्या थोडी सी है, उनका विरोध आसानी से दब गया। लेकिन बडी जनसंख्या वालों का विरोध नहीं दबा करता। दूसरे राज्यों में ऐसा ही हो रहा है। हिन्दी जानते सभी हैं लेकिन जब उन्हें लगता है कि हिन्दी अतिक्रमण कर रही है, उनकी अपनी भाषा को खतरा है तो वे विरोध करेंगे ही। बेहतर यही है कि हिन्दी का प्रचार सुनियोजित तरीके से हो। अभी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का समय नहीं आया है। देश इसके लिये तैयार नहीं है और न ही हिन्दी।

7.अभी पिछले सप्ताह ही पंजाब पैसेंजर ट्रेन यात्रा की तैयारी की थी। इसमें पंजाब की वे लाइनें देखनी थीं जहां मैंने अभी तक पैसेंजर ट्रेनों में यात्रा नहीं की थी। लेकिन जब लुधियाना पहुंच गया और फिरोजपुर वाली पैसेंजर में बैठ गया तो मन में नकारात्मक विचार आने शुरू हो गये। पैसेंजर यात्रा बन्द करने के विचार। मन में आया कि फिरोजपुर से पंजाब मेल पकडकर वापस दिल्ली चला जाऊं लेकिन चार दिनों की छुट्टियां भी दिख रही थीं। पैसेंजर यात्रा नहीं करूंगा तो ये छुट्टियां खराब हो जायेंगी। आखिरकार स्टेशन के सामने एक कमरा ले लिया और सो गया। क्या पता अगले दिन विचार बदल जाये।
अगले दिन वास्तव में विचार बदले हुए थे। कोटकपूरा पहुंचा। अब मुझे फाजिल्का जाना था और वहां से फिरोजपुर और फिर जालंधर। लेकिन मुक्तसर तक भी नहीं पहुंच पाया था कि फिर से कल वाली कहानी शुरू हो गई। मुक्तसर उतर गया और फाजिल्का से आने वाली रेवाडी पैसेंजर में बैठ गया। हिसार से गोरखधाम पकडी और रात नौ बजे तक दिल्ली। तय कर लिया कि अब पैसेंजर यात्रा नहीं करूंगा। इसमें समय बहुत लगता है, बोरियत होती है और ब्लॉग पर पाठकों का अच्छा रेस्पॉंस भी नहीं मिलता। पिछले साल साइकिल यात्रा शुरू की थी, वो बन्द कर दी। क्योंकि जहां जहां साइकिल जा सकती है, वहां मोटरसाइकिल भी जा सकती है। फिर क्यों समय-खपाऊ साइकिल यात्रा करें? नौकरीपेशा इंसान के लिये समय प्रबन्धन बहुत बडी चीज है। कभी मोटरसाइकिल लेंगे, तो जहां साइकिल से जाने की इच्छा थी, मोटरसाइकिल से चले जायेंगे। इसी तरह पैसेंजर यात्रा बन्द की। कभी मन किया तो एक्सप्रेस से चला जाया करूंगा।
दूसरी बात, कई नावों की सवारी ठीक नहीं होती। एक दौर ऐसा आता है जब हमें अपनी पसन्द, शौक पहचानने पडते हैं। मुझे ट्रेन यात्राएं भी अच्छी लगती हैं, साइकिल यात्रा भी, ट्रेकिंग भी और भविष्य में मोटरसाइकिल आ जायेगी तो वो भी अच्छी लगेगी। लेकिन इनमें से एक को चुनना हो तो बाकियों को छोडना पडेगा। साइकिल यात्रा छोड दी। हिमालय के कारण ट्रेकिंग नहीं छोड सकता तो ट्रेन यात्रा छोड दी। एक ही जगह ध्यान केन्द्रित रहे तो अच्छा है। पैसेंजर यात्राओं में फोटोग्राफी पर भी असर पडता था। फोटो चलती ट्रेन से लेने पडते थे और ऐसे फोटो ऑटोमेटिक मोड पर ही ज्यादा ठीक आते हैं। मैन्यूअल मोड पर आपको फोटो लेने हों तो स्थिरता जरूरी है।

8. पिछली बार ‘घाघरा’ स्टेशन का फोटो दिखाया था और पूछा था कि यह स्टेशन कहां है? मुझे उम्मीद थी कि बहुत सारे मित्र इसका जवाब देंगे लेकिन सभी एक नम्बर के आलसी हैं। किसी के पास इतना समय नहीं होता कि टिप्पणी ही कर सकें। फिर एक उम्मीद और थी कि सभी लखनऊ-गोण्डा के बीच में स्थित ‘घाघरा घाट’ के बारे में बतायेंगे। लेकिन ‘घाघरा घाट’ के बारे में एक ही मित्र ने बताया। ‘घाघरा’ की सही स्थिति कईयों ने बता दी। तो अपने वचन को निभाते हुए हम सही जवाब देने वाले मित्रों का नाम बडे बडे काले अक्षरों में लिख रहे हैं-

1.  रणजीत, 2. सचिन

हालांकि गोपाल लाल ने भी कहा कि यह स्टेशन झारखण्ड में होना चाहिये क्योंकि इसका नाम हिन्दी व अंग्रेजी में लिखा है। तो गोपाल जी, आपको बता दूं कि झारखण्ड पहले बिहार का हिस्सा था तो यहां स्टेशनों के नाम हिन्दी, अंग्रेजी के साथ उर्दू में भी लिखे जाते हैं। बंगाल सीमा के पास कुछ स्टेशन बंगाली में भी हैं, तो ओडिशा सीमा के पास कुछ उडिया में भी लिखे हैं। घाघरा स्टेशन टाटानगर-राउरकेला के बीच में झारखण्ड में स्थित है। यह बिल्कुल नया बना स्टेशन है, हाल्ट है। भविष्य में भले ही यहां उर्दू या उडिया भी आ जाये लेकिन अभी प्रारम्भिक दौर में हिन्दी और अंग्रेजी ही हैं।

9.अब आज का सवाल:

आपको बताना है कि यह स्टेशन किस राज्य में है, कहां है? सही उत्तर देने वालों का नाम बडे बडे काले अक्षरों में अगली डायरी में लिखा जायेगा।

पटना से दिल्ली ट्रेन यात्रा

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4 सितम्बर 2014 की सुबह सुबह उजाला होने से पहले मैंने पटना स्टेशन पर कदम रखा। हालांकि पहले भी एक बार पटना से होकर गुजर चुका हूं लेकिन तब रात होने के कारण नीचे नहीं उतरा था। आज मुझे पटना से मुगलसराय तक लोकल ट्रेन से यात्रा करनी है।
इधर आने से पहले एक मित्र ने बताया था कि स्टेशन के सामने ही महावीर जी यानी हनुमान जी का बडा भव्य मन्दिर है। वहां के लड्डू बडे स्वादिष्ट होते हैं। एक बार लेकर चखना जरूर। अब जब मैं यहां आ गया तो लड्डू लेना तो बनता था, लेकिन मैंने नहीं लिये। हालांकि मन्दिर वास्तव में भव्य है।
सीधे मुगलसराय का पैसेंजर का टिकट ले लिया। बक्सर में ट्रेन बदलनी पडेगी। पटना से बक्सर के लिये पहली लोकल सुबह पांच बजकर चालीस मिनट पर चलती है। लेकिन यह सभी स्टेशनों पर नहीं रुकती। फिर पांच से छह बजे तक उजाला भी नहीं होता, इसलिये इसे छोड दिया। अगली ट्रेन सात चालीस पर है। यह ग्यारह बजकर पांच मिनट पर बक्सर पहुंचेगी और वहां से मुगलसराय की लोकल साढे ग्यारह बजे है। पटना-बक्सर लोकल का नम्बर 63227 है जबकि बक्सर-मुगलसराय का नम्बर 63229 है। इससे पता चलता है कि पटना-बक्सर लोकल ही आगे मुगलसराय तक जायेगी। मुझे ट्रेन नहीं बदलनी पडेगी।
मैं अपने पसन्दीदा यानी सबसे पीछे वाले डिब्बे में जा बैठा। यह एक मेमू ट्रेन थी। मेमू ट्रेनों में 3x3 की सीटिंग होती है। अगर मैं खिडकी के पास वाली किसी सीट पर बैठ जाता हूं और बाद में कोई प्लेटफार्म दूसरी दिशा में आ जायेगा तो या तो मुझे फोटो खींचने के लिये सीट छोडनी पडेगी, या फिर फोटो से वंचित रहना पडेगा। इसलिये मेमू ट्रेनों में मैं सीट पर नहीं बैठता हूं। खिडकी पर ही खडा रहता हूं। कल पूरे दिन मेमू ट्रेनों में ही घूमा था, आज फिर से मेमू; भयंकर थकान हो जाती है। कभी कभी लगता है कि अब के बाद पैसेंजर यात्रा बन्द।
भीड तो पटना में ही हो गई थी। ऐसा अक्सर होता नहीं है कि बडे शहरों से दैनिक यात्री जिनमें ज्यादातर नौकरीपेशा व छात्र होते हैं, सुबह सुबह बाहर जाते हों। इस समय तो बाहर गांव देहात के लोग बडे शहरों में आते हैं और शाम को चले जाते हैं। लेकिन यहां मामला उल्टा था। पटना में ही गाडी भर गई। उधर इस समय जो लोकल ट्रेनें दूर से पटना आ रही हैं, वे भी बुरी तरह भरी होंगी।
पहला स्टेशन है- सचिवालय हाल्ट, फिर फुलवारी शरीफ। फुलवारी शरीफ में इतनी भीड हो गई कि फोटो खींचना असम्भव हो गया। हालांकि अब सोचता हूं तो लगता है कि मैं फोटो खींच सकता था। लेकिन वास्तव में जबरदस्त भीड थी। इनमें भी ज्यादातर कॉलेज के छात्र। छात्रों से मैं दूर ही रहता हूं।
मेरा लक्ष्य ही स्टेशनों के फोटो खींचना था। लेकिन भीड के कारण मैं ऐसा नहीं कर पा रहा था। एक स्टेशन छूट गया, आगे से ऐसा न हो इसलिये मैं दूसरी खिडकी पर जा खडा हुआ। यह लाइन दोहरी है। कोई भी स्टेशन आयेगा, दोनों तरफ प्लेटफार्म होंगे। अभी तक मैं बायी तरफ था, अब दाहिनी तरफ आ गया। इससे फायदा यह होगा कि किसी स्टेशन पर ट्रेन रुकी होगी तो सामने वाला प्लेटफार्म मेरी नजरों के सामने होगा और मैं हल्का सा जूम करके स्टेशन बोर्ड का फोटो ले सकता हूं। अगर कहीं ‘आइलैण्ड’ प्लेटफार्म आयेगा, तब भी मुझे ही फायदा होगा। और वास्तव में यह तरकीब काम आई। इसके बाद हर स्टेशन का फोटो खींचा।
जब फुलवारी शरीफ पर खडे थे तो दानापुर जाने वाली साउथ बिहार एक्सप्रेस आगे निकल गई। फिर जब यह लोकल ट्रेन दानापुर पहुंची तो साउथ बिहार एक्सप्रेस आउटर पर खडी मिली और लोकल धडधडाती हुई आगे निकल गई।
दानापुर से आगे के स्टेशन हैं- नेऊरा, गांधी हाल्ट, सदीसोपुर, पटेल हाल्ट, बिहटा, पाली हाल्ट, कोइलवर, कुल्हाडिया, जमीरा हाल्ट, आरा, जगजीवन हाल्ट, महतबनिया हाल्ट, कारीसाथ, कौडिया हाल्ट, सर्वोदय हाल्ट, रामानन्द तिवारी हाल्ट, बिहिया, अमर शहीद जगदेव प्रसाद हाल्ट, बनाही, सिकरिया हाल्ट, रघुनाथपुर, वीर कुंवर सिंह धरौली हाल्ट, टुडीगंज, वी वी गिरी हाल्ट, डुमरांव, कुशलपुर हरनाहा हाल्ट, बरुना, नदांव, बक्सर।
जैसा कि दिख ही रहा है कि कई स्टेशन बडे अनोखे नाम वाले हैं- गांधी, पटेल, वी वी गिरी आदि। ये सभी हाल्ट हैं। हाल्ट अर्थात लोकल ट्रेनों के लिये- रुको और जाओ। ट्रेनों को प्रस्थान करने के लिये हरे सिग्नल की जरुरत नहीं है। जैसे ही सभी सवारियां उतरीं-चढी, गार्ड क्लियरेंस दे देता है और गाडी आगे बढ जाती है। एक स्थानीय से पता चला कि पहले ये हाल्ट स्टेशन नहीं थे। स्थानीय यात्री अपने गांवों के सामने ट्रेन की चेन खींच देते थे और उतर जाते थे। इससे ट्रेनें लेट हो जाती थीं। तत्कालीन रेलमन्त्री लालू प्रसाद ने ऐसे कुछ स्थानों की पहचान करवाकर उन्हें हाल्ट बना दिया। अब लोकल ट्रेनें यहां आधिकारिक रूप से रुकने लगीं।
एक स्टेशन है- टुडीगंज। इसे अंग्रेजी में Twining Ganj लिखा जाता है। अंग्रेजी देखकर अगर हिन्दी में पढा जाये तो ट्विनिंग गंज पढा जायेगा। लेकिन पता नहीं यह वास्तव में ही ‘टुडी’ है या भोजपुरी में ‘ट्विनिंग’ नहीं बोला जा सकता। खैर, जो हो।
बक्सर ट्रेन बिल्कुल ठीक समय पर आई। यहां गाडी पूरी खाली हो गई। अब इसे मुगलसराय जाना था। आगे चलकर गाडी भले ही भर जाये, लेकिन अब उतनी भीड नहीं होने वाली जितनी पटना से यहां तक रही। लेकिन आधा घण्टा हो गया, गाडी नहीं चली। मैं एक खाली सीट पर लेट गया। आंख लग गई। गाडी चलेगी तो आंख खुल जायेगी।
आंख खुली तो सवा एक बजा था और ट्रेन अभी भी बक्सर ही खडी थी। पटना-कोटा एक्सप्रेस के आने की उद्घोषणा हो रही थी। मैंने फटाफट मोबाइल में देखा- इसके बाद पटना-सिकन्दराबाद आयेगी। ब्रह्मपुत्र मेल व गुवाहाटी-लोकमान्य एक्सप्रेस लेट चल रही थीं। उधर वाराणसी से शाम साढे सात बजे मेरी दिल्ली की ट्रेन थी, उसमें मेरा आरक्षण था। उसे मैं नहीं छोड सकता था। इस तरह मेरे पास आखिरी विकल्प पटना-कोटा के बीस मिनट बाद पटना-सिकन्दराबाद थी। मैं जल्दी से इस लोकल ट्रेन के आगे गया ताकि ड्राइवर से पूछ सकूं कि कितना और लेट होने की सम्भावना है। लेकिन जब वहां पहुंचा तो ड्राइवर ही गायब था। यानी मुगलसराय वाली यह लोकल अभी नहीं चलने वाली। पटना-कोटा से वाराणसी जाने का फैसला कर लिया।
डेढ बजे तय समय पर ट्रेन आई। साधारण डिब्बों में बिल्कुल भी भीड नहीं थी। मुझे अफसोस तो था कि मुगलसराय-बक्सर मार्ग मेरे पैसेंजर नक्शे में नहीं जुड सकेगा। इसके लिये फिर कभी आना पडेगा। इससे आगे के फोटो भी नहीं खींचे। बाद में पता चला कि वह लोकल दो बजे बक्सर से चल पडी थी। बक्सर से मुगलसराय की 94 किलोमीटर की दूरी को लोकल तीन घण्टे में तय करती है। यानी पांच बजे तक वह मुगलसराय पहुंच गई होगी। पता होता कि दो बजे चलेगी तो मैं उसी में बैठा रहता। कम से कम दोबारा तो नहीं आना पडेगा।
पटना-कोटा एक्सप्रेस में एक बुजुर्ग महिला भी बैठी थीं। उन्होंने एक यात्री से पूछा कि यह गाडी अकबरपुर जायेगी क्या। कोटा तक पहुंचने में अभी भी इस गाडी को हजार किलोमीटर की दूरी तय करनी है। उस बेचारे को नहीं पता था कि अकबरपुर कहां है। उसने अनभिज्ञता जाहिर कर दी। तब मैंने तकनीक का इस्तेमाल किया। पता चला कि यह गाडी आज सुल्तानपुर के रास्ते जायेगी यानी अकबरपुर नहीं जायेगी। यह सप्ताह में तीन दिन अकबरपुर-फैजाबाद के रास्ते जाती है तो चार दिन सीधे सुल्तानपुर के रास्ते। महिला ने बताया कि उसके बेटे ने पटना से इस ट्रेन में बैठा दिया है कि अकबरपुर आयेगा तो उतर जाना। बेटे को नहीं पता होगा कि यह चार दिन अकबरपुर नहीं जाती।
तभी मुझे ध्यान आया कि मुझे प्रारम्भिक योजना के अनुसार मुगलसराय से वाराणसी जाने के लिये फैजाबाद पैसेंजर से जाना था। फैजाबाद पैसेंजर मुगलसराय से चार बजे चलती है। वह अकबरपुर होकर ही जायेगी। महिला को मैंने बता दिया। हालांकि उनकी समझ में कुछ भी नहीं आया। कुछेक यात्रियों को मेरी बात पर यकीन नहीं हुआ। उन्होंने महिला को सुझाव दिया कि आप टीटीई से मिलो, वह बता देगा कि गाडी अकबरपुर जायेगी या नहीं। यह साधारण डिब्बा एक शयनयान डिब्बे से जुडा हुआ था। महिला उठकर शयनयान में टीटीई को ढूंढने चली गई। अगर वह मेरी बात पर यकीन कर लेती तो मैं इस गाडी को मुगलसराय में ही छोड देता और वहां से स्वयं फैजाबाद पैसेंजर पकडता। आप वाराणसी उतर जाता और महिला को अकबरपुर उतरने को कह देता। या फिर वाराणसी में भी बदली कर सकता था। बेचारी को मुगलसराय या वाराणसी जैसे बडे स्टेशनों पर गाडी ढूंढने में कोई परेशानी नहीं होती।
वाराणसी से मेरा आरक्षण गरीब रथ में था जो आनन्द विहार जाती है। ठीक समय पर यानी शाम साढे सात बजे ट्रेन चल पडी और मैं सो गया। अगले दिन कुछ सहयात्री मुरादाबाद उतर गये तो कूपा पूरा खाली हो गया था। हापुड के पास एक रेलवे पुलिस वाला एक लडके को लाया और मेरे सामने वाली बर्थ पर बैठा दिया- तू यहीं बैठ और आनन्द विहार उतर जाना। मैं तुरन्त सारा माजरा समझ गया। मैंने पूछा कि कितने पैसे लिये इन्होंने? बोला कि सात सौ। कहां से चढा था? बोला बरेली से। कहने लगा कि बरेली से मैंने यह साधारण टिकट लिया। इण्टरसिटी निकल गई। जब यह गरीब रथ आई तो किसी ने बताया कि यह भी दिल्ली जायेगी तो मैं इसमें चढ लिया। कुछ देर खिडकी पर खडा रहा। तभी उस पुलिस वाले की निगाह मुझ पर पडी। उसने टिकट चेक किया। जुर्माने और जेल की बात करने लगा, मैं डर गया। उसने सात सौ मांगे, मैंने दे दिये।
मैंने बताया कि छह बजे आला हजरत चलती है, उसमें आ जाना था। नहीं तो यार तू इतना बडा हो गया है, तुझे पता नहीं कि साधारण डिब्बा कैसा होता है और एसी का कैसा होता है? भविष्य में कभी ऐसा हो जाये तो सबसे पहले टीटीई को पकडना, वो तेरा टिकट बना देगा, फिर तुझे जुर्माना नहीं देना पडेगा।
उसे आजादपुर जाना था। जब आनन्द विहार पर उतरे तो पूछने लगा कि आजादपुर कैसे जाऊं? मैंने बताया कि मेट्रो से चला जा। बोला कि नहीं मेट्रो में तो बहुत पैसे लगेंगे, पहले ही मेरे बहुत पैसे खर्च हो गये हैं। ऑटो से चला जाऊंगा। मैंने समझाया कि ऑटो वाला कम से कम दो सौ लेगा जबकि मेट्रो में पन्द्रह-बीस ही लगेंगे। जब मेट्रो स्टेशन में प्रवेश करने लगे तब भी उसे यकीन नहीं था कि मेट्रो में इतना कम किराया लगेगा। स्टेशन की चकाचौंध देखकर वो हैरान लग रहा था। जब उसने अठारह रुपये का टिकट लिया तो कहने लगा कि बडा सस्ता है। मैं तो मेट्रो को बहुत महंगी मान रहा था।
कश्मीरी गेट तक मैं उसके साथ आया। फिर वो सीधा आजादपुर चला गया और मैं शास्त्री पार्क।













