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Channel: मुसाफिर हूँ यारों
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थार साइकिल यात्रा- सानू से तनोट

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25 दिसम्बर 2013, जब आधी दुनिया क्रिसमस मनाने की खुशी से सराबोर थी, हम पश्चिमी राजस्थान के एक छोटे से गांव में सडक किनारे एक छप्पर के नीचे सोये पडे थे। यहां से 45 किलोमीटर दूर जैसलमेर है और लगभग इतना ही सम है जहां लोग क्रिसमस और नये साल की छुट्टियां मनाने बडी संख्या में आते हैं। आज वहां उत्सव का माहौल बन रहा होगा और इधर हम भूखे प्यासे पडे हैं।
आठ बजे जब काफी सूरज निकल गया, तब हम उठे। दुकान वाला दुकान बन्द करके जा चुका था। ताला लटका था। हमने कल पांच कप चाय पी थी- कम से कम पच्चीस रुपये की थी। हमें टैंट उखाडते देख कुछ ग्रामीण आकर इकट्ठे हो गये। उन्होंने सूखी झाडियां एकत्र करके आग जला ली। उन्होंने बताया कि यह दुकान केवल रात को ही खुली रहती है, दिन में वह सोने घर चला जाता है। घर हालांकि इसी गांव में था, हम आसानी से जा सकते थे। जब हमने उसके घर का पता पूछा तो ग्रामीणों ने बताया कि वह ऐसा अक्सर करता रहता है। लोगों को फ्री में चाय पिला देता है। वैसे भी अब वह सो गया होगा, उठाना ठीक नहीं। ऐसा सुनकर हमने उसके घर जाने का विचार त्याग दिया।
ज्यादातर लोगों को सुबह सुबह शौचालय जाने की आदत होती है। अगर किसी कारण से ऐसा नहीं हो सकता तो वे परेशान हो जाते हैं। नटवर बडा परेशान हुआ। कहने लगा कि प्रेशर तो नहीं बन रहा लेकिन जाना जरूर है। मैंने भी उसे रोकने के लिये कोई दबाव नहीं डाला। उसने ग्रामीणों से पूछा तो उन्होंने बताया कि गांव से निकलते ही एक ट्यूबवेल है, वहां कर लेना। नटवर ने हालांकि यहीं झाडियों के पीछे जाने की बात कही लेकिन कौन ग्रामीण अपने ही गांव के अन्दर ऐसा करने देगा?
जैसलमेर और तनोट के बीच में रामगढ मुख्य स्थान है। यहां ठहरने के लिये होटल भी हैं और खाने-पीने के लिये रेस्टॉरेंट भी। सानू से रामगढ बीस किलोमीटर दूर है। डेढ घण्टे का अन्दाजा लगाया रामगढ पहुंचने का। नाश्ता और लंच आज रामगढ में ही करेंगे। सानू से खाली पेट चलना पडा। बायें हाथ एक ट्यूबवेल मिली। इस गांव और आसपास में पानी यहीं से पहुंचाया जाता है। मैं आगे था, नटवर कुछ पीछे। फिर भी मेरा ध्यान नटवर पर ही लगा रहा। जब मेरी देखा-देखी वह भी ट्यूबवेल पर नहीं रुका तो मैंने भी रुकने का इरादा छोड दिया, नहीं तो सोच रखा था कि जब तक नटवर फ्रेश नहीं हो जाता, मैं कुछ आगे चलकर रुक जाऊंगा और उसकी प्रतीक्षा करूंगा। पूछने पर उसने बताया कि रामगढ में करूंगा।
साढे दस बजे रामगढ पहुंचे। यहां एक और आवश्यक काम करना था- लोंगेवाला के लिये बीएसएफ से आज्ञा-पत्र लेना था। आज हम तनोट पहुंच जायेंगे और कल लोंगेवाला जायेंगे।
एक रेस्टॉरेंट पर रुके। यह काफी साफ सुथरा था और कई कारें भी यहां खडी थीं। हमने दो दो समोसे चाय के साथ खाये व गाजर का हलुवा भी। खा-पीकर नटवर फिर से परेशान हो गया। मैंने कहा कि यहां से चार किलोमीटर आगे एक नहर है, वहां कर लेना। कहने लगा कि बिल्कुल नहीं। जैसलमेर में संजय ने अपने एक मित्र अरविन्द खत्री का नम्बर दिया था। नटवर ने उनसे बात की तो कुछ ही देर में वे हाजिर हो गये। समस्या सुनकर वे हमें एक रेस्ट हाउस में ले गये, नटवर को यहां ‘जीवनदान’ मिला। मेरी भी एक बार नहाने की इच्छा हुई, लेकिन अत्यधिक ठण्डा पानी देखकर इरादा बदल लिया।
यहां तीन घण्टे तक रुके रहे। मोबाइल चार्ज हो गये, मैंने भी एक नींद ले ली। नटवर ने अपनी साइकिल में मामूली मरम्मत की। चलने से पहले भरपेट भोजन भी हो गया।
रामगढ से तनोट की तरफ सडक के चौडीकरण का काम चल रहा है। इसमें वर्तमान सडक पर भी नई सडक बनेगी, इसलिये सडक की चौडाई में ढाई ढाई फीट की दूरी पर ढाई ढाई इंच चौडी नालियां बना दी हैं ताकि नई सडक पुरानी सडक में अच्छी तरह जम जाये। यह रामगढ से एक किलोमीटर पहले ही शुरू हो जाता है। मरुस्थल होने के कारण सडक से नीचे साइकिल नहीं उतार सकते और सडक पर नालियों की वजह से बुरी तरह उछलते हुए चलना पड रहा था। अरविन्द ने बताया कि ऐसी सडक बीस किलोमीटर तक है। सुनते ही होश उड गये। यानी बीस किलोमीटर तक इसी तरह धम-धम उछलते हुए चलना पडेगा। इससे हमारी स्पीड तो कम होगी ही, साइकिल को भी नुकसान होने की आशंका है, खासकर नटवर की पतले पहियों वाली को ज्यादा। और हां, शरीर के एक खास हिस्से पर भी काफी झटके लगेंगे।
रामगढ से चार किलोमीटर आगे एक नहर है। यह है थार की जीवन रेखा इन्दिरा गांधी नहर। यह पंजाब में फिरोजपुर में सतलुज और ब्यास नदी के संगम के पास हरिके बांध से निकलती है और थार को जीवन देती चलती है। रामगढ से भी कम से कम सौ किलोमीटर आगे तक यह नहर जाती है। रेत में कच्ची नहर तो किसी काम की नहीं, इसलिये यह पक्की है। इसी नहर की वजह से रामगढ के आसपास का इलाका काफी हरा-भरा है।
सडक पर बनी नालियों की वजह से शुरू में तो सावधानी से चले धीरे धीरे लेकिन बाद में जब इनकी आदत पडने लगी तो उसी रफ्तार पर आ गये जिस पर इनसे पहले चल रहे थे। नटवर भी उसी स्पीड से चलने लगा। यहां एक और समस्या आई। यातायात के लिये सिंगल लेन ही खुली हुई थी। बराबर में दूसरी लेन में मिट्टी और पत्थर डले हुए थे नई सडक के लिये। ट्रैफिक काफी कम था लेकिन फिर भी इधर पर्यटन का पीक सीजन होने के कारण तनोट आने-जाने वालों का तांता लगा हुआ था। बेहद तेज रफ्तार से गाडियां आतीं और सर्र से निकल जातीं। सडक से नीचे रेत होने के कारण हम उनसे बचने के लिये नीचे भी नहीं उतर सकते थे। और उतरते भी तो रुकना पडता और लय बिगड जाती। जब ऐसा ही होता रहा तो एक तरीका अपनाया। हम सडक के बीचोंबीच चलने लगे। गाडी वाले दूर से ही हॉर्न बजाते आते और पास आकर जब पर्याप्त धीमे हो जाते, तब हम उन्हें साइड देते।
ठेठ मरुस्थल होने की वजह से यहां कोई बडा पेड नहीं है, बस झाड-झंगाड ही हैं। चारों तरफ क्षितिज स्पष्ट दिखता रहा।
बीस किलोमीटर बाद जब अच्छी सडक आ गई तो हमारी आगे बढने की रफ्तार भी बढ गई। अब धीरे धीरे भू-दृश्य में परिवर्तन आने लगा। रेत के धोरे मिलने लगे। हालांकि रेत पर हर जगह झाडियां थीं इसलिये ये छोटी छोटी पहाडियों की तरह लग रहे थे। फिर बीआरओ ने सडक भी बिल्कुल नाक की सीध में बना रखी है। इससे सडक सीधे धोरे पर चढ जाती और उसे पार करके उस तरफ नीचे उतर जाती। यह चढाई आखिरी दस पन्द्रह मीटर बडी तीखी होती। उस तरफ नीचे उतरने में जो आनन्द आता, उससे चढाई का सारा तीखापन भूल जाते।
इसी तरह के एक ऊंचे धोरे पर चढे तो सामने नीचे रणाऊ गांव दिखने लगा। रणाऊ तक लगभग दो किलोमीटर तक बडी तेज ढलान थी। गांव के आसपास की भूमि पर झाडी का एक भी तिनका नहीं था, इसलिये शुष्क रेत स्पष्ट दिख रही थी। यह गांव रामगढ से करीब तीस किलोमीटर दूर है, इसलिये हमारी यहां कुछ खाने पीने की इच्छा थी। गांव में दो चार ही घर थे और चाय की दुकान तो बिल्कुल नहीं, मैं आगे बढ गया। नटवर उस धोरे पर पैदल चढ रहा होगा। मैं गांव से एक किलोमीटर आगे जाकर सडक पर ही बैठ गया और नटवर के आने की प्रतीक्षा करने लगा। पन्द्रह मिनट बाद वो आया। उसकी साइकिल के ब्रेक कम लगते थे, इसलिये ढलान पर वह ओवरस्पीड हो जाता था। ऐसे में सन्तुलन भी बिगड जाया करता है। नटवर ने बताया- मेरी साइकिल के आगे ढलान पर दो तीन गायें आ गईं, मैंने पूरी ताकत से ब्रेक लगा दिये लेकिन साइकिल नहीं रुकी। गायें भी इतनी हठी थीं कि रास्ते से नहीं हटीं। आखिरकार एक गाय में टक्कर मार दी।
रणाऊ में सेना का एक पडाव भी है। एक फौजी घूमता घामता हमारे पास आया। हालचाल पूछा। साइकिल यात्रा की प्रशंसा की और बैरक में चलकर चाय पीने का आग्रह भी किया जिसे हमने आदरपूर्वक नकार दिया। हालांकि चाय की इच्छा तो थी लेकिन बैरक में बनी बनाई चाय नहीं मिला करती। फौजी को जाकर खुद ही बनानी पडती, हम उसका काम नहीं बढाना चाहते थे। इसकी बजाय वहीं सडक पर ही बैठ गये। बिस्कुट व नमकीन खाकर पानी पी लिया। शरीर में कुछ ऊर्जा आई और चाय की इच्छा भी मिट गई।
रणाऊ से तनोट बीस किलोमीटर है। पूरा रास्ता ऊंचे नीचे धोरों से भरा पडा है, फिर भी डेढ घण्टे में पहुंच जाने का लक्ष्य बनाया।
आज भी उतना अच्छा सूर्यास्त नहीं देख सके। धोरों की वजह से आज क्षितिज भी नहीं दिख रहा था और हर जगह झाडियां उगी पडी थीं, इसलिये ढलते सूरज को नहीं देख सके।
साढे छह बजे जब अन्धेरा होने लगा तो सिर पर हैड लाइट लगानी पडीं। अभी भी हमें दस किलोमीटर और जाना था। एक ऊंची जगह पर साइकिल रोककर मैं यह काम करने लगा। साथ ही हैलमेट हटाकर मंकी कैप लगानी पडी। मरुस्थल में सर्दियों में जबरदस्त ठण्ड पडती है। इस दौरान नटवर आगे निकल गया था। जब सारा तामझाम करके मैं आगे बढा, नटवर मिला तो उसने कहा- कहां रह गया था तू? मैंने सोचा कि कहीं गिर विर तो नहीं पडा। अगर तेरी यह हैड लाइट न दिखती तो मैं तुझे ढूंढने निकलने ही वाला था।
राजस्थान परिवहन की जोधपुर- तनोट बस निकल गई। यह बस दोनों तरफ से सुबह को चलती है और शाम तक अपने गन्तव्य पर पहुंच जाती है।
बीआरओ ने जगह जगह बडे अच्छे अच्छे स्लोगन लिख रखे हैं। इनमें से एक था- तवांग से तनोट तक भारत एक है। कश्मीर से कन्याकुमारी और कच्छ से कछार तो पढा था, आज तवांग से तनोट भी पढ लिया।
तनोट से करीब चार किलोमीटर पहले एक मन्दिर मिला। नाम ध्यान नहीं। अन्धेरा तो हो ही चुका था। बस यहीं खडी थी और सवारियां मन्दिर में दर्शन करने जा रही थीं। नटवर मुझसे आगे था। मैंने सोचा कि नटवर भी ऐसा ही करेगा लेकिन वह नहीं रुका। मैं भी नहीं रुका। बाहर से ही देवी को प्रणाम कर लिया।
तीन किलोमीटर पहले ही तनोट मन्दिर में बज रहे भजन सुनाई देने लगे। हम कुछ सांस लेने रुक गये। पिछले कई किलोमीटर हम बडी तेजी से आये थे इसलिये काफी थक गये थे। अब जब मंजिल सामने दिखने लगी तो रुकने की इच्छा हो गई। घुप्प अन्धेरा था, मेरी हैड लाइट ही इस अन्धेरे को आंशिक तौर पर भंग कर रही थी। कुछ देर में भजन भी बजने बन्द हो गये। अब जो निबिड सन्नाटा हुआ, उससे आनन्द आ गया। इस आनन्द को और बढने देने के लिये मैं साइकिल से उतर गया, साइकिल एक तरफ खडी कर दी, हैड लाइट बन्द कर दी और नटवर से भी मौन रहने को कह दिया। एक बार तो मन में आया कि यहीं टैंट लगा लें और सन्नाटे का भरपूर आनन्द लें। लेकिन भूख लगी थी, खाना तीन किलोमीटर दूर ही था, इसलिये यहीं रुकने की इरादा त्यागना पडा।
आधे घण्टे यहां रुकने से शरीर ठण्डा हो गया। कुछ देर पहले जो पसीना आ गया था, अब वह शरीर को और भी ठण्डा करता जा रहा था। यहां से जब चले तो हवा लगने से भयंकर ठण्ड लगने लगी। इससे बचने का एक ही तरीका था कि जबरदस्ती तेज तेज पैडल मारे जाये, जिससे शरीर में गर्मी आयेगी। जब तक गर्मी आई, तब तक हम बुरी तरह कांपते रहे। और हां, गर्मी आते ही तनोट भी आ गया।

सानू में सुबह को


रामगढ से दूरियां

अरविन्द खत्री के साथ

तनोट की ओर

इन्दिरा गांधी नहर



इन्दिरा गांधी नहर से थार में खेती सम्भव हुई है।


रामगढ से आठ किलोमीटर आगे और दूर दिखता रामगढ स्थित टीवी टावर।


बीस किलोमीटर तक ऐसी नालीदार सडक पर चलना पडा।




आखिरकार नालीदार सडक खत्म हुई।



सामने दिखता रणाऊ गांव








यह मेरे सिर पर लगी हैड लाइट का प्रकाश है। इसमें पीछे जलती-बुझती लाल बत्ती भी है।

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अगले भाग में जारी...

तनोट

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अक्टूबर 1965 में एक युद्ध हुआ था- भारत और पाकिस्तान के मध्य। यह युद्ध देश की पश्चिमी सीमाओं पर भी लडा गया था। राजस्थान में जैसलमेर से लगभग सौ किलोमीटर दूर पाकिस्तानी सेना भारतीय सीमा में घुसकर आक्रमण कर रही थी। उन्होंने सादेवाला और किशनगढ नामक सीमाक्षेत्रों पर कब्जा कर लिया था और उनका अगला लक्ष्य तनोट नामक स्थान पर अधिकार करने का था। तनोट किशनगढ और सादेवाला के बीच में था जिसका अर्थ था कि इस स्थान पर दोनों तरफ से आक्रमण होगा।
जबरदस्त आक्रमण हुआ। पाकिस्तान की तरफ से 3000 से भी ज्यादा गोले दागे गये। साधारण परिस्थियों में यह छोटा सा स्थान तबाह हो जाना चाहिये था लेकिन ऐसा नहीं हुआ। परिस्थितियां साधारण नहीं थीं, असाधारण थीं। कोई न कोई शक्ति थी, जो काम कर रही थी। ज्यादातर गोले फटे ही नहीं और जो फटे भी उन्होंने कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। विश्वास किया जाता है कि तनोट माता के प्रताप से ऐसा हुआ। बाद में जब भारतीय सेना हावी हो गई, उन्होंने जवाबी आक्रमण किया जिससे पाकिस्तानी सेना को भयंकर नुकसान हुआ और वे पीछे लौट गये। 1971 में भी ऐसा ही हुआ।
अब तक गुमनाम रहा यह स्थान इसके बाद प्रसिद्ध हो गया। जिन्दा गोले पूरे तनोट क्षेत्र में इधर उधर बिखरे पडे थे। माता का मन्दिर जो अब तक सुरक्षा बलों का कवच बना रहा, शान्ति होने पर सुरक्षा बल इसका कवच बन गये। बीएसएफ ने अपने नियन्त्रण में ले लिया इसे। आज यहां का सारा प्रबन्ध सीमा सुरक्षा बल के हाथों में है।
मन्दिर एक बहुत बडे क्षेत्र में बना है। साफ सफाई शानदार। मन्दिर के अन्दर ही एक संग्रहालय है जिसमें वे गोले भी रखे हुए हैं। पुजारी भी सैनिक ही है। पेयजल की शानदार व्यवस्था है। सुबह शाम आरती होती है। मन्दिर के मुख्य प्रवेश द्वार पर एक रक्षक तैनात रहता है लेकिन प्रवेश करने से किसी को रोका नहीं जाता। फोटो खींचने पर भी कोई पाबन्दी नहीं।
यहीं पास में ही एक धर्मशाला भी है जिसका नियन्त्रण भी बीएसएफ के हाथ में है। इसमें कमरे भी हैं और हॉल भी। यहां रुकने का कोई खर्च नहीं। अपना पहचान पत्र दिखाकर यहां रुका जा सकता है। सर्दियों में भयंकर ठण्ड पडने के कारण फ्री में रजाई गद्दे भी मिलते हैं। सैनिक महत्व का इलाका होने के कारण बिजली यहां चौबीस घण्टे रहती है। शौचालय और स्नानघर भी हैं। एक कैण्टीन भी है जहां निर्धारित दरों पर खाना मिलता है।
यहीं बराबर में एक और मन्दिर है मंशा देवी का। यहां अपनी मनोकामना पूरी करने की साध रखने वाले श्रद्धालुओं ने रुमाल बांध रखे हैं। लाखों की संख्या में रुमाल बंधे हैं यहां। पता नहीं किसी की मनोकामना पूरी होती भी या नहीं। लगता है कि कोई खोलता भी नहीं है।
तनोट से सीमा लगभग बीस किलोमीटर दूर है जहां जाने के लिये आज्ञा लेनी पडती है। आज्ञा मन्दिर के प्रवेश द्वार से मिल जाती है। उस दिन सीमा पर भारत और पाकिस्तान के अधिकारियों की फ्लैग मीटिंग थी जिस कारण हमें सीमा देखने की आज्ञा नहीं मिली। यहां से सीमा पर जाने की परमिशन लेने का एक फायदा है कि जवाब हां या ना में मिलता है। अगर जवाब हां है तो आपको आज्ञा मिल गई और अगर ना है तो समझो नहीं मिली।
भाटी राजपूत राजा तनुराव ने सन 847 में तनोट में अपनी राजधानी बनाई थी जिसे बाद में जैसलमेर स्थानान्तरित कर दिया गया। यह मन्दिर भी उसी समय का है। माता का मन्दिर होने के कारण यहां नवरात्रों में काफी संख्या में श्रद्धालु आते हैं जिनके लिये बीएसएफ यहां निःशुल्क लंगर चलाती है। वैसे तनोट जाने का सर्वोत्तम समय नवम्बर से जनवरी तक ही है। साल के बाकी समय यहां भयंकर गर्मी होती है और धूल भरी आंधियां चलती रहती हैं।
तनोट से 38 किलोमीटर दूर एक और युद्धस्थल है- लोंगेवाला। अब हम वहां चलेंगे जिसके बारे में अगले भाग में बताया जायेगा।

तनोट माता मन्दिर



तनोट से लोंगेवाला जाने वाली सडक।

धर्मशाला

धर्मशाला के अन्दर


मन्दिर के अन्दर




मंशा देवी मन्दिर




अब चलते हैं लोंगेवाला


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यह है तनोट की स्थिति को दर्शाता नक्शा। A तनोट है। नक्शे को छोटा बडा किया जास कता है और सैटेलाइट मोड में भी देखा जा सकता है।

अगले भाग में जारी...

थार साइकिल यात्रा- तनोट से लोंगेवाला

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26 दिसम्बर 2012 की सुबह आराम से सोकर उठे। वैसे तो जल्दी ही उठ जाने की सोच रखी थी लेकिन ठण्ड ही इतनी थी कि जल्दी उठना असम्भव था। असली ठण्ड बाहर थी। यहां धर्मशाला में तो कुछ भी नहीं लग रही थी। तापमान अवश्य शून्य से नीचे रहा होगा। आज का लक्ष्य लोंगेवाला होते हुए असूतार पहुंच जाने का था जिसकी दूरी लगभग 80 किलोमीटर है। ऐसा करने पर कल हम सम पहुंच सकते हैं।
दस बजे तक तो वैसे भी अच्छी धूप निकल जाती है। कोहरा भी नहीं था, फिर भी ठण्ड काफी थी। माता के दर्शन करके कैण्टीन में जमकर चाय पकौडी खाकर और कुछ अपने साथ बैग में रखकर हम चल पडे। आज हमें रास्ते भर कुछ भी खाने को नहीं मिलने वाला। जो भी अपने साथ होगा, उसी से पेट भरना होगा।
तनोट से लोंगेवाला वाली सडक पर निकलते ही सामना बडे ऊंचे धोरे से होता है। यह एक गंजा धोरा है, इस पर झाडियां भी नहीं हैं। हमें बताया गया कि कल के मुकाबले हमें आज ज्यादा ऊंचे धोरों का सामना करना पडेगा। इन सब बातों के मद्देनजर हमने चलने की स्पीड दस किलोमीटर प्रति घण्टा रखने का लक्ष्य रखा जिसे हमने पूरा भी किया क्योंकि धोरे पर चढने के बाद नीचे उतरना होता है जिससे समय की पूर्ति हो जाती है।
आठ किलोमीटर बाद एक नन्हा सा गांव आया- खारिया। दो चार ही घर थे। इंसानों से ज्यादा बकरियां थीं और कुछ ऊंट व गधे भी। पानी के लिये टैंक बने थे जिन्हें निश्चित तौर पर सेना ही भरती होगी। यहां जितने भी गांव देखे, सभी समतल रेत पर बसे थे और गांव में झाडियां भी नहीं थीं। रेत का छोटा सा धोरा भी बडा सुहावना लगता। बाकी स्थानों पर रेत को झाडियां ढक लेती, गांवों में ऐसा नहीं मिलता।
पौने बारह बजे तक हम अपनी निर्धारित रफ्तार पर ही चल रहे थे- दस किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से। अब तक पन्द्रह किलोमीटर की दूरी तय कर चुके थे। यह निश्चित तौर पर कल के मुकाबले ज्यादा कठिन रास्ता था। सडक धोरों के आरपार बिल्कुल सीधे बना रखी थी। इससे कहीं कहीं बडी तीव्र चढाई चढनी पडती। नटवर हमेशा इस चढाई पर पैदल चलने लगता, मैं भी न्यूनतम गियर स्पीड पर चलता। कई बार रुक रुक कर सांस भी लेनी पडती। फोटो खींचने व सुस्ताने के लिये हमने तय कर रखा था कि हमेशा धोरे के ऊपर ही रुका करेंगे। इससे उस धोरे के दोनों तरफ दूर दूर तक का इलाका देखने को मिल जाता और कई बार दो ढाई किलोमीटर दूर दूसरे धोरे पर चढती सडक भी।
पन्द्रहवें किलोमीटर के बाद सडक इसी तरह के एक धोरे पर चढने लगी। मैंने साइकिल की चेन कम रफ्तार वाले गियर पर डाली तो यह उतर गई। जिस समय यह उतरी, इस पर अत्यधिक लोड था। मेरी साइकिल का अगला गियर चेंजर पहले से ही कुछ गडबड करता है, इसलिये यह कुछ भी विशेष नहीं लगा। जब साइकिल से नीचे उतरकर चेन चढाने लगा तो एक टूटी कडी पर निगाह गई। गौर से देखा तो पाया कि इस कडी की एक पिन आधी निकल गई थी जिससे कडी एक तरफ से खुल गई थी। साइकिल में चेन बडी सख्तजान होती है। इसकी पिन आसानी से नहीं निकलती, कभी कभी तो लाख कोशिश करने पर भी नहीं। इसीलिए यह एक तरफ से निकलने के बाद भी दूसरी तरफ से अटकी हुई थी। मुझे साइकिल के सारे काम करने आते हैं लेकिन चेन ठीक करनी नहीं आती। यही बात मैंने नटवर से भी बता दी थी कि चेन ठीक करने का इंतजाम लेकर आना और नटवर आया भी था।
सामने नटवर पैदल जा रहा था, कुछ दूर धोरे का शीर्ष भी दिख रहा था। वहीं ऊपर पहुंचकर चेन ठीक करूंगा, यह सोचकर मैं भी पैदल ही चलने लगा। नटवर ने मुझे पैदल आते देखा तो कटाक्ष किया- क्या बे, बोल गया टें? बडा गियर वाला बनता था, अब पैदल चल रहा है? हम हमेशा आपस में इसी तरह एक दूसरे पर व्यंगबाणों से बातचीत करते हैं, कोई भी बुरा नहीं मानता। मैंने कहा- नहीं ऐसा नहीं है। मेरी साइकिल की चेन टूट गई है। बोला कि ऊपर चलकर देखते हैं।
मैं उससे कुछ पीछे था। शीर्ष से कुछ पहले मुझे साइकिल खडी करने की एक अच्छी जगह दिखाई दी। मरुस्थल में हर स्थान पर साइकिल खडी नहीं की जा सकती। मैंने नटवर से कहा- ओये, यहीं रुक जा। ऊपर पता नहीं जगह मिले या न मिले, यहीं ठीक करते हैं। उसने नहीं सुना। मैं यहीं रुक गया। प्लास से टूटी कडी को जोडने की कोशिश की। जब यह जुडी हुई दिखने लगी तो मैं फिर आगे बढ चला। इस काम में करीब पन्द्रह मिनट लग गये। करीब सौ मीटर ही चला होऊंगा कि एक झटका लगा और चेन फिर से उतर गई। धोरे का शीर्ष करीब सौ मीटर आगे ही रहा होगा। नटवर नहीं दिख रहा था। यहां एक साफ सी जगह दिखी तो यहीं रुक गया और साइकिल गिरा दी।
एक घण्टा हो गया मुझे चेन ठीक करते करते। आज पहली बार चेन को ठीक करने की कोशिश कर रहा था। इस एक घण्टे में जो भी कुछ कर सकता था, किया। जब चेन ठीक नहीं हुई तो यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि अगर चेन की कोई कडी निकल जाये तो उसे दोबारा जोडा नहीं जा सकता। नई कडी ही डालनी पडती है। नई कडी नटवर के पास थी और उसका कोई अता-पता नहीं था। उसे मैंने बता दिया था कि मेरी साइकिल की चेन टूट गई है। उसने खुद ही कहा था कि सामने धोरे के शीर्ष पर ठीक करेंगे। इस बातचीत को हुए डेढ घण्टा बीत चुका है, शीर्ष सौ मीटर आगे है। मैं बार बार उसी तरफ देखता कि कहीं नटवर तो नहीं आ रहा। वह अवश्य आगे बढ गया है। क्या सोचकर वो चला गया? गंजा, टकला...
दो बजे मैंने लोंगेवाला की तरफ जाती एक कार को रोका और कहा- आगे एक साइकिल वाला और जा रहा है। उससे कह देना कि नीरज की साइकिल की चेन टूट गई है और वो वापस तनोट जा रहा है। उन्होंने पूछा कि क्या उसे भी तनोट पहुंचने को कहना है? मैंने कहा- नहीं, उसे बस मेरे तनोट जाने की सूचना देनी है। बाकी जो उसकी मर्जी हो, कर लेगा।
अब तक बुद्धि बेहद खराब हो चुकी थी। इसलिये नहीं कि चेन टूट गई। अरे, बडी बडी गाडियां खराब होती हैं। हवाई जहाज तक उडते उडते खराब हो जाते हैं, इस जरा सी साइकिल की क्या औकात? बुद्धि इसलिये खराब हुई कि नटवर ने कोई सुध नहीं ली। परसों मैं उससे आधा किलोमीटर आगे निकल गया था तो यह सोचकर उसके साथ हो लिया कि अगर इसकी साइकिल में पंक्चर हो गया तो यह कैसे ठीक करेगा? पंक्चर ठीक करना तो मुझे आता है और सामान भी मेरे ही पास है। कल शाम जब मैं सिर पर हैलमेट बांधते समय कुछ पीछे रह गया तो नटवर ने आधा किलोमीटर आगे निकलने के बावजूद भी मेरी प्रतीक्षा की थी और मुझे ढूंढने जाने भी वाला था। आज ऐसा क्या हो गया कि दो घण्टे बीतने के बाद भी उसे कोई फिक्र नहीं? नहीं, चेन तो अब ठीक होने वाली नहीं। सुबह जोधपुर वाली बस जायेगी। मैं जैसलमेर जाऊंगा और शाम को ही रेल पकडकर दिल्ली चला जाऊंगा।
जहां चढाई मिलती वहां पैदल चलता और उतराई पर साइकिल पर बैठ जाता। चार बजे तक मैं तनोट पहुंच गया। साइकिल धर्मशाला के पास खडी करके हाथ धोकर मैं आया ही था कि एक मिनी बस की छत पर नटवर की साइकिल दिखी। उसने साइकिल उतारी और मेरे पास ही खडी कर दी। मुझ पर आरोप लगाया कि जब धोरे के शीर्ष पर मिलने की बात हुई थी तो तू वहां क्यों नहीं आया? पहले ही क्यों रुक गया? और जब उसने बताया कि वह लोंगेवाला से बस पर साइकिल रखकर आ रहा है तो मेरा पहले से ही उबलता खून खौल उठा। क्रोध का ऐसा जबरदस्त ज्वार आया कि मन में आया इसकी गर्दन मरोड दूं। जहां मेरी साइकिल खराब हुई थी, वहां से लोंगेवाला 22 किलोमीटर दूर था। गंजा टकला इतनी दूर चला गया, कभी तुझे मेरा ध्यान नहीं आया? जबकि तुझे मालूम था कि चेन टूट गई है।
उसने अपने पास से चेन की कडियां निकालकर दीं। मैंने भरपूर क्रोध में लौटा दी- भाड में जायें ये और तू भी। रख इन्हें अपने ही पास। उस समय दिमाग में पता नहीं क्या था कि उसकी शक्ल भी देखने का मन नहीं कर रहा था। कुछ देर बाद उसने इधर उधर कुछ पूछताछ करनी शुरू कर दी। ऐसी परिस्थितियों में पूछताछ का एक ही अर्थ है कि वह जैसलमेर के लिये किसी गाडी की ताक में है। उधर जब मैं भी कुछ ठण्डा हुआ तो सोचा कि टकले के पास जब कडियां हैं तो तू उनका प्रयोग क्यों नहीं करता? चेन ठीक हो जायेगी, अभी भी दो दिन हैं तेरे पास। लोंगेवाला तो देख सकेगा। फिर कभी इधर आना हो या न हो। क्यों लोंगेवाला देखने से वंचित हो रहा है। दो दिन पहले दिल्ली जाकर करेगा ही क्या?
नटवर को ढूंढा तो वो एक कोने में खडा सिगरेट पी रहा था। मैंने उससे पूछा कि अब जैसलमेर जायेगा। बोला कि हां, कोई न कोई गाडी मिल ही जायेगी। मैंने कहा कि हां, ठीक रहेगा। ला, मुझे कडियां दे। चेन ठीक हो जायेगी तो मैं कल लोंगेवाला जाऊंगा। बोला कि रुक दो मिनट, सिगरेट खत्म कर लूं।
और यहां दोस्ती जीत गई। तनोट युद्ध के समय हुए चमत्कारों के कारण प्रसिद्ध हुआ था, एक चमत्कार आज भी हुआ। इतना कुछ होने के बाद भी हम इस तरह साइकिल ठीक करने में लग गये जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं था। चेन की पिन रिवेट की हुई होती हैं यानी उनमें हथौडा आदि मारकर उनके किनारे फैला दिये जाते हैं ताकि वे कभी न खुलें। अब जब हमें एक पिन निकालनी थी तो इसे निकालने में बडी मेहनत लगी। एक तो पत्थर भी टूट गया। आखिरकार नटवर ही पास की एक दुकान से लोहे का एक बाट लाया, तब जाकर बात बनी।
और बात बनी नहीं, बल्कि और ज्यादा बिगड गई। जब लगा कि सबकुछ सही सलामत निपट गया है तो एक बडा नुकसान हो गया। हर साइकिल की चेन अलग अलग होती है। नटवर साधारण साइकिल की कडी ले आया था। इसकी पिन दो ढाई मिलीमीटर बाहर निकली थी। यही बाहर निकली अत्यधिक कठोर पिन आफत बन गई। जब हमने चेन जोड दी तो इसे टेस्ट करने के इरादे से मैं साइकिल लेकर चला। जैसे ही इस पर बैठकर पैडल पर जोर दिया तो खरड-खरड की आवाज के साथ पिछला पहिया जाम हो गया। उतरकर देखा तो पिछला गियर चेंजर पहिये में घुसा पडा है। असल में वो जो पिन जरा सी बाहर निकली थी, वह गियर चेंजर में फंस गई। पैडल पर बल लगाने के कारण गियर चेंजर पर भी अत्यधिक बल लगा और यह मुडकर अपनी सीमाएं पार करता हुआ पहिये की तीलियों में जा घुसा।
यह नई आफत आ पडी। पहले ही भनक लग जाती तो हम उस पिन को पीट पीटकर बराबर कर देते और बाद में हमने ऐसा किया भी। लेकिन तब तक गियर चेंजर बर्बाद हो चुका था। इसे ठीक करने की कोशिश की तो आंशिक रूप से ठीक हो गया। जब सबकुछ ठीक हो गया तो इस बार टेस्ट के तौर पर साइकिल को उल्टी करके खाली ही चलाया। सावधानी से सबकुछ करके देखा तो गियर चेंजर की गडबडियों के अलावा कोई गडबडी नजर नहीं आई। और वह भी कोई ज्यादा गडबड नहीं कर रहा था। चौथे की जगह पांचवां और पांचवें की जगह छठा गियर लगा रहा था और सातवें की जगह चेन उतर जाती थी। यानी अब इस पर सातवां गियर नहीं लगाया जा सकता। इसे कभी बाद में फुरसत से बैठकर ठीक करूंगा। फिलहाल साइकिल चलने लायक हो गई है।
और जब रात को सोने लगे तब तक सारा मनमुटाव खत्म हो चुका था। दोनों ने तय कर लिया था कि सुबह सात बजे चलने वाली बस पकडेंगे और जैसलमेर जायेंगे और वहां से साइकिल चलाते हुए सम। रात को सम रुकेंगे और परसों वापस जैसलमेर लौट आयेंगे जहां से शाम को हमारी ट्रेन है।
सुबह साढे छह बजे उठना पडा। कडाके की ठण्ड थी और अन्धेरा भी था। यहां दिल्ली के मुकाबले सूरज पौन घण्टा देर से निकलता है और देर से छिपता भी है। साइकिलें बस की छत पर चढाने में सबकुछ सुन्न हो गया। ठण्ड की वजह से उन्हें बांधा भी नहीं। रेत जितनी जल्दी गर्म होती है उतनी ही जल्दी ठण्डी भी होती है, इसी कारण सर्दियों में यहां ऐसी ठण्ड पडती है। कैण्टीन तब तक खुल तो गई थी लेकिन खाने को कुछ नहीं था सिवाय चाय व कुछ बिस्कुटों के।
सवा सात बजे बस चल पडी। लगभग दो सौ मीटर ही चली होगी कि रुक गई। बन्द हो गई। ड्राइवर ने लाख कोशिश कर ली लेकिन स्टार्ट नहीं हुई। कोई कहता कि तेल खत्म हो गया है, कोई कहता तेल जम गया है। आधे घण्टे तक मशक्कत करने के बाद जब कुछ भी हाथ नहीं लगा तो ड्राइवर ने डिपो में सूचना भेज दी। डिपो जैसलमेर में है। वहां से खबर आई कि वे मिस्त्री को भेज रहे हैं। यानी कम से कम तीन घण्टे बाद मिस्त्री आयेगा, उसके बाद बस ठीक होगी, तब चलेगी। अब मैंने निर्णय ले लिया- लोंगेवाला जाऊंगा।
साइकिल उतार ली। नटवर चूंकि कल लोंगेवाला जा चुका था इसलिये वह आज उसी कठिन रास्ते पर 38 किलोमीटर चलने को राजी नहीं था, उसने साथ चलने से मना कर दिया। अब मैं और नटवर अलग-अलग हो गये। हिसाब चूंकि रात कर लिया था। उस पर मेरे सौ रुपये के करीब आये लेकिन उसने न केवल देने से मना कर दिया बल्कि अपने खर्चे के लिये चार सौ रुपये और मांग लिये। इस तरह कुल मिलाकर उसके पास मेरे पांच सौ रुपये हो गये। कभी भविष्य में मिलेंगे तो सबसे पहले उससे ये पांच सौ रुपये ही वापस लूंगा। पक्की उम्मीद है कि हम मिलेंगे अवश्य।
कैण्टीन में जाकर देखा, अभी तक भी कुछ नहीं बना था। बिस्कुट के दो तीन पैकेट रख लिये, पानी की एक बोतल भी। यहां पानी खारा था इसलिये बोतल लेनी पडी। हालांकि सर्दी होने के कारण पानी की आवश्यकता कम ही थी।
पौने नौ बजे यहां से चल पडा। लक्ष्य वही रखा दस किलोमीटर प्रति घण्टे का। ठीक डेढ घण्टे बाद यानी सवा दस बजे मैं उस स्थान पर पहुंच चुका था जहां कल साइकिल खराब हुई थी यानी तनोट से सोलह किलोमीटर। चेन ठीक काम कर रही थी। बस एक गडबड थी। हमने इसमें साधारण साइकिल की कडी फिट कर दी थी। इसकी पिन को लोहे के बाट से पीट-पीटकर काम चलने लायक बना दिया था। इस तरह पीटने से पिन चौडी हो गई थी और अत्यधिक टाइट भी। इससे यह चलते समय विशेष स्थान पर एक झटका देती थी। हर बार जब चेन एक चक्कर लगाकर उस स्थान पर आती तो झटका लगता। ऐसे झटकों से मुझे कोई खतरा नहीं था, बस यह खुलनी नहीं चाहिये। और इसे इतना पीटा गया था कि भले ही दूसरी कडियां खुल जाये लेकिन यह नहीं खुलेगी। मैं हर पांच सात किलोमीटर के बाद पूरी चेन का मुआयना कर लेता था कि कोई कडी खुली तो नहीं है।
तनोट से 22 किलोमीटर सादेवाला है। छोटा सा गांव है और एक रास्ता बॉर्डर की तरफ भी जाता है। इस पूरे रास्ते से बॉर्डर हमेशा बीस बाइस किलोमीटर दूर है। यहां भी रेत के झाडी-रहित ऊंचे ऊंचे टीले थे। साफ सुथरी रेत।
लोंगेवाला से चार किलोमीटर पहले एक गांव और मिला, नाम ध्यान नहीं लेकिन कुछ ढाणी पर था नाम। हां, हिंगोडा की ढाणी। यह सादेवाला से भी छोटा गांव है। तीन चार घरों के इस गांव में बिजली भी है। यहां से चला तो सीधे लोंगेवाला जाकर ही रुका।
लोंगेवाला- एक निर्णायक और ऐतिहासिक युद्ध का गवाह।

तनोट से लोंगेवाला वाली सडक

तनोट



तनोट से पांच किलोमीटर आगे

खारिया गांव के पास

खारिया के पास

खारिया में

ऊंट का बच्चा

कई बार चढाई इतनी तेज आती कि नीचे उतरना पडता।





ऊपर बायें कोने में सडक धोरे पर चढती दिख रही है।

चेन ठीक करने की पहली नाकाम कोशिश

यहां चेन ठीक करने हेतु एक घण्टे से भी ज्यादा लगाया।

अगले दिन जब बस खराब हो गई तो छत से साइकिल उतार ली और लोंगेवाला जाने का फैसला किया।

थार के गधे। बताते हैं कि ये लद्दाख के जंगली गधों क्यांग के बन्धु हैं।


दूर तक दिखती सडक

सादेवाला गांव










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अगले भाग में जारी...