मथुरा-जयपुर-सवाई माधोपुर-आगरा पैसेंजर ट्रेन यात्रा

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4 अगस्त 2014
जैसा कि आप जानते हैं कि मुझे नई नई लाइनों पर पैसेंजर ट्रेनों में घूमने का शौक है। और अब तो एक लक्ष्य और बना लिया है भारत भर के सभी रेलवे स्टेशनों के फोटो खींचना। तो सभी स्टेशनों के फोटो उन्हीं ट्रेनों में बैठकर खींचे जा सकते हैं जो सभी स्टेशनों पर रुकती हों यानी पैसेंजर व लोकल ट्रेनें।
कुछ लाइनें मुख्य लाइनें कही जाती हैं। ये ज्यादातर विद्युतीकृत हैं और इन पर शताब्दी व राजधानी ट्रेनों सहित अन्य ट्रेनों का बहुत ज्यादा ट्रैफिक रहता है। इनके बीच में जगह जगह लिंक लाइनें भी होती हैं जो मुख्य लाइन के कुछ स्टेशनों को आपस में जोडती हैं। इन लिंक लाइनों पर उतना ट्रैफिक नहीं होता। इसी तरह की तीन मुख्य लाइनें हैं- दिल्ली- आगरा लाइन जो आगे भोपाल की तरफ चली जाती है, मथुरा-कोटा लाइन जो आगे रतलाम व वडोदरा की ओर जाती है और दिल्ली- जयपुर लाइन जो आगे अहमदाबाद की ओर जाती है। इन लाइनों पर मैंने पैसेंजर ट्रेनों में यात्रा कर रखी है। इनके बीच में कुछ लिंक लाइनें भी हैं जो अभी तक मुझसे बची हुई थीं। ये लाइनें हैं मथुरा-अलवर, जयपुर-सवाई माधोपुर और बयाना-आगरा किला। इन सभी लाइनों पर पैसेंजर ट्रेनों में दो-तीन घण्टे से ज्यादा का सफर नहीं है। कार्यक्रम इन तीनों लाइनों को निपटाने का बनाया।
सुबह निजामुद्दीन पहुंच गया ताज एक्सप्रेस पकडने। यह नौ बजे तक मथुरा पहुंच जायेगी और मैं वहां से दस वाली अलवर पैसेंजर पकड लूंगा। निजामुद्दीन पर प्लेटफार्म नम्बर पांच पर ताज खडी थी, तीन पर मेवाड एक्सप्रेस खडी थी जो अभी अभी उदयपुर सिटी से आई थी। छह पर गोवा सम्पर्क क्रान्ति आ गई जो मडगांव जायेगी। बाकियों पर भी ट्रेनें थीं, लेकिन मुझे नहीं पता कि कौन-कौन सी थीं।
मथुरा पहुंचा। सबसे पहले पता किया कि क्या आज अलवर पैसेंजर चल रही है या नहीं। कुछ समय पहलेजब मैं पिताजी और धीरज के साथ मथुरा गया था तो यह ट्रेन रद्द थी। संयोग से आज यह रद्द नहीं थी। अलवर का टिकट ले लिया। और इस ट्रेन के लिये बने एक स्पेशल प्लेटफार्म पर पहुंच गया। लगातार उदघोषणा हो रही थी कि यह ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर दो पर दिल्ली की तरफ बिल्कुल आखिर में खडी है। अगर उदघोषणा ना होती तो मुझे भी इसे ढूंढने में परेशानी होती।
ट्रेन बिल्कुल खाली थी। इसका चलने का समय दस बजकर पांच मिनट था लेकिन यह नहीं चली। मैं रात भर का जगा था, लेट गया और सो गया। ट्रेन चलेगी तो अपने आप आंख खुल जायेगी।
और जब आंख खुली तो ग्यारह बज चुके थे। अर्थात ट्रेन एक घण्टे की देरी से रवाना हुई थी। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पडना था क्योंकि अलवर पहुंचकर मुझे जयपुर की कोई ट्रेन ले लेनी थी। अलवर से जयपुर पैसेंजर यात्रा मैंने कर रखी है, इसलिये इस बार पैसेंजर में ही चढने का कोई दबाव नहीं था। एक्सप्रेस भी आयेगी, तब भी उसी में चढ लूंगा।
भूतेश्वर तो मुख्य लाइन पर ही है। यहां से आगे ट्रेन अलवर की ओर मुड जाती है। मार्ग अविद्युतीकृत है लेकिन काम चल रहा है। भूतेश्वर से आगे के स्टेशन हैं- मोरा, गोवर्धन, डीग, बेढम, बृजनगर, गोविन्दगढ, जाडोली का बास, रामगढ, ऊटवाड और अलवर जंक्शर। इस लाइन पर गोवर्धन यूपी का आखिरी स्टेशन है और डीग राजस्थान का पहला स्टेशन।
इस मार्ग के विद्युतीकृत हो जाने से इस पर यातायात बढेगा खासकर मालगाडियां बढ जायेंगीं। इसके मद्देनजर कुछ नये स्टेशन भी बनाये जा रहे हैं। ये नये स्टेशन चार-पांच हैं। इनका नाम तो मुझे नहीं पता चला। कुछ स्टेशनों की इमारत बन गई है, कुछ की पहचान मुझे बिजली के खम्भों के पैटर्न से हुई।
वही एक घण्टे की देरी से यानी दो बजे अलवर पहुंचे। यहां से मुझे अब जयपुर जाना था। रात को विधानके यहां रुकूंगा। आला हजरत ठीक समय पर आई लेकिन मैं इसमें नहीं चढा। कुछ देर बाद जब खैरथल जयपुर एक्सप्रेस आई तो यह बिल्कुल खाली थी। आला हजरत भरी हुई थी। अलवर की सभी सवारियां इसमें चली गईं। खैरथल जयपुर एक्सप्रेस वैसे तो रेलवे के आधिकारिक रिकार्ड में अलवर-जयपुर एक्सप्रेस है लेकिन यह खैरथल तक का भी चक्कर लगाकर आती है। इसके बावजूद भी इसमें भीड नहीं थी। मैं इसमें सोता गया।
विधान भाई का घर जयपुर शहर से बहुत बाहर है। शाम को उनके कहे अनुसार बस पकडता-बदलता मैं चला गया लेकिन सुबह वे मुझे खुद स्टेशन छोडने आये बाइक पर। पौने सात बजे बयाना पैसेंजर थी। इस ट्रेन से मैं सवाई माधोपुर तक जाऊंगा, वहां से आधे घण्टे बाद कोटा-यमुना ब्रिज पैसेंजर पकडूंगा। यह दूसरी ट्रेन भी बयाना होते हुए ही जायेगी लेकिन जयपुर-बयाना पैसेंजर सवाई माधोपुर के बाद फास्ट पैसेंजर बन जाती है यानी खास-खास स्टेशनों पर ही रुकेगी जबकि कोटा-यमुना ब्रिज पैसेंजर हर स्टेशन पर रुकेगी।
जयपुर स्टेशन पर आगरा शताब्दी खडी थी। इस शताब्दी को चले ज्यादा समय नहीं हुआ। लेकिन ताज्जुब की बात थी कि इसमें दूसरे रेलवे जोन के डिब्बे लगे थे। खासकर दक्षिण-पूर्व रेलवे और पूर्व रेलवे। उधर अपनी बयाना पैसेंजर प्लेटफार्म तीन पर थी आबू रोड के WDM2 इंजन के साथ। यह ट्रेन रात कोटा से चली थी। सुबह जयपुर आ गई। अब दिन में एक चक्कर बयाना का लगाकर शाम तक जयपुर आ जायेगी और फिर रात को कोटा व रतलाम के लिये चली जायेगी।
जयपुर से आगे के स्टेशन हैं- बाइस गोदाम, दुर्गापुरा, सांगानेर, श्योदासपुरा पदमपुरा, चाकसू, चन्नानी, बनस्थली निवाई, सिरस, ईसरदा, सुरेली, चौथ का बरवाडा, देवपुरा और सवाई माधोपुर जंक्शन। बाहर मौसम खराब था और अन्दर ट्रेन भी भीड थी, इसलिये हर स्टेशन के फोटो नहीं खींचे जा सके।
अब एक नजर डालते हैं सवाई माधोपुर स्टेशन की गतिविधियों पर। जयपुर-सवाई माधोपुर रूट पर काफी सारी ट्रेनें चलती हैं। ज्यादातर ट्रेनें जयपुर से आती हैं और कोटा की तरफ जाती हैं। इन ट्रेनों का इंजन बदलना पडता है। सवाई माधोपुर से जयपुर वाली लाइन विद्युतीकृत नहीं है, इसलिये डीजल इंजन लगता है जबकि कोटा वाली लाइन विद्युतीकृत है, इसलिये बिजली वाला इंजन लगाना होता है। एक अलग यार्ड में कई इंजन खडे थे। जहां जैसी जरुरत पडती है, वही इंजन लगा दिया जाता है। ऐसा ही आगरा व मथुरा की तरफ जाने वाली ट्रेनों के साथ भी होता है।
बयाना पैसेंजर सवाई माधोपुर के प्लेटफार्म एक पर पहुंची, पांच मिनट रुकी और आगे बयाना की तरफ चली गई। फिर दो पर दयोदया आ गई। यह जबलपुर से आती है और कुछ समय पहले तक जयपुर तक ही जाती थी, अब अजमेर तक जाती है। इससे भी बिजली का इंजन हटाकर डीजल इंजन लगाकर जयपुर की ओर रवाना कर दिया। फिर प्लेटफार्म तीन पर मथुरा-रतलाम पैसेंजर आ गई। इस ट्रेन में मैंने मथुरा से शामगढ तक यात्रा कर रखी है।
अभी तक उदघोषणा हो रही थी कि मेरी कोटा-यमुना ब्रिज पैसेंजर प्लेटफार्म एक पर आयेगी। लेकिन जब एक पर मुम्बई-जयपुर एक्सप्रेस आ गई तो यमुना ब्रिज पैसेंजर का प्लेटफार्म बदल दिया। अब यह तीन पर आयेगी। मुम्बई-जयपुर एक्सप्रेस का भी इंजन बिजली से डीजल में बदला जाता है। उधर कोटा-यमुना ब्रिज पैसेंजर तीन पर आई तो इधर दो पर निजामुद्दीन-कोटा स्पेशल आ गई। दोनों ट्रेनें एक साथ ही आईं और एक साथ ही अपने अपने गन्तव्य की ओर रवाना हो गई। लेकिन यमुना ब्रिज पैसेंजर के रवाना होने से पहले मैं इसमें चढ चुका था। इसे वडोदरा का WAG-5P इंजन खींच रहा था। यह भी एक ताज्जुब की बात थी। यह इंजन मालगाडियों को खींचने ले किये डिजाइन किया गया है। इसे पैसेंजर में लगाना बिल्कुल वैसा ही है जैसे किसी हाथी को एक साइकिल खींचने को कहा जाये। यही कारण था कि यह हर स्टेशन पर धडधडाती हुई जाती, रुकती और प्लेटफार्म पार करते करते पचास की रफ्तार पकड लेती और जल्द ही सौ भी पार कर जाती। और यही कारण था कि यह सवाई माधोपुर एक घण्टे की देरी से आई थी और बयाना पन्द्रह मिनट पहले पहुंच गई। हालांकि इस पर लिखा था- फिट फॉर पैसेंजर ओनली। इसका मतलब था कि यह इंजन बूढा हो गया है और मालगाडियों को खींचने लायक नहीं रहा। बयाना पैसेंजर के विपरीत यह बिल्कुल खाली थी।
सवाई माधोपुर से बयाना तक मैंने पहले पैसेंजर ट्रेन में यात्रा कर रखी थी लेकिन किसी कारण से मेरे पास फोटो नहीं थे। अब सभी स्टेशनों के फोटो भी हो गये।
बयाना से आगे चलते हैं- बयाना जंक्शन, बीरमबाद, बंध बारेठा, नगला तुला, बंसी पहाडपुर, धाना खेडली, रूपबास, औलेण्डा, फतेहपुर सीकरी, सिंगारपुर, किरावली, मिढाकुर, पथौली, ईदगाह आगरा जंक्शन और आगरा किला। हालांकि यह ट्रेन इससे अगले स्टेशन यमुना ब्रिज तक जाती है। लेकिन मुझे सुविधा के लिये आगरा किला पर ही उतर जाना है।
रूपबास के बाद गाडी राजस्थान से उत्तर प्रदेश में प्रवेश कर जाती है और यूपी का इस लाइन पर पहला स्टेशन है औलेण्डा। फतेहपुर सीकरी में भीषण भीड गाडी का इंतजार कर रही थी। यह भीड इतनी भयंकर थी कि कई यात्री गाडी में चढ भी नहीं सके। पता चला कि यहां कोई पीर का मेला था, उसमें भाग लेने लोगबाग आये थे।
आगरा किला स्टेशन पर वही जयपुर शताब्दी खडी थी जिसे मैंने सुबह जयपुर में देखा था। बाहर निकला तो छावनी स्टेशन जाने के लिये शेयर ऑटो मिल गये। ऑटो में बैठा बैठा मैं देखता जा रहा था कि आगरा छावनी से दिल्ली के लिये कौन सी गाडी कितने बजे आने वाली है। तभी मेरी निगाह पडी मदुरई-देहरादून एक्सप्रेस पर। यह एक साप्ताहिक गाडी है, इसमें दैनिक गाडियों के मुकाबले भीड नहीं मिलेगी। इसी से जाऊंगा। लेकिन ऑटो में कुछ लोग ऐसे भी थे, जो रास्ते में पडने वाली एक प्रसिद्ध दुकान से पेठा लेना चाहते थे। इनमें कुछ महिलाएं भी थीं। बस, फिर क्या था। पन्द्रह मिनट हो गये, बीस मिनट हो गये, महिलाएं पेठा ही नहीं ले सकीं। फिर कुछ मैंने जोर दिया कि मेरी ट्रेन निकली जा रही है, कुछ ऑटो वाले ने जोर दिया, तब जाकर पुरुषों ने कदम बढाये और एक मिनट में ही कम से कम दस किलो पेठा उठा लाये।
मैं लगातार देहरादून एक्सप्रेस को ट्रैक कर रहा था। यह बस कुछ ही समय में आगरा पहुंचने वाली थी। मुझे टिकट भी लेना था, लगने लगा कि नहीं पकड पाऊंगा। तो फिर ताज पकडूंगा। उसमें कम से कम बैठने की जगह तो मिल जायेगी। लेकिन तभी स्टेशन के बाहर एक दुकान पर निगाह गई- यहां टिकट मिलते हैं। वहां एक रुपये अतिरिक्त देकर बिना किसी लाइन में लगे दिल्ली का टिकट मिल गया। टिकट मिलते ही स्टेशन की तरफ दौड लगा दी। ट्रेन प्लेटफार्म पर आ चुकी थी। बराबर वाले प्लेटफार्म पर पंजाब मेल खडी थी। उसके साधारण डिब्बों में भारी भीड थी जबकि इस मदुरई-देहरादून के साधारण डिब्बे खाली पडे थे। यह वही मदुरई-देहरादून एक्सप्रेस थी जिसमें कुछ दिन पहले मैं झांसी से चण्डीगढगया था। इसमें कुछ डिब्बे चण्डीगढ के भी होते हैं, जो सहारनपुर जाकर अलग होते हैं।