लोंगेवाला- एक गौरवशाली युद्धक्षेत्र

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लोंगेवाला- एक निर्णायक और ऐतिहासिक युद्ध का गवाह।
1971 की दिसम्बर में जैसलमेर स्थित वायुसेना को सूचना मिली कि पाकिस्तान ने युद्ध छेड दिया है और उसकी सेनाएं टैंकों से लैस होकर भारतीय क्षेत्र में घुस चुकी हैं।
वह 3 और 4 दिसम्बर की दरम्यानी रात थी। पूर्व में बंगाल में अपनी जबरदस्त हार से खिन्न होकर पाकिस्तानियों ने सोचा कि अगर भारत के पश्चिमी क्षेत्र के कुछ हिस्से पर कब्जा कर लिया जाये तो वे भारत पर कुछ दबाव बना सकते हैं। चूंकि उनके देश का एक बडा हिस्सा उनके हाथ से फिसल रहा था, इसलिये वे कुछ भी कर सकते थे। उन्होंने जैसलमेर पर कब्जा करने की रणनीति बनाई। उस समय भारत का भी सारा ध्यान पूर्व में ही था, पश्चिम में नाममात्र की सेना थी।
जब पता चला कि पाकिस्तान ने आक्रमण कर दिया है तो कमान मेजर कुलदीप सिंह चांदपुरी के हाथों में थी। उन्होंने ऊपर से सहायता मांगी। चूंकि यह रात का समय था, जवाब मिला कि या तो वहीं डटे रहकर दुश्मन को रोके रखो या रामगढ भाग आओ। चांदपुरी ने भागने की बजाय वही डटे रहने का निर्णय लिया। सहायता कम से कम छह घण्टे बाद मिलेगी अर्थात सुबह को।
मेजर चांदपुरी ने सारी परिस्थियों का अवलोकन करते हुए युद्ध का सामना किया। पाकिस्तान को न केवल रोके रखा बल्कि उसके 12 टैंक ध्वस्त भी कर दिये। सुबह जब उजाला हो गया तो वायुसेना सहायता के लिये आ गई। वायुसेना के पास रात्रि में देखने वाले उपकरण नहीं थे। उसके आते ही सबकुछ बदल गया। पाकिस्तानी वायुसेना यहां नहीं आने वाली थी इसलिये भारतीय वायुसेना ने यहां पाकिस्तानी जमीनी फौज पर जमकर तांडव किया। इस पूरी लडाई में मात्र दो भारतीय शहीद हुए जबकि पाकिस्तानी न केवल सैंकडों की संख्या में मरे बल्कि उनके सारे टैंक व वाहन भी नष्ट हो गये। कुछ घण्टे पहले जो जैसलमेर पर कब्जा करने की योजना बना रहे थे, वे अब अपने इलाकों की फिक्र करने लगे थे। सीमा से पाकिस्तान के अन्दर पाकिस्तान की जीवनरेखा लाहौर-कराची रेलवे लाइन व सडक ज्यादा दूर नहीं है। भारतीय वायुसेना को बस एक फूंक मारने भर की देर थी।
तो यह कहानी थी लोंगेवाला की जिसने थार की इस छोटी सी जगह को अमर कर दिया। आज भी यहां पाकिस्तानी टैंक व वाहन रेत में इधर उधर बिखरे पडे हैं। अब यहां इस युद्ध की याद में एक स्मारक भी बना दिया गया है। दुनिया में ऐसी कोई जगह नहीं है जहां इतने कम समय में दुश्मन के शक्तिशाली टैंकों को इतनी संख्या में ध्वस्त किया गया हो। कुल मिलाकर 34 टैंक ध्वस्त किये- 12 थलसेना ने और 22 वायुसेना ने। यह उस समय की बात है जब अमेरिका पाकिस्तान को आंख मीचकर दिल खोलकर सहायता दिया करता था। ये टैंक व वाहन भी अमेरिका द्वारा ही दिये गये थे। लोंगेवाला को टैंकों की कब्रगाह भी कहते हैं।
लोंगेवाला जाने के लिये किसी भी परमिट की आवश्यकता नहीं होती। यह जानकारी हमें तनोट पहुंचकर पता चली। इससे पहले हम सोचते थे कि लोंगेवाला के लिये परमिट चाहिये। नटवर ने मुझसे कुछ पहले जैसलमेर आकर परमिट के लिये डीएम व एसडीएम के चक्कर लगाये थे। लेकिन वह सरकारी मशीनरी है, अपनी गति से चलती है। वहां से हाथों-हाथ परमिट कैसे मिल सकता था? फिर किसी ने बताया कि रामगढ से बीएसएफ परमिट जारी करती है। हम रामगढ गये तो पता चला कि परमिट तनोट से भी मिल जाता है। रामगढ से तनोट व लोंगेवाला के रास्ते अलग-अलग होते हैं। वहां से तनोट 55 किलोमीटर व रामगढ 43 किलोमीटर है। रामगढ के ही रहने वाले अरविन्द खत्री को भी नहीं पता था कि लोंगेवाला बिना परमिट के जाया जा सकता है। उन्होंने कहा था कि तनोट से परमिट मिल जायेगा। अगर तनोट से नहीं मिलेगा तो मुझे बता देना, मैं यहां रामगढ से अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके बीएसएफ द्वारा तनोट फोन करवा दूंगा ताकि तुम्हें लोंगेवाला का परमिट मिल सके।
हम तनोट पहुंचे तो मन्दिर द्वार पर तैनात सन्तरी से परमिट के बारे में बात की। उसने बताया कि वो सामने जो रास्ता जा रहा है, लोंगेवाला ही जा रहा है। वहां जाने के लिये किसी भी परमिट की आवश्यकता नहीं है। हां, अगर आपको सीमा देखनी है तो परमिट चाहिये। लोंगेवाला के लिये कोई परमिट नहीं।
बहरहाल, मैं लोंगेवाला पहुंचा। यहां एक चौराहा है जहां से एक रास्ता रामगढ, एक असूतार, एक सीमा पर और एक तनोट जाता है। एक बडा सा गोल चक्कर है। मैंने गोल चक्कर की दीवार पर साइकिल टिका दी तो यहीं तैनात सेना के दो जवानों ने बताया कि वहां सामने पार्किंग में चले जाओ। पार्किंग में गया तो बीएसएफ का एक जवान रजिस्टर लिये बैठा था और हर आगन्तुक के नाम दर्ज कर रहा था।
बीएसएफ के जवान ने बडे आदर से मुझे एक बेंच पर बैठाया। पूछने लगा कि कल जो साइकिल वाला आया था, वो तुम्हारा ही दोस्त था क्या? गौरतलब है कि कल नटवर यहां तक आ चुका था और मेरी साइकिल की चेन टूट गई थी जिसके कारण मुझे वापस तनोट जाना पड गया। इसके बाद इन्होंने बताया कि तुम्हारा दोस्त कह रहा था कि तुम्हारी साइकिल की चेन टूट गई है, इसलिये तुम नहीं आ सके। यही बात चौराहे पर तैनात सेना के दोनों जवानों ने भी कही। यह सुनकर मुझे नटवर पर फिर क्रोध आने लगा। कल की सारी घटनाएं आंखों के सामने आने लगीं कि किस तरह मेरी साइकिल की चेन टूटी थी, मैं इसे लेकर कुछ दूर पैदल चला था, नटवर ने चढाई पर मुझे भी पैदल आते देख मेरी हंसी उडाई थी, मैंने कहा था कि चेन टूट गई है। इसके बाद मैं रुककर चेन ठीक करने लगा और नटवर अदृश्य हो गया था। सबकुछ जानते हुए भी वह 22 किलोमीटर लोंगेवाला तक अकेला आ गया था। जवानों से भी चेन टूटने की घटना का जिक्र किया था। इन्हीं जवानों ने ही उसकी साइकिल को तनोट जाने वाली एक टूरिस्ट बस पर रखवाया था। मैंने तनोट में नटवर से पूछा था कि तू सबकुछ जानते हुए भी कैसे चला गया जबकि साइकिल की अतिरिक्त कडी तेरे पास थी तो उसने गोलमोल जवाब दिया था और मुझे ही दोषी ठहरा दिया था।
खैर, इतना होने के बावजूद भी मैं अब लोंगेवाला में था। भू-दृश्य तो ऐसा ही था जैसा मैं पिछले कई दिनों से देखता आ रहा था। लेकिन यहां होने का एहसास ही अलग था। मैं महसूस कर रहा था कि किस तरह सीमा चौकी की रक्षा करने वाले मुट्ठी भर सैनिकों ने रातभर लोहे के समुद्र को रोके रखा था। टैंकों की फौज लोहे का समुद्र ही कही जायेगी। उजाला होते ही हमारी वायुसेना उस समुद्र पर कहर बनकर टूट पडी थी।
मैं स्वयं एनसीसी कैडेट रह चुका हूं तो सेना के तौर तरीकों से परिचित हूं। मुझे पूरा यकीन था कि मैं यहां खाना हासिल कर सकता हूं। मैंने सेना के जवानों से कहा कि जब सुबह मैं तनोट से चला था तो कैंटीन में सिवाय चाय के कुछ भी नहीं था। भूखा हूं। कुछ खाने को मिल जाये तो आनन्द आ जाये। उन्होंने पहले तो यही कहा कि लोंगेवाला में कोई होटल नहीं है, कुछ भी खाने को नहीं मिलेगा लेकिन जल्दी ही कहने लगे कि साढे बारह बजे हम लंच करने जायेंगे, तुम भी चलना। अभी बारह बजे थे, इसलिये मैं इस युद्धक्षेत्र को देखने निकल पडा।
यहां से सीमा की तरफ जाने वाली सडक पर सौ मीटर भी नहीं चला कि एक खाली मैदान में एक टैंक व टूटी फूटी क्रेन खडी थी। यह पाकिस्तानी टैंक एक ऊंचे चबूतरे पर था, इसके पास ही एक सूचना पट्ट भी था जिस पर यहां का इतिहास लिखा था। क्रेन चबूतरे पर नहीं थी इसलिये समय बीतने से यह रेत में धंसने लगी है। हालांकि कोई दूसरा टैंक मुझे नहीं दिखाई दिया लेकिन पक्का यकीन है कि दूसरे टैंक भी इधर उधर पडे होंगे। या फिर बाकी ध्वस्त टैंकों को यहां से हटा दिया गया हो और यह एक टैंक प्रदर्शनी के लिये रखा हुआ हो।
चौराहे पर जो गोल चक्कर है, यह भी एक स्मारक बना दिया गया है। यहां कुछ पेड भी हैं, जिनसे छाया रहती है। एक स्मारक यहीं चौराहे से थोडा सा हटकर भी है। क्रिसमस व नववर्ष की छुट्टियों के कारण जैसलमेर में यह पर्यटन का पीक सीजन होता है जिससे यहां लोंगेवाला में भी काफी पर्यटक आ जाते हैं।
इतना देखकर मैं फिर चौराहे पर जा पहुंचा सेना के जवानों के पास। जब उन्हें पता चला कि मैं मेट्रो में कार्यरत हूं तो पूछने लगे कि वहां पूर्व सैनिकों के लिये भी कोई मौका है या नहीं। मैंने बता दिया कि योग्यता के अनुसार आप समय समय पर निकलने वाली भर्तियों में आवेदन कर सकते हो। पूर्व सैनिकों के लिये सरकारी नियमानुसार निर्धारित कोटा होता है।
साढे बारह बजे उनके साथ मैं बैरक में जाने लगा। वे बडे खेद के साथ मुझे बता रहे थे कि हमारे यहां आपको उतना अच्छा खाना नहीं मिलेगा, उतने अच्छे तरीके से भी नहीं मिलेगा। हम अपने अपने बर्तन लेकर खाना लाने जाते हैं और जहां मन किया वहां बैठकर खा लेते हैं। कभी वहीं बैठकर तो कभी अपनी बैरक में ले जाते हैं। मैं हालांकि इन सब से परिचित था लेकिन मैंने यह जाहिर नहीं होने दिया। यही कहा कि जैसे आप लोग खाते हो, जो आप लोग खाते हो, वही मैं भी खा लूंगा।
बैरक में और भी कई सैनिक थे। शीघ्र ही उन्हें पता चल गया कि मैं मेरठ से हूं और जाट हूं। कुछ तो दिल्ली की तरफ के ही थे, कुछ जाट भी थे। सबका व्यवहार मेरे प्रति विशेष हो गया। कुर्सी लाकर दी। धूप में बैठ गया। एक नहा रहा था, दूसरा नहाने की तैयारी कर रहा था। अब तक मेरे और उनके बीच सारी औपचारिकताएं समाप्त हो चुकी थीं। एक कहने लगा कि यहां सर्दियों में पानी बहुत ठण्डा हो जाता है, नहाने को भी मन नहीं करता। मैंने जैसे ही हां कहा तो पता नहीं उनके दिमाग में क्या आया कि अपने साथी से पानी गर्म करने को कह दिया। बिजली से पानी गर्म होने लगा। कहने लगे कि आपके लिये पानी गर्म होने के लिये रख दिया है। मैंने खूब कहा कि नहीं नहाऊंगा, नहीं नहाऊंगा लेकिन वे कहां मानने वाले थे? गर्म पानी आ गया, बाहर खुले में नहाना पडा। पानी भले ही गर्म हो लेकिन हवा बडी ठण्डी थी और तेज भी, गर्म पानी का उतना फायदा नहीं हुआ। आज मैं चार दिन बाद नहाया था, कभी दिल्ली से ही नहाकर चला था। खैर, जो भी हुआ, अच्छा ही हुआ। नहीं तो अगले तीन दिन मैं नहाने वाला नहीं था, दिल्ली जाकर ही नहाता।
खाना खाकर बैरक से बाहर निकला तो एक फौजी एक गधे के सिर पर हाथ फेर रहा है। आसपास और भी फौजी थे। उन्होंने बताया कि इसकी मां तब मर गई थी जब यह तीन दिन का था। हमने इसे पाला। इसलिये यह हमारे पास आ जाता है, दूसरे नहीं आते। हम इसे रोटी भी खिलाते हैं। यह दूसरे गधों से ज्यादा तंदुरुस्त है। जाहिर था कि यहां इस वीराने में यह गधा इन सैनिकों की मनोरंजक की वस्तु था। मैंने इसका नाम पूछा तो बताया- इसका नाम.... इसका नाम.... कुछ नहीं, बस गधा ही है। फिर इसके भविष्य की बातें होने लगीं- इसके लिये ऐसी पटडी बनवायेंगे जैसी साइबेरिया में कुत्ते खींचते हैं। यह रेत पर खींचा करेगा, हमें कम चलना पडेगा।... इसे पानी ढोने की ट्रेनिंग देंगे। यह हमारे लिये पानी लाया करेगा।... इसे फौज में भर्ती करेंगे।...
ढाई बजे मैं यहां से चल पडा- रामगढ के लिये, जो यहां से 43 किलोमीटर दूर है।


लोंगेवाला

लोंगेवाला से जैसलमेर और रामगढ की दूरियां



पाकिस्तानी क्रेन

ध्वस्त पाकिस्तानी टैंक




स्मारक



 
 

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थार साइकिल यात्रा- लोंगेवाला से जैसलमेर

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27 दिसम्बर 2013
सैनिकों की बैरक में भरपेट खा-पीकर दोपहर बाद दो बजे मैं रामगढ के लिये निकल पडा। रामगढ यहां से 43 किलोमीटर है। फौजियों ने बता दिया था कि इसमें से आधा रास्ता ऊंचे नीचे धोरों से भरा पडा है जबकि आखिरी आधा समतल है। अर्थात मुझे रामगढ पहुंचने में चार घण्टे लगेंगे।
यहां से निकलते ही एक गांव आता है- कालीभर। मुझे गुजरते देख कुछ लडके अपनी अपनी बकरियों को छोडकर स्टॉप स्टॉप चिल्लाते हुए दौडे लेकिन मैं नहीं रुका। रुककर करना भी क्या था? एक तो वे मुझे विदेशी समझ रहे थे। अपनी अंग्रेजी परखते। जल्दी ही उन्हें पता चल जाता कि हिन्दुस्तानी ही हूं तो वे साइकिल देखने लगते और चलाने की भी फरमाइश करते, पैसे पूछते, मुझे झूठ बोलना पडता। गांव पार हुआ तो चार पांच बुजुर्ग बैठे थे, उन्होंने हाथ उठाकर रुकने का इशारा किया, मैं रुक गया। औपचारिक पूछाताछी करने के बाद उन्होंने पूछा कि खाना खा लिया क्या? मैंने कहा कि हां, खा लिया। बोले कि कहां खाया? लोंगेवाला में। लोंगेवाला में तो खाना मिलता ही नहीं। फौजियों की बैरक में खा लिया था। कहने लगे कि अगर न खाया हो तो हमारे यहां खाकर चले जाओ। मेहमान भगवान होता है। मुझे मना करना पडा।
यह रास्ता तनोट-लोंगेवाला वाले रास्ते से भी ज्यादा ऊंचे नीचे धोरों से भरा पडा है। कई बार मुझे चढाई पर पैदल भी चलना पडा। और चढाई पार करके ढलान भी उतना ही तेज आता। लगता कि आगे बढूंगा तो उड जाऊंगा।
एक घण्टे में मैं पन्द्रह किलोमीटर निकल आया। एक छायादार पेड देखकर रुकने की इच्छा लगी। साइकिल इसी पेड के नीचे खडी कर दी। किनारे पर इसकी छाया में एक पन्नी बिछाकर लेट गया। आधे घण्टे तक पडा रहा, नींद भी ले ली। वैसे तो अच्छी धूप निकली थी, धूप में लेटता तो आलस आ जाता। अब छांव में लेटकर सर्दी लगने लगी। आधे घण्टे बाद उठकर चल दिया। पन्द्रह किलोमीटर बाद फिर रुकूंगा।
यहां भी इस सडक के चौडीकरण का काम चल रहा है। नई सडक को पुरानी सडक के मुकाबले कुछ आसान बनाया जा रहा है। ऊंचे ऊंचे धोरों को पर्याप्त काटकर व नीची जगहों को पर्याप्त भरकर सडक इस तरह बनाई जा रही है कि एक लेवल में रहे, ज्यादा उतराई-चढाई न करनी पडे। जिस हिस्से में सडक बन रही है, वहां भी पुरानी सडक की केवल एक ही लेन को यातायात के लिये खोल रखा है लेकिन यहां रामगढ-तनोट रोड के मुकाबले ट्रैफिक काफी कम रहता है इसलिये ज्यादा परेशानी नहीं होती। इसके अलावा यहां सडक पर नालियां भी नहीं हैं।
एक वीरान चौराहा मिला जहां से बायें सडक रणाऊ जाती है जो रामगढ-तनोट के बीच में है और दाहिने बांधा जाती है, जहां से प्रसिद्ध पर्यटन स्थल सम भी जाया जा सकता है। यहां से रामगढ 22 किलोमीटर रह जाता है। कुछ मजदूरों से पूछा कि यह ऊंची नीची सडक कितनी दूर तक है तो बोले कि बीसवें किलोमीटर तक। यानी मुझे अभी भी दो किलोमीटर और चलना है इस खराब सडक पर। उसके बाद समतल सडक आ जायेगी। और वास्तव में आखिरी बीस किलोमीटर सीधी सडक है। यहां सडक नई बन चुकी है, दोहरी भी है और अनावश्यक ऊंचाई निचाई को हटा दिया गया है जिससे साइकिल चलाने में और आनन्द आने लगा।
जब रामगढ पन्द्रह किलोमीटर रह गया तो मैं फिर रुक गया। रेत पर पन्नी बिछाई और बिस्कुट नमकीन खाने बैठ गया। आते जाते यात्री बडे गौर से देखते मुझे इस वीराने में अकेले बैठे हुए। आधे घण्टे यहां रुककर पौने छह बजे फिर चल पडा।
जल्दी ही दिन छिपने लगा और ठण्ड भी लगने लगी। यहां सूर्यास्त देखने में आनन्द आ रहा था क्योंकि दूर दूर तक बिल्कुल समतल मरुस्थल ही था। रही सही कसर एक छोटी नहर ने पूरी कर दी। यह नहर इन्दिरा गांधी नहर से निकली है। ढलते सूरज और आसमान में फैली लाली का शानदार प्रतिबिम्ब दिख रहा था।
रामगढ से पांच किलोमीटर पहले इन्दिरा गांधी नहर पर पुल है। यहीं दस मिनट साइकिल रोककर मंकी कैप लगा ली और सिर पर हैड लाइट भी लगा ली। मेरा इरादा रामगढ पहुंचकर एक कमरा लेने का था। वैसे तो एक जानकार भी है रामगढ में अरविन्द खत्री लेकिन तीन दिन पहले ही नटवर के मित्र संजय के माध्यम से उससे जान-पहचान हुई है। उसे पता है कि मैं संजय का फेसबुक मित्र हूं। फेसबुक भले ही कितना भी लोकप्रिय हो चुका हो लेकिन फेसबुक मित्र उतने लोकप्रिय नहीं होते। यही सोचकर मैंने अरविन्द को नहीं बताया कि रामगढ आ रहा हूं। लेकिन संजय ने मुझसे पूछ लिया कि कहां हो। मैंने बताया कि रामगढ पहुंचने वाला हूं तो उसने अरविन्द को बता दिया। मुझे रामगढ जाकर अरविन्द के सुझाये एक गेस्ट हाउस में रुकना पडा हालांकि मेरे कोई पैसे नहीं लगे।
अगले दिन यानी 28 दिसम्बर को शाम पांच बजे मेरी दिल्ली की ट्रेन थी। मेरी इच्छा साइकिल से ही रामगढ से जैसलमेर जाने की थी जिसकी दूरी 65 किलोमीटर है। लेकिन संजय का फोन आया कि सुबह बस से जैसलमेर आ जाओ और संजय मुझे जैसलमेर घुमायेगा। उसकी इच्छा थी कि मैं सुबह आठ बजे वाली तनोट-जोधपुर बस पकड लूं। लेकिन मुझे पता था कि मैं ऐसा नहीं करूंगा। फिर अरविन्द से जब पूछा तो उसने बताया कि रामगढ से हर आधे घण्टे में जैसलमेर की बस चलती है। इससे मैं निश्चिन्त हो गया। अब सुबह कोई जल्दबाजी नहीं करूंगा, आराम से उठूंगा।
सुबह ग्यारह बजे उठा। कुछ ही देर में मैं बस अड्डे पर था। जैसलमेर की एक बस खडी थी। पता चला कि यह दो बजे चलेगी। मुझे अरविन्द पर बडा गुस्सा आया। अपने रामगढ की प्रशंसा करने के लिये उसने मुझसे झूठ बोला था कि यहां से हर आधे घण्टे में बस है। अगर वह सच बोल देता तो मैं कुछ जल्दी उठता और इससे पहले वाली बस पकडता। यह एक प्राइवेट बस थी जिसकी छत पर साइकिल रख दी और इसके कोई पैसे नहीं लगे। इस दौरान संजय का फोन आता रहा। वह बडा बेचैन था मुझे अपने शहर में घुमाने के लिये।


लोंगेवाला रामगढ सडक

विशुद्ध रेत के धोरे



यहीं आधे घण्टे तक सोया



सडक के चौडीकरण का काम


यह है नई बनी सडक




सूर्यास्त








रामगढ में


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नक्शे में A लोंगेवाला है, B रामगढ है और C जैसलमेर है। नक्शे पर + पर क्लिक करके जूम-इन व - पर क्लिक करके जूम- आउट किया जा सकता है और sat पर क्लिक करके सैटेलाइट मोड में व ter पर क्लिक करके टैरेन मोड में भी देखा जा सकता है।

अगले भाग में जारी...

जैसलमेर में दो घण्टे

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तीन बजे मैं जैसलमेर पहुंचा। संजय बेसब्री से मेरा इंतजार कर रहा था। वह नटवर का फेसबुक मित्र है। मुझसे पहचान तब हुई जब उसे पता चला कि नटवर और मैं साथ साथ यात्रा करेंगे। पिछले दिनों ही वह मेरा भी फेसबुक मित्र बना। उसने मेरा ब्लॉग नहीं पढा है, केवल फेसबुक पृष्ठ ही देखा है। मेरे हर फोटो को लाइक करता था। मैं कई दिनों तक बडा परेशान रहा जब जमकर लाइक के नॉटिफिकेशन आते रहे और सभी के लिये संजय ही जिम्मेदार था। मैं अक्सर लाइक को पसन्द नहीं करता हूं। ब्लॉग न पढने की वजह से उसे मेरे बारे में कुछ भी नहीं पता था। मेरा असली चरित्र मेरे ब्लॉग में है, फेसबुक पर नहीं।
सवा पांच बजे यानी लगभग दो घण्टे बाद मेरी ट्रेन है। इन दो घण्टों में मैं जैसलमेर न तो घूम सकता था और न ही घूमना चाहता था। मेरी इच्छा कुछ खा-पीकर स्टेशन जाकर आराम करने की थी। फिर साइकिल भी पार्सल में बुक करानी थी।
संजय इतना बेसब्र था कि मुझे हनुमान चौक पर प्रतीक्षा करने को कहकर स्वयं वहां से सौ मीटर दूर एक ऊंची लाइट के नीचे खडा हो गया। उस समय मैं एक ऐसी जगह पर खडा था कि मुझे वह ऊंची लाइट नहीं दिख रही थी। मैंने जब उसे अपनी लोकेशन बताई तो निर्देश देने लगा। इस दौरान मैंने दस रुपये के बारह गोलगप्पे भी खा लिये। कई बार फोन आया उसका। एक तो मारवाडी लहजा मेरे कम पल्ले पडा, फिर दूसरी बात कि पन्द्रह मिनट पहले उसने मुझे हनुमान चौक पर पहुंचने को कहा था, खुद पता नहीं कहां है, निर्देश पर निर्देश दिये जा रहा है। जब मैं उसे भाड में भेजकर स्टेशन जाने के लिये साइकिल पर बैठने ही वाला था तो तेज तेज कदमों से मेरे पास आया। पचास कदम चलकर उसने बताया कि वो पिछले बीस मिनट से यहां मेरी प्रतीक्षा कर रहा था।
मैंने कहा कि अब मेरे पास समय नहीं है, मुझे स्टेशन जाना है और साइकिल बुक करानी है। ट्रेन चलने में दो घण्टे भी नहीं बचे हैं। कहने लगा कि आप जैसलमेर आये हैं तो आपको अपना शहर घुमाऊंगा... जैसलमेर ज्यादा बडा नहीं है... डेढ घण्टे में आप सबकुछ देख लोगे। मैंने कहा कि मैं इस तरह भागमभाग में नहीं घूमा करता। कभी फिर आऊंगा और आराम से जैसलमेर देखूंगा। कहने लगा कि आराम से ही देखोगे आप डेढ घण्टे में। आपको मैं किला, हवेलियां, ये, वो सब दिखा दूंगा। अब मैं स्वयं को फंसा हुआ महसूस करने लगा। वाकई फेसबुक मित्र जो आपके असली हुनर को नहीं जानते, सिर्फ एक क्लिक भर करके लाइक या पोक करना ही जानते हैं, आपके लिये सिरदर्द भी बन सकते हैं।
उसकी चाल और जुबान बडी तेज है। तेज तेज चलता रहा और तेज तेज चपर चपर बोलता रहा। कुछ दूर चलकर एक गली में मुड गया- आप दो सेकण्ड यहां रुको, वो सामने मेरा घर है, मैं यह जैकेट उतारकर आ रहा हूं। दो घर छोडकर ही उसका घर था। घर बाहर से अच्छा बना था जैसा कि जैसलमेर में हर घर बना है। कितना अच्छा होता कि वो मेरी मनोदशा समझता। डेढ घण्टे में जैसलमेर घुमाने की अपेक्षा अगर वह अपने घर ही ले जाता। भले ही चाय को भी न पूछता, पानी भी न देता, भले ही फेसबुक खोलकर बैठ जाता लेकिन मुझे अच्छा लगता। एक मारवाडी घर को देखने का मौका मिलता। जैसलमेर में देश के मुकाबले विदेश से ज्यादा लोग आते हैं और वे पागल नहीं हैं कि कई कई दिन यहां रुकते हैं। इधर यह महाराज मुझे डेढ घण्टे में जैसलमेर घुमाने की बात कर रहा है। डेढ घण्टे में भाग-दौड करके पांच-चार हवेलियां और किले की झलक ले लूंगा तो इसका एक नुकसान तो यही होगा कि दोबारा यहां आने का मन नहीं करेगा। पहले देख ही रखा है, अब दोबारा क्यों जाऊं? फिर अगर दोबारा आ भी गया तो इस संजय के बच्चे को बताना भी नहीं है कि मैं आ रहा हूं। और हां, टकले नटवर को भी नहीं।
ये देखो नीरज भाई, जैसलमेर की एक सुपर पतली गली। है तो गन्दी लेकिन यहां कई फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है। ऐसी पतली गलियां दुनिया में और कहीं नहीं हैं। उधर खडे होओ, आपका फोटो खींचता हूं। आप हाथ फैलाओगे तो आपकी दोनों हथेलियां दीवारों को स्पर्श करेंगीं। महाराज को क्या पता कि इधर पुरानी दिल्ली के निवासी हैं। उस पुरानी दिल्ली के जहां न केवल इससे भी पतली पतली गलियां हैं, बल्कि उन गलियों में बेहद तंग और भीड भरे बाजार भी हैं।
नथमल की हवेली के सामने पहुंचे। बोला- इस हवेली में कुछ नहीं है। बस बाहर से फोटो खींच लो। इसके बाद आपको पटवों की हवेली में ले जाऊंगा। मैं बुरी तरह खीझ ही रहा था। उसके कहे अनुसार दो तीन फोटो खींचे और पुनः दौड लगा दी। मैं जैसलमेर शहर के हृदय प्रदेश में घूम रहा था, खूब पर्यटक थे और जमकर फोटो खींच रहे थे। मैं संजय के पीछे पीछे दौड लगा रहा था।
पटवों की हवेली के सामने पहुंचे। यहां काफी भीड थी। पलक झपकने की देर थी और फुर्तीला संजय मेरी नजरों से ओझल हो गया। मैं एक तरफ जाकर खडा हो गया। दस मिनट बाद वह सामने आया- नीरज भाई, तुम कहां चले गये थे? अन्दर क्यों नहीं गये? मैं कितनी देर से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूं? मैंने कहा कि मुझे पता ही नहीं चला कि तुम किधर चले गये। बोला कि तुम्हारे सामने ही तो गया था अन्दर।... मतलब मैं झूठ बोल रहा हूं। यानी तुम्हें मैंने अन्दर जाते देखा और जानबूझकर खुद बाहर ही रुक गया?
खैर, पटवों की हवेली के अन्दर पहुंचे। यहां प्रति व्यक्ति सत्तर रुपये लिये जाते हैं और कैमरे के पचास रुपये अलग से। पटवों की हवेलियां एक हवेली-समूह है। यहां कुछ हवेलियों में जाने के पैसे लगते हैं, कुछ में जाने के नहीं लगते। संजय मुझे एक फ्री वाली हवेली में ले गया। यहां भी वही चपलता। सीढियों पर चढकर ऊपर छत पर पहुंचे। कदम कदम पर कहता- नीरज भाई, सिर बचाकर। यहां दरवाजे नीचे होने के कारण सिर में चोट बडी जल्दी लगती है। यहां हम सबसे ऊपर जायेंगे। इतनी सारी सीढियां हैं कि तुम्हें सांस चढ जायेगी। मैं ज्यादातर समय चुप ही रहा।
यह यात्रा तो अच्छी निबट गई लेकिन संजय मेरी भावी जैसलमेर यात्रा का बेडागर्क किये जा रहा है। पता नहीं क्या खुशी मिल रही है उसे? मैं उससे बोल तक नहीं रहा, बात बात पर झुंझला भी उठता था, लेकिन वह समझ ही नहीं रहा।
सबसे ऊपर छत पर पहुंचे। बाकी हवेलियों की छतें भी आपस में मिल रही थीं, बस एक छोटी सी दीवार सबके बीच में थी। चारों ओर का नजारा बेशक शानदार था। सामने ही किला भी अपने पूरे ठाठ-बाट से दिख रहा था।
ज्यादातर पर्यटक पैसे वाली हवेली की छत पर थे। हम फ्री वाली पर थे। बराबर वाली छत पर संजय को दो विदेशी युवतियां दिखाई दीं। बीच में छोटी सी दीवार ही थी। बात करने लगा। वे जर्मन थीं। नाम पूछे, वे भी बता दिये। इसके बाद संजय ने उनसे फेसबुक एकाउण्ट के बारे में पूछा और मित्र बनने की ख्वाहिश जाहिर की जिसपर उन्होंने औपचारिकतावश गर्दन तो हिला दी लेकिन मुझे लग रहा था कि दोनों लडकियां संजय के जबरदस्ती बीच में आ कूदने से खुश नहीं थीं। और वे ही क्या, कोई भी खुश नहीं होगा। जब वे कुछ दूर चली गईं, संजय ने दीवार फांदी और मुझसे कहा- नीरज भाई, बस दो मिनट रुको, मैं अभी आया। वह फिर उन्हीं दोनों लडकियों के बीच में जा घुसा।
मुझे किसी की भी यही हरकत सबसे जलील हरकत लगती है। बिल्कुल नीच हरकत। हम घूमने जाते हैं तो कभी नहीं चाहते कि कोई हमारी आजादी में बाधक बने। सामने वाला सम्मान कर रहा है, कुछ खाने को टोक रहा है, देर सवेर होने पर अपने यहां रुकने को कह रहा है, भाषा न आने पर भी बात करने की कोशिश कर रहा है; यह सब तब तक ही ठीक लगता है जब तक हमारी आजादी में बाधा न बने। अति सर्वत्र वर्जयते।
इन हवेलियों से बाहर निकलते ही मैंने संजय से पूछा कि स्टेशन का रास्ता बताओ। उसने कहा कि बस किला और रह गया है, पन्द्रह मिनट में देख लेंगे। मैंने बिना किसी औपचारिकता के तीखे शब्दों में कहा कि तुम्हारे साथ अब मुझे कुछ नहीं देखना। कभी दोबारा जैसलमेर आऊंगा और इस शानदार शहर को अपने तरीके से देखूंगा। बोला कि क्या कमी रह गई मेरे दिखाने में? मैंने कहा कि तुम मेरी आजादी में बाधक बन रहे हो। ये चीजें मेरे लिये घण्टे भर में देख डालने की नहीं हैं। कुछ हवेलियां मैंने देख ली हैं, तो शायद कभी दोबारा इन्हें देखने न आऊं। मैं नहीं चाहता कि किले के साथ भी ऐसा हो।
उसने स्टेशन का रास्ता बता दिया। मैं सीधा स्टेशन जाकर ही रुका। ट्रेन प्लेटफार्म पर खडी थी। इसके चलने में अभी घण्टा भर शेष था। मैं सीधा पार्सल कार्यालय पहुंचा। बताया कि इस ट्रेन में एक साइकिल बुक करनी है। बोले कि कल आना। मैंने कहा कि जाना तो आज है, कल क्या करूंगा आकर? बोले कि अब कार्यालय बन्द हो गया है। आगे बहस करनी बेकार थी। अच्छा खासा कार्यालय खुला हुआ था, महाराज किसी से फोन पर बतिया रहा था।
लेकिन मेरे लिये निराश होने वाली बात नहीं थी। साइकिल के दोनों पहिये खोले। हैंडल खोलकर बॉडी पर बांध दिया और अपनी सीट के नीचे रख दी। बडी अच्छी तरह साइकिल सीट के नीचे आ गई। इस दौरान संजय फिर स्टेशन पर आ टपका- नीरज भाई, आपके लिये खाना बनवाया था, मैं घर पर ही भूल गया था, ये लो खा लेना। भोजन का मैं कभी अपमान नहीं किया करता, ले लिया। भूख तो लगी ही थी। कुछ उसके सामने खा लिया, कुछ आगे के लिये रख लिया।
दो घण्टे की देरी से जोधपुर-जैसलमेर पैसेंजर आई। इसमें जोधपुर से प्रशान्त आया। कल ही मुझे पता चल गया था इस ट्रेन से प्रशान्त आयेगा और मेरे साथ जोधपुर तक जायेगा। वह आया, आते ही वापस जोधपुर का टिकट ले लिया और मेरे साथ बैठ गया। ट्रेन चलने पर टीटी आया तो प्रशान्त ने उसे अपना जनरल टिकट दिखाकर सीट के लिये पूछा। साल के इन सात-आठ दिनों में यह ट्रेन जैसलमेर से ही भर जाती है, टीटी ने असमर्थता दिखा दी। प्रशान्त ने जब टीटी को बताया कि वह दक्षिण रेलवे में स्टेशन मास्टर है, तो टीटी के पहले शब्द थे- सर, आपने टिकट ही क्यों लिया?
और मुझे पता है कि उसने टिकट क्यों लिया? मेरी तरह वह भी अपनी सभी यात्राओं का रिकार्ड रखता है। उसके पास अपनी सभी यात्राओं के टिकट हैं। इसीलिये उसे रेलवे में स्टेशन मास्टर होने के बावजूद भी टिकट खरीदने पडते हैं। वैसे भी भले ही कोई रेलवे कर्मचारी ही क्यों न हो, वह भी कानूनन बेटिकट यात्रा नहीं कर सकता।
प्रशान्त के आते ही मैं पिछले दो घण्टों का सारा तनाव भूल गया। ये छह घण्टे कैसे कटे, पता ही नहीं चला। संजय की एक एक हरकत को मजे ले-लेकर मैंने उसे सुनाया और हम जमकर हंसे। सहयात्री भी हमारे वार्तालाप में शामिल हो गये। उनके लिये यह कम हैरानी की बात नहीं थी कि प्रशान्त सुबह सवेरे पांच बजे जोधपुर से ट्रेन में बैठा था और अब आधी रात को जोधपुर पहुंचेगा। केवल इसलिये ताकि वह नीरज के साथ कुछ समय बिता सके। प्रशान्त ने उनके सामने मेरे कसीदे पढे और मैंने उसके।
एक सज्जन थे। भोपाल के थे। अब जैसलमेर घूमकर जयपुर जा रहे थे और वहां से कल फ्लाइट से भोपाल जायेंगे। वे बडे नाराज थे। उन्होंने बताया- हमने पच्चीस हजार का एक पैकेज बुक किया था। सम में एक टैंट में रुके। सबकुछ शानदार था। शाम को जब हमारे बच्चे को पेशाब आया तो मैंने मैनेजर से पूछा कि टॉयलेट कहां है, बच्चे को जाना है तो एक तरफ इशारा करके बोला कि उधर जाकर करा लाओ। मैंने तो मैनेजर को बडी सुनाई। आखिर हम पैसा किसलिये दे रहे हैं? खुले में मूतने के लिये हम इतना खर्च कर रहे हैं?
मैं इन सज्जन से सहमत नहीं था- अंकल जी, ठीक है कि आपने इतना पैसा खर्च किया। पैसा खर्च किया है तो उसके अनुरूप सुविधाएं भी मिलनी चाहियें। लेकिन ... लेकिन घूमने का मकसद क्या होता है? हम बाहर घूमने इसलिये जाते हैं ताकि उसी एकरूप दिनचर्या से कुछ समय के लिये हट जायें। आपको टॉयलेट में ही मूतना है तो वो आपके घर में भी है। एक बार बाहर रेत पर खुले में मूतकर देखो, उसका भी अलग आनन्द है। घर में कीडे-मकोडों को दूर रखते हो, बाहर कीडे-मकोडों के साथ खेलकर देखो, उसका भी अलग आनन्द है। दिनचर्या में परिवर्तन के लिये घूमने जाते हो। जो काम घर में करते हो, बाहर जाकर उसका उल्टा करके देखो। हालांकि सज्जन चुप तो हो गये लेकिन मुझसे सहमत नहीं हुए।

एक पतली गली

नथमल की हवेली

नथमल की हवेली



पटवों की हवेली




पटवों की हवेली

पटवों की हवेली

हवेली के अन्दर

हवेली की छत से दिखता किला

छत से दिखता शहर और दाहिने संजय विदेशी लडकियों से मिलकर आ रहा है।


जैसलमेर किले का प्रवेश द्वार

जैसलमेर रेलवे स्टेशन

और सीट के नीचे रखी अपनी साइकिल

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दिल्ली से कश्मीर

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उस दिन मैं सायंकालीन ड्यूटी पर था दोपहर बाद दो बजे से रात दस बजे तक। शाम के छह बजे थे, खान साहब अपने ऑफिस का ताला मारकर जाने की तैयारी में थे। तभी प्रशान्त का फोन आया- नीरज भाई, कश्मीर चलें? हममें हमेशा इसी तरह बिना किसी औपचारिकता के बात होती है। मैंने थोडी देर बाद बात करने को कह दिया। खान साहब जब जाने लगे तो मैंने उन्हें रोककर कहा- सर, मुझे आठ तारीख की छुट्टी लेनी है। वे ठिठक गये। ड्यूटी-पत्र खोलकर देखा, अपने रिकार्ड में मेरी छुट्टी लगा ली। मुझे छुट्टी मिलने का भरोसा तो था लेकिन इस तरीके से इतनी जल्दी नहीं।
फिर प्रशान्त को फोन किया- हां भाई, बता। बोला कि कश्मीर चलते हैं। वहां बर्फ पड रही है, रेल में घूमेंगे। वह ट्रेनों में घूमने का शौकीन है और उसे पता है कि मैं अभी तक कश्मीर रेल में नहीं घूमा हूं। इसलिये रुका हुआ हूं कि जब बर्फ पडेगी तब घूमूंगा। आखिर भारत में ऐसी लाइनें हैं ही कितनी? कालका शिमला लाइन है जहां कभी कभार ही बर्फबारी होती है। दार्जीलिंग हिमालयन रेलवे है। ये दोनों नैरो गेज हैं। जबकि कश्मीर रेल ब्रॉड गेज है। कोई भी अन्य ब्रॉड गेज लाइन बर्फबारी वाले इलाके से नहीं गुजरती।
प्रशान्त से जब बताया कि मैंने आठ तारीख की छुट्टी ले ली है, सात का अवकाश है तो उसने माथा पीट लिया- यार बीस को चलेंगे। अब इसी वजह से प्रशान्त का जाना खटाई में पड गया। आखिरकार उसने असमर्थता जता दी। मुझे अकेले ही जाना पडेगा।
यात्रा में एक सप्ताह भी नहीं बचा था। दिल्ली से जम्मू का आरक्षण नहीं मिला। बस से जाना बेकार है। अम्बाला से देखा तो वहां भी निराशा हाथ लगी। छह तारीख की मेरी नाइट ड्यूटी थी यानी छह को दिन में खाली रहूंगा, सात का साप्ताहिक अवकाश और आठ की छुट्टी। देखा जाये तो तीन दिन हाथ में थे।
वैसे तो मालवा एक्सप्रेस से जा सकता था, यह ट्रेन आजकल लगातार लेट चल रही थी। सुबह दिल्ली से चलकर शाम तक जम्मू पहुंच सकता था। फिर जम्मू में कमरा लेकर रुकना पडेगा। इसी वजह से किसी भी ट्रेन में रात्रि आरक्षण को प्रमुखता दे रहा था। दिल्ली व अम्बाला से आरक्षण नहीं मिला तो ऋषिकेश से आने वाली हेमकुण्ट एक्सप्रेस देखी, उसमें भी वेटिंग मिली। अब आखिरी वरीयता प्राप्त ट्रेन देखनी पडी जिसमें मुझे हमेशा विश्वास होता है कि कन्फर्म बर्थ मिल जायेगी- भटिण्डा-जम्मू एक्सप्रेस। इस ट्रेन ने मुझे निराश नहीं किया। आखिरकार फाइनल कार्यक्रम इस तरह बना- नई दिल्ली से लुधियाना तक शाने-पंजाब से, लुधियाना से फिरोजपुर पैसेंजर से, फिरोजपुर से जम्मू रात्रि ट्रेन से। इस बहाने लुधियाना से फिरोजपुर की लाइन पर यात्रा भी कर लूंगा। वापसी के लिये ऊधमपुर से नई दिल्ली तक सम्पर्क क्रान्ति में वेटिंग आरक्षण करा लिया, उम्मीद है कि चार्ट बनने तक कन्फर्म हो जायेगा।
शाने पंजाब एक्सप्रेस नई दिल्ली से सुबह छह चालीस पर चलती है। मैंने ऑफिस से निकलते समय एक भूल कर दी कि नेट पर इसके आज के चलने के समय पर निगाह नहीं डाली। भागा भागा जब स्टेशन पहुंचा तो देखकर निराशा हुई कि ट्रेन लगभग दो घण्टे की देरी से यानी साढे आठ बजे प्रस्थान करेगी। उत्तर भारत में कोहरे ने हर ट्रेन को अपनी चपेट में ले रखा है।
खैर, सवा आठ बजे ट्रेन प्लेटफार्म पर लगी। मैंने इसमें सेकण्ड सीटिंग में अपनी सीट आरक्षित कर रखी थी, खिडकी के पास वाली। डिब्बे में जाकर देखा तो एक सज्जन बैठे थे मेरी सीट पर, एक उनके बराबर में यानी बीच वाली पर। मैंने खिडकी वाले सज्जन से सीट छोडने को कहा तो आंख दिखाने लगे- क्या सबूत है कि तुम्हारी सीट खिडकी वाली है? जाहिर है कि अत्यधिक पढे-लिखे थे। मैंने हाथ से खिडकी की तरफ इशारा कर दिया जहां लिखा था कि किस नम्बर की सीट खिडकी वाली है। उन्हें जगह छोडनी पडी। वे अमृतसर जा रहे थे। बेचारे परेशान ही रहे होंगे। खिडकी चाहे खुली हो या बन्द हो, इसके पास बैठने का आनन्द ही अलग होता है। बाहर ठण्ड थी, कोहरा भी था, खिडकी पूरे रास्ते बन्द ही रही। कुछ भी हो, खिडकी के शीशे पर सिर टिकाकर सोया तो जा सकता है। वैसे भी मैं रात भर का जगा हुआ था।
ढाई घण्टे की देरी से यानी ढाई बजे ट्रेन लुधियाना पहुंची। यहां से एक बीस पर बजे चलने वाली फिरोजपुर पैसेंजर छूट चुकी थी। अगली ट्रेन सवा पांच बजे है। अगर सवा पांच वाली से जाऊंगा तो मेरी जम्मू वाली ट्रेन छूट जायेगी। दूसरा विकल्प है तीन बजे वाली लोहियां खास की डीएमयू पकडना। यह पांच बजे तक लोहियां खास पहुंच जायेगी। लोहियां खास फिरोजपुर से घण्टे भर की दूरी पर है। अगर लोहियां से फिरोजपुर की ट्रेन न भी मिली तो वहीं से जम्मू वाली ट्रेन पकड लूंगा। ट्रेन खाली चल रही है, मेरी आरक्षित बर्थ को जम्मू तक भी कोई खतरा नहीं है।
लोहियां खास का टिकट ले लिया। आधे घण्टे की देरी से ट्रेन आई। इसे देखते ही हैरान रह गया। मात्र तीन डिब्बे। डीएमयू ट्रेनों में अलग से इंजन नहीं लगा होता। डिब्बों के अन्दर ही इंजन फिट होता है। तीन डिब्बों को मिलाकर एक यूनिट बनाई जाती है। एक यूनिट में दोनों तरफ इंजन लगे होते हैं। ट्रेन कभी भी किसी भी दिशा में चलाई जा सकती है। मैंने इससे पहले जितनी भी डीएमयू देखी थीं, सभी कई यूनिट को मिलाकर बनी थीं। मेरठ वाली डीएमयू तो जबरदस्त लम्बी है। इस नन्हीं सी डीएमयू को देखकर हैरानी होनी ही थी। लगने लगा कि भयंकर भीड रहेगी गाडी में लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
एक यात्री ने मुझसे पूछा कि क्या यह गाडी नूरमहल जायेगी? मैंने हां कह दिया हालांकि मुझे मालूम नहीं था। मैं वहां से तुरन्त हटा, एक स्थानीय से पूछा। पता चल गया कि यह नूरमहल भी जायेगी। अगर गाडी नूरमहल नहीं जाती तो मैं उस यात्री को पुनः जाकर मना कर आता। वह एक बिहारी था जो यहां किसी के खेतों में लम्बे अरसे से काम करता आ रहा था। पिछले दिनों वह गांव चला गया था। अब जब लौटा तो अपने पडोसी को भी लेता आया।
गाडी फिल्लौर तक तो जालंधर वाली मुख्य लाइन पर चलती है। फिल्लौर के बाद इसका रूट अलग हो जाता है। रास्ते में प्रताबपुरा, बिलगा, गुमटाली, नूरमहल, सिधवां, नकोदर जंक्शन, गांधरां, मलसियां शाहकोट, मूलेवाल खैहरा, सिंधड, कंग खुर्द और लोहियां खास जंक्शन स्टेशन आते हैं। नकोदर से एक लाइन जालंधर चली जाती है। इसी तरह लोहियां खास से भी एक लाइन जालंधर जाती है और एक फिरोजपुर छावनी। ट्रेन छह बजे लोहियां पहुंची।
रात दस बजे मेरी जम्मू वाली गाडी इसी स्टेशन पर आयेगी। अभी चार घण्टे हैं। क्या इस छोटे से स्टेशन पर बैठा रहूं और मूंगफलियां चबाता रहूं? या आधे घण्टे बाद आने वाली जालंधर-फिरोजपुर डीएमयू को पकड लूं? यह डीएमयू फिरोजपुर पहुंचेगी, उसके पच्चीस मिनट बाद जम्मू वाली ट्रेन वहां से चल पडेगी। लेकिन इस योजना पर तब पानी फिर गया जब फिरोजपुर डीएमयू आधे घण्टे की देरी से आई। फिर भी साढे तीन घण्टे तक यहीं बैठे रहने से अच्छा था कि ट्रेन में ही बैठ जाऊं। मक्खू या मल्लांवाला पर उतर जाऊंगा। जम्मू ट्रेन मल्लांवाला भी रुकती है और मक्खू भी।
मैं मल्लांवाला खास उतर गया। ट्रेन से उतरे कुछ यात्रियों से यहां हलचल सी दिखाई दी। शीघ्र ही सब चले गये तो सन्नाटा पसर गया। जैसा कि छोटे स्टेशनों पर होता है प्रवेश द्वार पर ही टिकट खिडकी होती है और यहीं कुछ बेंचे भी रखी होती हैं। इसी को प्रतीक्षालय कहते हैं। मुझे आधा घण्टा प्रतीक्षा करनी पडी। ट्रेन आई तो मैं इसमें चढ लिया।
भटिण्डा-जम्मू एक्सप्रेस (ट्रेन नं 19225) एक विलक्षण ट्रेन है। भटिण्डा भी उत्तर रेलवे के अन्तर्गत आता है और जम्मू भी। इसका पूरा रूट उत्तर रेलवे में है। उत्तर रेलवे में ही शुरू होती है, यहीं खत्म होती है। किसी और रेलवे को स्पर्श भी नहीं करती। लेकिन इस ट्रेन का मालिक पश्चिम रेलवे है। पश्चिम रेलवे में अहमदाबाद डिवीजन। यानी इसका मालिक गुजरात है, चलती पंजाब में है। असल में एक और ट्रेन है अहमदाबाद-जम्मू एक्सप्रेस (गाडी सं 19223)। यह गाडी शाम को जम्मू पहुंचती है और अगली सुबह जम्मू से अहमदाबाद के लिये चल देती है। कायदे में इसे रातभर जम्मू ही खडे रहना था। जम्मू-भटिण्डा एक्सप्रेस के लिये इन्हीं डिब्बों का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी दूसरी विशेषता भी है। इसे हर 100 किलोमीटर पर अपनी दिशा बदलनी पडती है यानी इंजन इधर से हटाकर उधर लगाना पडता है। भटिण्डा से चलकर फिरोजपुर छावनी, फिर जालंधर सिटी, फिर अमृतसर और फिर पठानकोट में ऐसा होता है। कुल मिलाकर चार बार इसके लोको रिवर्सल होते हैं। भारत में यह सर्वाधिक लोको रिवर्सल होने वाली ट्रेनों में से एक है। इसे श्रीगंगानगर तक बढा देना चाहिये, भटिण्डा में भी लोको रिवर्सल हो जाया करेगा।
खैर, एक घण्टे की देरी से गाडी जम्मू पहुंची। उधर ऊधमपुर जाने के लिये सम्पर्क क्रान्ति भी घण्टे भर लेट थी। मैंने आसानी से सम्पर्क क्रान्ति पकड ली। नौ बजे ऊधमपुर पहुंच गया। ऊधमपुर से आगे के पर्वतों पर हल्की बर्फ दिख रही थी। स्टेशन के सामने ही सिटी बस खडी मिल गई। उसने बस अड्डे पहुंचा दिया। अब मुझे बनिहाल जाना था। कश्मीर रेल बनिहाल से चलती है। पांच घण्टे में पहुंच जाने की उम्मीद थी। एक मिनी बस वाला जो खाली जा रहा था, उसने बैठा लिया। तीन सौ मांगे, दो सौ में सौदा पट गया। फिर भी उसने सवारियां एकत्र करने में काफी मेहनत की। चलते समय बस की सभी बारह सीटें भर चुकी थीं। कोई रामबन जाने वाला था, कोई बनिहाल तो दो तीन यात्री श्रीनगर के भी थे।
ऊधमपुर से निकलते ही पटनी टॉप की चढाई शुरू हो जाती है। रास्ता तवी नदी के साथ साथ है। तवी पटनी टॉप के पास से निकलती है। पटनी टॉप के उस तरफ चेनाब घाटी है। हिमालय में एक नदी घाटी से दूसरी नदी घाटी में जाने का सीधा रास्ता है कि पहले चढाई चढकर जल विभाजक पार करो और फिर दूसरी तरफ उतर जाओ। पटनी टॉप तवी और चेनाब की जल विभाजक है अर्थात दर्रा है। इस दर्रे के नीचे एक सुरंग का काम चल रहा है। शीघ्र ही सुरंग बन जायेगी तो चेनाब घाटी व कश्मीर जाने वालों को पटनी टॉप चढने की जरुरत नहीं होगी।
पटनी टॉप पर बर्फ थी लेकिन सीमा सडक संगठन ने इसे रास्ते से हटाकर इसके दुष्प्रभाव को कम कर दिया था। जैसे जैसे ऊपर चढते गये, बर्फ भी बढती गई। इसी तरह जैसे जैसे उस तरफ नीचे उतरते गये, बर्फ गायब होती गई।
रामबन के पास चेनाब पार करके फिर चढाई शुरू कर दी। यह चढाई बनिहाल स्थित जवाहर सुरंग पर खत्म होगी। जवाहर सुरंग पीर पंजाल श्रंखला के नीचे बनी है। पीर पंजाब श्रंखला चेनाब और झेलम की जल विभाजक है।
 






जम्मू ऊधमपुर के बीच चलने वाली डीएमयू

ऊधमपुर से दिखती बर्फ

पटनी टॉप
अगले भाग में जारी...

कश्मीर रेलवे

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सात जनवरी 2014 की दोपहर बाद तीन बजे थे जब मैं बनिहाल रेलवे स्टेशन जाने वाले मोड पर बस से उतरा। मेरे साथ कुछ यात्री और भी थे जो ट्रेन से श्रीनगर जाना चाहते थे। राष्ट्रीय राजमार्ग से स्टेशन करीब दो सौ मीटर दूर है और सामने दिखाई देता है। ऊधमपुर से यहां आने में पांच घण्टे लग गये थे। वैसे तो आज की योजनानुसार दो बजे वाली ट्रेन पकडनी थी लेकिन रास्ते में मिलने वाले जामों ने सारी योजना ध्वस्त कर दी। अब अगली ट्रेन पांच बजे है यानी दो घण्टे मुझे बनिहाल स्टेशन पर ही बिताने पडेंगे।
मुझे नये नये रूटों पर पैसेंजर ट्रेनों में यात्रा करने का शौक है। पिछले साल जब लद्दाख से श्रीनगर आया था तो तब भी इस लाइन पर यात्रा करने का समय था लेकिन इच्छा थी कि यहां केवल तभी यात्रा करूंगा जब बर्फ पडी हो अर्थात सर्दियों में। भारत में यही एकमात्र ब्रॉडगेज लाइन है जो बर्फीले इलाकों से गुजरती है। इसी वजह से तब जून में इस लाइन पर यात्रा नहीं की। अब जबकि लगातार कश्मीर में बर्फबारी की खबरें आ रही थीं, जम्मू-श्रीनगर मार्ग भी बर्फ के कारण कई दिनों तक बन्द हो गया था। तभी मनदीप वहां गया हवाई मार्ग से। मुझे लग रहा था कि बर्फ के कारण रेल भी बन्द हो जाती होगी। मनदीप से इस बारे में पता करने को कहा। वो ठहरा इन चीजों से दूर भागने वाला। पता नहीं उसने पता किया या नहीं लेकिन उसने मना कर दिया कि आजकल ट्रेन भी बन्द है।
तीन चार दिन पहले ही सन्दीप भाई भी कश्मीर गये। मैंने उनसे पता किया तो उन्होंने बताया कि ट्रेन चल रही है। जब ज्यादा बर्फबारी होती है, तभी बन्द होती है अन्यथा चलती रहती है। कल जब मैं दिल्ली से निकल चुका था तो उन्होंने बताया कि वे उस ट्रेन में यात्रा करके आ चुके हैं। अब मुझे कोई शक नहीं रहा। मेरी निगाह कई दिनों से श्रीनगर के मौसम पर लगी थी। आठ तारीख को वहां बर्फबारी की आशंका दर्शाई गई थी। उससे पहले साफ मौसम की भविष्यवाणी की गई थी। इससे मुझे पूरा यकीन था कि भले ही आठ तारीख को बर्फ पडे लेकिन उस दिन ट्रेन बन्द नहीं होने वाली। बर्फ कभी भी एकदम से इतनी नहीं पडती कि सबकुछ बन्द हो जाये। हां, अगर आठ को भारी बर्फबारी होती रही तो नौ को ट्रेन बन्द हो सकती है। इस तरह मैं आज और कल के लिये ट्रेन की तरफ से निश्चिन्त था।
स्टेशन के बाहर खाने पीने की कई दुकानें हैं। जम्मू व ऊधमपुर जाने के लिये सूमो व बसें भी खडी थीं। मौसम अत्यधिक ठण्डा था। सामने पीर पंजाल की पहाडियों पर काफी बर्फ दिख रही थी। पहाडियों पर ही क्यों? यहां जहां मैं खडा हूं, काफी बर्फ है। हवा चल रही है, शरीर के आरपार हो रही है।
स्टेशन के अन्दर प्रवेश किया। टिकट के लिये लम्बी लाइन लगी थी लेकिन अभी टिकट नहीं दिये जा रहे थे। ट्रेन आने में डेढ घण्टा बाकी था। प्लेटफार्म पर प्रवेश करने से पहले एक द्वार था जहां एक सुरक्षाकर्मी खडा था, हालांकि कोई स्कैनिंग मशीन नहीं थी। मैं प्लेटफार्म पर गया, ठण्डी हवा जोर से चल रही थी। जल्दी जल्दी में कुछ फोटो खींचे और पुनः टिकट वाले इलाके में आ गया। यहां काफी भीड थी, जगह बन्द थी इसलिये कुछ गर्मी भी थी।
यह ट्रेन बारामूला तक जाती है और तीन घण्टे लगाती है। एक घण्टा अनन्तनाग का और दो घण्टे श्रीनगर के। श्रीनगर पहुंचते पहुंचते सात बज जायेंगे और काफी अन्धेरा हो जायेगा। काफी देर तक इसी उधेडबुन में लगा रहा कि आज श्रीनगर जाऊं या बारामूला। जब भी कोई नई रेलवे लाइन बनती है तो स्टेशन शहर के भीतर नहीं बल्कि बाहर काफी दूर बनते हैं। श्रीनगर का स्टेशन भी ऐसा ही है और बारामूला का भी। पता नहीं स्टेशन के आसपास कहीं ठहरने की जगह मिलेगी भी या नहीं। आखिरकार पता नहीं क्या सोचकर बडगाम का टिकट ले लिया, श्रीनगर से अगला स्टेशन।
खैर, ट्रेन आई। वातानुकूलित डिब्बे देखकर मैं हैरान रह गया। एकबारगी तो लगा कि कहीं इसमें कुछ डिब्बे प्रथम श्रेणी के तो नहीं होते। लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। सभी डिब्बे द्वितीय श्रेणी के ही हैं। अन्दर घुसा, खिडकी के पास वाली एक सीट कब्जा ली। अन्दर हीटर चल रहा था इसलिये बाहर के मुकाबले राहत थी। यह एक डीएमयू ट्रेन थी।
श्रीनगर उतर गया। सबसे पहले स्टेशन मास्टर के यहां गया। वह फोन पर लगा हुआ था। फोन पर बात करते करते ही उसने वह बारामूला वाली ट्रेन रवाना कर दी। वह लहजे से पूर्वी उत्तर प्रदेश का लग रहा था। तसल्ली से बात करने के बाद उसने मुझसे आने का कारण पूछा। मैंने विश्रामालय में कमरे के बारे में पूछा। उसने टालने वाले अन्दाज में मना कर दिया। उसका यह अन्दाज मुझे अच्छा नहीं लगा। उसकी जगह किसी कश्मीरी को होना चाहिये था।
वैसे तो यहां पास में ही पर्यटन कार्यालय भी है लेकिन रात होने की वजह से मुझे पता नहीं चला। श्रीनगर जाने वाली एक बस खडी थी लेकिन मुझे यकीन था कि आसपास रुकने का कुछ अवश्य होगा। मैं मुख्य सडक की तरफ चल दिया जो स्टेशन से करीब आधा किलोमीटर दूर है। सडक पर पुरानी बर्फ जमी हुई थी जिससे बचना पड रहा था नहीं तो फिसल जाता।
बाईपास के पास एक आदमी मिला। उसे अपनी समस्या बताई। उसने सोच विचारकर कहा कि आप बायें मुडकर नौगांव चले जाओ, वहां एक होटल है। अगर होटल में जगह नहीं मिली तो वहां से आपको लालचौक जाने के लिये बस मिल जायेगी। मैं नौगांव की तरफ चल पडा जो यहां से करीब दो किलोमीटर दूर है।
नौगांव में ज्यादातर दुकानें बन्द थीं। एक जगह होटल के बारे में पूछा तो उन्होंने उस एकमात्र होटल के बारे में बता दिया। मैं आज स्टेशन के पास ही रुकना चाहता था ताकि सुबह साढे आठ बजे वाली बारामूला की ट्रेन पकड सकूं। आखिर कल ही मुझे शाम तक ऊधमपुर भी तो लौटना है। खैर, होटल में पहुंचा। बडा और आलीशान होटल था। एक बिहारी कर्मचारी मिला। वो मैनेजर के पास ले गया। मैनेजर कश्मीरी था, कम उम्र का लडका ही था। सबसे सस्ता कमरा बताया आठ सौ का। मैंने तुरन्त नकार दिया- पांच सौ दूंगा। बोला कि नहीं। मैंने कहा कि कोई बात नहीं, मैं लालचौक चला जाता हूं, वहां मुझे मेरे बजट में आसानी से कमरा मिल जायेगा। तभी बिहारी ने मैनेजर को समझाया कि साहब, बेचारा दिल्ली से आया है, इस रात को कहां जायेगा। देख लो अगर हो जाये तो। मैनेजर ने मुझे रिसेप्शन में बैठने को कह दिया। बिहारी ने मुझसे कहा कि आप बेफिक्र रहो, आप हमारे इधर के आदमी हो, आपको इतनी रात में और इतनी ठण्ड में बाहर कैसे छोड सकते हैं? मुझे बिहारी का व्यवहार बहुत अच्छा लगा।
खाना खाकर सोने चल दिया। बिस्तर पर लेटा तो लगा जैसे बर्फ की सिल्लियों पर लेट रहा हूं। रजाई ओढ ली। सबकुछ अत्यधिक ठण्डा। कुछ देर बाद जब गर्मी आने लगी तो मैंने करवट ले ली। तभी तकिये के पास बेडशीट के नीचे कुछ महसूस हुआ। लगा जैसे कोई प्लास्टिक की चीज रखी है। इसे और टटोलकर देखा तो इससे एक तार भी निकला हुआ था। मुझे कोई शक नहीं रहा कि यह माइक है जो आवाजें रिकार्ड करने के लिये लगाया गया है। आखिर यह कश्मीर है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्दा है। आतंकवादियों और अलगाववादियों की मर्जी के बिना होटल नहीं चल सकते। यहां जासूसी काफी मायने रखती है। खैर, जिज्ञासा हुई तो बेडशीट हटाकर ‘माइक’ को देखा। तार का एक सिरा बिस्तर के पाये के पास गया था, दूसरा सिरा तकिये के नीचे था। दूसरे सिरे को खींचकर ‘माइक’ देखना चाहा तो लगा जैसे माइक को बेडशीट में स्थायी रूप से सिल रखा है। तभी इसके ऊपर लगे लेबल पर निगाह गई- इलेक्ट्रॉनिक ब्लैंकेट।
धत्त तेरे की, तो यह बिजली से गर्म होने वाला कम्बल है। मैंने नेट पर इसके परिचालन की जानकारी ली तो पता चला कि कुछ साल पहले जो कम्बल आते थे उनमें कम सुरक्षा के कारण आग लगने का खतरा होता था लेकिन आजकल के कम्बलों में ऐसा नहीं होता। फिर भी मैंने इसका प्रयोग नहीं किया। रजाई में पर्याप्त गर्मी आ चुकी थी।
सुबह जल्दी उठना पडा। आठ बजे तक मैं स्टेशन पहुंच चुका था। पौने नौ बजे दोनों दिशाओं में जाने वाली ट्रेनें आती हैं, इसलिये काफी भीड थी। मैंने बारामूला का टिकट ले लिया। प्लेटफार्म पर गया। यहां तीन प्लेटफार्म हैं। बनिहाल की ट्रेन तीन नम्बर पर आयेगी और बारामूला की एक नम्बर पर। मैं फुट ओवर ब्रिज पर जाकर खडा हो गया। दूर से आती ट्रेन का अच्छा फोटो आया।
श्रीनगर से अगला स्टेशन बडगाम है। बडगाम में ट्रेनों का डिपो भी है जहां रात को सभी ट्रेनें जाकर खडी हो जाती हैं। वहीं रख-रखाव होता है और साफ-सफाई भी। एक घण्टे में बारामूला पहुंच गया। यहां से आगे पहाड दिखने लगे थे।
बारामूला से बनिहाल का टिकट लिया। यही ट्रेन दस मिनट बाद बनिहाल जायेगी। बारामूला से बनिहाल के बीच स्टेशन हैं- बारामूला, सोपुर, हामरे, पट्टन, मजहोम, बडगाम, श्रीनगर, पामपुर, काकपोर, अवन्तीपुरा, पंजगोम, बिजबिआडा, अनंतनाग, सदुरा, काजीगुंड, हिलर शाह आबाद और बनिहाल। हिलर शाह आबाद और बनिहाल के बीच में वो प्रसिद्ध सुरंग भी है। भारतीय रेलवे की सबसे लम्बी अर्थात 11 किलोमीटर की सुरंग।
‘भारतीय रेलवे की सबसे लम्बी सुरंग’ और ‘भारत की सबसे लम्बी रेल सुरंग’- इन दोनों बातों में बडा अन्तर है। यह सुरंग भारत की सबसे लम्बी रेल सुरंग नहीं है। वो तो दिल्ली में है। जी हां, भारत की सबसे लम्बी रेल सुरंग दिल्ली में है। दिल्ली मेट्रो की येलो लाइन पर जीटीबी नगर से साकेत तक लगभग 25 किलोमीटर की सुरंग देश की सबसे लम्बी रेल सुरंग है। दूसरी बात, जो उपलब्धि अभी बनिहाल सुरंग को हासिल हुई है, वह ज्यादा दिन नहीं चलने वाली। मणिपुर में एक महा-सुरंग बन रही है। जिरीबाम-इम्फाल रेल लाइन का काम चल रहा है। बताते हैं कि वह सुरंग 39 किलोमीटर लम्बी होगी।
एक और मजेदार बात। भारत का सबसे ऊंचा रेलवे स्टेशन घूम है जो दार्जीलिंग हिमालयन लाइन पर है। वह लाइन नैरो गेज है। अब बात करते हैं भारत के सबसे ऊंचे ब्रॉड गेज रेलवे स्टेशन की। कश्मीर में ट्रेन चलने से पहले यह उपलब्धि ओडिशा के शिमिलिगुडा स्टेशन (996.2 मीटर) के पास थी। शिमिलिगुडा विशाखापट्नम-किरन्दुल लाइन पर है। उसके बाद कश्मीर में रेलवे नेटवर्क के चालू होने पर इसका हकदार काजीगुंड बन गया। काजीगुंड की ऊंचाई 1722.165 मीटर है। अब यह तथ्य फिर बदल गया है। आज के समय में भारत का सबसे ऊंचा ब्रॉड गेज रेलवे स्टेशन हिलर शाह आबाद है जिसकी ऊंचाई 1753.922 मीटर है। बनिहाल स्टेशन 1705.928 मीटर की ऊंचाई पर है। जिस तरह आज भी शिमिलिगुडा स्टेशन पर एक सूचना-पट्ट है उसी तरह अब एक सूचना-पट्ट हिलर शाह आबाद पर भी लगा देना चाहिये।
यात्रा करते समय मैंने फेसबुक पर एक अपडेट कर दिया- “हे भगवान! इसमें तो हीटर लगा है। 135 किलोमीटर की दूरी 30 रुपये में।” कुछ टिप्पणियां ऐसी आईं जिन्हें पढकर मैं हैरान रह गया। एक ‘सदैव राष्ट्रवादी’ नामक महाशय ने लिखा- “फ्री का चन्दन, घिस मेरे नन्दन। कश्मीर को बीस तीस हजार करोड का सालाना पैकेज हम भारतीयों की तरफ से खैरात में मिलता है, तब भी वो वफादार नहीं होते।”
पहली बात तो यही है कि इन कथित राष्ट्रवादी साहब ने कश्मीर और भारत के बीच स्पष्ट रेखा खींच दी है- ...कश्मीर को... हम भारतीय। फिर शिकायत भी कर रहे हैं कि कश्मीरी वफादार नहीं होते। अगर भारत के राष्ट्रवादी लोग ही ऐसा विभाजन करेंगे तो कश्मीरियों से शिकायत क्यों? कश्मीर एक ऐसी जगह है जहां दुनिया के कई देश मिलकर खेल खेल रहे हैं। प्रत्यक्षतः पाकिस्तान वहां जहर बो रहा है, परोक्षतः दूसरे देश भी हैं जिनका इस जहर में हाथ है। जो प्रत्यक्ष दिख रहा है, उसका सामना तो किया जा सकता है। अदृश्य का सामना कैसे हो? भारत इसी मुश्किल का सामना कर रहा है। कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बनाये रखने के लिये वहां बीस तीस हजार करोड का पैकेज जाता है।
हां, पुनः कह रहा हूं कि भारत कश्मीर पर इतना खर्च इसलिये करता है ताकि वह भारत का हिस्सा बना रहे। वफादारी दूसरी चीज है। देश के गद्दार तो दिल्ली में भी रहते हैं। और कौन कहता है कि कश्मीरी भारत से प्रेम नहीं करते? हो सकता है कि वे सामान्य बोलचाल में शेष भारत को इण्डिया कह देते हों। आखिर हम भी तो पूर्वोत्तर को अपने देश का हिस्सा नहीं मानते। पूर्वोत्तर के लोगों को देखते ही चीनी व चाइनीज कहा जाना आम बात है। हमें पहले अपने गिरेबान में झांकना होगा। दूसरों को अपना बनायेंगे तो वे भी हमें अपना मानेंगे।
जब मैं बारामूला से बनिहाल आ रहा था तो मेरे बगल में एक कश्मीरी युवक बैठा था। वह फोन पर अपनी प्रेमिका से बात कर रहा था। इसका पता मुझे तब चला जब उसने आखिर में कई बार लव-यू, लव-यू कहा और चुम्बन भी लिया। ट्रेन में एक सिंघाडे बेचने वाले से उसने सिंघाडे लिये और स्वयं से पहले मुझे खाने को दिये। मैंने एक बार मना किया, फिर एक सिंघाडा ले लिया। बातचीत शुरू हो गई। वह बारामूला से आगे किसी गांव का रहने वाला था। अच्छा पढा-लिखा था और अपना कुछ बिजनेस करता था। बिजनेस के सिलसिले में अवन्तीपुरा जा रहा था। मैंने बातों का रुख इसी दिशा में मोड दिया जो अभी लिखी हैं- मैंने अक्सर सुना है कि कश्मीरी शेष भारत को इण्डिया और हमें इण्डियन कहते हैं। क्या वे खुद इण्डियन नहीं हैं?
उसने कहा कि ये सब बीती बातें हो चुकी हैं। हालांकि अब भी कुछ लोग ऐसा कहते हैं। और मुझे भी बडी हंसी आती है जब वे इण्डिया कहते हैं। मैं उन्हें समझाता भी हूं कि हम स्वयं इण्डियन हैं तो अपने दूसरे भाई-बन्धुओं को इण्डियन कहना अच्छा नहीं लगता। लेकिन अब हवा बदल रही है।
बातें चलती रहीं, मुश्ताक नाम था उसका- कश्मीर ने बीते बीस सालों में बहुत कुछ खोया है। वो सामने देखो। वो सरदारजी कश्मीरी हैं, कश्मीरी सरदार, कश्मीरी सिख। उन्होंने फिरन पहन रखी है। हमारी संस्कृति यही थी और आज भी है। पाकिस्तान ने सारा कबाडा कर दिया यहां। हिन्दुओं को भगा दिया। यहां तक कि हमारे चरारे-शरीफ को भी नहीं बख्शा। हमारी खुद की मां-बहनों को भी नहीं बख्शा। अपनी वासना की पूर्ति के लिये वे हमारी बहनों से अस्थायी निकाह करते थे। हप्ते दस दिन तक भोगते थे, फिर तलाक देकर दूसरी के साथ निकाह कर लेते थे। पाकिस्तान में होता होगा ऐसा, कश्मीर में नहीं होता। उन्हें कश्मीर से कोई मतलब नहीं था। उनके साथ कश्मीर के गुण्डे और आवारा लडके मिल गये। वो काला दौर था कश्मीर का।
अब हवा बदल रही है। अवाम कभी ऐसा नहीं चाहता। सब सियासत है। अवाम न सुरक्षाबलों पर बम फेंकता है और न पत्थर। सब सियासत है। हमारी हुकूमत अगर ठान ले तो क्या नहीं हो सकता? कश्मीर का आकर्षण ही ऐसा है कि इतना बदनाम होने के बावजूद भी टूरिस्ट यहां आते हैं। उन टूरिस्टों से कश्मीर चल रहा है। तीन साल पहले जो यहां भयानक दंगे हुए, उनसे भी हमारा बहुत नुकसान हुआ। हमारा तो बिजनेस है, हमें भी खाने के लाले पड गये थे। बेचारे कम आमदनी वालों का क्या हुआ होगा?
आप आज भी किसी भी कश्मीरी घर में चले जाओ, आपको भरपूर इज्जत मिलेगी। कश्मीर ऐसे ही जन्नत नहीं कहा जाता, यह वाकई में जन्नत है। जन्नत किसी पहाड या दरिया से नहीं बनती, अवाम के दिलों से बनती है। कश्मीरी अवाम आज भी वही है। अब हवा बदल रही है।
उसकी बातों ने वाकई मुझे सोचने को मजबूर कर दिया- कुछ गलतफहमियां इधर भी हैं और कुछ उधर भी। कुछ शिकायतें इधर भी हैं और कुछ उधर भी। दोनों तरफ की बर्फ पिघलेगी, तभी हवा बदलेगी।
और...बर्फ पिघल रही है।




श्रीनगर रेलवे स्टेशन


श्रीनगर रेलवे स्टेशन





यह एक कूडेदान है।






काजीगुंड स्टेशन


हिलर शाह आबाद

हिलर शाह आबाद भारत का सबसे ऊंचा ब्रॉड गेज स्टेशन है।








अगले भाग में जारी...