कोटा-यमुना ब्रिज पैसेंजर में WAG-5P इंजन लगा था।






आगरा-जयपुर शताब्दी में लगा पूर्वी रेलवे का डिब्बा

आगरा- जयपुर शताब्दी में लगा दक्षिण पूर्व रेलवे का डिब्बा।

रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर

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नग्गर का जिक्र हो और रोरिक आर्ट गैलरी का जिक्र न हो, असम्भव है। असल में रोरिक ने ही नग्गर को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान दी है। निकोलस रोरिक एक रूसी चित्रकार था। उसकी जीवनी पढने से पता चलता है कि एक चित्रकार होने के साथ-साथ वह एक भयंकर घुमक्कड भी था। 1917 की रूसी क्रान्ति के समय उसने रूस छोड दिया और इधर-उधर घूमता हुआ अमेरिका चला गया। वहां से वह भारत आया लेकिन नग्गर तब भी उसकी लिस्ट में नहीं था। पंजाब से शुरू करके वह कश्मीर गया और फिर लद्दाख, कराकोरम, खोतान, काशगर होते हुए तिब्बत में प्रवेश किया। तिब्बत में उन दिनों विदेशियों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध था। वहां किसी को मार डालना फूंक मारने के बराबर था। रोरिक भी मरते-मरते बचा और भयंकर परिस्थितियों का सामना करते हुए उसने सिक्किम के रास्ते भारत में पुनः प्रवेश किया और नग्गर जाकर बस गये। एक रूसी होने के नाते अंग्रेज सरकार निश्चित ही उससे बडी चौकस रहती होगी।
खैर, चित्रकारी में वह प्रसिद्ध तो पहले से ही था, भारत आकर जब वह स्थापित हो गया तो और भी ज्यादा प्रसिद्धि मिलने लगी। 13 दिसम्बर 1947 को यहीं पर उनकी मृत्यु हुई। उनके घर को ही अब संग्रहालय का रूप दे दिया गया है और रोरिक आर्ट गैलरी के नाम से जाना जाता है। इसी में उनके चित्रों का संग्रह है। इन्हीं में से एक चित्र जवाहर लाल नेहरू व इन्दिरा गांधी का भी है। इन्दिरा बडी अच्छी लग रही है। रोरिक का घर बिल्कुल साफ सुथरा है और बन्द ही रहता है। दर्शकों को बाहर ही बाहर गैलरी में घूम-घूमकर व खिडकियों-दरवाजों के अन्दर झांक-झांककर इसे देखना होता है। वास्तव में इसके ठाठ देखकर बडा दिल जलता है। तब वे जिस कार का प्रयोग करते थे, वह भी यहां सुरक्षित खडी है। इसमें प्रवेश का शुल्क पचास रुपये है।
आर्ट गैलरी से कुछ पहले नग्गर का किला भी है। पहले यह कुल्लू के राजाओं का महल हुआ करता था। बाद में उन्होंने इसे अंग्रेजों को बेच दिया। आजादी के बाद यह भारत सरकार के नियन्त्रण में आ गया और इसे दर्शनीय स्थल बनाने हेतु राष्ट्रीय धरोहर बना दिया गया। आज इसमें हिमाचल पर्यटन का एक होटल है। यह इस इलाके की अन्य इमारतों की तरह लकडी व पत्थर से बना है व भूकम्परोधी है। इसमें भी प्रवेश का शुल्क लगता है, फोटो खींचने का शुल्क अलग से है। हम यहां तक आते-आते पसीने पसीने हो गये थे। कारों में मनाली घूमने आये रईस साफ-सुथरे ‘टूरिस्टों’ की भीड में हमने घुसना ठीक नहीं समझा और इसे बाहर से ही प्रणाम करके आगे बढ चले।
निकोलस रोरिक का घर

इस फोटो में बायें नेहरू है तो बीच में इन्दिरा।




यहां से दिखता ब्यास घाटी का विहंगम नजारा



रोरिक की एक कलाकृति


रोरिक की कार


अगले भाग में जारी...

चन्द्रखनी ट्रेक
1. चन्द्रखनी दर्रे की ओर- दिल्ली से नग्गर
2. रोरिक आर्ट गैलरी, नग्गर
3. चन्द्रखनी ट्रेक- रूमसू गांव
4. चन्द्रखनी ट्रेक- पहली रात
5. चन्द्रखनी दर्रे के और नजदीक
6. चन्द्रखनी दर्रा- बेपनाह खूबसूरती
7. मलाणा- नशेडियों का गांव