कश्मीर से दिल्ली

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8 जनवरी 2014 की दोपहर पौने एक बजे ट्रेन बनिहाल पहुंच गई। पौने आठ बजे ऊधमपुर से नई दिल्ली के लिये सम्पर्क क्रान्ति चलती है जिसमें मेरा वेटिंग आरक्षण है। इस तरह मेरे हाथ में पूरे सात घण्टे थे। कल ऊधमपुर से यहां आने में पांच घण्टे लगे थे। लेकिन आज मौसम खराब है, बनिहाल में बर्फबारी हो रही है, आगे पटनी टॉप में भी समस्या हो सकती है। अगर रातभर वहां बर्फबारी होती रही हो तो रास्ता भी बन्द हो सकता है। इस तरह बनिहाल उतरते ही मेरी प्राथमिकता किसी भी ऊधमपुर या जम्मू वाली गाडी में बैठ जाने की थी। सामने राजमार्ग पर अन्तहीन जाम भी दिख रहा था, जो मेरी चिन्ता को और बढा रहा था।
सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। यहां थोडी सी पकौडी और चाय ली गई। फिर देखा कि जम्मू के लिये न तो कोई सूमो है और न ही कोई बस। समय मेरे पास था नहीं इसलिये फटाफट रामबन वाली बस में बैठ गया। आगे रास्ता खुला होगा तो रामबन से बहुत बसें मिल जायेंगीं। सीट पर बैठा ही था कि एक सूमो पर निगाह गई। ड्राइवर ऊपर सामान बांध रहा था। मैंने तेज आवाज में उससे पूछा तो उसने ऊधमपुर कहा। अब मैं क्यों रामबन वाली में बैठा रहता? पीछे वाली सीटें मिली लेकिन खैरियत यही थी कि समय से ऊधमपुर पहुंच जाऊंगा। चार सौ रुपये एडवांस में ले लिये।
यहां से निकलते ही उस अन्तहीन जाम में फंस गये। जम्मू-श्रीनगर राजमार्ग टू-लेन है जिसमें कुछ समय पहले तक एक लेन आने और दूसरी लेन जाने के लिये प्रयोग की जाती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब यातायात इतना बढ गया है कि दोनों लेन एक ही दिशा के लिये खोली जाती हैं। एक दिन यातायात जम्मू से श्रीनगर जाता है और एक दिन श्रीनगर से जम्मू। संयोग से कल जम्मू से श्रीनगर का यातायात था, आज श्रीनगर से जम्मू का। इसके बावजूद भी कुछ स्थानीय गाडियां विपरीत दिशा में चलती हैं जिनकी वजह से जाम लगता है। एक बार जाम लग गया तो यह शीघ्र ही अन्तहीन हो जाता है।
बनिहाल कस्बे से निकले तो जाम से भी निकल गये। फिर भी जगह जगह जाम मिलते रहे। रामबन भी निकल गया और पटनी टॉप की चढाई शुरू हो गई। रामबन काफी नीचे चेनाब किनारे स्थित है, यहां बर्फ नहीं पडती। पटनी टॉप ऊपर है, वहां बर्फ पडती है। सामने से कुछ गाडियां आती दिखीं तो सांस में सांस आई कि मार्ग खुला है।
पटनी टॉप से आधा किलोमीटर पहले एकाएक गाडी में धुआं उठने लगा। ड्राइवर ने इसे बन्द कर दिया और यह सोचकर बोनट खोल दिया कि चढाई पर गाडी गर्म हो गई है। कुछ देर बाद स्टार्ट करने की कोशिश की तो यह स्टार्ट नहीं हुई। जांच की तो पाया कि इंजन के पास कुछ तार गलकर शॉर्ट सर्किट हो गये हैं। इसका इलाज यही निकला कि गाडी को वापस बटोट ले जाया जाये और वहां इन्हें ठीक कराया जाये। यहां से बटोट सात आठ किलोमीटर पीछे है और नीचे भी। गाडी बिना स्टार्ट किये वहां जा सकती है। मैंने यहीं उतरना ठीक समझा।
अच्छी खासी बर्फबारी हो रही थी। दस मिनट बाद ही एक और सूमो आई, हाथ देने से रुक गई। ऊधमपुर जाना है- यह कहकर मैं उसमें बैठ गया। लेकिन जब समय ही खराब हो अपने हाथ में कुछ नहीं रहता। शीघ्र ही यह गाडी भी बन्द हो गई। पता चला कि तेल खत्म हो गया है। गनीमत थी कि जब गाडी बन्द हुई तो पटनी टॉप से निकल चुके थे और रास्ता ढलान वाला हो गया था। पेट्रोल पम्प आठ दस किलोमीटर आगे कुद में है। इतनी दूर तक गाडी धीरे धीरे लुढकती हुई आई।
तेल भरवाया। यहां से चले तो एक महा-जाम में फंस गये। पांच बजने वाले थे। रास्ता साफ होता तो यहां से ऊधमपुर पहुंचने में एक घण्टा भी नहीं लगता। चूंकि आज सडक की दोनों लेन जम्मू जाने वाले वाहनों के लिये आरक्षित थीं इसलिये बायीं तरफ ट्रक थे और दाहिनी लेन में छोटी गाडियां सूमो और कारें। सामने से कोई गाडी आयेगी तो पहाडी मार्ग होने की वजह से वह सडक से नीचे नहीं उतर सकती थी। ऐसे में छोटी गाडियों को उसे रास्ता देने के लिये ट्रकों की लेन में घुसना पडेगा। इसी वजह से जाम लग जाता था। ऊंचाई पर होने की वजह से हमें दिखाई दे गया कि यह जाम आगे कई किलोमीटर लम्बा है। दो घण्टे एक ही जगह खडे रहे। ट्रेन पकडने की सारी उम्मीदें जाती रहीं। आरक्षण की स्थिति चेक की तो पाया कि मेरी सीट कन्फर्म हो गई थी।
साढे छह बजे जाम खुला। अभी भी सवा घण्टा था ट्रेन के चलने में। सूमो तेज चलती तो लगता कि ट्रेन पकड लूंगा। रुक जाती तो ट्रेन भी निकल जाती। मैं लगातार गूगल मैप पर अपनी स्थिति देखता चल रहा था, स्टेशन इतना किलोमीटर दूर है, इतना समय बचा है, यही गणना करने में लगा हुआ था। जो आनन्द किसी क्रिकेट मैच में तब आता है जब आखिरी ओवर बचा हो, आपको बारह रन चाहिये और आपके दो विकेट हाथ में हों, वही आनन्द अब मुझे आ रहा था। एक एक गेंद कीमती होती है, एक एक किलोमीटर और एक एक मिनट कीमती है। मामला बिल्कुल मार्जिन पर चल रहा था। तभी एक चौका मारकर एक बल्लेबाज आउट हो गया। एक डॉट बॉल चली गई। धुकधुकी बढती जा रही थी। राजमार्ग से स्टेशन काफी दूर है। मैं स्टेशन जाने वाले तिराहे पर उतर जाऊंगा और तुरन्त ऑटो पकडूंगा, वो पचास रुपये या सौ रुपये जितने भी लेगा मैं दे दूंगा। बस ट्रेन मिल जाये।
जब उस मोड से पांच किलोमीटर दूर रह गया तो मैंने ड्राइवर से कहा कि स्टेशन वाले तिराहे पर उतार देना। मेरे इतना कहने की देर थी और आखिरी बल्लेबाज भी आउट हो गया। ऐसा जाम मिला कि आधे घण्टे रुकना पड गया। जब उस तिराहे पर गाडी रुकी तो आठ बज चुके थे। ट्रेन दस मिनट पहले छूट चुकी थी। ऊधमपुर से ट्रेनें हमेशा समय पर ही छूटती हैं। मैं अब यहां उतरकर क्या करता? जम्मू चलने को कह दिया। किसी दूसरी ट्रेन से चला जाऊंगा। पौने बारह बजे जबलपुर एक्सप्रेस जायेगी। जींद, रोहतक के रास्ते जाती है, कल दोपहर तक दिल्ली पहुंचेगी।
ऊधमपुर-जम्मू मार्ग एक शानदार मार्ग है। यह एक एक्सप्रेस हाईवे है, कुछ बन चुका है, कुछ बन रहा है। पुराने रास्ते के मोडों को खत्म करके इसे यथासम्भव सीधा बनाने की कोशिश की गई है, चौडा भी काफी है। साढे नौ बजे तक जम्मू के बस अड्डे पर पहुंच गया। पटनी टॉप से यहां के दो सौ रुपये लिये। अब फिर विचार आया कि बस से जाऊं या ट्रेन से। फिर ट्रेन ने बाजी मार ली। बस में भी बैठकर ही जाना है, ट्रेन में भी। अगर लेटने की जगह मिल गई तो बल्ले बल्ले। फिर रेल के किराये और बस के किराये की तो कोई तुलना ही नहीं। एक सज्जन के साथ मिलकर स्टेशन जाने के लिये अस्सी रुपये में ऑटो किया, दोनों के चालीस चालीस रुपये लगे। उन सज्जन को सहारनपुर जाना था। देहरादून में उनकी तैनाती है, फौजी हैं। कल वहां रिपॉर्ट करना है। किश्तवाड से आ रहे थे। जामों ने उन्हें भी काफी परेशान किया। अब चिन्ता में थे कि पता नहीं सहारनपुर की ट्रेन मिलेगी भी या नहीं। मेरे पास चिन्ता-निवारण उपाय था। बता दिया कि पौने ग्यारह बजे लोहित एक्सप्रेस जायेगी। उसके बाद कोई ट्रेन नहीं है, वही एकमात्र ट्रेन है। जब स्टेशन में प्रवेश कर रहे थे, मुझे उद्घोषणा सुनाई दी- अर्चना एक्सप्रेस प्लेटफार्म नम्बर तीन पर खडी है। मैंने तुरन्त उन सज्जन को रोका और कहा कि अर्चना एक्सप्रेस जाने को तैयार खडी है, इसे आठ बजे ही चले जाना चाहिये था लेकिन लेट है। इससे चले जाओ। और जल्दी सहारनपुर पहुंच जाओगे। उन्होंने दौड लगा दी।
मैं टिकट लेने एकमात्र लम्बी लाइन में लग गया। हालांकि मेरा टिकट सम्पर्क क्रान्ति में कन्फर्म हो गया था लेकिन वह किसी दूसरी ट्रेन में मान्य नहीं है। जब यह लाइन काफी लम्बी हो गई तो दूसरी खिडकी भी खोल दी गई। मैं अविलम्ब उसमें जा लगा। नई दिल्ली का टिकट मांगा रोहतक रूट से, लेकिन उसने अम्बाला रूट का टिकट दे दिया। मैंने आपत्ति जताई तो उसने कहा कि यह भी चल जायेगा। मैंने ले तो लिया लेकिन मैं निराश था। जब यह ट्रेन अम्बाला से जायेगी ही नहीं तो टिकट उस रूट का क्यों लूं? आप भले ही साधारण टिकट पर यात्रा कर रहे हों लेकिन आपके पास उसी रूट का टिकट होना चाहिये जिससे ट्रेन जायेगी। साधारण टिकट पर लिखा होता है कि यह किस रूट का टिकट है। दो भिन्न-भिन्न रूटों की दूरियों में कुछ अन्तर होता है। किराया दूरी पर आधारित होता है। अगर आप छोटे रूट का टिकट लेकर लम्बे रूट से यात्रा कर रहे हों तो यह माना जाता है कि आप निर्धारित दूरी से अधिक यात्रा कर रहे हो और इसकी पेनल्टी लगती है। लेकिन गनीमत है कि अम्बाला रूट रोहतक रूट के मुकाबले ज्यादा लम्बा है। यानी मैंने ज्यादा दूरी का टिकट लिया है और यात्रा करूंगा कम दूरी पर।
स्क्रीन पर दो ट्रेनें दिख रही थीं- जम्मू जबलपुर और जम्मू बान्द्रा स्पेशल। जम्मू रूट पर मैं स्पेशल ट्रेनों का बडा भक्त हूं। मैंने इससे पहले दो बार इस मार्ग पर स्पेशल ट्रेनों में यात्रा की है। साधारण टिकट होने के बावजूद भी साधारण डिब्बे में आराम से पैर पसारकर सोते हुए। मुझे लगा कि यह ट्रेन लुधियाना, जाखल, हिसार, रतनगढ, जोधपुर के रास्ते जायेगी। अगर ऐसा है तो इस ट्रेन से जाखल तक चला जाऊंगा। सुबह सात आठ बजे यह जाखल पहुंचेगी, कम से कम रात भर आराम से सोना तो मिल जायेगा। लेकिन जब नेट पर इसकी जानकारी ली तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। यह अम्बाला और दिल्ली होते हुए जायेगी। अब कोई फिक्र नहीं, बारह बजे भी दिल्ली पहुंचेगी तो भी ठीक है। सम्पर्क क्रान्ति छूटने का सारा दुख समाप्त हो गया। इसका असली समय यहां से सुबह छह सात बजे चलने का था लेकिन अत्यधिक लेट हो जाने की वजह से यह अब रात को साढे ग्यारह बजे जायेगी।
जबलपुर एक्सप्रेस साप्ताहिक ट्रेन होने के बावजूद भी दिल्ली और आगे झांसी तक एक दैनिक ट्रेन है। असल में रोज इसी समय यानी पौने बारह बजे सप्ताह में एक दिन जबलपुर, एक दिन कन्याकुमारी, एक दिन मंगलौर, तीन दिन चेन्नई के लिये ट्रेनें यहां से रवाना होती हैं। अब एक और नई ट्रेन इसी समय निर्धारित की गई है कोटा के लिये। इस प्रकार मध्य हरियाणा और दिल्ली, मथुरा, आगरा, झांसी तक के लिये यह दैनिक ट्रेन की तरह कार्य करती है। इस वजह से मेरी उम्मीद से ज्यादा भीड थी। अक्सर साप्ताहिक ट्रेनों में दैनिक ट्रेनों के मुकाबले कम भीड होती है।
जबलपुर एक्सप्रेस को आधा घण्टे विलम्ब से प्लेटफार्म नम्बर एक से रवाना किया जायेगा और साढे ग्यारह बजे बान्द्रा स्पेशल को उसी प्लेटफार्म से। इस तरह जब बान्द्रा स्पेशल प्लेटफार्म पर आई तो जबलपुर की भीड उसमें चढने लगी। कुछ लोग डिब्बे पर बान्द्रा लिखा देखकर कन्फ्यूज थे। यहां मैंने कुछ मेहनत की और डिब्बे के उन यात्रियों को उतार दिया जिनके पास जबलपुर वाली का टिकट था। पूरे डिब्बे में दो तीन फौजी और एक दो अन्य यात्री थे जो आगे मुम्बई जायेंगे। ट्रेन चलने से पहले ही मैं स्लीपिंग बैग में घुस गया। अलार्म लगाने की कोई आवश्यकता नहीं थी। बारह बजे से पहले यह दिल्ली नहीं पहुंचने वाली।
अगले दिन आंख खुली तो बाहर भयंकर कोहरा था। ट्रेन रेंग रही थी। नौ बज चुके थे और ट्रेन करनाल पहुंचने वाली थी। धीरे धीरे पानीपत भी निकल गया और सोनीपत भी। थोडी निराशाजनक बात यह थी कि ट्रेन आजादपुर से बाईपास लाइन पकडकर सफदरजंग जायेगी। नई दिल्ली या पुरानी दिल्ली नहीं जायेगी। सफदरजंग से मुझे फिर पूरी दिल्ली पार करके वापस कश्मीरी गेट लौटना पडेगा। इसलिये जैसे ही किसी ने आजादपुर फ्लाईओवर के पास चेन खींची तो मैं भी उतर गया। फिर मेट्रो पकडकर शास्त्री पार्क पहुंचने में समय ही कितना लगता है?

पटनी टॉप

पटनी टॉप


कश्मीर रेलवे
1. दिल्ली से कश्मीर
2. कश्मीर रेलवे
3. कश्मीर से दिल्ली

मिज़ोरम की ओर

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पूर्वोत्तर भारत अर्थात?
कुछ लोग पूर्वोत्तर भी घूमने जाते हैं। उनके लिये पूर्वोत्तर का अर्थ होता है दार्जीलिंग और सिक्किम। आखिर सिक्किम की गिनती पूर्वोत्तर में होती है तो सही बात है कि सिक्किम घूमे तो पूर्वोत्तर भी घूम लिये। ज्यादा हुआ तो मेघालय चले गये, चेरापूंजी और शिलांग। इससे भी ज्यादा हुआ तो तवांग चले गये अरुणाचल में, काजीरंगा चले गये असोम में। और बात अगर हद तक पहुंची तो इक्के दुक्के कभी कभार इम्फाल भी चले जाते हैं मणिपुर में। लोकटक झील है वहां जो बिल्कुल विलक्षण है। घुमन्तुओं के लिये पूर्वोत्तर की यही सीमा है।
मिज़ोरम कोई नहीं जाता। क्योंकि यह पूर्वोत्तर के पार की धरती है, पूर्वोत्तर के उस तरफ की धरती है। जिस तरह लद्दाख है हिमालय पार की धरती। जिसमें हिमालय चढने और उसे पार करने का हौंसला होता है, वही लद्दाख जा पाता है। ठीक इसी तरह जिसमें पूर्वोत्तर जाने और उसे भी पार करने का हौंसला होता है, वही मिज़ोरम जा पाता है। पूर्वोत्तर बडी बदनाम जगह है। वहां उग्रवादी रहते हैं जो कश्मीर के आतंकवादियों से भी ज्यादा खूंखार होते हैं। कश्मीर के आतंकवादी तो केवल सुरक्षाबलों को ही मारते हैं, पूर्वोत्तर के आतंकवादी सुरक्षाबलों को नहीं मारते बल्कि हिन्दीभाषियों को मारते हैं। कोकराझार बडी भयंकर जगह है। पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार है कोकराझार। कोकराझार से गुजरे बिना सिक्किम तो जाया जा सकता है लेकिन बाकी के सात राज्यों में नहीं जाया जा सकता।
भारत का सबसे साक्षर राज्य केरल (93.91%) है तो दूसरे स्थान पर मिज़ोरम (91.60%) है। यही नहीं देश के सबसे साक्षर दो जिले सेरछिप (98.76%) और आइजॉल (98.50%) हैं। ये दोनों मिज़ोरम में हैं।
मिज़ोरम के इतिहास का जिक्र किये बिना यह वृत्तान्त अधूरा है। यहां का असली इतिहास आजादी के बाद शुरू होता है। इसे आसाम राज्य में एक जिले का दर्जा दिया गया था। यहां की भाषा-संस्कृति आसाम से अलग होने के कारण शीघ्र ही इसे पक्षपात का सामना करना पडा। आसाम सरकार ने पूर्णतया मिज़ोरम की अनदेखी की। राजकीय भाषा असमिया कर देने और एक अकाल के बाद यहां स्थिति और बिगडी। ऐसे में इसे एक अलग राज्य बनाने की मांग जोर पकडने लगी। इसी दौरान एक विद्रोही संगठन मिजो नेशनल फ्रंट भी बन गया।
मिज़ो नेशनल फ्रंट का लक्ष्य अलग राज्य का नहीं था बल्कि भारत से स्वतन्त्र होकर अलग देश बनाने का था। इसके लिये इस फ्रंट ने अपनी एक सेना भी बनाई- मिज़ो नेशनल आर्मी। 1960 के दशक में फ्रंट के नेताओं ने तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) का भी दौरा करना शुरू किया। वहां से पाकिस्तान ने उन्हें हरसम्भव सहायता दी, धन और हथियारों की सहायता व इन्हें चलाने का प्रशिक्षण भी।
इसी दौरान भारत-चीन युद्ध और भारत-पाकिस्तान युद्ध हुए। भारत का सारा ध्यान अपनी पश्चिमी और उत्तरी सीमाओं पर लग गया। विद्रोही फ्रंट ने इस परिस्थिति का भरपूर लाभ उठाया। इसकी अपनी प्रशिक्षित सेना हथियारों से लैस थी ही, साथ ही अच्छा संख्याबल भी था। विद्रोह को सुनियोजित तरीके से अन्जाम दिया गया। गुप्तरूप से इस ऑपरेशन का नाम रखा गया- ऑपरेशन जेरिचो। इसका अन्तिम लक्ष्य 1 मार्च 1966 को पूर्ण क्रान्ति करके मिज़ोरम को स्वतन्त्र राष्ट घोषित करने का था। इसमें कोई शक नहीं था कि तात्कालित तौर पर पाकिस्तान इस नये देश का समर्थन करता।
विद्रोही 28 फरवरी की रात को आइजॉल में घुस गये। इन्होंने शहर की टेलीफोन लाइनें काट दीं ताकि प्रशासन बाहर से सहायता न मांग सके। इन्होंने रात में ही शहर के सभी प्रमुख स्थानों और कार्यालयों पर कब्जा कर लिया। शहर की पूर्ण घेराबन्दी कर दी ताकि कोई बाहर न जा सके। कानून व्यवस्था स्थानीय पुलिस और आसाम राइफल्स के हाथों से निकल चुकी थी। हालात इतने बदतर हो चुके थे कि आइजॉल के डिप्टी कमिश्नर को आसाम राइफल्स के यहां शरण लेनी पडी। बाहर से सहायता का एकमात्र साधन सिल्चर सडक ही थी जिसे विद्रोहियों ने बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर दिया था।
1 मार्च 1966 को मिज़ो नेशनल फ्रंट के नेता लालदेंगा ने भारत से आजादी की घोषणा कर दी और अधिक से अधिक संख्या में मिज़ो लोगों को अपने समर्थन में करने लगे। इसके बाद शहर में बुरी तरह हिंसा भडक उठी। गैर-मिज़ो लोगों को जमकर मारा गया, उनकी दुकानें लूटी गईं और घरों में आग लगा दी गई।
मिज़ोरम के दूसरे भागों में भी ऐसा ही हुआ। आइजॉल से 200 किलोमीटर दूर चम्फाई में तो उन्होंने आसानी से आसाम राइफल्स की पोस्ट पर कब्जा कर लिया। आसाम की सीमा पर स्थित वैरेंगते पर भी कब्जा कर लिया और सरकारी कर्मचारियों को जिले से भागना पडा। लुंगलेई में भी ऐसा ही हुआ। कोलासिब में करीब 250 लोगों को बन्धक बना लिया गया जिनमें गैर-मिज़ो नागरिक, सरकारी कर्मचारी आदि थे।
3 मार्च को भारत की आंख खुली। मामले की गम्भीरता को देखते हुए आसाम राइफल्स की और ज्यादा बटालियनें हेलीकॉप्टर से आइजॉल भेजी गईं व शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया। हेलीकॉप्टर से जवानों को भेजना भी आसान नहीं था क्योंकि विद्रोहियों के पास अच्छे हथियार थे जो हवा में घातक मार कर सकते थे। इसकी जिम्मेदारी भारतीय वायुसेना को दी गई। पहली कोशिशों में विद्रोहियों ने वायुसेना को भी क्षति पहुंचाई। इसके बाद वो घटना हुई जिसे भारत तो क्या कोई भी देश नहीं करना चाहेगा। अपने ही देश में अपने ही नागरिकों पर हवाई हमला। वायुसेना ने जमकर हवाई हमले किये। बाद में मिज़ोरम के मुख्यमन्त्री ज़ोरमथंगा ने इन हमलों को ‘निर्दयी बमबारी’ कहा था। तात्कालिक रूप से ऐसा करना आवश्यक था।
उधर थलसेना ने भी मोर्चा संभाला। 6 मार्च को सेना आइजॉल पहुंची, इसके बाद चम्फाई और लुंगलेई। मार्च के अन्त तक सेना ने पूरे मिज़ोरम का कंट्रोल अपने हाथ में ले लिया। एक समय मिज़ोरम में सभी आसाम राइफल्स की चौकियों पर विद्रोहियों ने कब्जा कर लिया था सिवाय आइजॉल के। लेकिन वायुसेना ने उनके मंसूबों पर पानी फेर दिया। रही सही कसर थलसेना ने पूरी कर दी।
इसके बाद विद्रोहियों को भागना पडा और वे गांवों में सामान्य लोगों के बीच घुलमिल गये और अपनी गतिविधियां जारी रखीं। यह भी एक चुनौतीयुक्त परिस्थिति थी क्योंकि इसमें आमलोगों को दोतरफा मार पडती है- एक तो विद्रोहियों से और दूसरी सेना से। तब जनवरी 1967 में भारत सरकार ने यहां ग्रुपिंग पॉलिसी लागू की जिसमें सभी को अपने अपने गांव छोडकर सेना के नियन्त्रण वाले इलाकों में बसना था। ये निवास स्थान मुख्यतः सडकों के पास थे। ऐसा करने के बाद सेना को विद्रोहियों को ढूंढने व उनकी चालें नाकाम करने में आसानी रही, हालांकि बडी संख्या में आमलोगों को मानसिक समस्या का सामना करना पडा। अपना घर व जमीन छोडकर अनजान स्थान पर बसना किसे अच्छा लगता है?
इसके बाद हालात और सुधरे। अगस्त 1968 में विद्रोहियों को माफी दे दी गई जिसके फलस्वरूप बडी संख्या में विद्रोहियों ने समर्पण किया व मुख्यधारा में शामिल हुए। फिर 21 जनवरी 1972 को मिज़ोरम को केन्द्र शासित प्रदेश बना दिया गया। मिज़ो नेशनल फ्रंट की विद्रोही गतिविधियां 1976 में समाप्त हुईं जब उसने भारत सरकार के साथ ‘सन्धि’ की। इसकी शर्तों के अनुसार भारत सरकार मिज़ोरम को अलग राज्य बनाने व आइजॉल को उसकी राजधानी बनाने पर सहमत हुई तो फ्रंट अपनी विद्रोही व हिंसक गतिविधियां छोडने पर। आखिरकार मिज़ोरम 20 फरवरी 1987 को भारत का राज्य बना।
तो जी, ऐसी भीषण कहानी थी मिज़ोरम की। अब चूंकि मैं मिज़ोरम घूमकर लौट चुका हूं तो कह सकता हूं कि मिज़ोरम भारत के सबसे शान्त राज्यों में से एक है। इसके पडोसी राज्य अवश्य उत्पाती हैं। यहां मिज़ो भाषा बोली जाती है लेकिन अपनी कोई लिपि न होने के कारण यह रोमन में लिखी जाती है। अधिसंख्य आबादी ईसाई है।
इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को देखकर ही मैंने मिज़ोरम जाने का फैसला किया। साक्षरता का एक अर्थ और भी होता है कि यहां समझदार लोग रहते हैं। कम साक्षरता अर्थात कम समझदारी। सुरक्षा को लेकर मेरे पास कोई नकारात्मक वजह नहीं थी। मैं आश्वस्त था कि मेरी यात्रा शानदार व सुरक्षित होगी।
साइकिल से घूमने का कार्यक्रम बनाया। यह कार्यक्रम काफी पहले बन चुका था। जैसलमेर साइकिल यात्रामिज़ोरम के रिहर्सल के तौर पर ही की गई थी क्योंकि इससे पहले मैंने लद्दाख में ही साइकिलचलाई थी। मुम्बई के पेशेवर साइकिलिस्ट सचिनसे सम्पर्क किया। उन्होंने मिज़ोरम का नाम सुनते ही समहति दे दी। मेरी इच्छा गणतन्त्र दिवस मिज़ोरम में मनाने की थी। सचिन भी इसके लिये राजी था। आखिरकार 23 जनवरी को मिज़ोरम पहुंचने पर सहमति बनी। यात्रा बीस दिनों की होगी। इस यात्रा में आइजॉल से चम्फाई होते हुए सईया, लांगतलाई, लुंगलेई का चक्कर लगाकर आइजॉल आना था। कुल मिलाकर यह मिज़ोरम परिक्रमा होने वाली थी। दूरी जोडकर देखी तो हम ग्यारह सौ किलोमीटर साइकिल चलायेंगे यानी प्रतिदिन 60-65 किलोमीटर के औसत से। मिज़ोरम पूर्णतः एक पहाडी राज्य है इसलिये रोजाना के हिसाब से यह पर्याप्त है।
मेरे लिये इतनी लम्बी छुट्टियां लेना आसान नहीं था। इसलिये एक चाल चली- एलटीसी लूंगा। एलटीसी अर्थात सरकारी खर्चे पर घूमना। इसमें कार्यालय में साहब लोगों की मजबूरी बन जाती है कि वे छुट्टी दें। इसलिये नई दिल्ली से सियालदह तक राजधानी एक्सप्रेस में टिकट बुक करा लिया। उसके आगे कोलकाता से आइजॉल तक फ्लाइट भी बुक कर ली। मैं 23 जनवरी की दोपहर तक आइजॉल एयरपोर्ट पहुंचता और मेरे कुछ ही देर बाद सचिन भी मुम्बई से फ्लाइट से आइजॉल पहुंच जाता। इसी तरह वापसी के लिये 12 फरवरी को आइजॉल से कोलकाता तक फ्लाइट व उसके बाद सियालदह से नई दिल्ली तक दूरोन्तो थर्ड एसी में बुकिंग कर ली। अगर किसी वजह से दूरोन्तो छूट गई तो एक अतिरिक्त बुकिंग स्लीपर में अगले दिन पूर्वा एक्सप्रेस में कराई। दिल्ली से सीधे आइजॉल फ्लाइट भी बुक कर सकता था लेकिन फिर एलटीसी क्लेम करते समय समस्याएं आतीं। अपने यहां कुछ नियम है कि पूर्वोत्तर के लिये दिल्ली से सीधे फ्लाइट का किराया नहीं मिलेगा बल्कि कोलकाता या गुवाहाटी से मिलेगा।
आने-जाने की बुकिंग करने के बाद दूसरी तैयारियां शुरू कर दीं। इंटरनेट पर दूसरों के मिज़ोरम यात्रा-वृत्तान्त पढे लेकिन किसी भी यात्रा-वृत्तान्त में आइजॉल के अलावा अन्य स्थान के बारे में नहीं मिला। मिज़ोरम टूरिज्म व अन्य वेबसाइटों से वहां के दर्शनीय स्थानों की एक लिस्ट बना ली और उन्हें गूगल मैप पर देख लिया कि उनमें से हमारे साइकिल पथ पर या उसके आसपास कितने पडेंगे। रास्ते में मिलने वाले सभी टूरिस्ट लॉज व उनका सम्पर्क नम्बर भी मैंने जुटा लिया। इसके अलावा एक आवश्यक काम और किया। पूरे रास्ते का गूगल मैप की सहायता से दूरी-ऊंचाई नक्शा बना लिया। हमें पता चलता रहेगा कि कितने किलोमीटर तक चढाई है और कितने किलोमीटर तक उतराई। इससे आगे की योजना बनाने में आसानी रहेगी। हम कभी तो समुद्र तल से 400 मीटर की ऊंचाई पर रहेंगे तो कभी 1500 मीटर पर। पूरा राज्य पहाडी है, इसलिये सडकें भी खूब उतार-चढाव युक्त हैं। यह नक्शा हमारे बहुत काम आया।
मिज़ोरम जाने के लिये इनर लाइन परमिट की आवश्यकता पडती है। मैंने इसे दिल्ली से ही बनवा लिया था। दक्षिण दिल्ली स्थित वसन्त विहार में मिज़ोरम हाउस है। मुझे पता था कि वहीं से इनर लाइन परमिट बनेगा। एक दिन मैं मिज़ोरम हाउस पहुंचा। वहां जाकर पता चला कि अब यह चाणक्य पुरी स्थित मिज़ोरम हाउस में बनता है। चाणक्य पुरी जाना पडा। आधा घण्टा लगा और पन्द्रह दिनों का परमिट मेरे हाथ में आ गया। इसके लिये एक पहचान-पत्र और दो फोटो की आवश्यकता पडती है। हां, 120 रुपये भी लगते हैं। मिज़ोरम से बाहर के प्रत्येक भारतीय नागरिक को इनर लाइन परमिट बनवाना पडता है। चूंकि हमें वहां पन्द्रह दिन से ज्यादा रुकना था इसलिये पन्द्रह दिन के अन्दर किसी भी डीसी ऑफिस में इसे विस्तारित कराया जा सकता था। अपने कार्यक्रम के अनुसार, हम सईया में यह काम करेंगे। मिज़ोरम के लिये इनर लाइन परमिट दिल्ली के अलावा कोलकाता, गुवाहाटी व सिल्चर स्थित मिज़ोरम हाउसों के अलावा आइजॉल हवाई अड्डे पर भी बनवाया जा सकता है।
यात्रा से कुछ दिन पहले मेरी नीयत बदल गई। मैं फ्लाइट से नहीं जाऊंगा बल्कि ट्रेन से सिल्चर तक जाऊंगा और उसके बाद सडक के रास्ते। इसकी वजह थी बराक घाटी रेलवे। गुवाहाटी से आगे लामडिंग जंक्शन स्टेशन पडता है। लामडिंग से मीटर गेज की एक लाइन सिल्चर जाती है। यह कछार की पहाडियों को पार करती है और भारत की सुन्दर रेलवे लाइनों में से एक है। भविष्य में पता नहीं कब इस पर यात्रा करने का मौका मिले, एक दिन ज्यादा लगेगा, इसी चक्कर में इसे भी निबटा लेते हैं। दिल्ली से कोलकाता राजधानी और कोलकाता से आइजॉल फ्लाइट टिकट रद्द कर दिये। फ्लाइट का रद्दीकरण शुल्क 1000 रुपये कटा।
साइकिल में जैसलमेर यात्रा में कुछ खराबी आ गई थी। मैं इसे ठीक नहीं करा सका। लेकिन इस दौरान खूब साइकिल चलाई दिल्ली में। एक बार भी कोई समस्या नहीं आई। चेन पर लगातार निगाह रहती ही थी। कोई भी कमजोर कडी नहीं दिखी। फिर पेशेवर साइकिलिस्ट सचिन साथ था ही। सचिन ने कह रखा था कि नीरज, तुम अपने हिसाब से सबकुछ निर्धारित करो। मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा। हालांकि वो पेशेवर है अर्थात खिलाडी है। पिछले महीने भर से वह अपनी टीम के साथ लगातार साइकिल चला रहा है। मुम्बई से पश्चिमी तट के साथ-साथ कन्याकुमारी जा रहा है। उसे कन्याकुमारी से लौटकर मिज़ोरम के लिये तैयार होने में मात्र एक ही दिन मिलेगा। फिर भी उसका उत्साह देखने लायक था। उसका साथ होना मेरे लिये भी गर्व की बात थी।
मुझे होटलों की कोई जानकारी नहीं मिल सकी। आइजॉल में कुछ होटलों के बारे में पता चल गया था, इसी तरह चम्फाई में भी। आइजॉल से चम्फाई लगभग 200 किलोमीटर दूर है। इस दूरी को तय करने में तीन-चार दिन तो लगेंगे ही। रास्ते में कहां रुकेंगे, होटल मिलेंगे या नहीं, कुछ नहीं पता था। इसी तरह की हालत दूसरे भागों पर भी थी। इस समस्या से बचने के लिये तय हुआ कि टैंट व स्लीपिंग बैग भी ले चलेंगे।
खाने की भी समस्या आने वाली है। हम भारत के उस हिस्से में जा रहे हैं जहां सौ साल पहले बिल्कुल वन्य जीवन बिताते थे। कबीलों में लोग रहते थे। एक दूसरे पर हमला करते रहते थे। मैंने तो यहां तक सुना है कि वे नरभक्षी भी थे। फिर भी इतना तो पक्का पता है कि वे सबकुछ खा लेते हैं, सांप बिच्छू से लेकर कुत्ते-बिल्लियों तक। पर्यटन का वहां ‘प’ भी नहीं है। ऐसे में शाकाहारी खाना मिलना मुश्किल हो सकता है। बिस्कुट नमकीन व फल-अण्डों पर ज्यादा निर्भर रहना पडेगा।
कडाके की ठण्ड की उम्मीद थी। मौसम वेबसाइट पर लगातार निगाह थी। आइजॉल का तापमान दिल्ली के तापमान के बराबर ही दिख रहा था। उन दिनों दिल्ली में भयंकर सर्दी पड रही थी। न्यूनतम तापमान चार डिग्री के आसपास पहुंच जाता था। मिज़ोरम के पहाडी राज्य होने की वजह से मुझे वहां काफी ठण्ड की उम्मीद थी। फिर भी मात्र दो जोडी कपडे लेकर चलने का निर्णय लिया। एक जोडी पहनकर निकलूंगा और एक जोडी बैग में रखकर। रास्ते में धोते-सुखाते चलेंगे। इनके अलावा एक जोडी गर्म कपडे ताकि कडाके की ठण्ड से बचा जा सके। सचिन ने भी पूछा था कपडों के बारे में। मुझे मालूम नहीं था कि मुम्बई में बिल्कुल भी सर्दी नहीं पडती। फिर भी मैंने कह दिया कि वहां भयंकर सर्दी मिलेगी। यह अच्छा ही हुआ क्योंकि सचिन का विचार था कि वहां भी मुम्बई की तरह गर्मी ही होगी। सचिन भी पर्याप्त गर्म कपडे ले आया।
इस पूरी यात्रा में दिल्ली से दिल्ली तक बीस हजार तक खर्च आने का अन्दाजा है। इसमें से आने-जाने का खर्च और 5200 रुपये अतिरिक्त एलटीसी क्लेम के मिल जायेंगे, बाकी अपनी जेब से लगाना पडेगा।
 


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नक्शे को छोटा बडा व मैप मोड और सैटेलाइट मोड में भी बदला जा सकता है।

भारत में मिज़ोरम की स्थिति

अगले भाग में जारी...