अरकू-बस्तर यात्रा- दिल्ली से रायपुर

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14 जुलाई 2014
वैसे तो जब भी मुझे निजामुद्दीन जाना होता है तो मैं अपने यहां से एक घण्टे पहले निकलता हूं। लेकिन आज देर हो गई। फिर भी एक जानकार के लिये पौन घण्टे में शास्त्री पार्क से निजामुद्दीन पहुंचना कोई मुश्किल नहीं है। भला हो राष्ट्रमण्डल खेलों का कि कश्मीरी गेट से इन्द्रप्रस्थ तक यमुना के किनारे किनारे नई सडक बन गई अन्यथा राजघाट की लालबत्ती पर ही बीस-पच्चीस मिनट लग जाते। अब कश्मीरी गेट से काले खां तक कोई भी लालबत्ती नहीं है। बस एक बार कश्मीरी गेट से चलती है और सीधे काले खां जाकर ही रुकती है। ट्रेन चलने से दस मिनट पहले मैं निजामुद्दीन पहुंच चुका था।
मेरी बर्थ कन्फर्म नहीं हुई थी लेकिन आरएसी मिल गई थी। यानी एक ही बर्थ पर दो आदमी बैठेंगे। जब टिकट बुक किया था तो वेटिंग थी। वेटिंग टिकट लेना सट्टा खेलने के बराबर होता है। जीत गये तो जीत गये और हार गये तो हार गये। इस तरह आरएसी सीट मेरे लिये जीत के ही बराबर थी। टीटीई ईमानदार निकला तो क्या पता कि मथुरा-आगरा तक पक्की बर्थ भी मिल जाये।
बर्थ नम्बर 47 पर मेरे अलावा जो सज्जन थे, वे भिलाई स्टील प्लांट में काम करते थे और दुर्ग जा रहे थे। उन्होंने बताया कि बराबर वाली आरएसी सीट यानी 39 नम्बर पर उनके कोई मित्र मथुरा से चढेंगे। वे दोनों साथ यात्रा करना पसन्द करेंगे तो मैंने अदला-बदली कर ली और मेरी नई सीट 39 हो गई। यह भी चूंकि आरएसी ही थी, तो अब देखना यह था कि इस बर्थ का दूसरा मालिक कहां से चढेगा।
साइड लोअर बर्थ का जहां एक नुकसान है कि इस पर दो लोगों को एक साथ सोना पडता है, वहीं एक फायदा भी है। दिन में यात्रा करने के लिये इससे बेहतर कोई और जगह नहीं है। गाडी के चलने की दिशा में पैर फैलाकर, लेटकर या पीछे कमर लगाकर खिडकी पर हाथ टिकाकर यात्रा करने में जो आनन्द आता है, वो गद्दी पर बैठते समय अकबर को भी नहीं आता होगा। हालांकि इस सीट पर अवांछित यात्री भी खूब बैठते हैं लेकिन यह कोई बिहारी गाडी नहीं थी। आगरा तक इस पर मैं ही रहा।
आगरा में एक दुबले-पतले से सज्जन आ गये- उठिये, यह मेरी सीट है। मैंने कहा कि केवल आपकी नहीं है, आधी मेरी भी है। बैठ जाओ। उन्हें रायपुर जाना था और जोधपुर पुष्कर की तीर्थयात्रा करके आ रहे थे। पुष्कर की तीर्थयात्रा तो समझ में आती है लेकिन जोधपुर की तीर्थयात्रा? जब मैंने पूछा तो जवाब मिला- आप समझ ही गये होंगे, अगर नहीं समझे तो समझ जाओ। जी हां, उन्होंने यही जवाब दिया। मैं समझ चुका था। भगवान भले ही जेल में हो, लेकिन भक्त तो भक्त है। आसाराम ने ठीक थोडे ही किया? ठीक किया होता तो भक्त सीना चौडा करके बताते, इशारे से बात न करते।
धौलपुर से निकलते ही चम्बल के बीहड शुरू हो गये। मुझे ये बीहड हमेशा ही बहुत अच्छे लगते हैं। कभी ये कुख्यात डकैतों के लिये सुरक्षित स्थान होते थे। चन्द्रकान्ता सन्तति पुस्तक में इन बीहडों का कोई जिक्र नहीं है। लगता है खत्री साहब यहां नहीं आये थे। आये होते तो निश्चित रूप से यहां भी कोई तिलिस्म बना देते। वैसे भी यह जगह प्राकृतिक तिलिस्म ही है।
भूख लगने लगी थी और मुझे इन्तजार था ग्वालियर का। प्रशान्त साहब यहां खाना लेकर आने वाले हैं। पहले ही इस बारे में बात हो चुकी है। हम पहले कभी नहीं मिले थे, बातचीत भी नहीं हुई थी कभी। जब उन्हें पता चला कि मैं दोपहर को ग्वालियर से निकलूंगा, तो लंच की बात तय हो गई। यहां गाडी का ज्यादा लम्बा चौडा ठहराव नहीं है। इन दो मिनटों में जितनी बातें हो सकती थीं, हुईं। ग्वालियर घूमने का वादा करके हम विदा हो गये।
खाने में इतना सामान था कि डिनर भी इसी से हो गया। सबसे अच्छी और सबसे गन्दी बात कि खाने में एक दशहरी भी था। दशहरी आम मेरा पसन्दीदा फल है। घर पर दो-दो ढाई-ढाई किलो दशहरी मैं बैठे बैठे खा जाता हूं। लेकिन सार्वजनिक स्थान पर बिल्कुल नहीं। आम खाने का जितना मजा इसका गूदा खाने में है, उससे भी ज्यादा गुठली चूसने में। और गुठली चूसते चूसते आपकी उंगलियां भी सन जाती हैं व मुंह भी।
ऊपर वाली यानी 40 नम्बर की बर्थ जिसकी थी, उसके साथियों को कहीं दूर सीट मिली थी। इसलिये वे अपने साथियों के पास चले गये थे। रात को जब सोना होगा, तब वे आयेंगे। इसका फायदा मुझे मिला। खाना खाते ही मैं ऊपर जाकर सो गया। झांसी, बीना और भोपाल कब निकल गये, पता ही नहीं चला। आंख खुली बुदनी पहुंचकर। यानी अब नर्मदा पार करेंगे, फिर होशंगाबाद, पोवारखेडा व इटारसी। बुदनी से इटारसी के बीच बचा हुआ खाना खा लिया। ट्रेन रुकते ही प्लेटफार्म पर टहलने लगा। गाडी यहां प्लेटफार्म तीन पर आई थी। चार पर पहले से ही जबलपुर-नई दिल्ली सुपर एक्सप्रेस खडी थी। कुछ देर बाद एक पर बंगलुरू से नई दिल्ली जाने वाली कर्नाटक एक्सप्रेस आ गई। इसके पीछे पीछे ही लोकमान्य तिलक से गोरखपुर जाने वाली गोदान एक्सप्रेस प्लेटफार्म दो पर आ खडी हुई। चूंकि मनमाड से इटारसी तक कर्नाटक व गोदान दोनों का रूट एक ही होता है, तो मेरे विचार से कर्नाटक बिना आउटर पर रुके इटारसी स्टेशन पर प्रवेश कर गई होगी जबकि गोदान को पल भर के लिये रुकना पडा होगा। इसके बाद जबलपुर-नई दिल्ली को रवाना कर दिया व हमारी समता को भी। जब समता नागपुर की तरफ मुडने लगी तो मुम्बई की तरफ से एक ट्रेन इटारसी की तरफ जाती दिखी। निश्चित ही वह प्लेटफार्म तीन पर जायेगी।
मेरा यह सब लिखने का मतलब इतना ही है कि इटारसी जंक्शन यात्री व मालगाडियों के लिये अति व्यस्त स्टेशन है। यहां की कार्यप्रणाली देखकर मुझे इलाहाबाद डिवीजन की कार्यप्रणाली याद आ जाती है। वहां कानपुर में पनकी से ही आउटर शुरू हो जाता है और इलाहाबाद में मनोहरगंज व छिवकी से। जब तक गाडी आउटरों पर कम से कम पांच पांच दफे नहीं रुक जाती, तब तक उसे स्टेशन में प्रवेश नहीं करने दिया जाता। सीखो, इलाहाबाद डिवीजन वालों, कुछ सीखो इनसे।
इटारसी के बाद आसाराम-भक्त अपने दूसरे साथियों के पास चले गये। वे सभी इसी डिब्बे में थे। उसने उनके पास नीचे चादर बिछा ली और सो गया। इस तरह मुझे पूरी बर्थ सोने को मिल गई।
तीन बजे के आसपास ट्रेन नागपुर पहुंची। एक घण्टे की देरी से चल रही थी। नागपुर से निकली तो एक महिला का रोना-धोना सुनकर आंख खुली। वह मेरे वाले कूपे में ही थी। नागपुर में किसी ने उसकी अटैची उडा दी थी। उसके साथ उसकी अठारह-बीस साल की लडकी भी थी। लडकी बिल्कुल गुमसुम बैठी थी। मां ने विलाप मचा रखा था- हाय, मेरी लाल अटैची। भला ऐसे में किसकी आंख न खुलती। कभी अपनी छाती पीटती, कभी अपना सिर पटकती। वैसे थी बिल्कुल होश में। बस दिखावा कर रही थी, ड्रामा कर रही थी। सहयात्रियों से पूछती कि आपने किसी को मेरी लाल अटैची ले जाते देखा है क्या।
मुझसे कहने लगी कि तुम कल पूरे दिन भर सोते रहे, तुम्हें रात को कैसे नींद आ गई? तुम्हें सोना ही नहीं चाहिये था। फिर कहने लगी कि नहीं, तुमने चोर को जरूर देखा होगा। कोई अगर दिन में सोये तो उसे रात को नींद कैसे आ सकती है? तुम्हें नींद नहीं आई थी। क्या तुम्हें पता है कि नागपुर कब आया था? हालांकि ट्रेन रुकते ही कितनी भी गहरी नींद हो, मुझे सोते-सोते भी पता चल जाता है कि ट्रेन फलां जगह रुकी है। नागपुर का भी पता था लेकिन मैं क्यों कहने लगा कि हां, मुझे पता है? मैंने कह दिया कि नहीं, मुझे पता ही नहीं कि नागपुर कब गया। तभी बेचारे एक बुजुर्ग ने भावावेश में कह दिया कि नागपुर में ट्रेन काफी देर तक खडी रही थी और मैं पेशाब करने भी गया था। बस, बेचारे की शामत आ गई। दूसरे यात्री साथ न देते तो वह बुजुर्ग चोर सिद्ध हो चुके थे।
चेन खींचने को उद्यत थी वह। लेकिन यात्रियों ने समझाया कि आपको रायपुर उतरना है, वहां रिपोर्ट लिखवा देना। मिलना होगा, मिल जायेगा; नहीं मिलना होगा तो आप वापस नागपुर भी चली जाओ, नहीं मिलेगा। रायपुर तक उसका विलाप जारी रहा। सुबह सवेरे की शानदार नींद का सत्यानाश हो गया। हाय! मेरी लाल अटैची। उसमें बिटिया के साठ-सत्तर हजार के कपडे थे, हम फंक्शन में जा रहे थे। अब हम वहां जाकर क्या मुंह दिखायेंगे? वास्तव में जब से उसने मुझ पर व दूसरों पर इल्जाम लगाया तो मेरी व बाकियों की हमदर्दी खत्म हो चुकी थी।
संयोग से या दुर्योग से उसी कूपे से अगर किसी को नागपुर ही जाना होता तो चोर वही बनता। वह उसके ही खिलाफ रिपोर्ट लिखवाती और रिजर्वेशन रिकार्ड से आसानी से उसका फोन नम्बर और पता आसानी से पता चल जाता।
एक घण्टे की ही देरी से रायपुर पहुंचे। यहां बारिश हो रही थी। बारिश होना मेरे लिये अच्छा भी था क्योंकि मुझे कुछ दिन बाद ही चित्रकोट जलप्रपात देखना था। प्रपातों को देखने का असली आनन्द बारिश में ही है। जितना ज्यादा पानी होगा, उतना ही ज्यादा आनन्द आयेगा।
रायपुर से करीब 100 किलोमीटर दूर कसडोल है जहां सुनील पाण्डेयजी रहते हैं। अगले एक सप्ताह तक उन्हें ही मेरे साथ रहना था। वे आज सुबह सवेरे ही कसडोल से चले थे, बारिश की वजह से लेट होते चले गये। इसलिये उन्होंने मेरे ठहरने का इन्तजाम अपने एक जानकार के यहां करा दिया। जानकार दीनदयाल उपाध्याय नगर के गोल चक्कर पर मुझे लेने आये। चलो, चाय पीयेंगे- कहकर एक दुकान पर ले गये। मैं समझ गया कि महाराज कुंवारे हैं। और जब घर में प्रवेश किया तो लगा कि अपने ही ठिकाने पर आ गया हूं। चारों तरफ बिखरे कपडे, जमीन पर बिछा गद्दा, बेतरतीब रसोई, बिखरे अखबार और बाथरूम में मकडी के जाले। किसी घर में यह सब दिखे तो समझो कि वह कुंवारों की ऐशगाह है।
साढे दस बजे सुनील जी भी आ गये। बारिश अभी भी हो रही थी। उनका इरादा मुझे आज रायपुर घुमाने का था लेकिन बारिश ने सब पानी फेर दिया। बारिश से उन्हें एक रोचक किस्सा याद आया- कई साल पहले कसडोल से एक आदमी अपने तीन बच्चों को लेकर खाने-कमाने के लिये मजदूरी करने निकला और लद्दाख पहुंच गया। उसी दौरान लद्दाख में बाढ आ गई व भयंकर जान-माल का नुकसान हुआ। उसके तीनों बच्चे भी मारे गये। मुआवजे में उसे तीन लाख रुपये मिले। वापस लौटकर उसने ठाठ की जिन्दगी जीनी शुरू कर दी। उसके बाद वह हर साल अपने दो-दो तीन-तीन बच्चों को लेकर लद्दाख जाता है और कई अन्यों को भी वहां का रास्ता बता दिया है। इस उम्मीद में कि जल-प्रलय लद्दाख में फिर कभी आयेगी।
छत्तीसगढ आदिवासी प्रधान राज्य है। यहां आदिवासियों को स्वयं भी नहीं पता होता कि उनके कितने बच्चे हैं। सुनील जी ने बस्तर के आदिवासियों के बीच एक सर्वे में भाग लिया था, इसलिये आदिवासियों के बारे में काफी जानकारी है। बताने लगे कि सुकमा की तरफ एक बार जब जंगलों में आदिवासी गांवों में सर्वे कर रहे थे, तो नक्सलियों ने पकड लिया और आंखों पर पट्टी बांधकर बंधक बनाकर पूरी टीम को कहीं ले गये। बातचीत करने पर जब उन्हें पता चला कि ये बेचारे स्वयंसेवक हैं, कोई सरकारी कर्मचारी नहीं हैं, तो उन्हें ससम्मान वापस छोड भी गये।
हमारी आगे की योजना बनने लगी। सुनील जी ने योजना समझाई कि हम आज रात विशाखापट्टनम की ट्रेन पकडेंगे, सुबह तक पहुंच जायेंगे। कल पूरे दिन विशाखापट्टनम घूमेंगे, परसों ट्रेन से अरकू जायेंगे। अगले दिन अरकू घूमेंगे। फिर ट्रेन से जगदलपुर जायेंगे और चित्रकोट व तीरथगढ जलप्रपात देखकर बस से रायपुर लौट जायेंगे। एक दिन कसडोल में रुकना पडेगा। मैंने इसमें फेरबदल करने को कहा क्योंकि मुझे केके लाइन का पूरा रूट देखना था। केके लाइन अर्थात कोत्तवलसा-किरन्दुल लाइन। उनकी योजना के अनुसार मुझे कोत्तवलसा से जगदलपुर तक का मार्ग ही देखने को मिल रहा है। जगदलपुर से किरन्दुल तक का मार्ग रह जायेगा। उसके लिये नहीं तो फिर दोबारा इधर आना पडेगा। मैं इसे इसी यात्रा में पूरा देखना चाहता था। आखिरकार काफी माथापच्ची करके कार्यक्रम में फेरबदल करना पडा।
वरिष्ठ ब्लॉगर बीएस पाबलाजी को जब पता चला कि मैं पूरे दिन से रायपुर में हूं और न मैं कहीं गया और न ही उनसे मिला, तो वे नाराज हुए। उधर अभनपुर के रहने वाले ललित शर्माभी नाराज थे। उनकी नाराजगी जायज है।
रात पौने नौ बजे कोरबा-विशाखापट्टनम एक्सप्रेस रायपुर से रवाना होती है। हमारा इसी में आरक्षण था। ट्रेन चलने से करीब आधा घण्टा पहले ही हम स्टेशन पहुंच गये थे। यहां प्लेटफार्म नम्बर तीन पर दुर्ग-विशाखापट्टनम पैसेंजर (58530) खडी थी। यह ट्रेन कल दोपहर बारह बजे तक विशाखापट्टनम पहुंचेगी और उसके बाद यही डिब्बे 18519 बनकर लोकमान्य तिलक जायेंगे। इसमें एक डिब्बा मध्य रेलवे का था और बाकी सभी पूर्वतट रेलवे के। हालांकि यह ट्रेन पूर्वतट रेलवे की है। इसके बाद प्लेटफार्म एक पर बिलासपुर-भगत की कोठी स्पेशल आ गई। इसमें सभी डिब्बे राजधानी के लुक वाले थे। शयनयान भी और वातानुकूलित भी। प्लेटफार्म छह पर लोकमान्य-शालीमार एक्सप्रेस (18029) आई। और फिर सबसे आखिर में पच्चीस मिनट की देरी से हमारी कोरबा-विशाखापट्टनम एक्सप्रेस रात आठ बजकर पचास मिनट पर प्लेटफार्म एक पर आ गई। इसमें विशाखापट्टनम का WDM 3A इंजन लगा था। नौ बजकर बीस मिनट पर गाडी यहां से रवाना हो गई।

अगले भाग में जारी...

विशाखापटनम- सिम्हाचलम और ऋषिकोण्डा बीच

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16 जुलाई 2014 की सुबह आठ बजे ट्रेन विशाखापट्टनम पहुंची। यहां भी बारिश हो रही थी और मौसम काफी अच्छा हो गया था। सबसे पहले स्टेशन के पास एक कमरा लिया और फिर विशाखापट्टनम घूमने के लिये एक ऑटो कर लिया जो हमें शाम तक सिम्हाचलम व बाकी स्थान दिखायेगा। ऑटो वाले ने अपने साले को भी अपने साथ ले लिया। वह सबसे पीछे, पीछे की तरफ मुंह करके बैठा। पहले तो हमने सोचा कि यह कोई सवारी है, जो आगे कहीं उतर जायेगी लेकिन जब वह नहीं उतरा तो हमने पूछ लिया। वे दोनों हिन्दी उतनी अच्छी नहीं जानते थे और हम तेलगू नहीं जानते थे, फिर भी उन दोनों से मजाक करते रहे, खासकर उनके जीजा-साले के रिश्ते पर।
बताया जाता है कि यहां विष्णु के नृसिंह अवतार का निवास है। यह वही नृसिंह है जिसने अपने भक्त प्रह्लाद की उसके जालिम पिता से रक्षा की थी।
मुझे समझ नहीं आ रहा कि इसके बारे में और क्या लिखूं। मन्दिर एक पहाडी के ऊपर स्थित है। नीचे बस अड्डा है जहां ऑटो वाले ने हमें उतार दिया। ऊपर या तो पैदल जाओ या फिर आन्ध्र प्रदेश परिवहन की बसें दस दस रुपये में ऊपर पहुंचा देती हैं। बस से उतरे और अन्य श्रद्धालुओं के पीछे पीछे चलते चलते हम भी मन्दिर में प्रवेश कर गये। यहां जूते उतारने होते हैं और कैमरा आदि भी मन्दिर में ले जाने की मनाही है। इन दोनों चीजों के सुरक्षित रखाव का यहां शानदार निःशुल्क प्रबन्ध है। शायद निःशुल्क नहीं है, एक-दो रुपये शुल्क लेते हैं।
पास ही कहीं पुष्कर सरोवर है। हम नहीं गये। मानसून के कारण चारों तरफ हरियाली चरम पर थी। एक बार तो सोचा कि पैदल ही उतर लेते हैं, फिर मुकर गये। आखिर ऑटो वाला आज पूरे दिन हमारे ही साथ रहेगा और हम उसे अन्धेरा होने से पहले छोडने वाले नहीं हैं।
सिम्हाचलम में रेलवे स्टेशन भी है। असल में दो सिम्हाचलम स्टेशन हैं- एक तो सिम्हाचलम है ही और दूसरा है उत्तर सिम्हाचलम। उत्तर सिम्हाचलम एक हाल्ट है जहां लोकल ट्रेनें रुकती हैं। बडा स्टेशन सिम्हाचलम है।
अगले मुकाम के लिये चल पडे।
सुनील जी ने पूरा विशाखापटनम देख रखा है। वे कहते हैं कि हम छत्तीसगढ वालों के पास हिमालय तो है नहीं। धर्म-कर्म करना हो तो पुरी नजदीक है और विशाखापटनम भी अच्छा है। उन्हीं के कहे अनुसार ऑटो वाला चले जा रहा था। चिडियाघर के सामने से होते हुए ऋषिकोण्डा बीच पहुंचे। वहां से लौटते हुए चिडियाघर देखेंगे।
यह बीच विशाखापटनम शहर से दूर है, इसलिये यहां बिल्कुल चहल-पहल नहीं थी। हवा बडी तेज चल रही थी जिसकी वजह से लहरें भी बहुत ऊंची ऊंची उठ रही थीं। विशाखापटनम पोर्ट जाने वाले कंटेनरों से लदे जहाज यहां से नन्हें-नन्हें दिख रहे थे। कुछ देर बाद इसी बीच पर मछुआरों की एक नाव आई। इसमें उन्होंने मछलियां पकड रखी थीं। मछुआरे तो जाल उतारने लगे और कौवे मछलियों की ताक में मंडराते रहे। उन्हें सफलता मिल भी रही थी।
ऊंची लहरों को देखना अच्छा लग रहा था। यह बंगाल की खाडी है। ज्यादातर आपदाएं इसी में आती हैं। सुनामी आई थी, इसी में आई थी; तूफान आते हैं, हुदहुद आता है, इसी में आता है। अरब सागर में ऐसा कुछ सुनने को नहीं आया आज तक।

सिम्हाचलम मन्दिर



सिम्हाचलम पहाडी से दिखता नजारा





सिम्हाचलम से समुद्र तट की ओर

ऋषिकोण्डा तट

सुनील पाण्डेय जी

हवा तेज थी, इस वजह से लहरें भी तेज थीं।


मछुआरे









सीपियों के बने खिलौने
अगले भाग में जारी...