दिल्ली से लामडिंग- राजधानी एक्सप्रेस से

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20 जनवरी 2014
कल सुबह साढे नौ बजे नई दिल्ली से जब मैं डिब्रुगढ राजधानी में बैठ जाऊंगा, तभी मेरी मिज़ोरम यात्रा आरम्भ हो जायेगी। इतने दिन से यात्रा की योजना बनाने के बावजूद भी मैं अभी तक पूरी तरह तैयारी नहीं कर सका। चूंकि आज की पूरी रात अपनी है, इसलिये मैं निश्चिन्त था। रात दस बजे तक बैग तैयार हो चुका था। स्लीपिंग बैग, टैंट और पम्प साइकिल के पास रखे जा चुके थे। जब आखिर में जरूरी कागजात देखने लगा तो एक कागज नहीं मिला। यह गुम कागज हमारे पथ का दूरी-ऊंचाई नक्शा था जिसके बिना यात्रा बेहद कठिन हो जाती।
पुनः गूगल मैप से देखकर बारीकी से यह नक्शा बनाना आरम्भ कर दिया। मिज़ोरम काफी उतार-चढाव वाला राज्य है इसलिये हर पांच पांच दस दस किलोमीटर के आंकडे लेने पड रहे थे। जब यह काम खत्म हुआ तो दो बज चुके थे। अब अगर सोऊंगा तो सुबह पता नहीं कितने बजे उठूंगा। इसलिये न सोने का फैसला कर लिया। सुबह जब बिस्तर से उठा तो देखा कि वो गुम कागज पलंग के नीचे पडा था। खुशी भी मिली और स्वयं पर गुस्सा भी आया।
आठ बजे घर से निकल पडने का इरादा था लेकिन हमेशा की तरह लेट हो गया और पौने नौ बज गये। साढे नौ बजे नई दिल्ली से ट्रेन है। लोहे से पुल से यमुना पार करता हुआ राजघाट चौराहे से दाहिने मुडकर नौ बजकर दस मिनट पर नई दिल्ली स्टेशन पहुंचा। जब स्टेशन में प्रवेश कर रहा था तो उदघोषणा सुनाई दी- डिब्रुगढ जाने वाली राजधानी एक्सप्रेस प्लेटफार्म नम्बर सोलह पर खडी है। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। प्लेटफार्म नम्बर सोलह पर जाने के लिये मुझे सीढियों पर नहीं चढना पडेगा। सुरक्षा द्वार से सीधे प्लेटफार्म पर प्रवेश कर जाऊंगा।
प्रवेश करते ही एक पुलिस वाले ने रोक दिया- उधर से घूमकर आओ। किधर से? उधर से, पार्सल गेट से। यह साइकिल पार्सल में बुक करानी पडेगी। मैंने कहा कि इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। इसे खोलकर सीट के नीचे रखकर ले जाऊंगा। वो नहीं माना। सामने ट्रेन खडी थी। इसके चलने में मात्र पन्द्रह मिनट बचे थे। दस मिनट तो साइकिल को खोलने में ही लग जायेंगे। मैं साइकिल को प्लेटफार्म पर अपने डिब्बे के सामने खोलना पसन्द करता हूं। आखिरकार खूब बहसबाजी हुई। मैंने अपने समर्थन में खूब तर्क दिये लेकिन वो नहीं माना तो मुझे कहना पडा- कितने पैसे लेगा? पट्ठे ने बिना किसी संकोच के तुरन्त कहा- सौ रुपये दे देना। मैंने कहा- सौ रुपये बिल्कुल नहीं दूंगा। इससे कम में तो साइकिल ही बुक हो जाती।
मैं अपने डिब्बे के सामने पहुंचा। फटाफट सामान उतारा। दोनों पहिये खोले, हैंडलबार खोलकर बॉडी पर बांध दिया। एक पैडल खोलकर बैग में रख लिया। साइकिल अब ट्रेन में चढने को तैयार थी। इतना होने के बाद उस पुलिसवाले ने कहा कि मुझे पैसे दे दे। मैंने कहा कि सारा सामान ट्रेन में चढाने पर ही दूंगा। अभी तक पांच मिनट बचे थे। संयोग से मेरी बर्थ थर्ड एसी में 70 नम्बर वाली थी। यह डिब्बे के आरम्भ में ही होती है। डिब्बे में ज्यादा अन्दर नहीं जाना पडता। तो पुलिसवाले को कहा कि मैं बैग ट्रेन में रखकर आ रहा हूं, तू तब तक साइकिल की रखवाली कर। बैग रखकर आया तो बेचारे ने बडी मासूमियत से कहा- भाई, मुझे पता है कि तेरा पैसे देने का मूड नहीं है लेकिन यार, चायपानी के तो दे दे। मैंने कहा कि ये दोनों पहिये उठाकर ले चल, मैं साइकिल की बॉडी ले चलता हूं। तू चिन्ता मत कर, चायपानी का खर्चा अवश्य दूंगा। मैं बॉडी उठाकर चला, वो पीछे पीछे दोनों पहिये उठाकर लाया। डिब्बे में जब सारा सामान पहुंच गया तो मैंने उसे बीस रुपये दे दिये। उसने चुपचाप लेकर रख लिये और बिना कुछ कहे सुने तुरन्त वहां से गायब हो गया।
ट्रेन चल पडी तो मिज़ोरम की यात्रा भी शुरू हो गई। मेरे कूपे में दो फौजियों को छोडकर सभी पूर्वोत्तर के ही रहने वाले थे। इनमें से एक नागालैण्ड का था जो गुडगांव में रहकर पढाई व नौकरी करता है। हर तीन चार साल बाद अपने घर नागालैण्ड जाता है। लम्बे समय से गुडगांव में रहने के कारण अच्छी हिन्दी बोलता है। अच्छी हिन्दी बोलने के कारण वह पूर्वोत्तर का लगता भी नहीं है। बाकियों से ज्यादा बात नहीं हो पाई। दो बर्थ खाली थीं, उनके यात्री मुरादाबाद से आयेंगे।
यह मेरी पहली राजधानी ट्रेन की यात्रा थी। आखिर एलटीसी के भरोसे यात्रा कर रहा हूं, जब इसमें राजधानी थर्ड एसी का किराया मिल जाता है तो इस मौके को क्यों छोडा जाये? सुना था कि राजधानी में फ्री में खाना मिलता है, तो उत्सुकता भी थी। गाडी में एक उदघोषणा भी हुई जिसमें यात्रियों का स्वागत किया गया और बताया गया था कि शीघ्र ही पानी की बोतल दी जायेगी। और ऐसा ही हुआ। सभी यात्रियों को पानी की एक-एक बोतल दे दी गई। कुछ लोकल गाडियों में अवश्य पहले उदघोषणा सुनी थी, लम्बी दूरी की ट्रेन में उदघोषणा सुनने का यह पहला मौका था। अच्छा लगा।
समय पर गाडी मुरादाबाद पहुंची। मुरादाबाद से दस मिनट पहले एक उदघोषणा और हुई- गाडी कुछ ही समय में मुरादाबाद पहुंचने वाली है। मुरादाबाद से मुझे दो सहयात्री और मिल गये। पचास की उम्र का एक जोडा था। सिल्चर के रहने वाले थे। व्यापारी हैं। अब गुवाहाटी जा रहे हैं। वहां से फ्लाइट से अगरतला जायेंगे और वहां अपना कुछ काम निबटाकर कुछ दिन बाद अपने घर सिल्चर चले जायेंगे। ये दोनों भी बिल्कुल सामान्य हिन्दी बोल रहे थे। मुझे भी चूंकि ट्रेन से सिल्चर तक जाना है, इसलिये वहां के बारे में इनसे बेहतर कौन बता सकता था? आइजॉल की गाडी कहां से मिलेगी, कितने बजे मिलेगी, इन्होंने सब बता दिया। साथ ही यह भी बताया कि दक्षिण असोम यानी सिल्चर के आसपास का इलाका यानी कछार जिला पूर्ण शान्त है। साथ ही सुरक्षित भी।
अभी कुछ ही दिन पहले असोम के कोकराझार में एक बस से पांच हिन्दीभाषियों को उतारकर गोली मार दी गई थी। वह बस सिलिगुडी से शिलांग जा रही थी। आतंकवादियों ने बस रोकी। उनमें से हिन्दीभाषियों की पहचान की और उन्हें मार दिया। कोकराझार असोम का प्रवेश द्वार है। वहां जाने वाली हर ट्रेन कोकराझार से ही गुजरती है। यह राजधानी एक्सप्रेस भी कोकराझार से न केवल गुजरती है बल्कि वहां रुकती भी है। कोकराझार पहले से ही इस तरह की घटनाओं के कारण सुर्खियों में रहा है।
रातभर का जगा था इसलिये नींद आनी लाजिमी थी। मेरी बर्थ ऊपर वाली थी। खाना खाने के बाद जाकर सो गया। बडी गहरी नींद आई। बरेली और लखनऊ कब निकल गये, पता ही नहीं चला। आंख खुली तो ट्रेन जौनपुर स्टेशन पर खडी थी। जौनपुर में इसका ठहराव नहीं है, तकनीकी वजह से रुक जाती है। मैं दरवाजा खोलकर बाहर देखने लगा तो कोच अटेंडेंट जो कि बिहारी था, ने टोक दिया- दरवाजा मत खोलो। क्यों? इसमें लोकल सवारियां चढ जाती हैं। तो उन्हें उतार देंगे कि यह राजधानी ट्रेन है। वैसे भी सबको पता है कि इसमें नहीं चढना है। बोला कि नहीं, यूपी में लोकल सवारियां जबरदस्ती चढ जाती हैं। मेरठ में मेरे ही सामने हुआ था एक बार ऐसा जब वहां राजधानी में चढ गये थे लोग। मैंने कहा कि मेरठ से तो कोई राजधानी ट्रेन गुजरती भी नहीं है। बोला कि गुजरती है, आपको नहीं पता। अरे, मैं मेरठ का ही हूं। मेरठ का मुझे नहीं पता होगा, तो क्या तुझे पता होगा?
जौनपुर से घण्टे भर बाद वाराणसी पहुंच गये। गाडी अभी तक ठीक समय पर चल रही थी। कोहरे के कारण ट्रेनें लेट होती हैं, अभी तक दिन की ही यात्रा रही, कोहरा मिला नहीं। आगे कोहरा पडेगा तो ट्रेन भी लेट हो जायेगी। वाराणसी में ट्रेन काफी देर तक खडी रही। अन्य यात्रियों के साथ मैं भी नीचे उतर गया और प्लेटफार्म पर टहलने लगा। रात के दस बजे थे। दो तीन कूडा बीनने वाले बच्चे आये और ट्रेन में चढने लगे। अटेंडेंट ने उन्हें मना किया। मना ही नहीं किया बल्कि गाली भी दे दी। गाली सुनकर लडका उस पर चढ गया। अटेंडेंट इस मद में था कि वो राजधानी ट्रेन का अटेंडेंट है। उधर वो लडका भी यहीं पला-बढा होगा, एक एक चीज से परिचित है। डर था नहीं किसी बात का। सामना करने को तैयार हो गया। अटेंडेंट ने एक थप्पड जड दिया तो लडके ने भी अपना बोरा एक तरफ पटककर अटेंडेंट पर वार कर दिया। जोरदार लडाई हुई। गलती अटेंडेंट की ही थी। जब वो लडका एक बार मना करने के बाद ट्रेन से उतर गया था तो गाली देने की क्या जरुरत थी?
इन सबमें एक कूडे वाला बच्चा भी था जो कुछ दूर खडा होकर इस तमाशे को देख रहा था। उसके साथी पर एक थप्पड पडता तो वो जोर से हंसता। बाद में वो अवश्य उसकी मजाक लेगा कि तुझे इतने थप्पड पडे। बडा प्यारा बच्चा था। परिस्थिति ने उसे कूडे के काम पर लगा दिया।
अगले दिन यानी 22 जनवरी को आंख खुली तो ट्रेन खगडिया से निकल चुकी थी। ठहराव न होने के बावजूद भी कुछ देर नौगछिया भी खडी रही। बाहर कोहरा था और ट्रेन डेढ घण्टे की देरी से चल रही थी। कटिहार दो घण्टे लेट पहुंची। इसके बाद रेलवे लाइन बिहार-बंगाल सीमा के साथ साथ है। कभी बिहार में होते तो कभी बंगाल में। स्टेशनों के नाम-बोर्डों से पता चल जाता कि यह बिहार में है या बंगाल में। जैसे जैसे ‘चिकन-नेक’ की ओर बढते गये, कोहरा भी साफ होता गया और मौसम में गर्मी आने लगी। किशनगंज और न्यू जलपाईगुडी के बीच का इलाका ‘चिकन-नेक’ यानी ‘मुर्गी की गर्दन की तरह’ कहलाता है। यह एक पतली सी बीस-तीस किलोमीटर चौडी पट्टी है जो शेष भारत को पूर्वोत्तर से जोडती है। इस पट्टी के एक तरफ नेपाल है तो दूसरी तरफ बांग्लादेश। और यह पूर्वोत्तर की सीमा भी कही जा सकती है। हालांकि इसके बाद बहुत दूर तक राजनैतिक रूप से पश्चिमी बंगाल है लेकिन सांस्कृतिक रूप से पूर्वोत्तर भी शुरू हो जाता है। न्यू जलपाईगुडी (एनजेपी) तो पूर्वोत्तर का प्रवेश द्वार है। चाहे किसी को सिक्किम जाना हो या असोम या और आगे, एनजेपी से गुजरना ही पडेगा। एनजेपी से ही दार्जीलिंग जाने वाली छोटी लाइन की ट्रेन भी चलती है।
एनजेपी में अच्छी धूप निकली थी और ठण्ड का नामोनिशान भी नहीं था। दिल्ली फोन किया तो पता चला कि वहां बारिश हो रही है और भयंकर ठण्ड हो रही है। सर्दियों में उत्तर भारत में पछुवा हवाओं से बारिश होती है और अगर आज दिल्ली में बारिश हो रही है तो ये हवाएं कुछ दिन बाद बिहार भी पहुंचेंगी और बंगाल भी और आगे पूर्वोत्तर में भी। इसलिये सम्भावना है कि हफ्ते भर बाद या दस दिन बाद मिज़ोरम का भी मौसम बिगड जाये। हालांकि इस बात की सम्भावना कम है। बीच में पडने वाले पहाड इन हवाओं की दिशा परिवर्तित कर सकते हैं।
ट्रेन में बहुत कम भोजन मिला। लंच में दो पतली पतली रोटियां, थोडे से चावल और थोडी सी सब्जी-दाल। मैंने और एक अन्य यात्री ने और रोटियों की फरमाइश की। लडके ने दो-तीन बार हां-हां कहा लेकिन आखिरकार हाथ खडे कर दिये कि रोटियां खत्म हो गई हैं। इस तरह लंच करने के बावजूद भी भूखा रह गया। यह भूख एनजेपी में मिटी। दस रुपये में काफी भोजन आ गया और पेट भर गया।
न्यू अलीपुरद्वार से गाडी चली तो ढाई घण्टे लेट हो चुकी थी और कोकराझार में तीन घण्टे। कोकराझार से आगे यह न्यू बंगाईगांव रुकती है, फिर गुवाहाटी और फिर अपना लामडिंग। अगर इसी तरह ट्रेन तीन घण्टे लेट चलती रही तो रात एक बजे लामडिंग पहुंचेगी। उसके कुछ ही देर बाद साढे चार बजे मीटर गेज की बराक घाटी एक्सप्रेस चलेगी जिसमें मेरा आरक्षण है। आज की रात खराब होनी ही होनी है। कल दिनभर जगना पडेगा, आखिर बराक घाटी एक्सप्रेस में रोज-रोज यात्रा थोडे ही करनी है। मन था कि शाम को छह साढे छह बजे भी अगर सिल्चर पहुंच गया तो आइजॉल की सूमो पकड लूंगा और रात बारह बजे तक आइजॉल पहुंच जाऊंगा। लेकिन अब मन बदल रहा है। मैं नहीं चाहता कि मेरी लगातार दो रातें खराब हों। अच्छी नींद लेना सभी के लिये आवश्यक है और मेरे लिये भी। कल सिल्चर रुक जाऊंगा, परसों आइजॉल पहुंच जाऊंगा। सचिन कल वहां पहुंच जायेगा। उसे बता दूंगा कि मैं एक दिन विलम्ब से चल रहा हूं।
शाम को नाश्ते में एक समोसा बल्कि समोसी, दो बिस्कुट, चाय और थोडी सी नमकीन आई। हालांकि इन सब के पैसे टिकट में शामिल हैं लेकिन खाना देने वाली कम्पनी यानी आईआरसीटीसी अपना मुनाफा बढाने के लिये हमारा पेट काट रही है। खाने की गुणवत्ता तो ठीक है लेकिन मात्रा भी तो बढनी चाहिये। क्या आईआरसीटीसी के नीति-नियन्ता जरा सा ही खाना खाते हैं? इसी तरह रात का खाना देने में तो हद ही कर दी। गाडी तीन घण्टे की देरी से चल रही थी, इसमें बडी संख्या गुवाहाटी के यात्रियों की भी थी। गाडी की समय-सारणी के हिसाब से गुवाहाटी वालों को डिनर नहीं मिलेगा। उनके चक्कर में हम बेचारे भूखे मर रहे हैं। मैंने सोच रखा था कि डिनर करके बारह एक बजे तक सो लूंगा लेकिन डिनर ही नहीं मिला तो सोऊं कैसे?
गुवाहाटी पहुंचे। बहुत से यात्री उतर गये, कुछ नये यात्री भी चढे जो निःसन्देह डिब्रुगढ जायेंगे। स्टेशन पर मुझे एक दक्षिण भारतीय भोजनशाला दिखी। तीस रुपये लगे लेकिन पेट भर गया। ट्रेन में ग्यारह बजे खाना दिया गया जब यह गुवाहाटी से भी पचास किलोमीटर आगे निकल चुकी थी।
खाना खाकर जब डेढ घण्टे बाद का अलार्म लगाकर सोने की कोशिश करने लगा तो एक नई आफत और गले आ पडी। कैटरिंग स्टाफ आकर टिप मांगने लगे- सर, कुछ सेवा पानी दे दो। मैंने सीधे मना कर दिया- ना, बिल्कुल नहीं दूंगा। नीचे दीमापुर वाले ने पचास रुपये दिये तो लेने से मना कर दिया- दो सौ रुपये दो। फौजियों ने भी नहीं दिये। कैटरिंग वाले दीमापुर वाले से कहने लगे कि सर, हमने आपको एक्स्ट्रा खाना दिया था। दीमापुर वाले ने तुरन्त कहा कि अगर न देते तो मैं तुम्हारी शिकायत करने वाला था। जब तुम खाना दे रहे थे तो मैं टॉयलेट में था। जब बाहर आया तो तुम्हें पता ही नहीं था कि मुझे खाना नहीं मिला है जबकि तुम कुछ समय पहले लिखकर ले गये कि मुझे मांसाहारी भोजन लेना है। मेरा भोजन किसको दिया तुमने? अगर मैं इस बात की शिकायत करता तो नुकसान किसका था? फौजी ने भी कहा कि मैंने तुमसे पानी की बोतल मांगी थी तो तुमने मना कर दिया था। नियम-पत्र लाकर दिखा दिया था कि एक बोतल के बीस घण्टे बाद दूसरी बोतल मिलेगी। अरे यार, उसी नियम-पत्र में पानी वाले नियम के नीचे लिखा है कि कोई टिप न दें। हम तो नहीं देंगे। अगर अभी के अभी यहां से दफा न हुए तो कम्पलेंट बुक लेकर आओ। तुम्हें टिप दूंगा मैं। जाओ, लाओ कम्पलेंट बुक। इसके बाद वे नहीं आये।
क्या भारत की सभी राजधानी ट्रेनों में ऐसा होता है या इसी रूट की ट्रेनों में ही ऐसा होता है। वैसे भी पूर्वी भारत के रूट ज्यादा बदनाम हैं।
रात एक बजे लामडिंग उतर गये। मेरे साथ एक बीआरओ के एक इंजीनियर सुभाष जोशी भी उतरे। उन्हें भी बराक घाटी एक्सप्रेस से सिल्चर तक जाना था। देहरादून के रहने वाले थे। लामडिंग स्टेशन पर मेरी उम्मीदों से ज्यादा चहल-पहल थी। मैं अन्दाजा लगा रहा था कि स्टेशन अन्धेरे में होगा और सन्नाटा पसरा होगा। लेकिन ऐसा नहीं था।



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अगले भाग में जारी...

बराक घाटी एक्सप्रेस

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यह भारत की कुछ बेहद खूबसूरत रेलवे लाइनों में से एक है। आज के समय में यह लाइन असोम के लामडिंग से शुरू होकर बदरपुर जंक्शन तक जाती है। बदरपुर से आगे यह त्रिपुरा की राजधानी अगरतला चली जाती है और एक लाइन सिल्चर जाती है। अगरतला तक यह पिछले दो-तीन सालों से ही है, लेकिन सिल्चर तक काफी पहले से है। इसलिये इसे लामडिंग-सिल्चर रेलवे लाइन भी कहते हैं। यह लाइन मीटर गेज है। मुझे आज लामडिंग से शुरू करके सिल्चर पहुंचना है।
लामडिंग से सिल्चर के लिये दिनभर में दो ही ट्रेनें चलती हैं- कछार एक्सप्रेस और बराक घाटी एक्सप्रेस। कछार एक्सप्रेस एक रात्रि ट्रेन है जबकि बराक घाटी एक्सप्रेस दिन में चलती है और हर स्टेशन पर रुकती भी है। इनके अलावा एक ट्रेन लामडिंग से अगरतला के लिये भी चलती है। दक्षिणी असोम को कछार कहते हैं। इनमें दो जिले प्रमुख हैं- कछार और नॉर्थ कछार हिल्स। कछार जिले का मुख्यालय सिल्चर में है और नॉर्थ कछार हिल्स जिले का मुख्यालय हाफलंग में। यह ट्रेन हाफलंग से होकर गुजरती है। इसी तरह कछार में एक मुख्य नदी है- बराक। सिल्चर बराक नदी के किनारे बसा हुआ है। इन्हीं के नाम पर ट्रेनों के नाम भी हैं।
इस लाइन का इतिहास सौ साल से भी ज्यादा पुराना है। उस समय गुवाहाटी का रेल सम्पर्क आज की तरह न्यूजलपाईगुडी से नहीं था बल्कि ढाका और चटगांव से था। बांग्लादेश के रास्ते ट्रेनें कलकत्ता भी जाया करती थीं। बदरपुर से आगे करीमगंज है। चटगांव वाली ट्रेनें करीमगंज से ही होकर जाती थीं। आजादी के बाद करीमगंज से आगे का इलाका पाकिस्तान में आ जाने के कारण उधर की ट्रेनें बन्द कर दी गईं। एक समय असोम का रेल सम्पर्क बाकी देश से कट गया था। इसे न्यू जलपाईगुडी से जोड देने पर यह सम्पर्क पुनः बहाल हुआ।
आइये, यात्रा जारी रखते हैं। बराक घाटी एक्सप्रेस लामडिंग से सुबह चार बजे चलती है। सिल्चर की दूरी यहां से 215 किलोमीटर है और इसे तय करने में 13 घण्टे से भी ज्यादा लगते हैं। मेरी इच्छा लामडिंग से सिल्चर तक जगे रहने की थी लेकिन राजधानी एक्सप्रेस के लेट हो जाने और पर्याप्त नींद न ले पाने के कारण मैं सो गया। इस ट्रेन में दो डिब्बे शयनयान के होते हैं। मेरा आरक्षण था। साइकिल को मैंने बर्थ के नीचे रख दिया था। इस काम में स्थानीय यात्रियों ने काफी सहायता की।
भारत के इस हिस्से में दिल्ली के मुकाबले एक घण्टे पहले सूर्योदय हो जाता है लेकिन फिर भी साढे चार बजे काफी अन्धेरा था, ठण्ड उतनी नहीं थी। ठीक समय पर ट्रेन रवाना हुई। इसमें काफी संख्या में ऐसे यात्री भी थे जिन्हें रात कछार एक्सप्रेस पकडनी थी और नहीं पकड सके थे। कछार एक्सप्रेस सभी स्टेशनों पर नहीं रुकती इसलिये वह अपना सफर इस ट्रेन के मुकाबले जल्दी तय कर लेती है।
पौने सात बजे मूपा जाकर आंख खुली, गाडी आधे घण्टे की देरी से चल रही थी। बाहर सूरज निकल आया था। सुभाष जोशीजो दिल्ली से मेरे साथ राजधानी एक्सप्रेस में आये थे, भी सिल्चर जा रहे थे। वे बीआरओ में हैं और लम्बे समय मिज़ोरम के सेलिंग में काम किया है। आजकल सिल्चर में पोस्टिंग है। उन्होंने बताया था कि सिल्चर से पहले कुछ भी खाने को नहीं मिलेगा। इसलिये मैंने लामडिंग में ही पेट भर लिया था और काफी मात्रा में बिस्कुट नमकीन भी ले लिये थे। हां, वो अलग बात है कि ये सभी बिस्कुट नमकीन सिल्चर तक ज्यों के त्यों बैग में रखे रहे।
माईबांग में काफी यात्री उतर गये। माईबांग उत्तरी कछार हिल्स में काफी बडा कस्बा है। यह एक ऐतिहासिक स्थान भी है। माईबांग अहोम राजाओं की काफी लम्बे समय तक राजधानी भी रही है। राजमहल के अवशेष यहां अब भी हैं।
यह इलाका पूर्णतः पर्वतीय है। अगर आप भारत के नक्शे को देखें तो आपको सुदूर पूर्व में म्यांमार दिखाई देगा। भारत-म्यांमार का सीमावर्ती इलाका घने जंगलों और पहाडों से युक्त है। इनमें विभिन्न जनजातियां निवास करती हैं। पहले यह सब आसाम का हिस्सा था लेकिन इन जनजातियों के संघर्ष के पश्चात नागालैण्ड, मणिपुर और मिज़ोरम जैसे राज्य बनाये गये। ये तीनों राज्य इन्हीं पहाडियों और जंगलों में स्थित हैं। इन्हीं पर्वतीय श्रंखलाओं से एक श्रंखला पश्चिम की ओर भी चली गई है जिसमें असोम का यह कछार इलाका है। और पश्चिम में जायें तो जयन्तिया, खासी और गारो पहाडियां भी इन्हीं का विस्तार हैं। जयन्तिया, खासी और गारो पहाडियों को मिलाकर मेघालय बनाया गया। मेघालय के पश्चिम में ये पहाडियां नहीं हैं। ब्रह्मपुत्र नदी कछार और मेघालय की पहाडियों के साथ साथ उत्तर में बहती है। जबकि दक्षिण में बराक नदी और उसकी सहायक नदियों का प्रभुत्व है।
फोटो पर क्लिक करके बडा किया जा सकता है।

दाओतुहाजा, फाइडिंग, माहुर और मिग्रेनडिसा के बाद लोअर हाफलंग स्टेशन आता है। माहुर में अगरतला से आने वाली ट्रेन मिली। इसमें सेकण्ड एसी के भी डिब्बे लगे थे।
इस मार्ग को ब्रॉड गेज में परिवर्तित करने का काम चल रहा है। ब्रॉड गेज के लिये पुल निर्माण का कार्य जोरों पर है। जहां कहीं आवश्यकता है वहां सुरंगें भी बनाई जा रही हैं। वैसे इस मीटर गेज में भी पुलों और सुरंगों की भरमार है। कुछ पुल तो काफी ऊंचे हैं और इन पर से गुजरना रोमांचित करता है। इसी तरह का एक प्रसिद्ध पुल दयांग पुल है। दयांग पुल के बराबर में इससे भी काफी ऊंचाई पर नया पुल बन रहा है जो बडी लाइन के लिये होगा।
लोअर हाफलंग इस मार्ग का मुख्य स्टेशन है। गौरतलब है कि हाफलंग उत्तरी कछार हिल्स जिले का मुख्यालय भी है। हाफलंग असोम का एकमात्र हिल स्टेशन भी है। स्टेशन पर रिटायरमेंट रूम हैं।
लोअर हाफलंग के बाद बागेतार और फिर है हाफलंग हिल। हाफलंग हिल स्टेशन 638 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। लामडिंग से यहां तक लगातार चढाई है। अब उतराई आरम्भ हो जायेगी। इस तरह देखा जाये तो यह स्थान ब्रह्मपुत्र और बराक नदियों का जल-विभाजक है।
हाफलंग हिल से अगला स्टेशन है जातिंगा। जातिंगा का नाम मैंने पहले भी कई बार सुना है। कहते हैं कि यहां मानसून के बाद पक्षी सामूहिक आत्महत्या करते हैं। वे रात में किसी प्रकाश स्त्रोत पर जाते हैं और वहीं मर जाते हैं। ऐसा हर साल बडे पैमाने पर होता है। विश्व के पक्षी विज्ञानी इस गुत्थी को सुलझाने में लगे हैं। इस मामले में विज्ञानियों ने कई सिद्धान्त दिये हैं। कोई कहता है कि ऐसा चुम्बकीय शक्ति की वजह से होता है। मानसून के बाद इस स्थान के चुम्बकत्व में कुछ परिवर्तन होता है जिसकी वजह से पक्षियों को मति-भ्रम हो जाता है। कोई इसके लिये स्थानीय निवासियों को जिम्मेदार मानता है। गौरतलब है कि यहां के लोग पक्षियों को खा लेते हैं। मानसून के बाद जब पक्षियों की संख्या बढ जाती है तो उन्हें रात में जंगल में जाकर भयभीत किया जाता है, उन्हें उडने को मजबूर किया जाता है और सीधी सी बात है कि वे अन्धेरे में उडने की बजाय किसी प्रकाश-स्त्रोत की ओर ही उडना पसन्द करेंगे। इस प्रकार अगर यही बात सत्य है तो यह सामूहिक आत्महत्या नहीं बल्कि सामूहिक हत्या है। खैर, जो भी हो, इस वजह से जातिंगा प्रसिद्ध है।
इस मार्ग पर यात्री गाडियों के मुकाबले मालगाडियां ज्यादा चलती हैं। सिल्चर एक प्रमुख व्यापारिक नगर है जो मणिपुर, मिज़ोरम और त्रिपुरा के केन्द्र में है। फिर गुवाहाटी-सिल्चर सडक बडी खराब अवस्था में है। इसलिये मालगाडियां ही सामान को इधर से उधर पहुंचाने का उपयुक्त विकल्प है। दिन में एक ही सवारी गाडी होने के कारण मालगाडियों में भी बडी संख्या में लोग यात्रा करते हैं। गार्ड का डिब्बा तो भरा रहता ही है, अगर कोई मालडिब्बा खुला हो तो उसमें भी यात्री बैठे मिल जाते हैं।
पता नहीं क्या बात है कि गाडी हर स्टेशन पर बीस-बीस पच्चीच-पच्चीस मिनट तक रुकती है। सामने से कोई गाडी नहीं आती, तब भी इतनी देर तो रुकती ही है। पर्वतीय मार्ग इसकी वजह नहीं है। शायद सिग्नल प्रणाली उतनी दुरुस्त न हो। इसी वजह से ट्रेन की समय सारणी भी इसी तरह की बनाई गई है कि कितनी भी देर तक रुके, लेकिन गाडी लेट न हो। आखिर 215 किलोमीटर की दूरी को 13 घण्टे में तय करने की क्या तुक? फिर भी गाडी दो घण्टे की देरी से हारांगाजाऔ पहुंची।
यह स्टेशन 241 मीटर की ऊंचाई पर है। इसके बाद दो स्टेशन छोडकर पहाडी मार्ग समाप्त हो जायेगा और मैदानी मार्ग आरम्भ हो जायेगा। पर्वतीय मार्ग पर दो इंजनों की आवश्यकता पडती है। हारांगाजाऔ में दूसरा इंजन छोड दिया। पता नहीं किस स्टेशन पर लगाया था दूसरा इंजन। शायद माईबांग में लगाया होगा, या फिर लामडिंग से ही लगकर चला होगा।
जो भी हो, हारांगाजाऔ स्टेशन मुझे बहुत पसन्द आया। स्टेशन पर ही फल बेचने वाले बैठे थे। धुर से धुर तक। फलों में मुख्यतः अनानास था। अनानास खट्टा-मीठा होता है। दस-दस रुपये में सभी विक्रेता काफी सारा अनानास छीलकर, काटकर और नमक-मिर्च लगाकर दे रहे थे। गाडी यहां आधे घण्टे से भी ज्यादा खडी रही। मैंने जमकर अनानास खाया। यहां चौबीस घण्टे में छह यात्री-गाडियां ही आती हैं, तीन इधर जाने वाली और तीन उधर जाने वाली; इनके अलावा कुछ मालगाडियां भी आती हैं। हालांकि सभी यात्री-गाडियों का यहां एक एक मिनट का ही ठहराव है लेकिन इंजन लगने के कारण आधा घण्टे तो रुकती ही हैं। इस प्रकार देखा जाये तो कम ट्रैफिक होने के बावजूद भी इन फलवालों की अच्छी बिक्री हो जाती होगी।
हारांगाजाऔ से अगला स्टेशन डिटकछडा है। डिटकछडा में सिल्चर से आने वाली इसी ट्रेन की जोडीदार बराक घाटी एक्सप्रेस मिली। मेरी जानकारी के विपरीत इसमें पीछे भी एक इंजन लगा था। और उससे भी मजेदार बात यह थी कि उस इंजन पर एक निरीक्षण-ट्राली जुडी थी जिस पर कई लोग बैठे थे। इनमें कुछ तो रेलवे के ही लोग होंगे, कुछ यात्री भी होंगे। निरीक्षण-ट्राली में बेहद छोटे छोटे पहिये होते हैं और कभी कभी तो यह लाइन बदलते समय या दो लाइनों के मिलन बिन्दु पर पटरी से उतर भी जाती है। यह ज्यादार मानव शक्ति से चलती है, कभी कभी मोटर भी लगा दिया जाता है। अब जब यह इंजन से जुडकर चलेगी और किसी जगह अगर यह पटरी से उतर गई तो हादसा भी हो सकता है। भले ही यहां ये लोग हमेशा ऐसा करते हों लेकिन ऐसा करना खतरनाक होता है।
इसी डिब्बे में कुछ साधु भी बैठे थे। उनकी बोलचाल से पता चल रहा था कि वे मथुरा के आसपास के हैं। पूछा तो मेरा अन्दाजा ठीक निकला। वे भ्रमण पर निकले थे। अब परशुराम कुण्ड से आ रहे थे। उससे पहले काफी समय कामाख्या और शिबसागर में भी बिताया। परशुराम कुण्ड अरुणाचल प्रदेश में है। अब वे सिल्चर जा रहे थे। किसी ने उन्हें किसी बडे मन्दिर के बारे में बता दिया था, उसके दर्शन करने जा रहे थे। मुझसे पूछा तो मैंने बताया कि मैं मिज़ोरम जा रहा हूं। बोले- मिज़ोरम... मिज़ो राम ... राम.. राम... राम। वहां राम का कोई धाम है क्या? मैंने कहा कि धाम तो छोडो, वहां राम का नाम तक नहीं है। सारी आबादी ईसाई है। वहां जाओगे तो ईसा मसीह के सिवाय कोई नहीं मिलेगा। राम के लालच में वे वहां चले भी जाते लेकिन मेरी बात सुनकर ‘उस देश’ में जाने का इरादा छोड दिया।
बान्दरखाल तक गाडी ढाई घण्टे लेट हो चुकी थी। यह चल कम रही थी और रुक ज्यादा रही थी। ज्यादातर यात्री इससे परेशान भी थे। स्थानीय यात्रियों ने इन परेशान यात्रियों को सुझाव दिया कि चन्द्रनाथपुर स्टेशन पर उतर जाना और वहां से सिल्चर ज्यादा दूर भी नहीं है। स्टेशन पर ही सिल्चर जाने वाली सूमो भी खडी मिलेंगी। इस तरह जब गाडी चन्द्रनाथपुर पहुंची तो बडी संख्या में यात्री उतर-उतर कर सूमो पकडने के लिये दौडने लगे। मुझे कोई जल्दी नहीं थी, मैं नहीं उतरा।
चन्द्रनाथपुर समुद्र तल से 27 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और मैदान अब शुरू होता है। कछार पहाडियां पीछे छूट चुकी थीं और बडी सुन्दर लग रही थीं। इसके बाद गाडी की रफ्तार भी बढ गई। आगे बिहारा, हिलारा और सुकृतिपुर में यह एक-एक मिनट भी नहीं रुकी।
बराक नदी पार करके बदरपुर जंक्शन पहुंच गये। जैसा कि पहले भी बताया है कि यहां से एक लाइन अगरतला जाती है और एक सिल्चर। सिल्चर जाने के लिये इंजन की बदली करनी पडती है। जब यह गाडी बदरपुर स्टेशन पर प्रवेश कर रही थी तो बराबर वाली लाइन से अगरतला-सिल्चर पैसेंजर धडधडाती हुई निकल गई। अगर अगरतला-सिल्चर पैसेंजर पांच मिनट और बदरपुर स्टेशन पर रुकी रहती तो मैं इसे ही पकड लेता और काफी पहले सिल्चर पहुंच गया होता।
साढे सात बजे सिल्चर पहुंचा। स्टेशन से करीब दो किलोमीटर दूर एक मुख्य चौक है। वहां बहुत सारे ट्रैवल एजेंट हैं और होटल भी। तीन सौ रुपये में एक कमरा लिया। सबसे पहला काम किया कि कपडे धोये और नहाया। इस समय मुझे काफी गर्मी लग रही थी। साथ ही एक ट्रैवल एजेंट से कल सुबह की पहली सूमो में आइजॉल का टिकट भी बुक कर लिया।
यह इलाका सुरक्षा की दृष्टि से संवेदनशील है। काफी समय से यहां का आतंकी संगठन उल्फा हिंसक गतिविधियों में लगा है। ये पहाडियां उनके छिपने के लिये सर्वोत्तम हैं। सडक मार्ग निम्न कोटि का होने के कारण उनके ठिकाने सुरक्षित भी हैं। फिर बांग्लादेश तो पडोसी है ही यहां। इसलिये भारतीय सुरक्षा-बलों को काफी मेहनत करनी पडती है। हर स्टेशनों पर सुरक्षा-बल तैनात थे। एक बात मुझे आश्चर्यचकित करती है कि सुरक्षा-बल केवल स्टेशनों पर ही क्यों थे? बीच सेक्शन में कोई सुरक्षा नहीं थी। यहां तक कि सुरंगों और पुलों पर भी नहीं। इसका कारण यही हो सकता है कि अब यहां से खतरा टल गया हो। वैसे भी जब से मैंने ‘करंट अफेयर्स’ में दखल देना शुरू किया है, कछार में इस तरह की किसी हिंसक गतिविधि की खबर नहीं पढी। उत्तरी असोम में अवश्य कुछ गडबड है।
ये तो मुझे पता नहीं कि त्रिपुरा की तरफ मूल रूप से कहां तक रेलवे लाइन थी। लेकिन इतना अवश्य पता है कि अगरतला हाल ही में रेल पहुंची है। इसे अगरतला से भी आगे बनाया जा रहा है। लेकिन ताज्जुब की बात ये है कि यह नई लाइन मीटर गेज है। यूनीगेज पॉलिसी के तहत नई लाइन ब्रॉड गेज होनी चाहिये थी। लामडिंग से इधर की तरफ मीटर गेज को ब्रॉड गेज में परिवर्तित करने का काम चल रहा है, उसके बाद अगरतला की तरफ भी गेज-परिवर्तन होगा। अगरतला यदि शुरू से ही ब्रॉड गेज होता तो लामडिंग तक गेज परिवर्तन का और ज्यादा दबाव बन जाता। अब चूंकि लामडिंग व सिल्चर से अगरतला तक ट्रेन चल रही है तो शीघ्रता करने का कोई राजनीतिक दबाव नहीं रह गया।
डेढ साल पहले जब मैंने ट्रेन से भारत परिक्रमाकी थी तो पूर्वोत्तर में आते हुए डर लग रहा था। हिन्दी-भाषियों पर हमले नई बात नहीं है। जब सुदूरस्थ लीडो गया, डिब्रुगढ गया और वहां के निवासियों का आचार-विचार देखा तो मेरा यह सारा डर खत्म हो गया। उससे पहले इस मीटर गेज की लाइन पर यात्रा करते हुए भी डर लगता था, लेकिन उसके बाद सारा डर जाता रहा। अब मैंने इस लाइन पर इस तरह यात्रा की थी जैसे भारत के अन्य भागों पर करता हूं। हालांकि यहां मीटर गेज का एक विस्तृत जाल बिछा हुआ है, जिसके केन्द्र में सिल्चर है। सिल्चर से एक लाइन मणिपुर सीमा पर स्थित जिरीबाम तक जाती है, तो एक लाइन मिज़ोरम सीमा पर भैराबी तक। इसी तरह करीमगंज से एक लाइन बांग्लादेश सीमा पर मैशासन तक तो एक लाइन दुल्लबचेरा तक और अगरतला तक तो जाती ही है। अब आवश्यकता है शीघ्र ही इन सबको ब्रॉड गेज बनाया जाये और सिल्चर व अगरतला से गुवाहाटी, कोलकाता और दिल्ली तक ट्रेनें चलाई जाएं। भारत के इस हिस्से को भी बाकी देश के बराबर सुविधाएं मिलने का अधिकार है।


हर स्टेशन पर सुरक्षा-बल के जवान मिले।


एक पुराना पुल





यह पुल हाल ही में बना है जो ब्रॉड गेज के काम आयेगा।

दयांग पुल




जातिंगा पक्षियों की सामूहिक आत्महत्या के लिये प्रसिद्ध है।


मालगाडियों में यात्रा करना यहां एक आवश्यकता है।

हारांगाजाऔ स्टेशन पर फल विक्रेता





पिछले इंजन के साथ जुडी निरीक्षण-ट्राली

ब्रॉड गेज का काम प्रगति पर है।



दक्षिणी असोम का मैदानी भाग और दूर दिखती कछार पहाडियां




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अगले भाग में जारी...

मिज़ोरम में प्रवेश

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दिनांक था 24 जनवरी 2014 और मैं था सिल्चर में।
सुबह साढे छह बजे ही आंख खुल गई हालांकि अलार्म सात बजे का लगाया था। मच्छरदानी की वजह से एक भी मच्छर ने नहीं काटा, अन्यथा रात जिस तरह का मौसम था और मच्छरों के दो-तीन सेनापति अन्धेरा होने की प्रतीक्षा कर रहे थे, उससे मेरी खैर नहीं थी। अपनी तरफ से काफी जल्दी की, फिर भी निकलते-निकलते पौने आठ बज गये। ट्रैवल एजेंसी के ऑफिस में घुसने ही वाला था, उनका फोन भी आ गया।
दो सौ रुपये में साइकिल की बात हुई। मैं राजी था। कल जगन्नाथ ट्रैवल्स ने तीन सौ रुपये मांगे थे। इस मामले में जितना मोलभाव हो जाये, उतना ही अपना फायदा है। साइकिल को सूमो की छत पर अन्य बैगों के साथ बांधने में काफी परेशानी हुई। साढे आठ बजे मिज़ोरम के लिये प्रस्थान कर गये। सूमो में मेरे अलावा तीन बिहारी, दो बंगाली व पांच मिज़ो थे। सभी मिज़ो हिन्दी भी जानते थे।
सिल्चर एक प्रमुख व्यापारिक नगर है। यह असोम में स्थित है और त्रिपुरा, मिज़ोरम व मणिपुर के लिये प्रवेश द्वार का काम करता है। अच्छा-खासा ट्रैफिक रहता है। इस ट्रैफिक से बचने के लिये ड्राइवर मुख्य राजमार्ग छोडकर शहर के अन्दर से ले गया। ड्राइवर भी मिज़ो था, पचास के लगभग उम्र रही होगी लेकिन गाडी अत्यधिक धीमे चला रहा था। दो बजे तक आइजॉल पहुंच जाने का अन्दाजा था लेकिन गाडी की गति को देखते हुए लगने लगा कि तीन बजे तक भी पहुंच जायें तो गनीमत है। जब तक असोम में हैं, तब तक मैदान है; मिज़ोरम में प्रवेश करने पर पहाडी मार्ग शुरू हो जायेगा, गति और कम हो जायेगी।
बाघा में कुछ देर रुकना पडा। गाडी के पिछले दरवाजे का लॉक ढीला था, इसकी वजह से यह काफी आवाज कर रहा था। यात्री यहां खाना खाने लगे, ड्राइवर ने तब तक लॉक ठीक करवा लिया। यहीं मैंने फ्रूटी की एक बोतल ली जिस पर लिखा था- प्रोडक्ट ऑफ बांग्लादेश। गौरतलब है कि यह इलाका भौगोलिक रूप से बांग्लादेश के ज्यादा नजदीक में है। कछार और मेघालय की पहाडियां इसे बाकी भारत से अलग-थलग कर देती हैं। रही-सही कसर इन पहाडियों में खराब सडक पूरी करती है। फिर बांग्लादेश सीमा पर तारबन्दी न होने के कारण कोई भी आसानी से इधर से उधर आ-जा सकता है। बांग्लादेश में तो बांग्ला भाषा बोली ही जाती है, यहां भी बांग्ला जमकर बोली जाती है। लोगों के रहन-सहन और पहनावे में भी कोई अन्तर नहीं है। कोई भी वस्तु गुवाहाटी से मंगाने की बजाय बांग्लादेश से मंगाने पर सस्ती पडती है।
बाघा से चले तो शीघ्र ही घुमावदार मार्ग आरम्भ हो गया। एक सूचना-पट्ट भी नजर आया, बीआरओ ने लगा रखा था- मिज़ोरम में आपका स्वागत है। एक और बोर्ड दिखा- बीआरओ की सडक समाप्त, पीडब्ल्यूडी की सडक शुरू। मिज़ोरम में कुछ समय पहले तक बीआरओ सडक निर्माण करता था। अब कुछ सडकों की जिम्मेदारी मिज़ोरम पीडब्ल्यूडी को दे दी गई है।
वैरेंगते में चेकपोस्ट है। यहां सभी के परमिट चेक किये गये, उन पर ठप्पा भी लगाया गया। मिज़ोरम में प्रवेश करने के लिये सभी गैर-मिज़ो लोगों को परमिट लेना पडता है। मैंने अपना परमिट दिल्ली से ही बनवा लिया था- चाणक्यपुरी स्थित मिज़ोरम हाउस से। मिज़ोरम वालों के पहचान-पत्र चेक किये गये।
पैसे को लेकर आलोचना का एक लम्बा दौर चला। सिल्चर से आइजॉल का किराया 380 रुपये है। दूरी है 185 किलोमीटर। इनमें से 110 रुपये ट्रैवल एजेंसी अपने पास रखती है, 270 रुपये ड्राइवर को दिये जाते हैं। सारा खर्च ड्राइवर को ही करना होता है। यात्री इसलिये परेशान थे कि 185 किलोमीटर के लिये 380 रुपये बहुत ज्यादा हैं। ड्राइवर इसलिये परेशान था कि सारे खर्चे उसे करने पडते हैं।
मिज़ोरम पूरी तरह से पहाडी प्रदेश है। मिज़ो का अर्थ ही होता है पहाडी मनुष्य। मध्य हिमालय जैसे पहाड दिखते हैं। हालांकि हिमालय में केले व बांस के पेड अक्सर नहीं होते। यहां बांस इतना ज्यादा है कि दैनिक जीवन बिना बांस के सम्भव ही नहीं। घर तो बांस से बनते ही हैं, फर्नीचर भी बांस का ही होता है। सबसे मजेदार लगी मुझे बांस की हाथ-गाडी। चार पहियों की यह गाडी घर-घर में दिखी। बोझ ढोने में इसका इस्तेमाल होता है। और हां, इसमें स्टीयरिंग भी होता है।
बुआलपुई में गाडी फिर रोक दी खाना खाने के लिये। असल में खाने का ठिकाना तो यही है लेकिन दरवाजा खराब हो जाने के कारण कुछ देर बाघा में रुकना पडा था। यहां केवल ड्राइवर ने ही खाना खाया, बाकी यात्रियों ने चाय पी। होटल संचालन एक महिला कर रही थी, मिज़ो थी, अच्छी हिन्दी बोल रही थी।
मिज़ोरम में मिज़ो भाषा बोली जाती है। इसकी कोई लिपि नहीं थी तो ईसाई मिशनरियों ने रोमन लिपि की शुरुआत की। अब मिज़ो भाषा रोमन में लिखी जाती है। अंग्रेजी पढने वाला कोई भी इंसान मिज़ो भी पढ सकता है लेकिन अंग्रेजी से भिन्न होने के कारण समझ नहीं सकता। एक बात और, मिज़ो फोनेटिक भाषा है अर्थात जो लिखा है वही पढा जायेगा। अंग्रेजी की तरह पढने के ऊल-जलूल नियम नहीं हैं। जैसे कि मिज़ो भाषा में क्रिसमस को ‘Christmas’ नहीं लिखा जाता बल्कि Krismas लिखा जाता है। Christmas को मिज़ो में च्रिस्तमस पढा जायेगा। यहां अक्सर ‘ट’, ‘ठ’, ‘ड’, ‘ढ’ अक्षरों का प्रयोग नहीं होता। इनके स्थान पर ‘त’, ‘थ’, ‘द’, ‘ध’ बोले जाते हैं। यानी चाय को ‘टी’ नहीं बल्कि ‘ती’ कहा जायेगा। एक उदाहरण और, यहीं एक गांव है कॉनपुई। इसकी मिज़ो वर्तनी है- Kawnpui. अगर यह कॉनपुई न होकर कानपुई होता तो इसकी वर्तनी होती- Kanpui. यानी जो लिखा है, वही पढा जायेगा।
इसके बाद सडक अत्यधिक खराब आने लगी। ड्राइवर को पता था इसलिये उसने गाडी को दूसरी सडक पर मोड दिया। यह ठीक थी व इस पर ट्रैफिक भी नहीं था। तभी सचिन का फोन आया कि वो बांगकॉन में है। एयरटेल का नेटवर्क अच्छा काम कर रहा था। तुरन्त गूगल मैप में देख लिया और पता चल गया कि आइजॉल में प्रवेश करते ही हम बांगकॉन से गुजरेंगे। ड्राइवर को बता भी दिया कि मुझे बांगकॉन उतरना है।
दर्तलांग (Durtlang) में पहली बार आइजॉल के दर्शन हुए। आइजॉल एक पहाडी रीढ पर बसा हुआ है। समुद्र तल से ऊंचाई लगभग 1100 मीटर है। पहाडी का चप्पा-चप्पा कंक्रीट से ढका हुआ था, फिर भी अच्छा लग रहा था।
साढे चार बजे मैं सूमो से उतरा। अन्दाजा छह घण्टे में आइजॉल पहुंच जाने का था, लेकिन आठ घण्टे लग गये। सचिन मिला। वह कल से मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। एक दिन विलम्ब से आने के लिये माफी मांगनी पडी। सचिन ने अपने स्वभाव के मुताबिक तुरन्त माफ कर दिया। उसने यहीं एयरपोर्ट रोड पर एक कमरा ले रखा था। कल भी इसी में रुका था। कल किराया दो सौ था, आज जब होटल मालिक को पता चला कि सचिन का एक और साथी भी आने वाला है, तो आज किराया तीन सौ कर दिया। हालांकि तीन सौ के हिसाब से कमरा उतना अच्छा नहीं था। एक बडे से हॉल में प्लाईबॉर्ड खडे करके छोटे छोटे कमरे बना दिये। दरवाजा भी प्लाई का ही था। एक एक बल्ब टांग दिए। इसी हॉल के एक कोने में बाथरूम व शौचालय था। दो कमरों के बीच में मात्र पतली सी प्लाई होने के कारण आवाजें बडी आसानी से सुनी जा सकती थीं। हालांकि मिज़ो आवाज हमारे किसी काम की नहीं थी लेकिन जब बराबर वाले कमरे में एक पति-पत्नी ठहरे तो देर रात तक उनकी ‘आवाज’ ने हमें विचलित किये रखा।
शाकाहारियों के लिये यहां भोजन के ज्यादा विकल्प नहीं हैं। जहां हम ठहरे थे, उसके नीचे भी एक रेस्टॉरेंट था और सामने भी। सचिन यहां कल से है तो उसे सब पता था कि किस रेस्टॉरेंट की क्या खासियत है। उसने बताया कि नीचे वाले में मात्र चावल मिलते हैं जबकि सामने वाले में खाने की ज्यादा वस्तुएं हैं। हम सामने वाले में ही गये। वहां मेरे लिये भी ज्यादा विकल्प थे। मेन्यू कार्ड देखकर ‘चाऊ’ मंगाये गये। उनके पास चाऊमीन भी थी लेकिन सचिन के कहने पर चाऊ मंगाया गया। चाऊ भी चाऊमीन की ही तरह होता है, पता नहीं दोनों को अलग अलग श्रेणियों में क्यों रखा गया। यहां हर जगह मांसाहारी भोजन की भरमार है- सूअर, बकरे, मुर्गे से लेकर गाय के मांस तक की। इसलिये शाकाहारी दिखने वाले हर भोजन पर मांस भी रखा जाना आम है। होटल संचालिका हिन्दी तो कम समझती थी लेकिन भावनाएं ज्यादा समझती थी, इसलिये इशारे से बताने पर उसने मेरे चाऊ पर मांस नहीं रखा। इसके ऐवज में मैंने आमलेट बनवा लिया।
बाहर बाजार में कुछ फल आदि लेने गये। एक वृद्धा फल बेचती मिली। उससे केले का भाव पूछा। वह हिन्दी तो समझती ही नहीं थी, अंग्रेजी में भी लगभग शून्य ही थी। हम हिन्दी या अंग्रेजी में कुछ पूछते, वह मिज़ो में बोलती। केले का एक गुच्छा उठाया, इशारे से उसके पैसे पूछे, उसने केवल ‘हण्ड्रेड’ बोला। करीब पन्द्रह केले थे। हावभाव से लग रहा था कि वह हमारी पूरी बात अभी भी नहीं समझी। मैंने सचिन से कहा कि भाई, इसके सौ रुपये तो बहुत ज्यादा हैं लेकिन चलो फिर भी ले लेते हैं। हमने सौ रुपये में इन्हें ही लेना चाहा, तो उसने उस गुच्छे को दो हिस्सों में करके एक हमें पकडा दिया और एक अपने पास रख लिया, फिर कहा ‘हण्ड्रेड’। सचिन से पूछा कि यह क्या हुआ? उसने भी कहा कि पता नहीं। जाहिर था कि न हम उसकी बात समझ रहे थे और न ही वह। उसका जो एक शब्द हमें समझ आ रहा था, वो था ‘हण्ड्रेड’। पता नहीं यह ‘हण्ड्रेड’ क्या था? शायद केलों की एक निश्चित संख्या का दाम सौ रुपये रहा होगा। आखिरकार हमने केले नहीं लिये।
जब राजधानी में ही ऐसा है तो मिज़ोरम के दूर-दराज के इलाकों में भाषा सम्बन्धी और भी समस्याएं आने वाली हैं। देखते हैं क्या होगा!
कमरे पर लौटकर हमने आगे की योजनाएं बनानी शुरू की। मेरे एक दिन लेट हो जाने के कारण कार्यक्रम भी एक दिन लेट हो गया था। इसलिये हमने आइजॉल शहर घूमना छोडकर सुबह ही साइकिल यात्रा आरम्भ कर देने का विचार किया। मुझे लग रहा था कि सचिन शहर देखना पसन्द करेगा और मैं उसके कहने पर तुरन्त हां कर देता। लेकिन जब उसी ने कहा कि सुबह चम्फाई की तरफ चल देना है तो मैंने तुरन्त इसी पर अपनी मोहर लगा दी। मुझे भी शहर अच्छे लहीं लगते।
पिछली पोस्ट ‘बराक घाटी एक्सप्रेस’ पर दर्शन कौर धनोए जीने टिप्पणीकी:
“अगरतला से हमारे एक पडोसी भागकर आये है -- पिछले २ साल से यही है, वर्माजी बेचारे जिंदगी भर कि कमाई वहाँ लुटा आये --उनकी पत्नी वहाँ के स्कुल में टीचर थी --- वहाँ के लोगो ने उनको चेतावनी भी दी कि भाग जाओ पर बेचारे बगैर बीबी के रिटायर्ड हुए कैसे आते? उनके बच्चे उनकी बहन के पास मुम्बई में पड़ते थे २ साल पहले जब वो छुटियो में मुम्बई आये तो पीछे से उनका सारा घर ही लूट लिया गया -- अब लोग भी उनके और पुलिस भी उनकी --बेचारे चुप होकर रह गए --उनके घर का सारा सामान पडोसी यूज़ करते रहे पर वो किस्से बोले --अपने ही देश में लुटे हुए वो २ साल बाद वापस मुम्बई लौट आये ---जिंदगी भर कि कमाई लुटा कर --- मिजोरम यानि कि जंगल –”
गौरतलब है कि दर्शन जी मुम्बई में ही रहती हैं। मुझे इस टिप्पणी के बारे में कुछ नहीं कहना, बस दो बातें कहनी हैं:
एक, अगरतला मिज़ोरम में नहीं है। और दो, मुझे यूपी-निवासी व हिन्दी-भाषी होने के कारण आज भी मुम्बई जाते हुए डर लगता है।