विशाखापट्टनम- चिडियाघर और कैलाशगिरी

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मुझे विशाखापटनम में जो सबसे अच्छी जगह लगी, वो थी चिडियाघर। मेरी इच्छा नहीं थी जाने की, लेकिन सुनील जी के आग्रह पर चला गया। पन्द्रह-बीस मिनट का लक्ष्य लेकर चले थे, लग गये दो घण्टे। बाहर आने का मन ही नहीं किया। बाकी कहानी फोटो अपने आप बता देंगे।
पांच बजे यहां से निकले तो कैलाशगिरी पहुंचे। जैसा कि नाम से ही विदित हो रहा है, यह एक पहाडी है। विशाखापटनम शहरी विकास प्राधिकरण ने इसे एक शानदार पिकनिक स्थल के तौर पर विकसित किया है। ऊपर जाने के लिये रोपवे भी है। यहां से विशाखापटनम का विहंगम नजारा दिखता है। रामकृष्ण बीच दिखता है और उसके परे बन्दरगाह। इसकी भी कहानी फोटो बतायेंगे। यहां एक टॉय ट्रेन भी चलती है जो कैलाशगिरी का चक्कर लगाती है। हालांकि हमने इसमें यात्रा नहीं की।
सुबह ट्रेन से उतरे और ऑटो लेकर घूमने चल दिये। घूमते ही रहे, फोटो खींचते रहे और अब जब शाम हो चुकी, अन्धेरा होने लगा तो थकान भी हो गई। हमने कहीं बैठकर खाना तक नहीं खाया था। विशाखापटनम का सबसे दर्शनीय स्थल है आरके बीच यानी रामकृष्ण बीच। मैंने इसे देखने से मना कर दिया। सुनील जी ने कहा भी कि पन्द्रह मिनट में निपटा लेंगे, लेकिन मुझे यह भी मंजूर नहीं था। हालांकि ऑटो इसी बीच के पास वाली सडक से होकर रेलवे स्टेशन पहुंचा था।
विशाखापटनम को पहले वाल्टेयर भी कहते थे। विजाग या वाईजाग या वाईजैग भी इसी का नाम है। मैं इसे केवल बन्दरगाह शहर के तौर पर ही जानता था। यहां घूमकर पता चला कि यह तो वाकई बेहद सुन्दर और सुव्यवस्थित शहर है। दोबारा आने के लिये कोई बहाना तो चाहिये। वो बहाना रामकृष्ण बीच ही सही।






यह है सफेद बाघ का बाडा। चित्र में बायें दर्शक दिख रहे हैं तो दाहिने सफेद बाघ। बीच में गहरी खाई है जिसे बाघ पार नहीं कर सकता। इसी तरह दिल्ली चिडियाघर में भी है।



यह है तेंदुआ। इसे चारों तरफ से लोहे के पिंजरे में रखना पडता है, यहां तक कि पिंजरे की छत भी जालीदार होती है। यह बडा दुस्साहसी जीव होता है।

चीता भारत में केवल चिडियाघरों में ही मिलता है।


गिब्बन




लेमूर


गैण्डा और उसकी सवारी करता कौवा



चिडियाघर के अन्दर सडक


पास ही एक पार्क




कैलाशगिरी से दिखता नजारा

कैलाशगिरी पर छोटी टॉय ट्रेन








अगले भाग में जारी...

किरन्दुल लाइन-1 (विशाखापट्टनम से अरकू)

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इतना तो आप जानते ही हैं कि हावडा-चेन्नई के बीच में विशाखापट्टनम स्थित है। विशाखापट्टनम से जब ट्रेन से हावडा की तरफ चलते हैं तो शीघ्र ही एक स्टेशन आता है- कोत्तवलसा जंक्शन। यहां लोकल ट्रेनें रुकती हैं। ज्यादातर एक्सप्रेस व सुपरफास्ट ट्रेनें यहां नहीं रुकतीं। कोत्तवलसा एक जंक्शन इसलिये है कि यहां से एक लाइन किरन्दुल जाती है। हम आज इसी किरन्दुल वाली लाइन पर यात्रा करेंगे। कोत्तवलसा और किरन्दुल को जोडने के कारण इसे के-के लाइन भी कहते हैं।
1959 में जब भिलाई स्टील प्लांट शुरू हुआ तो उसके लिये दल्ली राजहरा से लौह अयस्क आ जाता था। भिलाई से दल्ली राजहरा तक रेलवे लाइन बनाई गई थी उस समय। शीघ्र ही इस प्लांट की क्षमता में वृद्धि करने की कोशिश हुई तो और ज्यादा लौह अयस्क की आवश्यकता थी। इस आवश्यकता को बस्तर में स्थित बैलाडीला की खानें पूरा कर सकती थीं लेकिन उस समय वहां पहुंचना ही लगभग असम्भव था। भीषण जंगल और पर्वतीय इलाके के कारण। तब पहली बार यहां रेलवे लाइन बिछाने की योजना बनी। इसे सीधे भिलाई से न जोडने का कारण शायद यह रहा होगा कि विशाखापट्टनम से जोडने पर यहां का अयस्क देश व दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी पहुंच सके। विशाखापट्टनम में बहुत बडा बन्दरगाह भी है।
कोत्तवलसा-किरन्दुल लाइन पर एक स्टेशन है कोरापुट। के-के लाइन के साथ ही कोरापुट से रायागडा तक भी लाइन बिछा दी गई। इसे के-आर लाइन कहते हैं। वर्तमान में बैलाडीला से जो लौह अयस्क की ट्रेनें भिलाई जाती हैं, सभी के-आर लाइन के रास्ते ही जाती हैं। हालांकि आजकल दल्ली राजहरा से किरन्दुल को रेल से जोडने की योजना बन रही है लेकिन यह प्रस्तावित लाइन अबूझमाड से गुजरेगी। अबूझमाड के बारे में अगर आप नहीं जानते तो जान लो। यह छत्तीसगढ का वो इलाका है जहां नक्सली पूर्ण सुरक्षित हैं। अबूझमाड भले ही भारत में स्थित हो लेकिन यहां भारत का कोई कानून नहीं चलता, न ही कानून के रखवाले यहां कभी दिखते। कोई सेना, अर्द्धसेना, पुलिस कभी अबूझमाड में प्रवेश नहीं कर पाई। नक्सलियों के साथ जितनी भी मुठभेडें व खूनखराबा होता है, सभी अबूझमाड के बाहर ही बाहर होता है। जब भारत सरकार ने यहां रेल लाइन बिछाने का टेंडर निकाला तो किसी भी स्थानीय कम्पनी ने इसे नहीं लिया। सभी जानते हैं कि नक्सलियों के घर में प्रवेश करने का क्या नतीजा होगा?
यही कहानी के-के लाइन की भी है। आये दिन यहां रेल की पटरियां उखाडी जाती हैं, गाडियां उडाई जाती हैं। इस पूरे मार्ग पर केवल यही एक यात्री गाडी चलती है, बाकी सभी लौह अयस्क की मालगाडियां होती हैं। नक्सली कभी नहीं चाहते कि उनकी सम्पदा को कोई बाहर ले जाये। इसी वजह से वे भरपूर कोशिश करते हैं कि यहां से एक भी ट्रेन न निकल पाये। उनकी इसी गतिविधि के कारण यह किरन्दुल पैसेंजर भी ज्यादातर जगदलपुर से ही वापस मुड लेती है, किरन्दुल नहीं जाती। विशाखापट्टनम से जब यह गाडी चलती है तो कोई भी नहीं कह सकता कि यह किरन्दुल पहुंचेगी या नहीं। सभी का जवाब होता है कि जगदलपुर जाकर ही पता चलेगा। बिल्कुल ताजी खबर यह थी कि सप्ताह भर पहले ही नक्सलियों ने पटरी उखाडकर एक मालगाडी उडा दी थी। यात्रा पर आने से पहले दिल्ली में अखबार में मैंने भी इसे पढा था।
इतना होने के बावजूद भी यहां ट्रेनें चलती हैं। जबरदस्त ट्रैफिक रहता है। हर साल करोडों का शुद्ध लाभ इस अकेली लाइन से रेलवे को मिलता है। यह सिंगल लाइन है और विद्युतीकृत है। हर स्टेशन पर कई कई मालगाडियां खडी अपने सिग्नल का इंतजार करती रहती हैं।
ट्रेन के विशाखापट्टनम से चलने का समय सुबह छह बजकर पचास मिनट है लेकिन यह साढे सात बजे रवाना हुई। इसमें विशाखापट्टनम शेड का WAG-5D इंजन लगा था। इस इंजन से मालगाडियां खींची जाती हैं लेकिन यहां इस पैसेंजर गाडी में इसे लगाना बिल्कुल उपयुक्त ही था क्योंकि आगे पर्वतीय मार्ग आने वाला है और इस ट्रेन को अभी लगभग समुद्र तल से यानी शून्य मीटर से चलकर आगे 1000 मीटर तक की ऊंचाई पर पहुंचना है। मालगाडियों में यहां दो-दो तीन-तीन इंजन लगते हैं।
इसी दौरान सिकन्दराबाद-विशाखापट्टनम स्पेशल आई। ताज्जुब की बात थी कि इसमें लुधियाना का इंजन लगा था।
विशाखापट्टनम से निकलते ही एक हाल्ट है- मर्रीपालेम हाल्ट, फिर सिम्हाचलम, उत्तर सिम्हाचलम, पेन्दुर्ति और फिर कोत्तवलसा जंक्शन। यहां तक हम चेन्नई-हावडा लाइन पर ही थे, अब के-के लाइन पर चलेंगे।
यह पूरी लाइन वर्तमान में पूर्वतट रेलवे की वाल्टेयर डिवीजन में आती है। विशाखापट्टनम को ब्रिटिश काल में वाल्टेयर कहते थे। हालांकि अब वाल्टेयर नाम विलुप्त हो चुका है लेकिन रेलवे की डिविजन में अभी भी यह वाल्टेयर ही है। इसी डिब्बे में कुछ नये भर्ती हुए लोको पायलट भी बैठे थे। इनका यहां विशाखापट्टनम में प्रशिक्षण चल रहा था और शीघ्र ही इन्हें मालगाडियां चलाने बचेली भेजा जायेगा। बचेली किरन्दुल के पास है। बेचारों की पहली ही नौकरी और वो भी इतनी खतरनाक जगह पर! आज इनकी छुट्टी थी और ये अरकू जा रहे थे।
इस ट्रेन में साधारण डिब्बों के अलावा गैर-वातानुकूलित कुर्सीयान व गैर-वातानुकूलित प्रथम श्रेणी के भी डिब्बे होते हैं। हमारा आरक्षण कुर्सीयान में था। ज्यादातर आरक्षणधारी अरकू तक ही जाने वाले थे। उसके बाद पूरी ट्रेन खाली हो जायेगी।
कोत्तवलसा से आगे मल्लिवीडू, लक्कवरपुकोटा और श्रंगवरपुकोटा स्टेशन हैं। विशाखापट्टनम जहां लगभग 6 मीटर की ऊंचाई पर है, वहीं कोत्तवलसा 52 मीटर पर और श्रंगवरपुकोटा 96 मीटर पर है। यहां तक ऊंचाई ज्यादा नहीं बढती। ऊंचाई इसके बाद शुरू होती है। पहाडी मार्ग आरम्भ हो जाता है। ट्रेन की सभी सवारियां खिडकियों व दरवाजों पर पहुंच जाती है। बोडवरा 146 मीटर, शिवलिंगपुरम, त्याडा 411 मीटर, चिमिडिपल्ली 585 मीटर और बोर्रा गुहलू 778 मीटर पर हैं। बोर्रा गुहलू का अर्थ है बोरा गुफाएं। स्टेशन के कुछ नीचे ही यहां की विशाल प्रसिद्ध गुफाएं हैं। इनकी सैर भी आपको कराऊंगा।
बोर्रा गुहलू में पूरी ट्रेन खाली हो गई। लगभग चार घण्टे बाद किरन्दुल से आने वाली ट्रेन आयेगी तो ये सभी यात्री गुफाएं देखकर आ जायेंगे और विशाखापट्टनम लौट जायेंगे। हमारे सहयात्री लोको पायलट भी।
हमें भी ये गुफाएं देखनी थीं लेकिन हम नहीं उतरे। इसके दो कारण थे। अगर हम यहां उतर जाते तो हमें आगे जाने के लिये ट्रेन चौबीस घण्टे बाद मिलती। इससे कुछ ही आगे अरकू है, हमें अरकू घाटी भी देखनी थी। सुनील जी ने सुझाया था कि बोर्रा गुहलू उतरकर सडक मार्ग से अरकू चले जायेंगे और अगले दिन अरकू से ट्रेन पकडेंगे। लेकिन मैंने इसे नामंजूर कर दिया। पहला कारण, उस अवस्था में बोर्रा गुहलू से अरकू तक का रेलमार्ग मुझसे छूट जाता। दूसरा कारण, बोर्रा गुहलू और अरकू के बीच में पडने वाला शिमिलिगुडा स्टेशन भी छूट जाता। इसलिये तय हुआ कि अरकू उतरते हैं, तब जैसा बन पडेगा करेंगे।
बोर्रा गुहलू से अगला स्टेशन है करकवलसा जो 889 मीटर पर है। इतनी ऊंचाई पर हवा से उमस कभी की गायब हो चुकी थी और ठण्ड भी लगने लगी थी। करकवलसा से आगे शिमिलिगुडा है जिसकी ऊंचाई 996 मीटर है।
किसी जमाने में शिमिलिगुडा देश का सबसे ऊंचा ब्रॉड गेज का स्टेशन हुआ करता था। यहां एक सूचना-पट्ट भी लगा है कि शिमिलिगुडा के पास यह खिताब 2004 तक था। अब यह खिताब कश्मीर रेलवे के हिल्लर शाह आबाद के नाम है जो 1754 मीटर की ऊंचाई पर है। हिल्लर शाह आबाद से पहले यह खिताब कश्मीर रेलवे पर ही काजीगुण्ड के नाम रहा जो 1722 मीटर पर है। लेकिन एक दुविधा है। वो ये कि कश्मीर में पहली ट्रेन 11 अक्टूबर 2008 को मजहोम और अनन्तनाग के बीच चली। उधर शिमिलिगुडा कहता है कि उसके पास सबसे ऊंचे ब्रॉड गेज स्टेशन का खिताब केवल 2004 तक ही था। फिर 2004 से 2008 तक कौन सा स्टेशन सबसे ऊंचा था? इस बारे में मुझे वडोदरा डिवीजन में मैकेनिकल ऑफिसर (इंजीनियर) विमलेश चन्द्र जी ने आगाह किया। उन्होंने स्वयं अपने स्तर पर खोजबीन की, मैंने अपने स्तर पर लेकिन इस बात का पता नहीं चल सका। मुझे शक था कि इस दौरान किसी राज्य में खासकर कर्नाटक में कहीं आमान परिवर्तन हुआ हो और कोई लाइन मीटर गेज या नैरो गेज से ब्रॉड गेज में बदली गई हो। लेकिन ऐसा भी नहीं था। आखिरकार सबकुछ कश्मीर रेलवे पर ही छोड दिया। भले ही वहां 2004 तक ट्रेन चालू न हुई हो लेकिन लाइनें तो बिछनी शुरू हो ही चुकी थीं।
शिमिलिगुडा से आगे अरकू स्टेशन है। हम यहीं उतर गये। ट्रेन एक घण्टे की देरी से चल रही थी। अभी दोपहर के बारह बजे थे। कम से कम छह सात घण्टे हमारे घूमने के लिये थे। कल इसी ट्रेन से हम जगदलपुर जायेंगे।





किरन्दुल से आता लौह अयस्क



















अरकू स्टेशन पर किरन्दुल से आती मालगाडी

पैसेंजर ट्रेन किरन्दुल के लिये प्रस्थान कर गई। हम कल जायेंगे।


अगले भाग में जारी...

डायरी के पन्ने-25

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ध्यान दें:डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। इनसे आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाएं आहत हो सकती हैं। कृपया अपने विवेक से पढें।

1.दो धर्म... एक ही समय उत्पन्न हुए... एक ही स्थान से। एक पश्चिम में फैलता चला गया, एक पूर्व में। दोनों की विचारधाराएं समान। एक ईश्वर को मानने वाले, मूर्ति-पूजा न करने वाले। कट्टर। दोनों ने तत्कालीन स्थापित धर्मों को नुकसान पहुंचाया, कुचला, मारामारी की और अपना वजूद बढाते चले गये।
आज... दो हजार साल बाद... दोनों में फर्क साफ दिखता है। एक बहुत आगे निकल गया है और दूसरा आज भी वही दो हजार साल पुरानी जिन्दगी जी रहा है। दोनों धर्मों के पचास से भी ज्यादा देश हैं। एक ने देशों की सीमाएं तोड दी हैं और वसुधैव कुटुम्बकम को पुनर्जीवित करने की सफल कोशिश कर रहा है, दूसरा रोज नई-नई सीमाएं बनाता जा रहा है। एक ही देश के अन्दर कई देश बन चुके हैं और सभी एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं।

2.कभी कभी एक बात सोचता हूं। एक गरीब बच्चा है। उसका बाप भी गरीब ही था। बच्चा मेहनत करता है, अच्छा पढता है और अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेता है। घर में पैसे आने शुरू हो जाते हैं। गरीबी समाप्त हो जाती है। बच्चा फिर भी नहीं रुकता। वो अपना कोई बिजनेस शुरू कर लेता है और बढिया अमीर बन जाता है। इसमें क्या बुराई है? सभी इसी कोशिश में पूरी जिन्दगी लगे रहते हैं, कुछ सफल हो जाते हैं, कुछ नहीं हो पाते। जो नहीं हो पाते, वे सफल लोगों की आलोचना शुरू कर देते हैं। दूसरे गरीबों का उदाहरण देकर उनके पैसे और अमीरी को कोसते रहते हैं। यही बात मुझे अच्छी नहीं लगती।
अपनी आमदनी के हिसाब से मैं बीस-तीस हजार खर्च कर दूं, कोई बीस-तीस लाख खर्च करता है तो बीस-तीस करोड खर्च करने वाले भी हैं। आमदनी है तो खर्च भी करेंगे। और आमदनी कोई रातोंरात ही नहीं हो जाती। मेहनत करनी पडती है, दिमाग लगाना पडता है, श्रम करना पडता है, समय लगाना पडता है, बलिदान करना पडता है, बहुत कुछ खोना पडता है; तब जाकर हजार की, लाख की, करोड की आमदनी होती है। तो जो अकर्मण्य हैं, जिन्होंने मेहनत नहीं की, बलिदान नहीं किया; वे इनकी आमदनी को देख-देखकर, इनके खर्चे को देखकर विलाप करने लगते हैं।
कोई धोनी झारखण्ड जैसे उजाड प्रदेश में पैदा होता है, मेहनत करता है और एक दिन कामयाबी के शिखर पर पहुंच जाता है। लेकिन जैसे ही वो शिखर पर पहुंच जाता है, उसकी आलोचना होने लगती है। कोई दूसरा अच्छा पढ-लिखकर एक फैक्टरी खोल लेता है, कारोबार बढने लगता है। वो करोडपति हो जाता है, पैसा बढता ही जाता है। फिर उसकी आलोचना शुरू होने लगती है- गरीबों के खून पसीने का पैसा। हालांकि सभी लोग उसके जैसा बनने की ही ख्वाहिश रखते हैं। लेकिन उसके जैसे नहीं बन सके तो उसकी आलोचना शुरू कर देते हैं। कम से कम मन को कुछ सुकून तो पहुंचता है।

3.एक पुस्तक पढ रहा था। इसमें एक उदाहरण दिया गया था कि कोपरनिकस ने पहली बार पता लगाया कि पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है। उससे पहले यही मान्यता थी कि सूरज पृथ्वी का चक्कर लगाता है। लेकिन सोचने वाली बात ये है कि कोपरनिकस ने कैसे माना कि पृथ्वी चक्कर लगाती है और सूरज स्थिर है? उसके बाद विज्ञान और विकसित होता चला गया। सभी कोपरनिकस का ही समर्थन करते चले गये। लेकिन ये कैसे पता चलता है कि चक्कर सूरज नहीं लगा रहा है, पृथ्वी लगा रही है।
ब्रह्माण्ड अनन्त है। अनन्त इसकी लम्बाई है, अनन्त चौडाई है और अनन्त ही ऊंचाई-गहराई है। इसमें करोडों-अरबों-खरबों जो भी पिण्ड हैं, ग्रह हैं, उपग्रह है, आकाशगंगाएं हैं; सभी गतिमान हैं। विज्ञान तो यह भी मानता है कि जिस तरह पृथ्वी सूरज का चक्कर लगाती है, उसी तरह सूरज भी किसी की परिक्रमा कर रहा है। लेकिन ये सब कैसे पता चला? पृथ्वी इतनी गति से गतिमान है, सूरज इतनी गति से गतिमान है। यह सब पता कैसे चला? इसे कैसे मापा जा सकता है?
किसी भी वस्तु की गति असल में सापेक्ष होती है। समझना इस बात को। कोई भी गतिमान वस्तु है, उसे हमेशा दूसरी वस्तु के सापेक्ष देखा जाता है। कोई गाडी पचास की स्पीड से चल रही है, हम खडे हैं, तो हमें वह पचास की स्पीड से जाती दिखेगी। अगर हम तीस की स्पीड से उसी की दिशा में चल रहे हैं, तो वह पचास की रफ्तार से दौडती गाडी हमें बीस की स्पीड से चलती दिखेगी। स्पीड उतनी ही है लेकिन हमारी स्थिति बदलने मात्र से उसकी स्पीड कम-फालतू लगने लगती है।
अब ब्रह्माण्ड में चलते हैं। यहां हर चीज गतिमान है, कोई कम स्पीड से चल रही है, कोई ज्यादा स्पीड से। हमने कहा पृथ्वी इतनी स्पीड से चल रही है तो अवश्य कोई सापेक्ष बिन्दु माना होगा। वह बिन्दु काल्पनिक भी हो सकता है और वास्तविक भी। जब पहली बार कभी गणना कर रहे होंगे तो उस बिन्दु को स्थिर मानना पडेगा अन्यथा गणना सटीक नहीं आयेगी। पहली बार स्थिर मानना पडेगा। जब एक बार किसी पिण्ड की जैसे कि पृथ्वी की गति पता चल गई तो उसके सापेक्ष दूसरे पिण्डों की गति भी पता की जा सकती है। लेकिन पहली बार आपको कोई स्थिर बिन्दु मानना ही पडेगा।
लेकिन इस ब्रह्माण्ड में हर पिण्ड गतिमान है। कोई भी स्थिर नहीं है, तो आप किसे स्थिर मानोगे? कोई काल्पनिक बिन्दु हो सकता है लेकिन त्रिआयामी अनन्त तक फैले ब्रह्माण्ड में आप कैसे निर्धारित करोगे कि वह काल्पनिक बिन्दु भी स्थिर है?
पहली बार जब पृथ्वी की गति मापी गई होगी तो सूरज को स्थिर मानते हुए मापी गई होगी। इसके आधार पर ब्रह्माण्ड में किसी भी पिण्ड की गति मापी जा सकती है। लेकिन बाद में पता चला कि सूरज भी गतिमान है। जब सूरज को स्थिर मानते हुए पृथ्वी की गति की गणना कर रहे थे, तो किसी को भी नहीं पता था कि सूरज भी गतिमान है और वो गणना अशुद्ध है। बाद में उस अशुद्ध गणना से ही सभी आकाशीय पिण्डों की गति निर्धारित कर दी गई। यह भी अशुद्ध ही होगी, गलत ही होगी।
हो सकता है कि कोई पिण्ड वास्तव में स्थिर हो। हो सकता है कि पृथ्वी ही स्थिर हो और सूरज, मंगल, तारे सब इसकी परिक्रमा कर रहे हों। हो सकता है कि मंगल या बृस्पति स्थिर हों और पृथ्वी, सूरज सब उसकी परिक्रमा कर रहे हों। कैसे आप निर्धारित करोगे कि कोई पिण्ड गतिमान नहीं है?

4.धीरज ने बताया कि वो आज उत्तम नगर गया था किसी कोचिंग संस्थान में कोचिंग के बारे में पता करने। वहां प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कराते हैं। गौरतलब है कि धीरज ने मैकेनिकल इंजीनियरिंग में तीन वर्षीय डिप्लोमा कर रखा है। उसके बाद दो साल तक मेरठ में ही कोचिंग ली। अब दिल्ली मेरे साथ रह रहा है तो अब उसे दिल्ली की भी कोचिंग चाहिये। फीस थी पन्द्रह हजार रुपये और तीन महीने।
मैंने चूंकि कभी कोई कोचिंग नहीं ली इसलिये मुझे कोचिंग से चिढ सी है। उसने पहले ही दो साल तक कोचिंग ले रखी है, कुछ नहीं हुआ। अब क्या घण्टा होगा? उसकी स्कूल दिनों से ही समस्या रही है कि वो आसान विषयों को पूरे पूरे दिन महीनों तक पढ सकता है लेकिन कठिन विषयों की तरफ देखता तक नहीं। उसकी यही आदत अब मुसीबत बन चुकी है। उसके लिये दो विषय कठिन हैं- अंग्रेजी और सामान्य ज्ञान। किसी भी प्रतियोगी परीक्षा में ये दोनों विषय अहम होते हैं। तकनीकी विषय जैसे कि मैकेनिकल या इलेक्ट्रिकल हम पहले ही कॉलेज में तीन साल तक पढ चुके होते हैं, इसलिये इनकी कोचिंग की जरुरत नहीं होती। उसे मैकेनिकल रास आ गई थी, इसलिये यह उसके लिये आसान विषय था। आसान था इसलिये मेरठ में उसने दो साल तक मैकेनिकल की ही कोचिंग ली। अंग्रेजी व सामान्य ज्ञान और भी कठिन होते चले गये। हर प्रतियोगिता में वह यहीं पर मार खा जाता था।
अब जब उसकी आंख खुली, वह कठिन विषयों की जरुरत महसूस करने लगा तो कोचिंग की तरफ भागा। चूंकि पन्द्रह हजार की बात थी, इसलिये मुझसे बताना जरूरी था। मैंने कहा- तू तीन घण्टे रोज वहां दिया करेगा और एक-डेढ घण्टा रोज का आने-जाने का। कुल हुए चार घण्टे। मैं अंग्रेजी में अच्छा हूं और सामान्य ज्ञान में तो निःसन्देह शानदार ही हूं। तू अगर मुझे दो घण्टे भी दिया करेगा तो तू सबकुछ सीख जायेगा। फिर भी अगर तेरा मन चाहता हो कि कोचिंग में ही ज्यादा सीखने को मिलेगा, तो चला जा। निर्णय तेरा।
जाहिर है वह मुझे घर की मुर्गी साबित नहीं करना चाहेगा, उसने मुझसे पढने की स्वीकृति दे दी। शुरूआत मैंने अंग्रेजी से की। वह अंग्रेजी में इतना कमजोर है कि मैं उसे सौ में से पांच नम्बर ही दूंगा। हिज्जे मिला-मिलाकर वह अंग्रेजी के प्रचलित शब्दों को पढ सकता है। और चूंकि बारहवीं के बाद तीन वर्षीय डिप्लोमा लिया है तो अंग्रेजी के वाक्य-विन्यास की भी थोडी-बहुत जानकारी है। अब जरूरी था उसका शब्दकोश बढाना। शब्दकोश बढता है अंग्रेजी साहित्य पढने से। लेकिन एक समस्या और भी थी। उसे शब्दों का अर्थ तो पता चल ही जायेगा, लेकिन यह नहीं पता चलेगा कि इन शब्दों को मिलाकर क्या वाक्य बनेगा। लम्बे वाक्यों को छोडिये, वह छोटे वाक्यों का अर्थ भी नहीं जान सकता। एक उदाहरण- I am going. इसमें उसे तीनों शब्दों के अर्थ पता हैं। तो पूरा वाक्य वह कुछ भी बना सकता है- मैं जा रहा हूं या मैं जाऊंगा या मैं गया।
इसके लिये व्याकरण सीखनी पडेगी। उधर मैं भी अंग्रेजी में उतना परफेक्ट नहीं हूं कि प्रत्येक बात उसे समझा सकूं। इसलिये पहले ही बता दिया कि जो तूने अभी तक अंग्रेजी सीखी है, वो थी स्कूली अंग्रेजी। उसमें एक-एक चीज का बारीकी से ध्यान रखना पडता है। अब जो अंग्रेजी तुझे सीखनी है, वो बिल्कुल अलग होगी। उसमें ज्यादा बाध्यताएं नहीं आयेंगी। ज्यादा नियमों को नहीं सीखना। बस कुछ मोटे-मोटे नियम हैं, वे सीख लेने से काम चल जायेगा। जैसे कि will और shall का प्रयोग। स्कूली अंग्रेजी में नियम है कि I और we के साथ shall लगेगा जबकि अन्य सभी के साथ will. लेकिन अब तू अगर सभी के साथ will ही लगायेगा, तो कोई नहीं पूछेगा और न ही टोकेगा। आई विल ये, आई विल वो। और इतनी मोटी किताब है उसकी ग्रामर की, उसमें हजारों-लाखों वाक्य लिखे हैं उदाहरण के तौर पर। मैंने उसे इन वाक्यों का अर्थ बताने को कह दिया। वाक्य पढता जा, अर्थ बताता जा। इससे शब्दकोश भी मजबूत होगा।
यह सब दो दिन तो चला, उसके बाद बन्द हो गया। मेरी आदत नहीं है कि उसे हमेशा टोकूं। उसे जरुरत होगी, पूछ लेगा; नहीं पूछेगा, नुकसान उठायेगा। अब वह स्वाध्याय कर रहा है। दूसरे कमरे में बैठकर अंग्रेजी के वाक्य पढता जाता है और स्वयं ही उनके अर्थ बोलता जाता है- I will go माने मैं गया था।