सिल्चर में सूमो पर साइकिल

आइजॉल में तीन सौ रुपये में यह कमरा मिला था। हालांकि यह सस्ते में मिल सकता था, लेकिन हम ‘परदेशियों’ को देखकर इसके दाम बढा दिये।

आइजॉल शहर

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अगले भाग में जारी...

मिज़ोरम साइकिल यात्रा- आइजॉल से कीफांग

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25 जनवरी 2014 की सुबह थी और हम थे मिज़ोरम की राजधानी आइजॉल में। आज हमें साइकिल यात्रा आरम्भ कर देनी थी और हमारा आज का लक्ष्य था 75 किलोमीटर दूर सैतुअल में रुकने का। दूरी-ऊंचाई मानचित्र के अनुसार हमें आइजॉल (1100 मीटर) से 20 किलोमीटर दूर तुईरियाल (200 मीटर) तक नीचे उतरना था, फिर सेलिंग (800 मीटर) तक ऊपर, फिर 300 मीटर की ऊंचाई पर स्थित और 15 किलोमीटर दूर एक पुल तक नीचे व आखिर में कीफांग (1100 मीटर) तक 20 किलोमीटर की चढाई पर साइकिल चलानी थी। कीफांग से सैतुअल 3 किलोमीटर आगे है। सैतुअल में टूरिस्ट लॉज है जहां हमारी रुकने की योजना है।
अच्छी तरह पेट भरकर और काफी मात्रा में बिस्कुट आदि लेकर हम चल पडे। हम रात को जिस होटल में रुके थे, वह आइजॉल से बाहर एयरपोर्ट रोड पर था। वैसे तो हमें राजधानी भी देखनी चाहिये थी लेकिन मिज़ो जनजीवन को देखने का सर्वोत्तम तरीका गांवों का भ्रमण ही है। साइकिल यात्रा में हम जमकर ग्राम्य भ्रमण करने वाले हैं।
आठ बजे यहां से चल पडे। निकलते ही ढलान शुरू हो गया जो 20 किलोमीटर दूर तुईरियाल में ही समाप्त होगा। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 54 है जो मिज़ोरम के धुर दक्षिण में तुईपांग तक जाता है। हम सेलिंग तक इसी पर चलेंगे, उसके बाद इसे छोड देंगे। यह मार्ग बेहद शानदार बना है। चौडा है और एक भी गड्ढा तक नहीं। कल जब सिल्चर से आइजॉल आया था, तो उस खराब सडक ने बता दिया था कि मिज़ोरम में अच्छी सडकें नहीं मिलने वाली लेकिन इस सडक ने यह भ्रम तोड दिया। गौरतलब है कि मिज़ोरम पीडब्ल्यूडी इस सडक की देखरेख करता है। पहले सीमा सडक संगठन के पास थी यह। सीमा सडक संगठन की खासियत है कि वे सडकों के किनारे जगह जगह बडे अच्छे अच्छे नारे लिखते हैं। ये नारे कंक्रीट की छोटी छोटी दीवारों पर अभी भी लिखे थे। इन पर पीडब्ल्यूडी ने बीआरओ को मिटाकर अपना नाम लिख दिया है। इसका अर्थ है कि हस्तान्तरण हुए ज्यादा समय नहीं हुआ।
इस शानदार सडक का नतीजा हुआ कि घण्टे भर में तुईरियाल पहुंच गये। मिज़ो भाषा में तुई कहते हैं पानी को। नदियों के नाम भी तुई पर होते हैं और नदियों के किनारे बसे गांवों के नाम भी। तुईरियाल भी एक नदी के किनारे स्थित है। मिज़ोरम एक पर्वतीय राज्य है। इसकी पहाडियों की दिशा उत्तर से दक्षिण की तरफ है। यानी अगर आपको पूर्व-पश्चिम दिशा में यात्रा करनी है तो काफी उतार-चढावों का सामना करना पडेगा। हम भी आज आइजॉल की पूर्व दिशा में जा रहे थे तो हमें भी उतार-चढावों से गुजरना पडेगा। एक उतार के बाद चढाई आयेगी और बीच में एक नदी भी। हर जगह ऐसा ही है।
अभी तक साइकिल टॉप गियर में चल रही थी लेकिन अब गियर अनुपात घटाना पडेगा, चढाई आरम्भ हो गई। यह चढाई 16 किलोमीटर की है। दो ढाई घण्टे में पहुंच जाने का इरादा था। चढाई शुरू होते ही सचिन का पसन्दीदा मार्ग आरम्भ हो गया और वो शीघ्र ही आगे निकल गया व नजरों से ओझल हो गया। मुझे भी जैसे जैसे थकान बढती गई, वैसे वैसे गियर एक एक कर गिरने लगे। इसी तरह जब एक बार गियर बदला, तो तेज खटके की आवाज आई व साइकिल रुक गई। देखा तो होश उड गये। गियर चेंजर टूट गया था। अब तक मैं तुईरियाल से दो किलोमीटर आगे आ गया था, सचिन का कुछ अता-पता नहीं था।
फोन किया तो समय अच्छा था कि मिल गया। अन्यथा मिज़ोरम के निचले इलाकों में यानी नदियों के आसपास नेटवर्क नहीं मिलता। उससे मैंने सिर्फ इतना ही कहा- भाई, बहुत बडा नुकसान हो गया है। तुरन्त वापस आ जाओ।
यहीं पास में ही एक घर था। इसके आस-पास कोई घर नहीं था। जैसे कि सभी घर होते हैं, यह भी बांस का ही था। बाहर सूअरों का बाडा बना था। दो बच्चे बाहर खेल रहे थे, मालिक भी बाहर ही था। एक छप्पर के नीचे कार खडी थी, जो तिरपाल से ढकी हुई थी। चूल्हे पर एक बहुत बडा मटका रखा था। इसमें या तो पानी गर्म हो रहा था या फिर कुछ और। कार वाले छप्पर से टिकाकर मैंने साइकिल खडी कर दी। कुछ देर में सचिन आ गया। बोला- इसे बाद में देखेंगे, पहले फोटो लेंगे।
पिछले पहिये पर सात गियर लगे थे। इन पर चेन को सही तरीके से चढाने व बनाये रखने के लिये एक यन्त्र भी फिट होता है, इसे मैं गियर चेंजर कहता हूं। सचिन इसे डीरेलर (Derailer) कह रहा था। डीरेलर यानी डी-रेल करने वाला यानी पटरी से उतार देने वाला। यह चेन को एक गियर से उतार देता है, जिसके फलस्वरूप यह दूसरे गियर पर जा गिरती है। यह डीरेलर ही टूट गया था।
इसके बिना चेन किसी भी गियर पर नहीं टिक सकती और न ही साइकिल चल सकती। चेन बहुत ढीली हो जाती है और इतनी लटक जाती है कि जमीन को छूने लगती है। साइकिल के अन्य पुर्जों के साथ साथ यह भी मुख्यतः एल्यूमीनियम एलॉय का बना था। पहला विचार आया कि इसकी वेल्डिंग करा दी जाये। लेकिन हर जगह एल्यूमीनियम की वेल्डिंग नहीं हो सकती। पास में तुईरियाल गांव तो था लेकिन वहां एल्यूमीनियम तो क्या, साधारण वेल्डिंग भी होने पर सन्देह था। एकमात्र इलाज यही था कि आइजॉल जाया जाये।
यह हमारी यात्रा का पहला ही दिन था। मेरी पूरी कोशिश थी कि साइकिल की वजह से हमारी यात्रा का सत्यानाश न हो। आइजॉल में वेल्डिंग हो जाने की सम्भावना तो थी, साथ ही मुझे वहां नई साइकिल भी मिल जाने की उम्मीद थी। मैंने सोच लिया था कि इसे वहीं दुकान पर खडी करके या बेचकर नई साइकिल खरीद लूंगा।
सचिन ने बताया कि पहले भी एकाध साइकिलिस्टों के साथ ऐसा हो चुका है। इसलिये वो जब लद्दाख गया था तो एक अतिरिक्त डीरेलर लेकर गया था। इस बार अतिरिक्त नहीं लाया। लाया होता तो अब वो काम आ जाता। फिर भी मैं वापस आइजॉल जाने को तैयार नहीं था। मन नहीं कर रहा था ऐसा करने को।
मकान मालिक यदा कदा हमें देख लेता था लेकिन पास नहीं आया था। इसका कारण यही था कि मिज़ो लोग आमतौर पर दूसरों के मामलों में दखलअन्दाजी नहीं करते। मुझे उनका यह व्यवहार बहुत अच्छा लगा। चूंकि हमारे मुंह पर लिखा था कि हम बाहरी हैं, फिर भी उसने कोई पूछा-ताछी या जिज्ञासा जाहिर नहीं की। बच्चे अवश्य हमारे पास आ जाते थे।
आखिरकार मैंने फैसला ले लिया- मैं इसी पर आगे बढूंगा। इसकी चेन को आगे पहले गियर पर व पीछे दूसरे गियर पर स्थायी रूप से लगा देते हैं। यह काटकर छोटी करनी पडेगी। ऐसा करने से यह थोडी टाइट हो जायेगी और मुझे यकीन है कि उतरेगी नहीं। आगे की यात्रा सिंगल गियर पर होगी। सचिन ने सन्देह व्यक्त किया- तू सिंगल गियर पर चला सकेगा? मैंने कहा- हां, चला लूंगा। इस अनुपात पर चढाई पर ज्यादा परेशानी नहीं आयेगी, ढलान पर पैडल मारने की कोई आवश्यकता ही नहीं। सचिन बोला- ग्रेट! तू पहला ऐसा इंसान होगा जो इतनी लम्बी दूरी, वो भी पहाडों में बिना गियर के तय करेगा।
और हम काम पर लग गये। उसके पास चेन जोडने का छोटा सा यन्त्र था। उससे चेन की पिन आसानी से निकल गई। चेन इच्छित छोटी करके अब बारी उसे जोडने की थी। इस जोडने के काम ने पूरे दो घण्टे लगा दिये। यन्त्र असल में चेन की पिन को बाहर निकालने या अन्दर सेट करने के लिये था। पिन अन्दर सेट तब होगी जब वह चेन की कडी व यन्त्र के साथ ठीक एलाइनमेंट में आ जाये। यह काम हाथ से करना था। काम काफी बारीकी भरा था, इसलिये उंगलियां इसे करने में असमर्थ थीं। कुछ देर बाद प्लास से करने की कोशिश की, फिर पत्थर और आखिरकार हथौडा भी आ गया, लेकिन पिन एलाइनमेंट में नहीं आई। मकान मालिक अब तक हमारे काम में दिलचस्पी लेने लगा था। वह न हिन्दी समझता था, न अंग्रेजी और हम मिज़ो नहीं जानते थे। फिर भी उसने हमारी आवश्यकता समझ ली और घर से ‘नोज प्लायर’ ले आया। निःसन्देह नोज प्लायर से पिन पकडने में आसानी हो गई लेकिन काम फिर भी नहीं बना। तीनों ने खूब जोर आजमाइश कर ली लेकिन असफल रहे।
दो घण्टे बाद जब काम हो गया तो हम ऐसे निढाल होकर बैठ गये जैसे हिमालय पर चढकर थक गये हों। एक बार साइकिल चलाकर देखी, सबकुछ ठीक लगा तो आगे बढने पर सहमति हो गई। दोपहर के बारह बज चुके थे। सवा नौ बजे साइकिल खराब हुई थी, पौने तीन घण्टे लग गये। साइकिल खराब न होती तो अब तक सेलिंग पहुंच गये होते।
सेलिंग से पांच किलोमीटर पहले जब भूख बर्दाश्त से बाहर हो गई तो मैंने सचिन से रुकने को कहा। सचिन को भी भूख लगी थी। सडक के किनारे ही बैठकर बिस्कुटों पर टूट पडे। हालांकि जहां हम बैठे थे, वहां से आधा किलोमीटर आगे ही फाईबॉक गांव था जहां हमें केले मिल जाते। फाइबॉक में पेट्रोल पम्प भी है।
ढाई बजे सेलिंग पहुंच गये। जोर की भूख लग ही रही थी। यहां से यह राजमार्ग सीधे लुंगलेई चला जाता है। एक सडक बायें मुडकर चम्फाई जाती है। हमें अब चम्फाई वाली सडक पर चलना है। सेलिंग काफी बडा कस्बा है, जैसा कि मिज़ोरम के ज्यादातर स्थान होते हैं। जब मिज़ो नेशनल फ्रण्ट ने देशविरोधी विद्रोह किया था तो यहां के हालात सेना ने संभाले थे। विद्रोही सेना से बचने के लिये जंगल में चले गये और इधर-उधर बिखरे गांवों में आम लोगों के बीच रहने लगे व अपनी गतिविधियां भी जारी रखीं। तब सेना ने मुख्य मार्गों के किनारे आम लोगों के रहने का प्रबन्ध किया। गांव के गांव खाली हो गये व जनता यहां सडकों के किनारे रहने लगी। इसने मिज़ोरम में छन्नी का काम किया। सेना को विद्रोहियों को पकडने व बेफिक्र होकर हमला करने में सहूलियत हो गई। बाद में जब सबकुछ शान्त हो गया, तब तक ये अस्थायी ठिकाने स्थायी हो चुके थे। इसी वजह से मिज़ोरम में जितने भी सडकों के किनारे गांव हैं, सभी काफी बडे बडे हैं।
सेलिंग में होटल भी हैं जहां खाना-पीना मिल जाता है और रात-बेरात को ठहरना भी। यहां चावल नहीं मिले लेकिन सर्वसुलभ ‘चाऊ’ मिल गई। कुछ इसे खाया, कुछ आमलेट खाया, कुछ फ्रूटी पी, कुछ बिस्कुट खाये; कुल मिलाकर पेट भर गया। यहां से चलते चलते साढे तीन बज गये।
सेलिंग के बाद पन्द्रह किलोमीटर तक ढलान है। अब हम राष्ट्रीय राजमार्ग पर नहीं चल रहे थे। यह सडक सिंगल लेन थी, राजमार्ग के मुकाबले कुछ ऊबड-खाबड भी और ट्रैफिक लगभग नगण्य था। इसका लाभ यह हुआ कि हमने पैंतीस मिनट में ही यह पन्द्रह किलोमीटर की दूरी तय कर ली। एक बात और, सेलिंग से इधर की सडक अभी भी बीआरओ के पास है। मुझे बीआरओ के नारे बडे अच्छे लगते हैं। यहां पुल के पास एक बडा सा बोर्ड लगा था- Pushpak and Mizoram made for each other. गौरतलब है कि पुष्पक बीआरओ की मिज़ोरम में काम करने वाली परियोजना का नाम है।
पुल पार करते ही फिर चढाई शुरू हो गई जो 20 किलोमीटर बाद कीफांग जाकर ही समाप्त होगी। हमें आठ बजे तक कीफांग पहुंच जाने की उम्मीद थी। यहां दिन जल्दी छिप जाता है। कल जब हम आइजॉल में थे, तो सात बजे ही वहां की सडकों पर सन्नाटा पसर गया था। राजधानी से 70 किलोमीटर दूर कीफांग में भी ऐसा ही होने की उम्मीद थी। आठ बजे तक तो लग रहा है कि गांव में कोई भी आदमजात जगती नहीं दिखेगी। दूसरे गांवों की तरह कीफांग भी बहुत बडा है। उससे तीन किलोमीटर आगे सैतुअल है। सैतुअल भी बहुत बडा है।
साढे पांच बजे जब अन्धेरा हो गया तो हमने हैड लाइटें निकाल लीं। पहले सोच रखा था कि मिज़ोरम में अन्धेरा होने के बाद बिल्कुल नहीं चलेंगे। लेकिन पहले ही दिन यह नियम टूट गया। सडक किनारे अगला गांव कीफांग ही है जो ढाई घण्टे बाद आयेगा। यानी हमें ढाई घण्टे तक घोर जंगल में साइकिल चलानी है। सचिन न होता तो मैं ऐसा बिल्कुल नहीं करता। नीचे पुल के पास ही रुक जाता, वहां बीआरओ का एक छोटा सा कैम्प था। इसी तरह अगर मैं न होता तो सचिन भी अन्धेरे में नहीं चलता, वो कभी का कीफांग पहुंच गया होता।
जब कीफांग दस किलोमीटर रह गया, मैं थकने लगा। पहली बार मन में आया कि कीफांग से पहले ही रुक जाते हैं। हर पैडल के साथ यह भावना बढती ही चली गई। विचार आते गये- कीफांग में हमें कोई जगा नहीं मिलेगा। खाना भी नहीं मिलेगा। कमरा भी नहीं मिलेगा। आठ बजे तक तो यहां आधी नींद ले लेते हैं। किसका दरवाजा पीटेंगे हम?
इन्हीं विचारों के साथ साथ रुक जाने की भावना भी प्रबल होती गई। सचिन से रुकने का जिक्र किया तो उम्मीद के विपरीत उसने कोई विरोध नहीं किया। हालांकि सचिन के थकने का तो कोई सवाल ही नहीं था, वो इसी तरह पूरी रात भी साइकिल चला सकता था लेकिन यह उसकी अच्छाई ही थी कि उसने मेरा प्रस्ताव तुरन्त मंजूर कर लिया। मुझे लग रहा था कि सचिन एक बार मना करेगा, कुछ उत्साहवर्धन भी करेगा ताकि मैं एक घण्टे और साइकिल चला सकूं। लेकिन जब उसने मेरा रुकने का समर्थन किया तो शरीर ने बिल्कुल ही काम करना बन्द कर दिया। जैसे ही सडक के किनारे पहला शेड दिखा, हमने साइकिलें रोक दीं। इस तरह के शेड जगह जगह मिल जाते थे। ये दूर-दराज के यात्रियों के लिये प्रतीक्षालय थे।
हैड लाइट की रोशनी में ही टैण्ट लगाया। पास ही किलोमीटर का एक पत्थर था जिससे पता चल रहा था कि हम कीफांग से आठ किलोमीटर पहले हैं। इस समय मुझे किसी भी तरह का कोई डर नहीं लग रहा था। न आदमी का, न जानवरों का और न भूतों का। अकेला होता तो डर के मारे मर गया होता। टैण्ट लगाकर कुछ देर बाहर ही टहलते रहे। भूख लगी ही थी, बिस्कुट खा लिये, पानी पी लिया। बोतल खाली हो गई तो इधर उधर लाइटें मारकर पानी का कोई निशान ढूंढने की कोशिश की, लेकिन घनी झाडियों के सिवाय कुछ नहीं दिखा।
कुछ देर बाद एक मोटरसाइकिल आकर रुकी। इस पर दो व्यक्ति सवार थे। उनके हाथों में बन्दूकें थीं। निश्चित तौर पर वे पुलिस वाले नहीं थे। वे शिकारी थे। यहां पक्षियों का जमकर शिकार होता है। लोग खुले आम दिन में भी बन्दूकें हाथ में लिये जंगलों में व सडकों पर घूमते रहते हैं। साइकिलें व टैण्ट देखकर उन्हें पता चल ही गया था कि हम यहां क्यों रुके हैं। हमने उन्हें बिस्कुट दिये। पहले तो मुझे एक सन्देह भी हुआ था कि कहीं वे हमारे लिये मुसीबत न बन जायें। धीरे धीरे बातचीत होती रही तो सन्देह मिटता गया। एक ने फोन पर बात की तो कुछ देर बाद जंगल में से तीसरा आदमी प्रकट हुआ। तीनों मोटरसाइकिल पर बैठकर चले गये।
कुछ देर बाद एक बुलडोजर आया। इस पर भी दो तीन आदमी थे। जैसा कि आम मिज़ो का स्वभाव होता है, उन्होंने हमें देखा और कुछ नहीं कहा। बगल में ही सडक से हटाकर उन्होंने बुलडोजर झाडियों में घुसा दिया और बन्द कर दिया। वे जाने लगे तो हमने उनसे पानी मांगा। उनके पास भी पानी नहीं था लेकिन उनकी दो बोतलों से दो दो घूंट पानी निकल आया और हमारी बोतल थोडी सी तर हो गई।
रात को अच्छी नींद आई।

चलने से पहले मानचित्र का अध्ययन

आइजॉल में


तुईरियाल नदी

तुईरियाल पुल

साइकिल का गियर चेंजर टूट गया


जोडने की कोशिश

स्थानीय साइकिलिस्ट


जोडने के बाद यह ऐसी हो गई। अब साइकिल सिंगल गियर बन गई है।



मिज़ोरम की पहाडियां

सेलिंग

सेलिंग


सेलिंग से चम्फाई की सडक अलग हो जाती है।

सेलिंग में दुकानें


यह है सामान ढोने वाली मिज़ो गाडी। चढाई पर तो इसे धकेलना पडता है, लेकिन उतराई पर यह दौडी चली आती है। इसमें बैठने का स्थान, ब्रेक और स्टीयरिंग भी होते हैं। फोटो में जो गाडी दिखाई है, वह ढलान पर पूरी रफ्तार से दौडी जा रही है।







 


अगले भाग में जारी...

मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील

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26 जनवरी 2014 यानी गणतन्त्र दिवस...
इसी दिन के मद्देनजर हमने मिज़ोरम यात्रा का कार्यक्रम बनाया था। इच्छा थी यह देखने की कि देश की मुख्यधारा से सैंकडों किलोमीटर दूर मिज़ोरम में गणतन्त्र दिवस पर क्या होता है। होने को यहां हमें तिरंगे के दर्शन की भी उम्मीद नहीं थी क्योंकि इस बार गणतन्त्र दिवस रविवार को था। रविवार को मुख्यभूमि पर भी कोई उल्लास नहीं होता। देश की राजधानी के आस-पास भी कोई रविवार को स्कूल या कार्यालय नहीं जाना चाहता। खूब देखा है कि ऐसे में ज्यादातर तो गणतन्त्र दिवस एक दिन पहले मना लिया जाता है, कभी-कभार अगले दिन भी मनाया जाता है। हम स्वयं भी रविवार को स्कूल जाना पसन्द नहीं करते थे।
फिर मिज़ोरम ईसाई प्रधान है। यहां रविवार का दूसरा ही अर्थ है। रविवार अर्थात पूर्ण छुट्टी, पूर्ण बन्दी। यह धार्मिक दिन है और इस दिन सभी लोग चर्च जाते हैं। इसलिये मुझे मिज़ोरम में तिरंगा दिखने की कोई उम्मीद नहीं थी। तीसरी बात, हमारे आसपास कोई बडा शहर नहीं था। बडा क्या, छोटा भी नहीं था। आठ किलोमीटर आगे कीफांग गांव है। गांव में क्या गणतन्त्र दिवस दिखने की कोई उम्मीद है?
उठे तो देखा कि सचिन की साइकिल के एक पहिये की हवा निकली पडी है। मेरी साइकिल ठीक थी। सचिन ने बताया कि इस ट्यूब में जन्मजात ही कुछ समस्या है। हमेशा पंक्चर होता ही रहता है। उसके पास अतिरिक्त ट्यूब थी लेकिन वह बेहद आपातकाल में उसका इस्तेमाल करना चाहता था। उसके अनुसार अभी आपातकाल नहीं आया था। उसने बिना पंक्चर ठीक किये ट्यूब में हवा भर ली।
साढे सात बजे यहां से चल पडे। यहां के साढे सात दिल्ली के साढे आठ के बराबर होते हैं। भूख लग ही रही थी हालांकि दोनों ने एक-एक पैकेट बिस्कुट खा लिये थे। रास्ता चढाई वाला था। कीफांग तक ऐसा ही रास्ता रहेगा। सुबह का समय था, मैं पूरी ताजगी महसूस कर रहा था इसलिये रात के मुकाबले अब आसानी से साइकिल चल रही थी।
साढे आठ बजे एक ढाबा देखकर जान में जान आई। हम पांच किलोमीटर चल चुके थे, कीफांग अभी भी तीन किलोमीटर आगे था हालांकि वह ऊपर पहाडी पर दिख भी रहा था। सडक आगे जाकर एक मोड लेकर ऊपर जाती भी दिख रही थी जो हमारे सिर के ठीक ऊपर से गुजर रही थी। ढाबे पर सचिन मुझसे काफी पहले पहुंच गया था, इसलिये वहां पहुंचते ही उसकी मुस्कुराहट देखकर मैं जान गया कि यहां हमें खाने को मिलेगा।
मिज़ोरम में भाषा की बडी समस्या है। हिन्दी तो दुर्लभ है ही, अंग्रेजी भी उतनी ही दुर्लभ है। कभी कभार एकाध इंसान हिन्दी या अंग्रेजी जानने वाला मिल भी जाता है तो उसकी हिन्दी हमारे पल्ले नहीं पडती और हमारी हिन्दी उसे समझ नहीं आती। बात वही की वही रह जाती है। होटल संचालिकाएं तीन महिलाएं थीं। एक लडका भी था जो सहायक के तौर पर काम करता था। लडका आसामी था इसलिये हिन्दी जानता था, संचालिकाओं में से एक ही हिन्दी जानती थी। कैसी हिन्दी जानती होगी, अभी बता चुका हूं। लडके के माध्यम से पता चला कि हमें दाल भात मिल जायेंगे। दाल भात सुनते ही मैं खुशी से उछल पडा। मेरे मुंह से निकला- आज तो हम शाही भोजन करने वाले हैं।
कल जब आइजॉल छोड दिया तो हमें कहीं भी चावल तक नहीं मिले। चाऊ खाकर तो आइजॉल में ही ऊब गया था। कल भी अण्डा-चाऊ ही खाना पडा। आज एक तो रविवार होने के कारण कोई होटल या ढाबा खुले होने की उम्मीद नहीं थी, फिर अगर कोई खुला मिलता भी तो हम चाऊ ही खाने को तैयार थे, ऐसे में जब पता चला कि दाल-चावल मिलेंगे तो खुशी होनी ही थी। ये दाल-चावल हमारे लिये शाही भोज से कम नहीं थे।
मिज़ोरम में सडकों के किनारे ही ज्यादातर आबादी बसी है। होटल व घर सडकों के किनारे ही बनाये जाते हैं। पहाडी राज्य होने के कारण समतल जमीन कम ही मिलती है इसलिये मोटे व मजबूत बांसों को आधार बनाकर उनके ऊपर घर व होटल बनाये जाते हैं। जब हम इन घरों के पिछवाडे जाकर देखते हैं तो शानदार नजारा दिखता है। दूर-दूर तक एक के बाद एक पहाडियां और भयंकर हरियाली। सभी घर एक कतार में होते हैं, इसलिये किसी भी घर के पीछे खडे होकर देखने पर आदमी का कोई चिह्न नजर नहीं आता। यहां भी ऐसा ही था।
जब भोजन परोसा गया तो जी खुश हो गया। दाल-चावल तो थे ही, साथ में उम्मीद के विपरीत आलू की सब्जी भी थी, रायता भी था, सलाद भी था और उबली हुई बन्दगोभी के टुकडे भी। बन्दगोभी को चार हिस्सों में काटकर उन्हें पानी में उबाल दिया और परोस दिया। यह देखने में ही अच्छी नहीं लग रही थी, इसलिये हमने नहीं खाई लेकिन आलू की सब्जी पर जमकर हाथ मारा। जब से मिज़ोरम में आए हैं, आलू दिखा ही नहीं। मैंने ठूंस-ठूंस कर खाया। इतना खाया कि शाम तक मुझे कुछ भी खाने की आवश्यकता मालूम नहीं पडी।
बाकी का तो पता नहीं लेकिन एयरटेल का यहां अच्छा नेटवर्क है। गुडगांव से विकास का फोन आया। हम साथ ही पढे हैं, काफी समय तक साथ साथ रहे भी हैं। लेकिन वह फोन तभी करता है जब उसे कोई काम हो। उसने बताया कि वह आज मेरे पास आने वाला था। मैंने कहा कि स्वागत है, आ जा। जब मिज़ोरम का नाम लिया तो आम भारतीय की तरह उसने सबसे पहले यही पूछा कि यह कहां है। वो तो अच्छा था कि उसके पास भारत का बडा वाला नक्शा था, तुरन्त खोलकर बैठ गया। मैंने बताना शुरू किया- ‘‘सबसे दाहिनी तरफ देख, असोम दिख रहा होगा।”
“हां, दिख गया।”
“अब असोम के नीचे देख, मिज़ोरम दिखेगा।”
“मिज़ोरम... नहीं दिखा।”
“अरे असोम के नीचे बांग्लादेश और बर्मा के बीच में एक पूंछ सी दिख रही होगी।”
“हां, दिख गया। मिज़ोरम... हां, है... हे भगवान! यह तो बिल्कुल लास्ट में है। तू अभी कहां है मिज़ोरम में?
“राजधानी दिख रही होगी मिज़ोरम की... आइजॉल।”
“नहीं, मुझे लु... लु... लुंगलाई दिख रहा है।”
“बस तो इसके ऊपर देख थोडा सा... आइजॉल दिखेगा।”
“नहीं, सेलिंग दिख रहा है।”
“बस, अब सेलिंग से दाहिने देख। चम्फाई दिखेगा।”
“हां, है।”
“मैं अभी सेलिंग और चम्फाई के बीच में हूं और बर्मा की तरफ जा रहा हूं।”
यहां सचिन ने साइकिल की ट्यूब बदल ली। पुरानी ट्यूब में कम से कम दस बार पंक्चर हो चुका था। नई ट्यूब बिल्कुल नई थी। इस वजह से यहां हमें दो घण्टे लग गये और साढे दस बजे यहां से रवाना हुए। ऊपर कीफांग में संगीत की आवाज सुनाई दे रही थी जिससे मुझे लग रहा था कि अवश्य गणतन्त्र दिवस मनाया जा रहा है। या फिर चर्च में भी हो सकता है।
आधे घण्टे में ही तीन किलोमीटर दूर कीफांग के मुख्य चौराहे पर पहुंच गये। चौराहे की बराबर में ही एक चर्च था जहां काफी चहल-पहल थी। बच्चों ने हमें घेर लिया, बातचीत करने लगे और साइकिल में उंगली भी। रविवार इनके लिये आनन्द मनाने का दिन होता है। सभी अपनी अपनी पसन्द के कपडे पहनते हैं और जमकर मौज-मस्ती करते हैं। हालांकि यहां की पूरी आबादी जनजाति है लेकिन ये फैशनेबल कपडे पहनते हैं खासकर लडकियां। छोटी बडी ज्यादातर लडकियां स्कर्ट पहने घूम रही थीं जो मुझे बडी अच्छी लग रही थीं। मैं मुख्यभूमि-वासी होने के कारण इनके फोटो खींचने से घबरा रहा था लेकिन यहां के समाज में ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है। कहने भर की देर होती है, लडकियां स्वयं फोटो खिंचवाने के लिये पोज देती हैं। सचिन ने कई फोटो खींचे लेकिन मेरी हिम्मत नहीं पडी।
यहां से दाहिने वाली सडक चम्फाई जाती है और सीधे तमदिल झील। झील यहां से 14 किलोमीटर दूर है और रास्ता भी ज्यादा उतराई-चढाई वाला नहीं। यह झील हमारे यात्रा-नक्शे में थी। तमदिन जाकर हमें वापस यहीं आना पडेगा और फिर चम्फाई की तरफ जाना होगा।
कीफांग और इससे दो-तीन किलोमीटर आगे सैतुअल दोनों मिलकर इस स्थान को काफी बडा बना देते हैं। पता भी नहीं चलता कि कब कीफांग से निकल गये और सैतुअल में प्रवेश कर गये। सैतुअल में मिज़ोरम पर्यटन का टूरिस्ट लॉज भी है। प्रारम्भिक योजना के अनुसार हमें कल सैतुअल या कीफांग में ही रुकना था।
मेरी आंखें तिरंगे को देखने के लिये लालायित थीं। लेकिन इसकी कोई उम्मीद नहीं थी। कारण पहले बता चुका हूं। पूरी आबादी के बीच रास्ता कभी समतल है, तो कभी उतराई वाला। इसलिये अच्छी स्पीड मिल रही थी। फिर बच्चे भी सडकों पर ही खेलते रहते हैं। उनका भी ध्यान रखना होता है। तिरंगा देखने के लिये इधर उधर ज्यादा गर्दन नहीं घुमा सकता था। लेकिन खुशी तब मिली जब एक बन्द दरवाजे के पास तिरंगा दिखा। तुरन्त रुका और इसका फोटो लिया। दरवाजा बन्द था, अन्दर किसी स्कूल आदि के लक्षण भी नहीं दिख रहे थे।
सैतुअल से निकले तो आबादी समाप्त हो गई। यह सडक दिलखान होते हुए आगे कहीं जा रही थी। जब दिलखान चार किलोमीटर रह गया तो एक तिराहा मिला। कई सूचना पट्ट लगे थे जो बता रहे थे कि तीसरी सडक तमदिल झील जाती है। झील यहां से सात किलोमीटर दूर थी। इस सात किलोमीटर की सडक कुछ खराब अवश्य थी लेकिन फिर भी साइकिल यहां अच्छी चल रही थी। ये सात किलोमीटर पूरी तरह ढलानयुक्त हैं।
मिज़ो भाषा में ‘दिल’ का अर्थ होता है झील। ‘तम’ का मुझे पता नहीं। यहां टूरिस्ट लॉज भी है। झील में बोटिंग की सुविधा भी। भीड तो बिल्कुल नहीं थी हालांकि कुछ लोग अवश्य बोटिंग कर रहे थे। दोपहर हो चुकी थी, जनवरी होने के बावजूद भी ठण्ड बिल्कुल नहीं थी। सचिन को नहाने की तलब लग रही थी लेकिन इसकी कोई व्यवस्था नहीं हो सकी। वह टूरिस्ट लॉज में भी गया, उन्होंने मना कर दिया। एक बार तो उसका मन झील में ही गोता लगाने का था लेकिन पानी में पडी पत्तियां व काई देखकर पीछे हट गया।
एक घण्टे रुककर अब बारी थी वापस चलने की। झील से कुछ ही दूर एक फार्म-हाउस था जिसके द्वार पर लिखा था कि यहां पिकनिक आदि मनाने के लिये आयें। हमने सोचा कि यह पर्यटन विभाग का है और यहां कोई मैदान-वैदान होगा। कुछ दूर बांस के बने घर भी दिख रहे थे, उन्हें हमने दुकानें समझा। अन्दर घुस गये। कुछ ही दूर तीन आदमी बैठे मिले। दो नीचे और एक पेड पर बन्दूक लिये हुए, चिडियों के शिकार के लिये। उनसे पता चला कि यह प्राइवेट जमीन है, न कि कोई पिकनिक स्पॉट। वापस मुडने से पहले यहां से पानी की एक बोतल भर ली।
साइकिल की चेन फिर समस्या करने लगी। कल जब गियर-चेंजर टूट गया था तो चेन को आगे पहले गियर पर व पीछे दूसरे गियर पर सेट कर दिया था। इसके लिये चेन काटकर छोटी भी करनी पडी थी। अब हालत यह थी कि चेन आगे किसी भी बडे गियर पर नहीं चढाई जा सकती। पीछे भी इसे तीसरे पर तो रख सकते हैं लेकिन पहले पर कतई नहीं। अब चलते हुए कुछ खटका सा हुआ, उतरकर देखा तो चेन पहले गियर पर चढ गई है। हाथ से उतारने की कोशिश की तो यह हिली भी नहीं। पैर की शक्ति और शरीर के वजन से इसे इतना बल मिल गया था कि यह पहले गियर पर चढ जाये। अगर यही काम हाथ से करता तो कभी नहीं कर सकता था। इस समय चेन अत्यधिक तनाव में थी। साइकिल चल तो अभी भी सकती थी लेकिन अत्यधिक तनावयुक्त चेन और एक्सल को नुकसान पहुंच सकता था। इसे उतारने के लिये हाथों की पूरी ताकत झोंक दी लेकिन यह टस से मस भी नहीं हुई। एक बार तो लगा कि सामान उतारकर पिछला पहिया खोलकर चेन उतारनी पडेगी। लेकिन यह भी इसका कोई स्थायी इलाज नहीं था। अब उतार दूंगा, कुछ देर बाद फिर चढ जायेगी। क्या बार बार मैं पिछला पहिया खोलता रहूंगा? अब हालत ऐसी हो गई कि इसे हाथ से ही उतारना पडेगा। जैसे जब हमारे पीछे कोई कुत्ता दौडता है तो हमारी दौडने की शक्ति बढ जाती है, इसी तरह कोई और चारा न देखकर मेरी भी शक्ति बढ गई और चेन उतर गई।
कुछ दूर चलकर फिर चेन पहले गियर पर चढ गई। इस बार भी अत्यधिक ताकत लगाकर उतार दी। जब चेन उतार रहा होता तो हाथों की पूरी शक्ति लगा देनी होती थी। लगता था कि कुछ न कुछ टूट-फूट अवश्य हो जायेगी। कई बार तो इस तनावयुक्त चेन और गियर के बीच में उंगली भी आने से बाल-बाल बची। संयोग से इसके बाद फिर ऐसा नहीं हुआ। इसका कारण था अगले गियर और पिछले गियर के बीच कोई एलाइनमेंट न होना। गियर चेंजर था तो वह चेन को उपयुक्त गियर पर एलाइन किये रखता था। उसके जाने से चेन अपनी मर्जी की मालिक हो गई।
आगे दिलखान वाले तिराहे पर सचिन बैठा मिला। उसे भूख लग रही थी, बिस्कुट और नमकीन खाने शुरू कर दिये। तमदिल की तरफ से एक टम्पू आया। उसकी सवारियों ने हालचाल पूछा और फोटो भी खिंचवाये।
अब बारी थी कीफांग पहुंचने की और फिर चम्फाई वाली सडक पर चलने की। सचिन आगे निकल गया। रास्ता चढाई भरा था, मैं पीछे ही रहा। जब साढे चार बजे मुख्य कीफांग चौराहे पर पहुंचा तो सचिन नहीं दिखा। फोन किया तो पता चला कि वह अभी पीछे है। रास्ते में रुककर मेरी प्रतीक्षा कर रहा था, लेकिन मैं कब निकल गया, उसे पता ही नहीं चला। कुछ देर बाद फिर फोन किया तो पता चला कि वह रास्ता भटक गया है। सैतुअल-कीफांग मिलकर एक कस्बे का रूप ले लेते हैं। कई रास्ते निकलते हैं तो कई आकर मिलते भी हैं। सभी देखने में एक जैसे लगते हैं तो सचिन गलत रास्ते पर चल पडा। आखिरकार पूछते-पाछते काफी देर बाद वह आया।
यहां से लगभग पन्द्रह-सोलह किलोमीटर तक ढलान है, उसके बाद फिर चढाई है। दिन छिपने लगा था, कुछ देर में अन्धेरा भी हो जायेगा। सोच लिया कि पन्द्रह किलोमीटर बाद जब ढलान खत्म हो जायेगा, वहीं हम रात्रि विश्राम करेंगे। जहां ढलान खत्म होकर चढाई शुरू होती है, वहां हमेशा एक नदी मिलती है और नदी पर पुल भी। पुल के आसपास ही कहीं टैंट लगा लेंगे। खाने को नहीं मिलेगा, इसलिये यहीं से कोटा पूरा लेकर चलना पडेगा। रविवार होने के कारण कीफांग के सभी होटल बन्द थे, गनीमत थी कि स्थानीय बाजार खुला था। यहां से बिस्कुल, नमकीन व कोल्ड ड्रिंक ले लिये।
पांच बजे यहां से चल दिये। कुछ ही दूर गये कि अन्धेरा हो गया। सिर पर हैड लाइटें लगानी पडीं। ढलान था, सडक भी ठीक थी, इसलिये अच्छी स्पीड मिली। जब कीफांग सोलह किलोमीटर पीछे छूट गया तो लगने लगा कि पुल अब आया, अब आया। आखिरकार वो पुल आ ही गया। यह बीआरओ का बनाया कंक्रीट का बडा विशाल पुल था। इसके आसपास किसी भी आदमजात का कोई निशान नजर नहीं आया। शरीर में ऊर्जा अभी भी बची थी इसलिये आगे बढ चले। क्या पता कल की तरह कोई शेल्टर ही मिल जाये।
लेकिन चढाई अभी भी शुरू नहीं हुई थी। कुछ दूर दूसरा उसी तरह का पुल मिला। यहां भी कोई आदमजात नहीं। घोर जंगल और रात होने के कारण यह और भी भयानक लग रहा था। शेल्टर की तलाश में आगे बढ चले। फिर एक तीसरा पुल मिला। यहां अपेक्षाकृत वातावरण कुछ खुला हुआ था। पास में दो तीन बांस के घर भी बने थे। एक मोटरसाइकिल भी खडी थी। उस पार भी मानव आबादी के कुछ चिह्न नजर आ रहा था। निःसन्देह यही वह पुल था जिसके बाद चढाई शुरू हो जायेगी। पुल के उदघाटन पत्थर पर लिखा था- तुईवॉल पुल।
सचिन को उस पार की टोह लेने भेजा और मैं इधर ही हैड लाइट की रोशनी में टैंट लगाने के लिये उपयुक्त जगह ढूंढने लगा। तभी एक छोटा मन्दिर नजर आया। मिज़ोरम में मन्दिर बडी दुर्लभ चीज है। पास गया तो शिवजी महाराज विराजमान मिले। मन्दिर में ही इतनी समतल और पक्की जगह थी कि टैंट लग सकता था। सचिन लौटकर आया, उसने बताया कि उस पार भी कुछ घर हैं, सभी खाली हैं, उनमें सोया जा सकता है। लेकिन मन्दिर को देखकर कहने लगा कि यहीं टैंट लगाना ज्यादा सही रहेगा।
यह पुल बनाना एक बडा प्रोजेक्ट रहा होगा। बीआरओ में मजदूर ज्यादातर बिहारी व झारखण्डी होते हैं। उनकी धार्मिकता को देखते हुए यह मन्दिर बनाया होगा। अब पुल बन चुका, मजदूर भी जा चुके इसलिये मन्दिर भी विस्मृत हो गया।
शिवजी महाराज को धन्यवाद देते हुए हम सो गये।

आज की यात्रा यहां से आरम्भ हुई



‘शाही भोज’

यही वो ढाबा था


कीफांग

कीफांग में सचिन को बच्चों ने घेर लिया


आखिरकार तिरंगा मिल ही गया

दाहिने दिलखान, बायें तमदिल



तमदिल झील








यह एक पान-मसाले का रैपर था- सचिन पान मसाला। मिज़ोरम में अपना नाम देखकर सचिन बडा खुश हुआ। 



चेन की समस्या

बांस ही बांस





अगले भाग में जारी...

मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तुईवॉल से खावजॉल

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27 जनवरी, 2014
हम तुईवॉल नदी के किनारे बने एक मन्दिर में टैंट लगा कर रात रुके थे। साढे सात बजे सोकर उठे। बाहर झांककर देखा तो अदभुत नजारा दिखा। नीचे नदी घाटी में बादल थे जबकि ऊपर बादल नहीं थे। पहाडियों का ऊपरी हिस्सा आसमान में तैरता सा दिख रहा था। मुझे लगा कि यह नजारा अभी कुछ देर तक बना रहेगा। लेकिन जब तक टैंट उखाडा, तब तक सभी बादल हट चुके थे। जैसे जैसे नीचे घाटी में धूप पसरती जा रही थी, बादल भी समाप्त होते जा रहे थे।
मुझे नहाये हुए चार दिन हो चुके थे। कभी सिल्चर में ही नहाया था। सचिन को भी तीन दिन हो चुके थे। जहां मुझे सर्दी बिल्कुल नहीं लग रही थी, वही सचिन ठण्ड से कांप रहा था। सचिन ठहरा मुम्बई वाला। वहां बस दो ही मौसम होते हैं- गर्मी और बरसात। ठण्ड का उन्हें तब पता चलता है जब वे मुम्बई छोडकर उत्तर की ओर बढते हैं। जबकि मैं था दिल्लीवाला। हम जहां भयंकर गर्मी झेलते हैं, वहीं कडाके की ठण्ड भी झेलनी होती है। इसलिये मेरे लिये मिज़ोरम का यह मौसम खुशनुमा था। फिर भी नहाने की इच्छा उसकी भी थी।
पुल से नदी काफी नीचे है। पानी रुका हुआ दिख रहा था और काई के कारण गन्दा भी। नदी में उतरकर नहाने की योजना बनाई लेकिन गन्दा पानी दिखाई देने के कारण रद्द कर दी।
साढे आठ बजे यहां से चल पडे। तुईवॉल समुद्र तल से 500 मीटर की ऊंचाई पर है। इससे 14 किलोमीटर आगे दुल्ते 900 मीटर पर है। यह नदी आइजॉल और चम्फाई जिलों की सीमा भी बनाती है। अंग्रेजी में लिखा भी है- चम्फाई जिले में आपका स्वागत है।
आधे घण्टे बाद यानी करीब चार किलोमीटर आगे बांस का एक घर मिला। इसके दरवाजे खुले थे और भीतर कोई नहीं था। लेकिन देखने से स्पष्ट लग रहा था कि यहां कोई रहता अवश्य है। इसी घर के बराबर में एक हौद था। हौद में एक पाइप के माध्यम से पानी आ रहा था। हौद पूरा भरा था और पानी बाहर बहकर नीचे झाडियों में कहीं गुम हो रहा था। हौद के बराबर में ही पक्का चबूतरा बना था जहां आराम से बैठकर नहाया भी जा सकता था और कपडे भी धोये जा सकते थे। हमें एक दूसरे से कुछ कहने की आवश्यकता ही नहीं थी। दोनों ने साइकिल यहीं रोक ली। घर की एक अलमारी में दो लीटर की एक खाली बोतल रखी थी, उसे चाकू से काटकर मग्गा बना लिया। इसमें से दारू की बडी भयंकर गन्ध आ रही थी।
दोनों दो दो जोडी कपडे लेकर आये थे। बीस दिन की यात्रा के लिये केवल दो जोडी कपडे। इसलिये रास्ते में कपडे धोने तो पडेंगे ही। जब से दिल्ली से चला हूं, तब से मैंने कपडे नहीं बदले थे। अब इन्हें बदलूंगा। नहाऊंगा भी और गन्दे कपडे भी धोऊंगा। सडक के उस तरफ कपडे सुखाने के लिये बांस बंधे थे, कपडे धोये और यहीं टांग दिये। जब तक हम नहाये, कपडे सूख चुके थे। पानी बेहद ठण्डा था। अगर सचिन पहले न नहाता तो मैं कतई नहाने वाला नहीं था। दो घण्टे यहां लग गये। जब यहां से रवाना हुए तो ग्यारह बज चुके थे।
पौने एक बजे दुल्ते पहुंच गये। इसे हम अक्सर दुलत्ती भी कह देते थे। दुलत्ती कहने से हमें बडा सुकून मिलता था, हिन्दी यहां दुर्लभ जो है। इसे DULTE लिखा जाता है लेकिन मिज़ो भाषा में ट, ठ आदि न बोलने के कारण दुल्ते पढा जाता है। यह छोटा सा गांव है। यहां से नौ किलोमीटर आगे बडा गांव कालकुल (Kalhkulh) है जो यहां से ऊपर पहाडी पर दिखता भी है। दुल्ते में खाना मिलने की उम्मीद तो नहीं थी लेकिन फिर भी एक ढाबा मिल गया। सचिन मुझसे पहले पहुंच गया था। जब मैं पहुंचा तो वह चिकन-चाऊ खा रहा था। मेरी इच्छा चाऊ खाने की बिल्कुल नहीं थी इसलिये चावलों के बारे में पूछा। ढाबा संचालिका हिन्दी तो समझ ही नहीं रही थी, अंग्रेजी भी नहीं समझ रही थी। आखिरकार रसोई में घुसकर बर्तनों में झांककर देखा। चावल नहीं मिले।
निराश होकर कोल्ड ड्रिंक और नमकीन ले लिये। भयंकर भूख लग रही थी। कल सुबह कीफांग में चावल खाये थे। उसके बाद से बिस्कुटों पर ही जी रहे हैं। बराबर में तीन महिलाएं भी चिकन-चाऊ खा रही थीं। साथ ही मिज़ो में बकर-बकर बतियाए भी जा रही थीं। अनजानी भाषा को सुनने का भी एक अलग ही आनन्द होता है। उनका लहजा और आवृत्ति का उतार-चढाव सुनना बडा मजेदार होता है। कभी कभी तो लगता है कि हम हिन्दी वाले ऐसा कभी नहीं बोल सकते। इसी बीच मुझे एक परिचित सा शब्द सुनाई दिया- पराता। इस शब्द को सुनते ही लगा कि यह परांठा है। भूखे को क्या चाहिये? अनजानी भाषा में बात हो रही है, वे कुछ से कुछ बोले जा रही हैं, मन में भोजन है तो भोजन से सम्बन्धित ही सुनाई देगा। एक बार तो मन को समझाया कि यहां चाऊ की धरती पर परांठा कहां से आ गया? यह तो ठेठ उत्तर भारतीय है।
सचिन से कहा कि उस महिला अभी परांठे का नाम लिया है। सचिन संकोच रहित स्वभाव का है। मैं महिलाओं से बोलने में संकोच कर रहा था, सचिन ने फटाक से हिन्दी में ही पूछ लिया- परांठा मिलेगा? मैं सचिन को धिक्कारने ही वाला था कि यहां कहां परांठा होगा? लेकिन उन तीन में से एक महिला ने हिन्दी में जवाब दिया- हां, मिलेगा। उसी ने संचालिका से मिज़ो में कुछ कहा और एक प्लेट में परांठे हाजिर हो गये। मैं हैरान था।
लेकिन ये उत्तर भारतीय परांठों जैसे नहीं थे। थे तो रोटी जैसे ही, तैलीय भी थे लेकिन इन्हें बनाने की विधि कुछ अलग रही होगी। ये नर्म पापड जैसे थे। हिन्दी परांठे तवे पर बनते हैं, तवे की गर्मी से ये जगह जगह जल जाते हैं और छोटे छोटे काले चकत्ते पड जाते हैं। साथ ही सेंकते समय फूल भी जाते हैं। लेकिन मिज़ो परांठों में न जले का निशान था और न फूले होने का। स्वाद में बिल्कुल फीके थे। यानी इन्हें मिर्च चटनी के साथ खाना पडेगा।
यह चटनी खाना हम दोनों के लिये बडा जानलेवा था। मुझे याद है जब मैं श्रीखण्डगया था तो शिमला के पास चाऊमीन खाते समय धोखे से सॉस की जगह लाल मिर्च की चटनी खा बैठा था। तब से छाछ को भी फूंक फूंक कर पीता हूं। यह मिज़ो चटनी हर जगह हर मेज पर कटोरियों में रखी मिलती है। आइजॉल में ही सचिन ने आगाह कर दिया था कि इसे चख भी मत लेना, बडी खतरनाक है। बस, मैंने चखी ही नहीं। अब जबकि फीके परांठे खाने मुश्किल होने लगे तो हाथ अपने आप चटनी पर चला गया। इसका एक ‘अणु’ भर चखकर देखा। उतना तीखा मालूम नहीं पडा। हिम्मत और बढी तो और ले ली। मिर्च तो इसमें जबरदस्त थी लेकिन इससे भोजन का स्वाद निःसन्देह बढ ही रहा था।
एक महिला ने अपने मोबाइल पर मिज़ो गाना चला रखा था। हिन्दी के अलावा किसी दूसरी भाषा के गाने मुझे कभी समझ नहीं आते लेकिन संगीत अवश्य अच्छा लगता है। पंजाबी संगीत इसी वजह से भारत भर में धूम मचाये हुए है। मिज़ो संगीत में वाद्य-यन्त्रों का शोर ज्यादा है। सचिन ने ब्लू-टूथ से पांच मिज़ो गाने अपने मोबाइल में ले लिये। उसे मिज़ोरम यात्रा पर एक प्रेजेंटेशन बनानी है। उसमें मिज़ो संगीत काम आयेगा।
दुल्ते से दूसरी पहाडी पर ऊपर कालकुल दिखाई देता है। वैसे तो यह काल्हकुल्ह है लेकिन आम बोलचाल में कालकुल बोला जाता है। दुल्ते से कालकुल की दूरी नौ किलोमीटर है। पहले तीन किलोमीटर तो ढलान है, फिर चढाई है। आज साइकिल यात्रा का तीसरा दिन है तो पहले दिन के मुकाबले कुछ आसानी से भी साइकिल चल रही है। अब चढाई उतनी कठिन महसूस नहीं होती जितनी पहले दिन हो रही थी। सिंगल गियर में भी कोई दिक्कत नहीं हो रही।
कालकुल दुल्ते के मुकाबले काफी बडा है। यहां होटल भी हैं और खाने पीने की कई दुकानें भी। हमेशा की तरह सचिन मुझसे पहले पहुंच गया और एक होटल पर बैठा मिला। होटल महिलाओं के ही जिम्मे था, एक पुरुष बाहर सीढियों पर बैठा था। उसने खूब पी रखी थी। मिज़ोरम में दारूबन्दी है। फिर भी पडोसी राज्यों से जमकर दारू आती है। और लोग इसे हाथों हाथ पी जाते हैं। न सुबह ना दोपहर, कोई समय नहीं, जब भी मिले, तभी पी जाते हैं। हालांकि उसने खूब पी रखी थी, फिर भी वह ठीक बात कर रहा था। जैसे कि घोर शराबी होते हैं, या तो वे गाली गलौच करते रहेंगे, या फिर सबसे मीठी मीठी बातें करेंगे। वह दूसरी श्रेणी का शराबी था। वह कैमरे के पीछे पड गया। कहने लगा कि मुझे यह कैमरा खरीदना है, जितने पैसे कहोगे, उतने दूंगा। मैंने कहा कि मुझे यह बेचना ही नहीं है। बोला कि कोई बात नहीं, लेकिन मुझे खरीदना है। पैसे अभी दूंगा। आखिरकार मैंने कहा कि मैं चम्फाई जा रहा हूं। तीन दिन बाद जब इधर से लौटूंगा तो आपको दे दूंगा। वह राजी हो गया।
एक महिला-वेटर हिन्दी जानती थी। हमसे पहले वहां मिज़ो गाने चल रहे थे, हमारे जाने पर हिन्दी गाने बजने लगे। स्वयं वह महिला भी हिन्दी गाने जानती थी। सचिन कोई गाना गुनगुनाता तो वह अगली लाइन गाने लगती। यहां किसी को हिन्दी बोलते देखना ही सुकून देता है, हिन्दी गाने सुनना तो और भी सुकून की बात है।
कालकुल आइजॉल और चम्फाई के लगभग बीच में पडता है। इसलिये इन दोनों शहरों के बीच चलने वाली सभी गाडियां और सूमो आदि यहां रुककर खाना खाकर ही आगे बढते हैं। यहां इस होटल पर इसी तरह की भीड थी। एक गाडी आती, कुछ देर बाद दूसरी गाडी और इसी तरह गाडियों का आना-जाना लगा रहता। कई बार तो यहां जाम भी लग जाता।
चलते समय जब मैं सडक के दूसरी तरफ जाकर साइकिल लेने जा रहा था और सचिन होटल में बोतल में पानी भर रहा था तो उसी हिन्दी जानने वाली लडकी ने सचिन से कहा- तुम्हारा वो दोस्त काफी हैंडसम है। सचिन ने कहा- हां, उसकी शादी भी नहीं हुई है अभी। तभी सचिन मेरे पास आया और बोला- नीरज, कुछ देर और यहीं रुकते हैं। वो लडकी ऐसे-ऐसे कह रही है। खैर, हम नहीं रुके।
कालकुल से अगला कस्बा खावजॉल है जिसकी दूरी 31 किलोमीटर है। शुरू के 15 किलोमीटर तक ढलान है, फिर शेष रास्ता चढाई भरा है। चार बजे हम कालकुल से चले। 15 किलोमीटर तक पहुंचने में अन्धेरा होने लगेगा, फिर खावजॉल तक अन्धेरे में चलना पडेगा या फिर पिछले दो दिनों की तरह कहीं जंगल में ही रुकना पडेगा।
जब 15 किलोमीटर चल चुके और वो पुल भी आ गया जिसके बाद खावजॉल की चढाई शुरू हो जायेगी, सचिन ने कहा कि अब अन्धेरा हो चुका है, कहीं टैंट लगाने की जगह ढूंढते हैं। मैं चूंकि अभी तक थका नहीं था, लग रहा था कि खावजॉल तक चल सकता हूं। इसलिये जब कहा कि अभी खावजॉल तक की हिम्मत जुटा सकता हूं तो सचिन बडा खुश हुआ।
आठ बजे खावजॉल पहुंचे। यह काफी बडा कस्बा है। यहां से एक सडक नगोपा भी जाती है जो मिज़ोरम-मणिपुर सीमा पर है। जहां पांच बजते ही अन्धेरा हो जाता है, वहां आठ बजे तक सन्नाटा भी पसर जाता है। यही हाल यहां पर था। अब जबकि हम एक बडे शहर में आ ही चुके तो आज टैंट नहीं लगायेंगे। दो दिन टैंट में सोते हो गये। टैंट और स्लीपिंग बैग में सोना कभी भी आरामदायक नहीं होता। सडकों पर लोग थे अवश्य लेकिन कोई होटल खुला नहीं था। साथ ही रेस्टॉरेंट भी बन्द थे। मैं आखिरी के कुछ किलोमीटर बडी मुश्किल से चला था। हर किलोमीटर के पत्थर पर रुकता और दूरी कम होने का जश्न मनाता- शाबाश नीरज! बस चार किलोमीटर और। इस जश्न में सचिन भी शरीक होता।
खावजॉल से आगे जाने की तो हिम्मत ही नहीं थी। सचिन भी इस बात को समझता था। इसलिये अपनी साइकिल मेरे हवाले करके वह खाने की तलाश में लग गया और सफल होकर लौटा। एक बन्द होने ही वाले रेस्टॉरेंट में हमें बचे-खुचे दाल-चावल खाने को मिले।
रुकने के बारे में पता किया तो बताया गया कि कुछ आगे चलकर जंगल विभाग का रेस्ट हाउस है। हम आगे बढ चले। कुछ आगे एक चर्च मिला। विचार आया कि चर्च में रुकते हैं। मुझे चर्च के बारे में कोई जानकारी नहीं है। बाहर घूम रहे एक आदमी को पकडा। अंग्रेजी में उसे किसी तरह समझाया कि हम चर्च में रुकना चाहते हैं। भला मानस था, बोला कि अभी रुको, पता करके आता हूं। थोडी देर बाद वो आया तो हमारे लिये अच्छी खबर नहीं थी। आगे बढना पडा। मेरी हालत इस समय तक ऐसी थी कि हम यहां चर्च के प्रांगण में टैंट लगाने तक को भी तैयार थे।
जंगल विभाग का रेस्ट हाउस मिला। यहां भी बिल्कुल सन्नाटा पसरा था। कोई नहीं दिखा तो सचिन अन्दर गया। पता नहीं किस किस दरवाजे में झांका, किस किस को जगाया, काफी देर बाद बाहर आया। बोला कि अभी रुका रह, लग रहा है कि काम हो जायेगा। फिर अन्दर चला गया। मुझे काफी सर्दी लग रही थी। सडक पर चहल-पहल तो खत्म हो ही गई थी, इक्का दुक्का लोग भी दिखने बन्द हो गये थे। करीब आधे घण्टे बाद सचिन फिर दिखाई दिया और मुझे बुलाया। बात असल में ये थी कि यहां रेस्ट हाउस में कई कमरे थे, सभी भरे थे। कोई भी खाली नहीं था। रेस्ट हाउस का मैनेजर भला आदमी था। जब हम पहुंचे, वो सो चुका था। हमारे बारे में पता चला तो उसने हमारे लिये जी-जान लगा दी। बुक हो चुके रेस्ट हाउसों में गया, लेकिन जब बात नहीं बनी तो अपने क्वार्टर में ले गया। उसके यहां दो कमरे थे। अपनी पत्नी को सारी बात बताई, वह सहमत थी। हम उसे कई बार बता चुके थे कि हमारे पास स्लीपिंग बैग है, हमें टैंट लगाने भर को जगह चाहिये। हमारी इस बात से वह अवश्य राहत महसूस कर रहा होगा। उसने कहा कि हमारे पास कोई भी अतिरिक्त रजाई गद्दा नहीं है। सचिन ने कहा कि कोई बात नहीं, हम स्लीपिंग बैग में सो लेंगे। उसकी पत्नी हमारे लिये चटाई बिछाने लगी तो सचिन ने कहा कि रहने दो, हम ऐसे ही सो लेंगे। मैंने तुरन्त हिन्दी में सचिन से कहा- ओये, ये लोग जो भी कुछ भी दे रहे हैं, ले ले। चटाई के अलावा अगर ये कोई कम्बल भी दें तो अच्छा ही है। तब तक सचिन के कहने से उन्होंने चटाई उठा ली थी और कोने में रख दी थी। हालांकि मैंने पुनः इन्हें उठा लिया, बिछाया और सोफे के गद्दे को तकिये की जगह लगा लिया।
आज हम टैंट में जंगल में ऊबड खाबड जगह पर नहीं थे लेकिन स्लीपिंग बैग में सोने के बावजूद भी काफी अच्छी नींद आई।

तुईवॉल में यहीं मन्दिर में रुके थे।



यहां नहाना-धोना करेंगे।






झूम खेती का एक नमूना। इसके बारे में विस्तार से बाद में बताऊंगा।


दुल्ते में खाने की शुरूआत


दुल्ते में


दुल्ते










 
अगले भाग में जारी...


मिज़ोरम साइकिल यात्रा- खावजॉल से चम्फाई

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28 जनवरी 2014
सचिन ने आवाज लगाई, तब आंख खुली। रात बेहद शानदार नींद आई थी, इसलिये थोडा इधर उधर देखना पडा कि हम हैं कहां। हम खावजॉल में एक घर में थे। सचिन कभी का उठ चुका था और उसने अपना स्लीपिंग बैग बांधकर पैक भी कर लिया था। जब मैं उठा, तो घर की मालकिन ने वहीं चूल्हा रखकर एक कप चाय बनाई और मुझे दी। सचिन जब उठा था, तब उसके लिये बनाई थी।
साढे सात बजे यहां से चल पडे। कुछ आगे ही एक तिराहा था जहां से सीधी सडक ईस्ट लुंगदार जा रही थी और बायें वाली सडक चम्फाई। लुंगदार वाली सडक पर एक गांव है- बाइते। हम चम्फाई से आगे बर्मा सीमा के अन्दर बनी रीह दिल झील देखकर खावबुंग जायेंगे और वहां से बाइते और फिर आगे ईस्ट लुंगदार और फिर और भी आगे।
मिज़ोरम में कई स्थान दिशाओं के नाम पर हैं जैसे ईस्ट लुंगदार, वेस्ट लुंगदार, नॉर्थ वनलाइफाई, साउथ वनलाइफाई आदि। जरूरी नहीं कि इस तरह के ईस्ट व वेस्ट आसपास ही हों। ये पूरे मिज़ोरम में कहीं भी हो सकते हैं, कई सौ किलोमीटर दूर भी। जैसे ईस्ट लुंगदार खावजॉल से सत्तर किलोमीटर दूर है तो वेस्ट लुंगदार आइजॉल के पश्चिम में रीईक के पास। नॉर्थ वनलाईफाई यहां है तो साउथ वनलाईफाई दक्षिण मिज़ोरम में सैहा से करीब 100 किलोमीटर दूर संगाऊ के पास। इसी तरह के और भी स्थान हैं।
डेढ घण्टा लगा यहां से 17 किलोमीटर दूर तुईपुई पहुंचने में। खावजॉल 1200 मीटर पर है, तुईपुई 750 मीटर पर और उसके बाद चम्फाई 1300 मीटर की ऊंचाई पर है। तुईपुई गांव इसी नाम की एक नदी के किनारे बसा है। यहां बीआरओ का बनाया एक विशाल कंक्रीट का पुल है। नीचे घाटी में स्थित होने के कारण तुईपुई में एयरटेल का नेटवर्क नहीं है।
खावजॉल से हम बिना कुछ खाये चले थे, तुईपुई से चम्फाई तक लगातार चढाई है तो यहां कुछ खाना पडेगा। एक ढाबे में घुस गये। घुसते ही निगाह पडी आलू की टिक्कियों जैसी किसी चीज पर। मिज़ोरम में हमें आलू की सब्जी तक नहीं मिली, यहां टिक्कियां हैं; यह देखकर मन में कुछ सन्देह हुआ। पूछताछ की तो पता चल गया कि ये आलू की टिक्कियां ही हैं। उनमें पता नहीं क्या मिला रखा था कि इनके ऊपर एक पतली सी परत बनी हुई थी। इस परत का रहस्य समझ नहीं आया। साथ ही इन्हें हिन्दी टिक्कियों की तरह तवे पर नहीं बल्कि कढाई में पकौडियों की तरह तला जा रहा था। टिक्कियां बनाईं और तेल में छोड दीं। इन पर बेसन आदि नहीं लगाया गया। फिर भी इनके ऊपर बनी परत सन्देहास्पद तो थी। शायद इनमें अण्डा भी मिला हो।
कुछ भी हो, हमें यह टिक्की बेहद पसन्द आई। मिज़ो परांठे फीके होते हैं, बिल्कुल बेस्वाद। परांठे पर यह टिक्की रखकर ‘रोल’ बनाकर खाने में आनन्द आ गया। साथ में चाय ले ली। यह मिज़ोरम में अब तक का हमारा सबसे स्वादिष्ट भोजन था। दोनों ने कम से कम बीस टिक्कियां और दस परांठे खा डाले।
पिछले कई दिनों से साइकिल चलाते रहने की वजह से अब मुझे उतनी कठिनाई महसूस नहीं हो रही थी, जितनी पहले दिन हुई थी। तुईपुई से चम्फाई 19 किलोमीटर है। दस बजे जब तुईपुई से चले तो लक्ष्य था दो बजे तक चम्फाई पहुंच जाने का। इसके बाद ज़ोते जाकर गुफाएं देखते और फिर ज़ोखावतार चले जाते। ज़ोखावतार भारत-बर्मा सीमा पर है। कल सीमा पार करके रीह-दिल झील देखते।
लेकिन, जैसा सोचा जाता है वैसा अक्सर नहीं होता। होनी को कुछ और ही मंजूर होता है।
साइकिल की चेन पिछले गियर पर दूसरे से तीसरे पर, तीसरे से चौथे पर और अगर और पैडल मारते जाते तो पांचवें और छठे गियर पर जा गिरती। इसका गियर चेंजर चूंकि टूट चुका था, इसलिये चेन को नियन्त्रित करने वाला कोई नहीं था। दो दिन पहले यह दूसरे से पहले पर जा चढती तो कोई खास समस्या नहीं आती लेकिन अब ज्यादा समस्या की बात थी क्योंकि चौथा या पांचवां गियर दूसरे के मुकाबले ज्यादा स्पीड देते हैं इसलिये जोर भी ज्यादा लगाना पडता है। फिर रास्ता चढाई भरा था। चढाई वाले रास्तों पर चेन दूसरे या पहले गियर पर ही रखी जाती है। चौथे पांचवें गियर पर रखेंगे तो अत्यधिक शक्ति लगानी पडेगी। दस पांच मीटर तक तो अत्यधिक शक्ति लगाई जा सकती है लेकिन कई किलोमीटर तक नहीं। अभी भी चम्फाई आठ किलोमीटर दूर था।
जब कई बार हाथ से चेन छठे गियर पर चढा चुका और वो फिर उतर जाती तो इंजीनियरी दिमाग में आई। चेन इसी दिशा में बार बार इसलिये उतर रही है क्योंकि शायद साइकिल इस दिशा में झुकी हुई है। यानी साइकिल पर बंधा सामान कुछ दूसरी दिशा में हो गया है। इसलिये एक जगह साइकिल रोककर सारा सामान उतारकर पुनः बांधा लेकिन फिर फिर वही ढाक के तीन पात।
अब तक सचिन चम्फाई पहुंच चुका था। उसका फोन आया। मैंने समस्या बताई और कहा कि अभी छह किलोमीटर पीछे हूं, पैदल आ रहा हूं। पैदल साइकिल को लेकर चलता गया। सोचता गया- चेन इसलिये उतर रही है क्योंकि इसे कण्ट्रोल करने वाला कोई नहीं है। अभी हम आवाजाही वाले इलाके से गुजर रहे हैं। कल के बाद हमें बर्मा सीमा के साथ साथ बिल्कुल दूरस्थ इलाके में चलना है। वहां इस तरह की समस्या आती तो ज्यादा मुश्किल होती। अच्छा हुआ कि चम्फाई के पास ही ऐसा हुआ है। ठीक होना तो मुश्किल है। मेरे धीरे चलने की वजह से सचिन पहले ही परेशान है। अब और ज्यादा परेशान हो जायेगा। आखिर उसे भी अपने ‘प्रतिद्वन्द्वियों’ को सफल मिज़ोरम यात्रा दिखानी है। अब मैं और आगे नहीं बढूंगा। कल आइजॉल और दिल्ली लौट जाऊंगा।
अपना यह फैसला जब सचिन को बताया तो वो परेशान हुआ। वह स्वयं मेरी साइकिल को लेकर एक मिस्त्री के पास गया। मिस्त्री इसे ठीक करने में असमर्थ था। अगर इसका गियर चेंजर मिल जाता तो बात बन जाती, लेकिन चम्फाई जैसे छोटे कस्बे में कहां मिलेगा? नहीं मिला। अब मेरे वापस लौटने पर मोहर लग गई।
वैसे तो बर्मा सीमा पर कोई तारबन्दी नहीं है, फिर भी आधिकारिक रूप से भारत से बर्मा जाना आसान नहीं है। अरुणाचल-बर्मा सीमा पर पहले तो बीएसएफ से अनुमति लेकर जा सकते हैं जो कि आसान नहीं है, फिर उस तरफ जाया जा सकता है। मणिपुर-बर्मा सीमा पर मोरे में भी कुछ ऐसा ही है। लेकिन मिज़ोरम-बर्मा सीमा पर ऐसा नहीं है। यहां इधर से उधर बेरोकटोक आया जाया जा सकता है। जब से मैंने यह पढा था, तभी यहां आने की इच्छा होने लगी थी। यही इच्छा इस मिज़ोरम यात्रा की जननी थी।
लेकिन अब मन इतनी बुरी तरह खिन्न था कि ज़ोखावतार न जाने की सोच ली। मुझे नहीं पता कि अब कब चम्फाई आना हो या न हो। लेकिन इस महा-यात्रा के खाक में मिल जाने से कुछ भी करने का मन नहीं था। कहीं भी जाने का मन नहीं था। दो सप्ताह बाद की आइजॉल से कोलकाता की फ्लाइट कैंसिल करा दी। और तीन दिन बाद की गुवाहाटी से दिल्ली का ट्रेन टिकट पूर्वोत्तर सम्पर्क क्रान्ति में वेटिंग में बुक कर दिया। उम्मीद है कि चार्ट बनने तक सीट कन्फर्म हो जायेगी।
सचिन ने यात्रा जारी रखने का फैसला किया। वह अकेला घूम सकता है, इसलिये मुझे उसे इस तरह बीच में छोड देने का उतना दुख नहीं हुआ। साथ ही एक खुशी भी हुई कि अब उसे मेरी वजह से धीरे धीरे नहीं चलना पडेगा। अब वो अपनी प्राकृतिक स्पीड से चलेगा। दूरी-ऊंचाई का नक्शा उसे दे दिया। स्लीपिंग बैग उसके पास था ही, किसी आपातकाल के लिये टैंट भी उसे दे दिया। खरीदने से उसने मना कर दिया। मैंने कहा कि कभी मुम्बई आऊंगा, टैंट ले आऊंगा। साथ ही टैंट को हवाई जहाज में ले जाने के लिये एक हजार रुपये भी दे दिये।
चम्फाई एक बडा शहर है, जिला मुख्यालय भी है। कई होटल हैं। हमें पांच सौ रुपये का एक कमरा मिला, कमरा शानदार था। मैं कल आइजॉल जाने के लिये सूमो में एक सीट बुक कर आया। दस बजे वाली सूमो में सीट मिली। यहां सूमो काउण्टर से कई कई दिन पहले अपनी सीटें बुक कर सकते हैं।

चांगतु रेस्टॉरेंट, चम्फाई

खावजॉल में, जिनके यहां रुके थे, चाय बन रही है।


एक प्राकृतिक नजारा

तुईपुई नदी और गांव

तुईपुई पुल पर

आलू की टिक्कियां हैं या पकौडे?


आसमान में जाता एक वायुयान



चम्फाई के एक रेस्टॉरेंट में मेन्यू कार्ड


अगले भाग में जारी...