5.दीवाली पर अच्छा-खासा बोनस आया। मोटरसाइकिल ले ली- बजाज की डिस्कवर, 150 सीसी की। असल में कई दिन पहले होमवर्क शुरू कर दिया था। मित्रों से पूछता कि केवल एक मोटरसाइकिल बताओ जो मुझे लेनी चाहिये तो प्रत्येक मित्र एक की बजाय पांच बताता। आखिरकार तय किया कि 150 सीसी तक की मोटरसाइकिल पर्याप्त होगी। इससे ज्यादा लेने का बजट भी नहीं था। कई मित्रों ने बुलेट भी लेने की सलाह दी लेकिन यह मुझे नहीं लेनी थी। कई दिन बडा दिमाग खराब रहा। पल्सर पसन्द आई लेकिन यह बजट से बाहर थी। आखिरकार उस दिन शाम चार बजे सहकर्मी विपिन से चर्चा चल रही थी तो उन्होंने नई लांच हुई डिस्कवर का सुझाव दिया। इससे पहले कि वे कोई दूसरा नाम लेते, हम दोनों ही दिलशाद गार्डन बजाज के शोरूम पर पहुंचे और बन्द होते-होते शोरूम को कुछ मिनट बन्द होने से रुकवाकर क्रेडिट कार्ड से भुगतान करके मोटरसाइकिल उठा लाये। उस समय मेरे पास आवश्यक डॉक्यूमेंट भी नहीं थे, अगले दिन जाकर दिये।
पहली बार मोटरसाइकिल चलाई। वही साइकिल वाली आदत बनी रही। साइकिल में दोनों हैण्डल पर ब्रेक होते हैं तो जब भी ब्रेक लगाने होते, मैं दोनों हैण्डल के ‘ब्रेक’ दबा देता। मोटरसाइकिल रुक जाती और बन्द भी नहीं होती। इसी तरह एक बार जब स्पीड काफी कम थी... वही साइकिल वाली आदत... पीछे वाला यानी बायें हाथ वाला ‘ब्रेक’ दबा दिया। भला मोटरसाइकिल क्यों रुकती और सामने दीवार में जा भिडी। बडी देर तक सोचता रहा कि यह रुकी क्यों नहीं? बाद में ध्यान आया कि यह तो क्लच था। इसी तरह एक बार आगे वाला ‘ब्रेक’ दबा दिया तो इंजन बन्द हो गया। साइकिल की आदत जाती जाती जायेगी।
पिताजी नाराज हो गये। वे चाहते थे कि मैं 100 सीसी की पैशन लूं। उनके भतीजे के पास पैशन ही है, तो उनकी नजर में यही बाइक दुनिया की सर्वश्रेष्ठ बाइक है। मैंने सर्वश्रेष्ठ नहीं ली, इसलिये नाराज हुए। बाद में जब उन्होंने टेस्ट ड्राइव ली तो खुश हो गये। इसी तरह एक और बेहद नजदीकी मित्र को जब बताया कि बाइक ली है, उसने पूछा कौन सी? मैंने मजाक में कहा- थण्डरबर्ड। उसने तुरन्त मुझे लताड दिया- ये क्यों ले ली? तुझे डेढ सौ सीसी की पल्सर लेने को कहा था। मैंने पूछा- पल्सर में ऐसी क्या बात है? बोला- पल्सर में ताकत ज्यादा है।
कई साल पहले जब पहली बार पहाडों पर पैदल चला था तो वो नीलकण्ठ यात्रा थी। पहली ट्रेकिंग नीलकण्ठ की की। उसके बाद जब साइकिल ली तो संयोगवश पहली साइकिल यात्राभी नीलकण्ठ की ही थी। अब जब मोटरसाइकिल ले ली तो इसे क्यों नीलकण्ठ से वंचित रखा जाये? पहली मोटरसाइकिल यात्रा भी नीलकण्ठ की ही होगी। वैसे भी नीलकण्ठ हमारी कुरुभूमि का आराध्य देव रहा है।
लेकिन मैं चाहता हूं कि इस यात्रा में मेरे साथ कोई और भी रहे। हालांकि पिताजी बिल्कुल तैयार बैठे हैं लेकिन मैं स्वयं ही मोटरसाइकिल चलाना चाहता हूं और अभी इतना आत्मविश्वास नहीं आया है कि पीछे किसी को बैठाकर चला सकूं। इसलिये पिताजी को नहीं ले जा सकता। फेसबुक पर सूचना प्रसारित की। लगा कि थोडी ही देर में कई मित्र तैयार हो जायेंगे, लेकिन कोई तैयार नहीं हुआ।
सचिन जांगडातैयार है। हम एक बार पहले साथ घूम चुके हैं लेकिन उसकी सबसे बडी कमी है कि वह हमेशा आफत मचाता है। वो आपको पूरे दिन डण्डा किये रखेगा कि यहां से जल्दी चलो। अगले पडाव पर आराम कर लेना, बैठ लेना लेकिन अगले पडाव पर पहुंचने से पहले फिर से डण्डा। मुझे किसी भी तरह की आफत पसन्द नहीं। प्रस्थान 17 नवम्बर की सुबह होगा और दिल्ली वापसी 21 नवम्बर की दोपहर तक होगी। इस दौरान नीलकण्ठ के अलावा चकराता या खिर्सू भी जाने की योजना है। शायद इसे एक सप्ताह बढा भी दूं- प्रस्थान 24 नवम्बर को और वापसी 28 को।

6.पिछली बारएक स्टेशन का फोटो दिखाया था। वो स्टेशन था एनकेजे हाल्ट। निश्चित ही यह न्यू कटनी जंक्शन है। लगभग सभी मित्रों ने बिल्कुल ठीक उत्तर दिया। लेकिन जिस वजह से मैंने फोटो दिखाया था, वो वजह कहीं खो गई। वो वजह थी इस नाम पर चर्चा करना। स्टेशन तो है न्यू कटनी जंक्शन और यहां लिखा है एनकेजे हाल्ट। रेलवे की मामूली सी जानकारी रखने वाला भी समझता है कि हाल्ट का अर्थ बिल्कुल गया-गुजरा स्टेशन होता है। बल्कि हाल्ट वास्तव में स्टेशन ही नहीं होते। यह स्टेशनों की सबसे आखिर वाली कैटेगरी होती है जहां कुछ चुनिन्दा लोकल ट्रेनें ही रुकती हैं। ज्यादातर क्या लगभग सभी हाल्टों पर रेलवे का कोई कर्मचारी तैनात नहीं होता। टिकट देने का काम भी ठेके पर दे दिया जाता है। यहां ड्राइवर ट्रेन को बस अपनी याददाश्त के आधार पर ही रोकता है। कोई सिग्नल नहीं होता। जब उसे लगता है सवारियां चढ गईं, तो वह ट्रेन को आगे बढा देता है। कुछ हाल्टों पर टिकट वितरण का काम ट्रेन का गार्ड करता है। इसके विपरीत जंक्शन सम्मानित और उच्च वरीयता प्राप्त स्टेशन होते हैं। जंक्शन का अर्थ ही है जहां से कई दिशाओं में लाइनें जाती हैं। फिर न्यू कटनी जंक्शन को एनकेजे हाल्ट क्यों लिखा गया है? बताते हैं कि न्यू कटनी पर भारत का सबसे बडा लोको शेड भी है। यही बात मुख्य चर्चा की थी। मैंने टिप्पणी में इशारा भी किया था लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया। सभी चाहते थे कि जल्द से जल्द ठीक उत्तर बता दें ताकि उनका नाम अगली बार मोटे काले अक्षरों में लिखा जाये। किसी का नाम नहीं लिखूंगा और भविष्य में यह रेल पहेली भी बन्द।

7.अब थोडी चर्चा फोटोग्राफी की भी कर ली जाये। पहली बात, मेरे पास पॉइंट एंड शूट कैमरा है, डीएसएलआर कैमरा नहीं है। पिछले छह सालों से घुमक्कडी कर रहा हूं, तो जाहिर है कि इतने ही समय से फोटो भी खींच रहा हूं। आप मेरे प्रारम्भिक दिनों के और आज के फोटो देखकर अन्तर साफ देख सकते हैं। लेकिन यह अन्तर अचानक ही नहीं आ गया। अनुभव से आया है। भविष्य में और ज्यादा अनुभव होता जायेगा, तो और बेहतरीन फोटो देखने को मिलेंगे। ये तो हुई अनुभव की बात। अनुभव अपनी जगह है लेकिन कैमरे की भी अहमियत है। जितना बेहतरीन कैमरा, उतने ही बेहतरीन फोटो।
फोटो मुख्यतः दो तरह के होते हैं- एक जानकारी वाले और दूसरे विशेष। सारी फोटोग्राफी इन्हीं दो भागों में बंट जाती है। विशेष फोटोग्राफी को अच्छा माना जाता है। हम कहीं घूमने जाते हैं, शटर दबाते ही रहते हैं। हजारों फोटो खींचकर लौट आते हैं। ये फोटो इसलिये खींचे जाते हैं कि मित्रों को उस स्थान की जानकारी दे सकें या भविष्य के लिये यादें संजो कर रख सकें। इनमें ज्यादा से ज्यादा जानकारी भरने की कोशिश की जाती है। दूसरे होते हैं विशेष फोटो। हालांकि यह नाम मेरा ही दिया हुआ है, आप भी अपनी तरफ से कुछ भी नाम दे सकते हैं। इनमें उस स्थान की जानकारी देने की कोशिश नहीं की जाती। बल्कि कुछ अलग सा दिखाने की कोशिश होती है। यह कोई फूल हो सकता है, मैक्रो मोड में कोई कीडा हो सकता है, सूर्योदय-सूर्यास्त के दृश्य हो सकते हैं या कुछ भी हो सकता है; लेकिन बस ऐसे ही शटर नहीं दबाये जाते। हो सकता है कि फोटोग्राफर ने हजारों फोटो खींच लिये हों लेकिन वह अपने किसी भी फोटो से सन्तुष्ट न हो। सबकी अपनी-अपनी समझ होती है।
मैं फोटोग्राफी की तकनीकी बातें नहीं जानता। लेकिन ये जरूर जानता हूं कि मुझे फ्रेम में क्या लेना है। इसमें आपकी अपनी समझ तो होती ही है, कैमरा भी मुख्य किरदार अदा करता है। जब मैंने सबसे पहले कैमरा लिया तो यही सोचा था कि बडे शानदार फोटो खीचूंगा लेकिन पहली ही यात्रा में सब हवा निकल गई। मैं फोटो खींच तो रहा था लेकिन किसी भी फोटो से सन्तुष्ट नहीं था। सोचता था कि दूसरे लोग इतने गजब के फोटो खींचते हैं, वे कौन सी चक्की का आटा खाते हैं? गजब के फोटो खींचने की कोशिश करता लेकिन एक तो अनुभव नहीं था, फिर कैमरा भी ऐसा ही था, कोई भी ढंग का फोटो नहीं आया। ब्लॉग पर फोटो लगाये तो सुझाव मिलने शुरू हुए।
कैमरा बदला, कुछ और ज्यादा ताकत हाथ में आई। फोटूओं में परिवर्तन आना शुरू हुआ। तब से अब तक लगातार परिवर्तन जारी है। इधर देखता हूं कि बहुत सारे मित्र अभी भी उसी तरह के फोटो खींचते हैं, जैसे मैं बहुत पहले खींचता था। उन्हें काफी समय से देखता आ रहा हूं लेकिन उनकी फोटोग्राफी में कोई फर्क नहीं दिख रहा। यह देखकर दुख होता है। कईयों के नाम अभी भी ले सकता हूं लेकिन वे बुरा मान जायेंगे। कई तो फोटो खींचते खींचते बुजुर्ग हो चुके हैं। कई घूमते कम हैं, क्लिक ज्यादा करते हैं। मैं चाहता हूं कि उनकी फोटोग्राफी सुधरे।
कई बार किसी शानदार दृश्य का फोटो इसलिये नहीं ले पाता कि बीच में बिजली के तार आ जाते हैं। अगर तारों को ही फोकस करना हो तो ठीक, नहीं तो फ्रेम में तार आने मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं। चलती ट्रेन से, बस से भी फोटो लेने मुझे पसन्द नहीं। मजबूरी होती है जब मैं ऐसे फोटो लेता हूं। कोई प्राकृतिक दृश्य भले ही शूट करने से चूक जाये लेकिन क्वालिटी से समझौता नहीं करता।
अपनी फोटोग्राफी बेहतरीन करने का सबसे अच्छा तरीका है कि अच्छे फोटोग्राफरों के फोटो का अध्ययन करें। वे आपको क्यों अच्छे लगे, ये जानने की कोशिश करें। आप भी ऐसे फोटो खींच सकते हैं, यह सोच लें और ऐसा करने की कोशिशें शुरू कर दें। फेसबुक पर बहुत सारे मित्र ऐसा कर रहे हैं- रंगों का दंगाहै, विधान चन्द्रहै, विपिन गौडहै; और भी बहुत सारे हैं। कुछ फोटो शेयरिंग साइटें भी हैं।
इस बार एक योजना बनाई है। वो ये कि मित्र मुझे अपने खींचे कुछ चुनिन्दा फोटो भेजेंगे, अगली डायरी में उन पर चर्चा करूंगा। केवल चर्चा, उनकी समीक्षा नहीं। वे मोबाइल से खींचे हों, कैमरे से खींचे हों; कोई फर्क नहीं पडता। हालांकि सबके देखने का नजरिया अलग-अलग होता है लेकिन मैं बस इतना ही बताऊंगा कि मैं उनमें क्या देखना चाहता था और क्या नहीं। आशा है दूसरे पाठक भी ऐसा करेंगे। लेकिन कुछ शर्तें हैं:
फोटो आपका स्वयं का खींचा हुआ हो। आप किसी दूसरे का फोटो नहीं लगायेंगे। कोशिश करें कि यह आपका फैमिली या पर्सनल फोटो न हो। वैसे तो फोटो भेजने की कोई सीमा नहीं है लेकिन आप न्यूनतम फोटो ही भेजें। मैं जानता हूं कि ऐसे भी कई मित्र हैं जो अपनी किसी यात्रा की पूरी एलबम भेज देंगे। उन्हें मैं देखूंगा तक नहीं। अच्छा होगा कि आप उस फोटो को खींचने की परिस्थिति का भी थोडा सा जिक्र करें। आपने क्या सोचकर वो फोटो लिया, क्या परिस्थिति थी, क्या समस्या थी आदि? लेकिन यह भी बहुत कम शब्दों में। फोटो का साइज कम करके भेजें- 250 केबी से कम। इससे आपको कम डाटा अपलोड करना पडेगा, मुझे कम डाटा डाउनलोड करना पडेगा और मैं साइज कम करने से बच जाऊंगा।
फोटो केवल neerajjaatji@gmail.comपर ही भेजें। फेसबुक पर या किसी अन्य जगह प्राप्त फोटो पर कोई गौर नहीं की जायेगी। चलिये, देखते हैं यह प्रयोग कितना आगे बढ पाता है।

बोर्रा गुहलू यानी बोरा गुफाएं

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17 जुलाई 2014 की दोपहर बारह बजे तक हम अरकू पहुंच गये थे। अब हमें सबसे पहले बोरा गुफाएं देखने जाना था, हालांकि अभी कुछ ही देर पहले हम ट्रेन से वहीं से होकर आये थे लेकिन इस बात को आप जानते ही हैं कि हमने ऐसा क्यों किया? विशाखापट्टनम से किरन्दुल तक का पूरा रेलमार्ग देखने के लिये। अरकू घाटी में सबसे प्रसिद्ध बोरा गुफाएं ही हैं, इसलिये उन्हें देखना जरूरी था।
एक कमरा लिया और सारा सामान उसमें पटककर, 800 रुपये में एक ऑटो लेकर बोरा की ओर चल पडे। वैसे तो बसें भी चलती हैं लेकिन वे बोरा गुफाओं तक नहीं जातीं। जाती भी होंगी तो हमें इंतजार करना पडता। मुख्य अरकू-विशाखापट्टनम सडक से बोरा गुफाएं आठ-दस किलोमीटर हटकर हैं। अरकू से गुफाओं की दूरी लगभग 30 किलोमीटर है। हमने सोचा कि ऑटो वाला इस पहाडी मार्ग पर कम से कम दो घण्टे एक तरफ के लगायेगा, लेकिन पट्ठे ने ऐसा ऑटो चलाया, ऐसा ऑटो चलाया कि हमारी रूह कांप उठी। पौन घण्टे में ही बोरा जाकर लगा दिया जबकि रास्ते में एक व्यू पॉइण्ट पर दस मिनट रुके भी थे। मैं उससे बार-बार कहता रहा कि भाई, हमें कोई जल्दी नहीं है, धीरे धीरे चल लेकिन पता नहीं उसे मेरी बात समझ में नहीं आई या उसे कोई भयानक जल्दी थी कि उसने मेरी एक न सुनी। पहाडी गोल-गोल सडक और तीन पहिये का ऑटो; जब मोड पर तेजी से काटता तो लगता कि पक्का पलट जायेगा और मैं कूद कर भाग जाने को तैयार बैठा रहता।
अभी जो मैंने व्यू पॉइण्ट का जिक्र किया है, वहां से दूर-दूर के शानदार नजारे दिखते हैं। जंगल से गुजरती रेलवे लाइन भी दिखती है लेकिन इन दस मिनटों में कोई भी ट्रेन वहां से नहीं गुजरी।
विकीपीडिया के इस पेजपर क्लिक करके आप बोरा गुफाओं के बारे में बहुत कुछ जान सकते हैं। नहीं समझ आ रहा हो तो देसी भाषा में मैं कुछ बता सकता हूं।
ये पूर्वी घाट की अनन्तगिरी पहाडियां हैं। वैसे तो पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट दोनों पहाडियों का निर्माण ज्वालामुखीय क्रियाकलाप से हुआ है। ज्वालामुखी से लावा निकलता है जो जमने पर बहुत कठोर हो जाता है। लेकिन यहां पता नहीं कहां से चूने जैसी नरम चट्टानें भी आ गईं। इन चट्टानों को स्टैलैक्टाइट और स्टैलैग्माइट चट्टानें भी कहते हैं। लेकिन ये इतनी नरम भी नहीं होतीं। हजारों सालों में, लाखों सालों में ऐसा होता है। बारिश होती है, पानी जमीन के अन्दर जाता रहता है। इससे नरम चट्टानें पानी में घुल-घुलकर बाहर बहने लगती हैं और जमीन के अन्दर एक खोखलापन आ जाता है। कठोर चट्टानें बची रह जाती हैं, जो छत का काम करती हैं। इस तरह गुफाओं का निर्माण होता है।
यह प्रक्रिया कभी समाप्त नहीं होती। आज भी यह अनवरत जारी है। ऊपर छत से पानी की बूंदें टपकती हैं। जाहिर है कि उनमें नरम चट्टानों के कुछ अवशेष अवश्य रहते हैं। बूंदें टपकती रहती हैं, टपकती रहती हैं। ऊपर जिस स्थान से यह टपककर नीचे गिरती है, वहां धीरे धीरे चूना जमने लगता है और इसी तरह नीचे जहां बूंद जमीन पर गिरती है, वहां भी चूना जमने लगता है। इस तरह ऊपर से भी और नीचे से भी चूने के एक खम्भे का निर्माण शुरू होता है जो कालान्तर में आपस में मिल भी जाते हैं। इसी तरह की अनगिनत और विचित्र आकृतियां इन बोरा गुफाओं में बनी हुई हैं।
गुफा के द्वार पर गाइड बैठे रहते हैं जो पचास रुपये में आपकी सहायता कर देंगे। इस गाइडों को घण्टा पता नहीं होता लेकिन ये गुफा की अन्धेरी दीवारों पर टॉर्च से रोशनी मारते हैं और ऐसी ऐसी आकृतियां दिखा देते हैं जो हम अगर अकेले होते तो शायद न देख पाते।
बोरा गुफाओं का निर्माण चूंकि पानी से हुआ है और अभी भी जारी है तो जाहिर है कि इसमें पानी अवश्य मिलेगा। पूरी गुफा में खूब फिसलन है। अगर प्रशासन चलने के लिये रास्ता न बनाता तो यहां घूमना बेहद मुश्किल होता। अन्दर तक जाने के लिये रास्ता है, सीढियां हैं और रोशनी का भी प्रबन्ध है। यह मौसम मानसून का था तो प्रशासन को विशेष चौकन्ना रहना होता है कि कहीं से अचानक इसमें ज्यादा पानी न आ जाये। हालांकि ये छत्तीसगढ की कुटुमसर गुफाओं जैसी नहीं हैं, अन्यथा मानसून में इन्हें बन्द करना पडता।
गुफा में ऊपर एक छेद भी है। कहते हैं कि कभी एक गाय उस छेद से नीचे गिर गई थी और पानी के बहने के रास्ते से होती हुई बाहर निकल गई। गाय को तो हालांकि कुछ ज्यादा नुकसान नहीं पहुंचा लेकिन उसे ढूंढते ढूंढते ग्वाले ने गुफा ढूंढ ली। ठीक अमरनाथ की तरह। शुक्र है कि यह अभी तक तीर्थ स्थान नहीं बनी। लेकिन करोडों देवता यहां भी पालथी मारे बैठे मिलेंगे और गाइड आपको हर देवता की पहचान कराता आगे बढेगा। हालांकि इस महा विशाल गुफा में एक छोटी सी गुफा भी है जहां एक पुजारी आपको शिवलिंग के दर्शन करायेगा। यह शिवलिंग और कुछ नहीं है बल्कि वही पानी का टपकना और चूने का इकट्ठा होना है। मानसून में पानी बढ जाता है इसलिये भक्त लोग कहते हैं कि सावन का चमत्कार है। ठीक इसी तरह का चमत्कार वैष्णों देवीके पास शिवखोडीकी गुफाओं में भी है।
किरन्दुल लाइन ठीक इस गुफा के ऊपर से गुजरती है। पूर्वतट रेलवे ने गुफा के अन्दर एक सूचना पट्ट भी लगा रखा है कि इस बिन्दु के ठीक 176 फीट ऊपर से रेलवे लाइन गुजरती है।
हालांकि हम दिन के ऐसे समय पहुंचे थे जब यहां बहुत थोडे से पर्यटक थे। ज्यादा भीड हो जाती है तो इसमें उमस और घुटन भी होने लगती है। आपको सलाह दी जाती है कि अगर आप इन गुफाओं को देखने जा रहे हैं और ज्यादा भीड है तो इसका विचार त्याग दें। वेंटीलेशन का कोई प्रबन्ध नहीं है। सुनील जी एक बार ऐसी ही स्थिति में फंस चुके थे। तब उन्होंने समझदारी दिखाते हुए बिना गुफा देखे वापस लौटने का फैसला कर लिया था।
गुफा के बिल्कुल आखिर में काफी बडा हॉल जैसा कुछ है। उसकी छत पर खूब चमगादड बैठे रहते हैं और शोर करते रहते हैं। यहां से पानी निकासी का प्रबन्ध है और उसकी वजह से एक संकरी गुफा दूर तक चली गई है। उसमें पर्यटकों को जाने की अनुमति नहीं है। लेकिन जिस हॉल में हम अभी हैं, उसकी छत पर एक लकीर आर पार चली गई है। यह एक दरार है। इधर से शुरू होती है और उधर दूसरे छोर तक चली गई है। पूरे हॉल को दो भागों में बांटती हुई। गाइड ने बताया कि यहां दो पहाड मिल रहे हैं।
दो पहाड मिल रहे हैं, इसका क्या अर्थ है? क्या दो पहाड बाहर खुले में टहल रहे थे और अचानक मिल गये और उनके मिलन स्थान पर यह दरार पड गई? ना। हमें इसके लिये फिर से इन पहाडियों के निर्माण काल में जाना होगा। ये वास्तव में ज्वालामुखीय चट्टानें हैं। धरती के अन्दर से लावा निकला और इकट्ठा होता चला गया। लावा बहुत गहराई पर होता है। कम गहराई पर दूसरी नरम चट्टानें होती हैं। लावे के साथ साथ नरम चट्टानें भी आती गईं और पूरे इलाके में इनका टीला बनता चला गया। पहाडी श्रंखला का निर्माण इसी तरह हुआ है। इस टीलों में दरार कैसे पडी?
इसका जवाब यह हो सकता है कि सारा लावा एक बार में तो नहीं निकला था। हजारों सालों तक, लाखों सालों तक यह प्रक्रिया चली थी। कुछ लावा आज निकल गया और धीरे धीरे ठण्डा पड गया। कुछ हजार साल बाद निकला और वो भी ठण्डा पड गया। दोनों के बीच में निश्चित ही एक दरार रहेगी। दो पहाड मिलते हैं, ऐसा नहीं होता। पहाड कोई चलती फिरती वस्तु नहीं हैं कि मिल गये और मिलन बिन्दु पर दरार पड गई। ना।

व्यू पॉइण्ट से दिखती किरन्दुल रेलवे लाइन




बोरा गुफाओं का प्रवेश द्वार


गुफा में निर्मित एक खम्बेनुमा आकृति

गुफा के अन्दर लगा पूर्वतट रेलवे का सूचनापट्ट







गुफा काफी विशाल है, प्रकाश की व्यवस्था है और चलने के लिये रास्ता भी है।





यही वो दरार थी जिसे गाइड ने दो पहाडों का मिलन स्थान बताया था।


यह आखिरी बिन्दु है। इससे आगे गुफा अत्यधिक संकरी हो जाती है और पर्यटकों के लिये सुरक्षित नहीं है।



गुफा में चूने के टीले को शिवलिंग मानकर बैठा पुजारी। प्रशासन को ऐसे पुजारियों को तुरन्त बाहर खदेड देना चाहिये।

ऊपर से चूने का पानी टपकता हो तो नीचे विचित्र आकृतियां बनेंगी ही।


चलिये, बाहर निकल जाते हैं।


अगले भाग में जारी...

चापाराई प्रपात और कॉफी के बागान

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बोरा गुफाओं से करीब चार किलोमीटर दूर कतिकी जलप्रपात है। वहां जाने वाला रास्ता बहुत ऊबड-खाबड है इसलिये ऑटो जा नहीं सकता था। हमें चार पहियों की कोई टैक्सी करनी पडती। उसके पैसे अलग से लगते, हमने इरादा त्याग दिया। लेकिन जब एक गांव में ऑटो वाले ने मुख्य सडक से उतरकर बाईं ओर मोडा, तो हम समझ गये कि यहां भी कुछ है।
यह चापाराई जलप्रपात है। यह सडक एक डैड एण्ड पर खत्म होती है। हमें पैदल करीब सौ मीटर नीचे उतरना पडा और प्रपात हमारे सामने था। यह कोई ज्यादा लम्बा चौडा ऊंचा प्रपात नहीं था। फिर भी अच्छा लग रहा था। भीड नहीं थी और सबसे अच्छी बात कि यहां बस हमीं थे। कुछ और भी लोग थे लेकिन हमारे जाते ही वे वहां से चले गये। चारों तरफ बिल्कुल ग्रामीण वातावरण, खेत और जंगल। ऐसे में अगर यहां प्रपात न होता, बस जलधारा ही होती, तब भी अच्छा ही लगता।
कटहल के खूब पेड हैं यहां। यह असल में कटहल भूमि है। कटहल हमें आगे दण्डकारण्य तक मिले। पके कटहल पहली बार देखे। आदिवासी इन दिनों पूरी तरह कटहल पर ही जीते हैं। पके कटहल को तोड लेते हैं और उसे खाते रहते हैं। भरमार थी कटहल के पेडों की। बच्चों को रास्ते में पुलियाओं पर बैठे कटहल खाते ऐसा प्रतीत हो रहा था कि इन्हें साल में इसी मौसम में भरपेट भोजन मिलता होगा। पके कटहल की सुगन्ध भी अच्छी होती है। दिल्ली तक पके कटहल नहीं पहुंचते, कच्चे की सब्जी मुझे पसन्द नहीं है। फिर भी मैं चाहता था कि एक बार पका कटहल खाकर देखूं। लेकिन सुनील जी ने अजीब सा मुंह बनाकर कहा कि यह होता तो मीठा है लेकिन अजीब सा कसैला स्वाद होता है तो मेरा भी इरादा तुरन्त बदल गया। इसके चार-पांच दिन तक हम कटहलों में ही घूमते रहे, ट्रेन में कटहल, घरों में कटहल, जंगल में कटहल, बाजार में कटहल, गांवों में कटहल; हर जगह कटहल; लेकिन इसका स्वाद नहीं ले पाया। मलाल रहेगा।
चापाराई से चलकर फिर से अरकू वाली सडक पर आ गये। इस बार उस व्यू पॉइण्ट पर नहीं रुके। लेकिन सुनसान जंगल में एक दुकान पर रुक गये। यह जंगल असल में कॉफी का बागान है। पहाडी ढलान पर चारों तरफ कॉफी ही कॉफी थी। दुकान भी कॉफी की ही थी, जो कॉफी बनाकर पिला भी रहा था। हमने भी पी और बागान में थोडा घूमे भी। जितना हम घूमे, उतना और भी पर्यटक घूमते थे, इसलिये उतने इलाके में पौधों से कॉफी के फूल, बीज, जो भी होते हों; गायब थे। दुकान वाले ने बताया कि यह सरकारी बागान है।

कटहल का पेड

चापाराई प्रपात के पास


चापाराई से वापस लौटते कुछ पर्यटक

चापाराई जलप्रपात









कॉफी के बागान में




विशाखापट्टनम-अरकू सडक


अगले भाग में जारी...
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