मिज़ोरम से वापसी- चम्फाई से गुवाहाटी

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29 जनवरी 2014
मिज़ोरम साइकिल यात्रा का सत्यानाश हो चुका था। अब दिल्ली वापस लौटने का फैसला कर चुका था। अगर सबकुछ ठीक-ठाक चलता तो मेरे 12 फरवरी को मिज़ोरम से कोलकाता तक फ्लाइट और उसके बाद दिल्ली तक दूरोन्तो में टिकट बुक थे। रात दोनों टिकट रद्द कर दिये। अब 1 फरवरी को पूर्वोत्तर सम्पर्क क्रान्ति में वेटिंग टिकट बुक किया।
इस यात्रा का मुख्य आकर्षण बर्मा स्थित रीह-दिल झील देखना था। वहां केवल भारतीय नागरिक ही जा सकते हैं। किसी वीजा-पासपोर्ट की आवश्यकता नहीं होती। सीमा पर निर्धारित मामूली शुल्क देकर एक दिन के लिये बर्मा में घूमने का आज्ञापत्र मिल जाता है। बडा उत्साह था अपने इस पडोसी देश को देखने का। लेकिन अब मानसिकता ऐसी थी कि कहीं भी जाने का मन नहीं था। एक तरह से मैं सदमे में था।
सचिन को विदा किया और दस बजे आइजॉल के लिये चलने वाली सूमो में बैठ गया। वह शेष यात्रा पूरी करेगा।
भले ही मैं और सचिन साथ-साथ घूम रहे थे लेकिन दोनों के उद्देश्य अलग-अलग थे। मेरा साध्य था मिज़ोरम भ्रमण और साधन साइकिल जबकि सचिन की साध्य थी साइकिल और साधन मिज़ोरम। बिल्कुल विपरीत लक्ष्य। उसे मिज़ोरम में ‘साइकिलिंग’ करनी थी ताकि बाद में इस यात्रा का प्रस्तुतीकरण देकर वह अपने ग्रुप में दुस्साहसी साइकिलिस्ट की सम्मानपूर्ण पदवी पा सके। वह पिछले साल अकेला लद्दाख गया था, कुछ महीने पहले अरुणाचल, फिर मुम्बई से कन्याकुमारी और अब मिज़ोरम।
जबकि मुझे मिज़ोरम देखना था। मुझे दूरी से कोई मतलब नहीं था। हालांकि रोज के हिसाब से योजना बनाकर अवश्य गया था लेकिन सचिन से पहले ही बता दिया था कि यह अन्तिम योजना नहीं है। अगर हम इस योजना से पिछडते चले गये तो आखिरी दिन साइकिल को बस या सूमो पर लादकर एयरपोर्ट ले जायेंगे। सचिन न ज़ोते गुफाएं देखने गया और न ही बर्मा बल्कि सीधा खावबुंग की ओर चला गया।
खैर, आइजॉल से चम्फाई की दो सौ किलोमीटर की दूरी हमने चार दिनों में तय की थी। अब चम्फाई से आइजॉल जाते हुए इन चार दिनों का फ्लैश-बैक देख रहा था। छह किलोमीटर पर वो जगह देखी जहां कल मैंने सामान उतारकर पुनः बांधा था ताकि साइकिल का सन्तुलन ठीक हो सके। तुईपुई में सूमो उस दुकान के सामने पांच मिनट खडी रही जहां हमने ढेर सारी आलू की पकौडियां खाई थीं। खावजॉल में वन विभाग के रेस्ट हाउस देखे जहां रेंजर के घर पर रात रुके थे। कालकुल में उस होटल पर सूमो आधे घण्टे रुकी और सभी यात्रियों ने लंच किया जहां एक लडकी ने सचिन से मेरे बारे में कहा था कि तुम्हारा मित्र काफी हैंडसम है। मैं यहां सूमो से नहीं उतरा। डर था कि कहीं वो दारूबाज आदमी पुनः न मिल जाये जिससे मैंने पीछा छुडाने की गरज से कहा था कि वापस लौटते समय आपको कैमरा बेच दूंगा। तब क्या मालूम था कि दो दिन बाद ही यहां आना पडेगा?
दुल्ते में सत्तर रुपये के एक दर्जन केले लिये। ये बिल्कुल भी स्वादिष्ट नहीं थे। मिज़ो लोग कभी दिल्ली आते होंगे और केले खाते होंगे तो मीठे, नरम और सस्ते केले खा-खाकर पागल हो जाते होंगे। इन्होंने उन नरम केलों को मिज़ोरम में लगाने की कोशिश तो की होगी लेकिन बांस की भूमि पर केले में भी कठोरता आ ही जाती है।
वो जगह देखी जहां हम नहाये थे और कपडे धोये थे। अब उस घर में ताला लगा था। हमारे समय में वह खुला था, वहां कोई नहीं था और अन्दर से एक बोतल उठाकर उसे काटकर हमने उसका मग्गा बनाया था। गृह मालिक ने गालियां तो अवश्य दी होंगी। उससे आगे तुईवॉल पुल पर मन्दिर भी देखा जहां हमने टैंट लगाया था और रात गुजारी थी।
कीफांग में सूमो नहीं रुकी। फिर भी तीन किलोमीटर आगे वो होटल मुझे दिख ही गया जहां हम भूखों ने शाही भोजन किया था। पांच किलोमीटर और आगे वह शेड देखा जहां हमने पहली रात को टैंट लगाया था। सेलिंग में सूमो आधे घण्टे को फिर रोक दी कुछ खाने-पीने को। मैंने उबले अण्डे और चाय लिये। सेलिंग मिज़ोरम के एकमात्र राष्ट्रीय राजमार्ग पर है। यहां हिमाचल के तीन-चार ट्रक दिखे। इन्हें देखकर मन में आया कि दौडकर इन्हीं पर चढ जाऊं।
जब तक आइजॉल पहुंचे, सूरज ढल चुका था और शहर में बत्तियां जलने लगी थीं। शहर में प्रवेश करते समय यह नजारा बेहद खूबसूरत था। फोटो तो इसका नहीं लिया। फिर कभी आऊंगा, तब के लिये पता चल गया है कि शाम को दिन ढलने के बाद यह शहर यहां राष्ट्रीय राजमार्ग से कितना खूबसूरत लगता है। मैंने आज तक ऐसा कभी नहीं देखा कि घने बसे शहर में बत्तियां भी जल चुकी हों और पीछे बैकग्राउण्ड में डूब चुके सूरज की बची-खुची रोशनी भी हो। वाकई शानदार नजारा था वह।
मन में आया कि यहां पांच सौ रुपये का कमरा लेने से बेहतर है कि सिल्चर जाया जाये। शाम के छह बज चुके थे। अन्धेरा हो चुका था। सूमो ने मुझे उस स्थान पर उतार दिया जहां से सिल्चर की सूमो मिलती हैं। इस भले मानस ने साइकिल चम्फाई से आइजॉल तक फ्री में पहुंचा दी। कोई पैसा नहीं लिया। जब सिल्चर वाली सूमो के ड्राइवर से बात करने लगा तो उसने साइकिल के सौ रुपये मांगे। मैंने बिल्कुल मना नहीं किया। सिल्चर से आइजॉल यह दो सौ में आई थी।
शहर भर का चक्कर काटकर इसने सवारियां एकत्र की, कुछ सामान भी उठाया और जब आइजॉल छोडा, रात के नौ बज चुके थे। मुझे सोना था, इसलिये मैंने पीछे कोने वाली सीट ली।
जब तक मिज़ोरम में रहे, सूमो कूदती ही रही। कभी कभी तो सिर छत से जा टकराता। असोम में आते ही अच्छी सडक मिल गई और गाडी की रफ्तार भी बढ गई। वैसे तो यहां से सिल्चर चालीस किलोमीटर के आसपास ही है लेकिन यहां सभी रात्रिकालीन सूमो दो-तीन घण्टे के लिये रुकती हैं। जिसे कुछ खाना हो, वह खा लेता है और जिसे सोना होता है, वह सो लेता है। मैंने दाल-चावल खाये और सूमों में ही जाकर सो गया। बाकी यात्री स्थानीय थे। उन्हें मालूम था कि कहां जाकर सोना है। मैं दो घण्टे तक सूमो में अकेला ही सोता रहा।
जब सिल्चर उतरे, तो साढे तीन बजे थे। काफी ठण्ड थी और सभी दुकानें बन्द थीं। इस समय किसी होटल में कमरा लेने का सवाल ही नहीं उठता। सुबह होगी तो गुवाहाटी वाली सूमो पकडूंगा। गुवाहाटी से यहां तक ट्रेन से आया था। एक बार सडक मार्ग भी देख लूं। यह बेहद घटिया निर्णय था। सिल्चर से सुबह वाली ट्रेन से ही निकल जाना था। अब सडक मार्ग से यात्रा करने के बाद मैं दूसरों को यही सलाह देता हूं कि कभी भी गुवाहाटी और सिल्चर की दूरी सडक से तय मत करना खासकर पब्लिक वाहनों में। ट्रेन से हालांकि ज्यादा समय लगता है लेकिन उत्तम है।
तो साढे तीन बजे सिल्चर में कोई हलचल नहीं थी। मेरे अलावा कुछ यात्री और भी थे जिन्हें गुवाहाटी जाना था। यहीं एक ट्रैवल एजेंट की दुकान के चबूतरे पर बैठे थे। धीरे धीरे सभी यात्री कुछ बिछाकर तो कुछ ओढकर लेटने लगे। मैंने भी अपना स्लीपिंग बैग निकाल लिया और चबूतरे पर ही सो गया।
पांच बजे जब ट्रैवल एजेंसी खुली तो मुझे उठाया गया। कहने लगे कि भाई, अन्दर चलो और वहां सो जाओ। ट्रैवल वालों की ही दुकान में अन्दर कुछ खाली जगह थी। इस समय मुझे इतनी तेज नींद आ रही थी कि मैंने कहा कि मुझे मत जगाओ। कहने लगे कि बहुत सर्दी हो रही है। मैंने कहा कि मुझे नहीं लग रही है। लेकिन उन्होंने मेरी एक न सुनी और मुझे साइकिल समेत अन्दर ही जाना पडा। लेकिन जाकर पुनः सोने से पहले आठ बजे चलने वाली सूमो में गुवाहाटी का एक टिकट बुक करा दिया।
नौ बजे सूमो चली। मुझे अब लगातार यात्रा करते हुए लगभग चौबीस घण्टे हो चुके थे और अभी भी बारह घण्टे की यात्रा बाकी थी। सिल्चर से गुवाहाटी पहुंचने में बारह घण्टे लगते हैं। जब तक गाडी असोम में रही तो अच्छी सडक मिली और रफ्तार भी अच्छी रही। लेकिन मेघालय में घुसते ही रफ्तार पर ब्रेक लग गया। सडक इतनी ज्यादा खराब थी कि धूल के बीच सडक ढूंढना मुश्किल हो जाता था। दक्षिणी असोम, त्रिपुरा, मिज़ोरम और मणिपुर को मुख्य भारत से जोडने वाली यह एक महत्वपूर्ण सडक है। इस पर ट्रकों की जबरदस्त आवाजाही रहती है। एक तो खराब सडक, फिर ट्रकों के कारण यह और भी खराब होती जाती है। धूल इतनी कि गाडी के सभी शीशे बन्द कर लेने पर भी सांस लेना मुश्किल होने लगता।
अब दिल्ली को कोसने का मन कर रहा है- देश की राजधानी को। यह इलाका सांस्कृतिक और भौगोलिक रूप से बाकी देश से बिल्कुल भिन्न है। देखा जाये तो यहां से पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) जाना ज्यादा आसान है। इस इलाके को देश से जोडने वाली रेल लाइन भी देख ली और सडक भी। दोनों बेहद घटिया हालत में हैं।... और लग रहा है कि यहां गधे निवास करते हैं। अपनी छोटी छोटी बातों के लिये कभी असोम बन्द तो कभी पूर्वोत्तर बन्द कर देते हैं। देशवासियों और हिन्दीभाषियों को मारते हैं। लेकिन सडक और रेल के लिये कभी आन्दोलन नहीं करते। बल्कि तोड जरूर देते हैं। रहो बिना सडक के, बिना रेल के। दिल्ली, तू ठीक ही है। जिन्हें सडक की जरुरत नहीं है, उन्हें सडक देनी भी नहीं चाहिये। देते हैं तो तोड देते हैं। संस्कार बडे शक्तिशाली होते हैं। मिशनरियों ने इन्हें ईसाई बनाकर सभ्य और आधुनिक बनाने की कोशिश जरूर की है लेकिन जंगली और आदिवासी संस्कार आसानी से नहीं जायेंगे।
तो यह था मेरा मेघालय से पहला साक्षात्कार। देश के खूबसूरत राज्यों में मेघालय का नाम आता है। यहां सबसे ज्यादा बारिश होती है। लेकिन बारिश का भी एक मौसम होता है। बिना मौसम के यहां धूल उडती है। इस सडक से हटकर भले ही मेघालय अभी भी उतना ही खूबसूरत हो लेकिन फिलहाल यह मेरे लिये धूल भरी सडकों पर रेंग रेंग कर चलते वाहनों वाला राज्य है।
शिलांग के एक यात्री की वजह से अन्दर शहर से होकर जाना पडा, नहीं तो ड्राइवर बाइपास से जाने वाला था। इस बहाने शिलांग की एक झलक भी देख ली। अच्छा लगा। आऊंगा कभी।
भारत में सडकों पर हमेशा काम चलता रहता है लेकिन कभी पूरा नहीं होता। शिलांग-गुवाहाटी सडक अब महा-मार्ग बनने वाली है। चौडीकरण का काम चल रहा है। जैसे जैसे गुवाहाटी नजदीक आता जा रहा था, ट्रैफिक भी बढता जा रहा था। पूर्वोत्तर में मैंने इतने ट्रैफिक की कल्पना नहीं की थी।
मिज़ोरम से ही एक फौजी भी आ रहे थे। उन्हें दिल्ली जाना था अवध असम एक्सप्रेस से। उन्हें लग रहा था कि ट्रेन रात नौ बजे चलती है। लेकिन जब मैंने नेट पर देखकर बताया कि ट्रेन का समय नौ बजे नहीं, बल्कि दस बजे है तो उनकी जान में जान आई। हालांकि ड्राइवर ने गाडी चलाने में अपनी पूरी सामर्थ्य लगाई, फिर भी गुवाहाटी पहुंचते पहुंचते साढे नौ बज गये। अब वे साहब आसानी से ट्रेन पकड सकते हैं। हालांकि आज इस ट्रेन के समय में ढाई घण्टे का परिवर्तन किया गया था और अब यह साढे बारह बजे चलेगी।
स्टेशन के पास ही एक कमरा ले लिया। सबसे पहले भरपेट स्वादिष्ट भोजन किया। आज तीस जनवरी थी। मेरी ट्रेन परसों हैं। यानी कल पूरे दिन मैं गुवाहाटी में ही रहूंगा। घूमने की इच्छा नहीं थी और न ही कामाख्या मन्दिर देखने की। एक इच्छा थी कि गुवाहाटी से सुबह छह बजे चलने वाली लामडिंग पैसेंजर से लामडिंग जाऊं और शाम तक लौट आऊं।
 
अगले भाग में जारी...

डायरी के पन्ने-20

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मित्रों के आग्रह पर डायरी के पन्नों का प्रकाशन पुनः आरम्भ किया जा रहा है।
ध्यान दें: डायरी के पन्ने यात्रा-वृत्तान्त नहीं हैं। ये आपकी धार्मिक और सामाजिक भावनाओं को आहत कर सकते हैं। कृपया अपने विवेक से पढें।

1. पप्पू ने नौकरी बदली है। पहले वह गुडगांव में कार्यरत था, अब गाजियाबाद में काम करेगा।  पप्पू कॉलेज टाइम में मेरा जूनियर था और हम करीब छह महीनों तक साथ-साथ रहे थे। मैंने जब गांव छोडा, बाहर किराये के कमरे पर रहना शुरू किया तो शुरूआत पप्पू के ही साथ हुई। उसी से मैंने खाना बनाना सीखा। तब मैं फाइनल ईयर में था। पेपर होने के बाद हम दोनों अलग हो गये। मैंने नौकरी की तो उसने बी-टेक की। बी-टेक के बाद वह गुडगांव में मामूली वेतन पर काम कर रहा था। मुझसे कम से कम पांच साल बडा है। कभी-कभार बात हो जाती थी।
अब जब वह गाजियाबाद आ गया तो उसे मैं याद आया। कुछ दिन हमारे यहां से ऑफिस जाया करेगा, तब तक वहीं आसपास कोई ठिकाना ढूंढ लेगा।
अब उसकी व्यक्तिगत जिन्दगी में झांकते हैं। उसकी उम्र तीस साल से ऊपर हो चुकी है। अभी तक विवाह नहीं हुआ। घरवाले पिछले सात-आठ सालों से उसके विवाह की कोशिशों में लगे हैं, वह स्वयं भी इसके लिये तैयार है लेकिन कहीं बात नहीं बन रही। अभी तक तो मुझे इसकी वजह मालूम नहीं थी लेकिन अब इस बारे में उससे बात करके सबकुछ मालूम हो गया। सारी गलती पप्पू और इसके घरवालों की ही है। हालांकि वह अपनी गलती कभी नहीं मान सकता। उसकी नजर में उन पच्चीस-तीस लडकियों और उनके परिजनों की ही गलती है जिनसे बात हुई और आगे नहीं बढी।
पप्पू ने पहले बीएससी की, फिर मैकेनिकल का तीन साल का डिप्लोमा किया और उसके बाद बीटेक। इतना कर चुकने के बाद पिछले दो सालों से वह गुडगांव में गाडियों के किसी निजी शोरूम में बारह-तेरह हजार की नौकरी कर रहा था। अब नई नौकरी भी उसी तरह की है लेकिन यहां पैसे कुछ ज्यादा मिलेंगे। शायद पन्द्रह हजार या सोलह-सत्रह हजार। यह प्रोफाइल एक बीटेक होल्डर के लिये बिल्कुल भी आकर्षक नहीं है। इसके अलावा उसका कोई शौक भी नहीं है, कोई बिजनेस नहीं है और न ही आधुनिक सोच। इकलौता लडका है, दो बहनें है। तीनों बहन-भाई घरवालों के कडे अनुशासन में पले-बढे हैं। या यूं कहिये कि हमेशा से घरवालों के पंजे के नीचे रहे हैं। उन्हें नहीं पता कि खुली हवा क्या होती है, आसमान में कैसे उडा जाता है? यह सब पप्पू से बात करने पर साफ पता चलता है। और तो और, उसे कम्प्यूटर और इंटरनेट जैसी बेसिक चीजों तक की जानकारी नहीं है। हालांकि किसी तरह वह फेसबुक खाता बनाने में सफल हो गया। अब उसके लिये फेसबुक का अर्थ अनजान लडकियों को फ्रेण्ड रिक्वेस्ट भेजना ही है। ... जाट है। बाप पब्लिक सेक्टर में है, अच्छी आमदनी है। अच्छी खेती है। लेकिन कोई लडकी वाला न तो बाप की आमदनी देखता है, न खेती को पूछता है और न उन्हें इकलौते होने से मतलब है। उन्हें लडके से मतलब होता है। लडका इतना पढने के बाद भी ऐसी नौकरी कर रहा है, जाहिर है कि लडके में काबिलियत नहीं है। अपने ‘ना-काबिल’ लडके के लिये उन्हें ‘काबिल’ लडकी चाहिये, जो सम्पन्न परिवार से हो, बेहद सुन्दर हो, अच्छी पढी लिखी हो, घर के सारे काम जानती हो और...
... कभी लडके के साथ रहने को न कहे। लडका दिल्ली रहता है, लडकी को गांव में रहना पडेगा।
यही गलती हो जाती है। अच्छे घर की पढी-लिखी लडकी... सोचती तो होगी कि इन्हें बहू की नहीं, नौकरानी की जरुरत है। उधर अच्छे घर का पढा लिखा लडका परिवर्तन को तैयार नहीं है। आज भी उनकी नजर में पति पत्नी का साथ रहना असामाजिक है।

2.पिछले दिनों रोजाना की तरह अखबार पढ रहा था। दैनिक भास्कर में ‘महाराष्ट्र-गुजरात’ पृष्ठ पर चुनावी खबरों के बीच एक छोटी सी खबर पर निगाह पडी- प्रसिद्ध हास्यकवि अलबेला खत्रीका निधन। मैं सन्न रह गया। तुरन्त फेसबुक पर ऑनलाइन हुआ। पाबला साहबऔर ललित शर्माके प्रोफाइल पर भी यही था कि खत्री साहब नहीं रहे। अगर मैं उनके सम्पर्क में न आता तो यह खबर मेरे लिये कोई मायने नहीं रखती। वे लाफ्टर चैलेंज के विजेता भी रह चुके हैं और ‘बडे आदमी’ थे। हम दो बार मिले थे। एक बार रोहतक में और दूसरी बार सांपला में। दोनों बार उन्हें दिल्ली तक छोडने की जिम्मेवारी मेरी थी। सूरत में रहते थे। एक बार मैंने उन्हें सूरत फोन किया तो आवाज सुनते ही पहचान गये। मुझे लग रहा था कि बताना पडेगा कि नीरज बोल रहा हूं... वे कहते कौन नीरज... नीरज जाट... कौन नीरज जाट? तब मैं उन्हें रोहतक और सांपला के बारे में बताता। तब शायद उन्हें याद आ जाता। ऐसा ही सोचकर मैंने उन्हें फोन किया था। बडे लोगों को कौन फोन नहीं करना चाहेगा?
कई साल पहले राज भाटियासाहब जर्मनी से अपने पैतृक स्थान रोहतक आये थे। वे ब्लॉग दुनिया में एक सम्मानित ब्लॉगर हैं। मुझ समेत काफी सारे ब्लॉगर उनके भारत आने की खबर सुनकर उनसे मिलने को आतुर हो गये थे। तब रोहतक में तिलयार झीलके किनारे एक ब्लॉगर सम्मेलनका आयोजन किया गया था। यह सुनते ही दिल्ली तो दिल्ली, मुम्बई और रांची-जमशेदपुर तक से ब्लॉगर रोहतक आये। तब तक अलबेला खत्री भी ब्लॉगिंग में काफी प्रसिद्ध हो चुके थे। उनके ब्लॉग पर हम जैसे लोग टिप्पणी करते थे और उसका वे जवाब देते थे, तो उनके जवाब में ‘धन्यवाद नीरज’ जैसे शब्द देखकर ऐसा लगता था जैसे अमिताभ बच्चन ने अपने घर पर मुझे डिनर पर आमन्त्रित कर दिया हो।
तो उस सम्मेलन में खत्री साहब के भी आने की हवा उड गई। हां, यह हवा ही थी। मैंने भाटिया साहब से पूछा था कि क्या वाकई खत्री साहब आ रहे हैं तो उन्होंने जवाब दिया कि कहा तो है लेकिन मुश्किल है उनका आना। लेकिन हवा उडी ही रही। सम्मेलन जबरदस्त सफल रहा, काफी ब्लॉगर आये। लेकिन जब दोपहर तक खत्री साहब नहीं आये तो निराशा भी देखी गई। फिर एक खबर आई कि वे आ रहे हैं, दिल्ली पहुंच रहे हैं... रोहतक पहुंच चुके हैं... होटल में नहाने गये हैं। शाम के पांच बज चुके थे। लोग फिर भी रुके थे।
वे आये। सबसे मिले, मुझसे भी। कवितापाठ भी हुआ। एक ब्लॉगर ने पूछ लिया कि आप दो घण्टे पहले रोहतक आ चुके थे, फिर होटल चले गये, नहाने और कपडे बदलने। इससे अच्छा होता कि यहां सीधे आ जाते। बोले- मैं एक कलाकार हूं। कला मेरी रोजी-रोटी है। कलाकार को कलाकार की तरह दिखना चाहिये।
रात वे भाटिया साहब के घर पर ही रुके। सुबह देखा कि खाना बनाने वाली बाई अपने बच्चे को भी लाई थी। बच्चे को कुछ शारीरिक समस्या थी। सारी समस्या सुनकर खत्री साहब ने उसे अपना नम्बर दिया- मेरे सूरत और मुम्बई में कुछ जानकार डॉक्टर हैं। मैं उनसे इस बारे में बात करूंगा। तुम लगातार भाटिया साहब और अन्तर सोहिलके सम्पर्क में रहना। जैसे ही तुम्हें बुलाऊं, तुरन्त आना पडेगा। मुम्बई पहुंचाने तक की जिम्मेवारी राज और अन्तर की है, उसके बाद सारी जिम्मेवारी और खर्चा मेरा।
जब भाटिया साहब के निवास से रिक्शा पर बैठकर मैं और खत्री साहब बस अड्डे की तरफ चले तो उन्होंने मुझसे कहा- ‘नीरज, तुम बहुत घूमते हो। लेकिन एक बात हमेशा याद रखना कि इन रिक्शा वालों से कभी मोलभाव मत करना। मोलभाव करोगे तो ज्यादा से ज्यादा तुम्हारे दस रुपये बचेंगे। ये दस रुपये तुम्हारे लिये उतने अहम नहीं हैं जितने इनके लिये।’ जब भी मैं रिक्शा पर बैठता हूं तो मुझे उनकी यह बात याद आ जाती है।

3. 10 अप्रैल को दिल्ली में लोकसभा के लिये वोटिंग हुई। मैंने भी वोट दिया। इस बार निःसन्देह हवा भाजपा के पक्ष में चल रही है। इसका सारा श्रेय नरेन्द्र मोदी को जाता है। भाजपा ने मोदी को प्रधानमन्त्री पद का प्रत्याशी बनाकर ठीक ही किया है। वैसे वहां इस पद के लिये मोदी से भी वरिष्ठ आडवाणी जैसे दावेदार थे। मौलिक रूप से मुख्यमन्त्री और प्रधानमन्त्री के कार्यों में कोई अन्तर नहीं होता। दोनों के लिये चुनावी प्रक्रिया से लेकर सबकुछ एक सा होता है। मुख्यमन्त्री के काम करने का दायरा जहां एक राज्य होता है, वहीं प्रधानमन्त्री के लिये कई राज्य यानी पूरा देश। बस यही अन्तर होता है। मोदी इस मामले में आडवाणी से ज्यादा अनुभवी हैं।
आम आदमी पार्टी ने अवश्य कुछ समय पहले जबरदस्त उलटफेर किया था। लग रहा था कि इस उलटफेर की गूंज भारत के दूर-दराज के गांव-देहातों में भी पहुंचेगी और यह पार्टी लोकसभा चुनावों में भी एक सशक्त पार्टी के तौर पर उभरेगी। लेकिन केजरीवाल के दिल्ली में घटिया शासन ने इस पार्टी की गरिमा को भयंकर क्षति पहुंचाई है। अब यह पार्टी भले ही दिल्ली में अपना रुतबा खो चुकी हो, लेकिन गांव-देहातों में अभी भी इसका अच्छा नाम है। सीधे-साधे लोग केजरीवाल के त्यागपत्र को बलिदान मानते हैं। ... और ज्यादातर मतदाता सीधे-साधे ही हैं।
सभी बडी पार्टियां मोदी के विरोध में है। मोदी चूंकि लम्बे समय से गुजरात के मुख्यमन्त्री रहे हैं, इसलिये मोदी के विरोधी गुजरात विरोधी भी बन गये हैं। यह स्थिति देश के लिये खतरनाक है। हर राज्य के शासक अपने राज्य और गुजरात की तुलना कर रहे हैं और गुजरात को देश का सबसे घटिया राज्य सिद्ध करने में लगे हैं। इसका नुकसान मोदी या भाजपा को हो या न हो, लेकिन गुजरात को अवश्य होगा और साथ ही देश को भी। दूसरों के रास्ते में गड्ढे खोदने से बेहतर है कि अपने रास्ते के गड्ढे ठीक किये जायें।
इसी बीच सोच रहा हूं कि अगर मैं प्रधानमन्त्री होता तो क्या करता। इसका जवाब मेरे लिये बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है क्योंकि जिसकी जैसी जरुरतें होती हैं, वह सत्ता में आने पर उसी के अनुसार काम करने लगता है। मैं भी अपनी जरुरतों के अनुसार ही काम करता। मुझे दो-तीन चीजें बहुत कचोटती हैं। पहली है आरक्षण। आरक्षण यानी हर नागरिक के लिये अलग मापदण्ड। हर नागरिक में भेदभाव। योग्यता को कोई महत्व नहीं।
नम्बर दो, धारा 370 यानी कश्मीर को भारत से अलग करके देखा जाना। वैसे तो हर राज्य में कुछ न कुछ ऐसे कानून हैं जो शेष भारत में नहीं हैं लेकिन कश्मीर का यह कानून ज्यादा चर्चित है। इसे चर्चित होने की कोई वजह नहीं है। अमेरिका में तो पचास राज्य हैं और सभी का अपना अलग संविधान है। हमारे ही यहां पूर्वोत्तर की स्थिति बडी बदहाल है। मुझे आश्चर्य होता है कि भारत उनसे दुश्मनों जैसा व्यवहार करता है, वे फिर भी भारतीय बने रहना चाहते हैं। न वहां रेल है, न सडक है। वहां रेलवे लाइनें बिछे, अच्छी सडकें बनें, थोडा बहुत इन्फ्रास्ट्रक्चर का विकास हो। एक आम उत्तर भारतीय सुदूर दक्षिण में केरल जाना शान समझता है जबकि पूर्वोत्तर के सुदूरवर्ती राज्यों में नहीं जाता। कारण सिर्फ इतना है कि केरल तक हर तरह की ट्रेनें जाती हैं।
तीन, पुलिस को भंग करता। पुलिस भंग होते ही अपराधों में कमी आयेगी। फिर भी छोटी मोटी वारदातों को संभालने के लिये दूसरे बहुत से बल मौजूद हैं। पुलिस असभ्य लोगों का वह झुण्ड है जो सभ्य लोगों को सभ्यता सिखाने के लिये बनाया गया है।

4.योगेन्द्र सोलंकीसाहब जो गुडगांव में रहते हैं, के मुजफ्फरनगर स्थित गांव में एक विवाह है। काफी दिनों पहले ही उन्होंने न्यौता दे दिया था। मैं भूल जाता था। अगली बार वे फिर पूछते थे कि आयेगा कि नहीं। मैं पूछता था कि कहां, क्यों? वे फिर याद दिलाते थे। 16 अप्रैल का विवाह है। बुधवार है। मेरी छुट्टी मंगलवार को रहती है। मंगल को ड्यूटी करके बुध की भी छुट्टी ले सकता हूं लेकिन इधर आजकल मेरी खान साहब से खटपट चल रही है जिस वजह से मैंने बुध की आकस्मिक छुट्टी लगा दी। यह पास भी हो गई। अब मंगल को गांव जाऊंगा और बुध को मुजफ्फरनगर।

5.जैसे जैसे सर्दी कम होती जा रही है, मच्छर भी बढते जा रहे हैं। मेरा ठिकाना यानी शास्त्री पार्क भी मच्छर बाहुल्य क्षेत्र में स्थित है। एक तरफ तो यमुना है, दूसरी तरफ सीलमपुर की झुग्गियां। अन्धेरा होते ही मच्छरों की फौज भयंकर प्रहार करने लगती है। रात को कमरे में रासायनिक धुआं करने पर भी मच्छर नहीं भागते।
इसी रासायनिक धुएं के बाद सुबह उठा तो गले में मामूली सी खराश मालूम हुई। शाम होते-होते यह बढ गई। निगलने पर गले में दर्द होता। न खांसी थी, न ही जुकाम। सोचा कि एक-दो दिन में अपने आप ठीक हो जायेगा। अगली रात मच्छरदानी लगाकर सोया। सुबह उठा तो गले का दर्द बढा हुआ था। दवाई लेनी पडी, साथ ही परहेज की हिदायत भी। तला-भुना नहीं खा सकते और न ही दही। आज 14 तारीख है, कल के मुकाबले कुछ आराम है। लेकिन जैसे जैसे गले का दर्द कम होता जा रहा है, खांसी और जुकाम बढता जा रहा है। लग रहा है कि मुज़फ्फरनगर जाना रद्द करना पडेगा। सचिन त्यागी आये थे, उनसे इस बारे में विमर्श किया तो उन्होंने कहा- न जाओ तो बेहतर है। क्योंकि वे अगर तुम्हारे ज्यादा अज़ीज़ हैं तो उन्हें तुम्हारे गले से हमदर्दी होगी, वे भी न आने के लिये तुमसे सहमत ही होंगे लेकिन अगर वे तुम्हारे न जाने से नाराज हो गये तो समझ लेना कि उन्हें तुमसे और तुम्हारी सेहत से कोई मतलब नहीं।

6.सचिन त्यागीआये। आभासी दुनिया यानी फेसबुक और ब्लॉग पर तो हमारा मिलना होता रहता है लेकिन वास्तविक दुनिया में मिलना पहली बार हुआ है। बडे खुश थे। उन्होंने भी एक ब्लॉगबनाया है। चाहते थे कि मैं उन्हें कुछ तकनीकी जानकारियां दूं। लैपटॉप पर उनका ब्लॉग खोला, जो परिवर्तन वे चाहते थे, वे कर दिये। उन्होंने बताया कि कैसे वे मुझ तक पहुंचे। काफी पहले वे नेट पर यात्रा सम्बन्धी लेख पढा करते थे। अचानक उन्हें सन्दीप पंवारके ब्लॉग की जानकारी मिली। फिर मेरे ब्लॉग की और उसके बाद मनु के ब्लॉगकी। बताते हैं कि जिसके बारे में सबसे बाद में पता चला, उससे सबसे पहले मुलाकात हो गई और सन्दीप भाई से अभी तक मिलना नहीं हुआ। सचिन अपना खुद का ब्लॉग भी बनाना चाहते थे। उन्होंने मनु से इस बारे में पूछा तो मनु ने कहा कि लेख लिखकर उन्हें भेज दो, वे अपनी वेबसाइट पर गेस्ट-पोस्ट के तौर पर छाप देंगे। अब सचिन को किसी तरह ब्लॉग बनाना आ गया और अब वे अपने ब्लॉग पर लिखते हैं। हालांकि सचिन के नये-ताजे ब्लॉग पर अभी कोई ट्रैफिक नहीं है, न ही कोई टिप्पणी आती लेकिन फिर भी वे अपने प्रदर्शन से खुश हैं।
सचिन ने पूछा कि आपको सबसे पहले ब्लॉग बनाने का विचार कैसे आया। यह बात मैं पहले भी कई बार लिख चुका हूं कि जब मैं हरिद्वार में नौकरी करता था तो मेरे पास एक कम्प्यूटर और इंटरनेट हुआ करता था। उस फैक्टरी में बनने वाली चीजों की ड्राइंग बनाना, उन्हें जरुरत के हिसाब से अपडेट करना और प्रिंट आउट निकालना मेरा काम था। छोटी सी फैक्टरी थी, मैं ज्यादातर समय खाली बैठा रहता था। आपके सामने अच्छी स्पीड वाला नेट हो, आप क्या करोगे? शुरू शुरू में आप उस पर भूखों की तरह टूट पडोगे; ये देखोगे, वो देखोगे। लेकिन एक समय के बाद मन भर जायेगा। छोडकर जा नहीं सकते तो नये नये विचार मन में आने शुरू हो जायेंगे। वहीं इसी तरह का एक विचार आया कि फ्री में वेबसाइट कैसे बनाई जाये। वेबसाइट तो नहीं बनी लेकिन ब्लॉग बन गया।
सचिन की इच्छा स्लीपिंग बैग और टैंट देखने की थी। कमरे में ही टैंट लगाकर दिखा दिया। इस बहाने कई महीनों से बन्द पडे इन दोनों सामानों को भी कुछ ताजी हवा मिल जायेगी।

7.काफी दिनों से ब्लॉग पर डोनेट बटन लगाने का मन था। कई वेबसाइटों पर देखा था कि डोनेट बटन पर क्लिक करके आप तयशुदा राशि या अपनी मर्जी की राशि दान कर सकते थे। पे-पल के माध्यम से एक इस तरह का बटन मिल भी गया लेकिन यह अपने किसी प्रोडक्ट को बेचने जैसा था। जैसे ही डोनेट पर क्लिक करते, पे-पल का पेज खुलता। उसमें प्रोडक्ट की डिटेल भरी जाती, पता भरा जाता कि यह सामान कहां पहुंचाना है, फिर क्रेडिट या डेबिट कार्ड की डिटेल भरकर पैसे दे दिये जाते। इधर मुझे तो कोई सामान बेचना ही नहीं है और न ही किसी के घर पर पहुंचाना है। पैसे तो मुझे मिल जायेंगे लेकिन डर है कि कोई शिकायत न कर दे कि हमारे घर पर फलां सामान नहीं पहुंचा।
इस बारे में फेसबुक पर लिखा। जानकार मित्रों ने बताया कि पे-पल केवल विदेश से पैसा मंगाने के काम आता है। अगर कोई भारतीय पैसा देना चाहे तो नहीं दे सकता। इस वजह से पे-पल का विचार छोड दिया। कुछ मित्रों ने दूसरी साइटों का भी नाम लिया। कुछ ने कहा कि अपने बचत खाते की डिटेल ब्लॉग पर लिखकर छोड दो, जिसकी इच्छा होगी, दे देगा।
वैसे तो डोनेट बटन और इस तरह बचत खाते की डिटेल ब्लॉग पर लिखने में कोई अन्तर नहीं है लेकिन एक मूलभूत अन्तर यह है कि डोनेट बटन पर क्लिक करके आपके पास विकल्प आयेगा कि आपका कौन सा बैंक है। फिर आपको आपके बैंक के पेज पर ट्रांसफर कर दिया जाता है और वहां से लेन-देन कर सकते हैं। जबकि दूसरे तरीके में आपको यह सारा काम स्वयं करना पडेगा। फिर अकेले डेबिट कार्ड से पैसे नहीं भेजे जा सकते। आपकी नेट बैंकिंग या मोबाइल बैंकिंग एक्टिवेट होनी चाहिये। दस तरह के और झंझट होते हैं, तब जाकर आप पैसे भेज सकते हैं।
फिर ‘डोनेट’ बटन किसी मन्दिर में रखे दान-पात्र जैसा है और खाते की डिटेल चौराहे पर कटोरे जैसी। आत्मसम्मान बीच में आ जाता है। कुछ समय पहले लगा दी थी अपने खाते की डिटेल और कुछ पैसे आये भी थे लेकिन मित्रों ने ऐसा लताडा कि उसे हटाना पडा- घूमने की औकात नहीं है तो घूमना जरूरी है क्या?

गुवाहाटी से दिल्ली- एक भयंकर यात्रा

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अगले दिन सुबह साढे पांच बजे ही गुवाहाटी स्टेशन पहुंच गया। यहां से छह बजे लामडिंग पैसेंजर चलती है। लामडिंग यहां से 180 किलोमीटर दूर है। आज का काम लामडिंग तक जाकर शाम तक वापस लौटना था। स्टेशन पहुंचा तो धीरे का झटका जोर से लगा। ट्रेन पांच घण्टे की देरी से रवाना होगी। इस ट्रेन को लामडिंग पहुंचने में छह घण्टे लगते हैं। कब यह लामडिंग पहुंचेगी और कब मैं वापस आऊंगा? नहीं, अब इस ट्रेन की सवारी नहीं करूंगा। सात बजे चलने वाली बंगाईगांव पैसेंजर से बंगाईगांव जाता हूं। देखा यह ट्रेन सही समय पर रवाना होगी।
एक बात समझ नहीं आई। असोम में कोहरा नहीं पडता। कम से कम वे ट्रेनें तो ठीक समय पर चल सकती हैं जो असोम से बाहर नहीं जातीं। लामडिंग पैसेंजर ऐसी ही गाडी है। रात को यह ट्रेन लीडो इण्टरसिटी बनकर चलती है तो दिन में लामडिंग पैसेंजर। यानी लीडो इण्टरसिटी भी इतनी ही देर से चल रही होगी।
गुवाहाटी से बंगाईगांव जाने के दो रास्ते हैं। एक रंगिया होते हुए, दूसरा गोवालपारा टाउन होते हुए। रंगिया वाला रास्ता डेढ सौ किलोमीटर का है जबकि गोवालपारा वाला दो सौ किलोमीटर। इस वजह से रंगिया रूट पर ज्यादा ट्रैफिक होता है। गोवालपारा कम ही ट्रेनें जाती हैं। इसी वजह से रंगिया के रास्ते जाने वाली पैसेंजर डेढ सौ किलोमीटर को तय करने में पांच घण्टे लगाती है जबकि गोवालपारा के रास्ते जाने वाली पैसेंजर दो सौ किलोमीटर को साढे चार घण्टे में ही नाप देती है। सात बजे वाली पैसेंजर गोवालपारा के रास्ते जायेगी।
गुवाहाटी से चलकर कामाख्या जंक्शन आता है। रंगिया और गोवालपारा की लाइनें कामाख्या से अलग हो जाती हैं। कामाख्या से आजरा, मिर्जा, छयगांव, बामुणीगांव, बोको, शिंगरा, धूपधरा, रंगजुली, अमजोंगा, दूधनई, कृष्णाई, गोवालपारा टाउन, पंचरत्न, जोगीघोपा, अभयापुरी, माजगांव और न्यू बंगाईगांव जंक्शन हैं। न्यू बंगाईगांव में रंगिया की तरफ से आने वाली लाइन भी मिल जाती है और आगे कोकराझार की तरफ चली जाती है। पंचरत्न और जोगीघोपा के बीच में ब्रह्मपुत्र नदी पार करनी होती है। यहां नदी पर दो पुल ऊपर नीचे हैं, नीचे ट्रेन चलती है तो ऊपर सडक।
अब मुझे गुवाहाटी लौटना था। कामरूप एक्सप्रेस एक घण्टे की देरी से चल रही थी। यह रंगिया के रास्ते जाती है, मैंने इसी का एक जनरल टिकट ले लिया। लेकिन प्लेटफार्म पर जब कामरूप की जगह अवध असम एक्सप्रेस आई तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। नेट पर गणित लगाकर देखा तो यह 13 घण्टे की देरी से चल रही थी। उत्तर भारत में भयंकर कोहरे ने उधर की सभी ट्रेनें लेट कर रखी थीं। यह ट्रेन यहां कल रात साढे ग्यारह बजे आनी चाहिये थी, आ अब रही है।
खैर, इसी ट्रेन में चढ लिया। यह भी रंगिया के ही रास्ते जायेगी, इसलिये मैं टिकट की तरफ से निश्चिन्त था। दिन ढलने तक गुवाहाटी पहुंच गया और सीधे होटल में।
कल सुबह छह बजे मेरी पूर्वोत्तर सम्पर्क क्रान्ति एक्सप्रेस है जिससे मुझे दिल्ली जाना है। इसमें मैंने दो दिन पहले टिकट बुक कराया था जिसमें वेटिंग मिली थी। सुबह चलने वाली गाडियों का चार्ट रात को ही बन जाता है। इसलिये सोने से पहले जब नेट पर चेक किया तो पता चला कि सीट कन्फर्म नहीं हुई है। यह मेरे लिये एक बडा झटका था। दो हजार किलोमीटर की यात्रा साधारण डिब्बे में कभी भी आसान नहीं होती, खासकर पूर्वी भारत के मार्गों पर। लेकिन कोई और चारा भी तो नहीं था, जाना तो पडेगा और इसी ट्रेन से।
लगे हाथों एक शुभ काम और कर लिया। शुभ काम करने के बाद पता चला कि अब मुझे सुबह पांच बजे उठने की आवश्यकता नहीं है। आराम से दोपहर को उठूंगा। ट्रेन आठ घण्टे की देरी से रवाना होगी यानी दोपहर बाद दो बजे। कुछ विचार और भी आये। गुवाहाटी से दिल्ली के लिये मुख्यतः चार ट्रेनें हैं- सम्पर्क क्रान्ति, नॉर्थ ईस्ट, ब्रह्मपुत्र मेल और अवध असम। सम्पर्क क्रान्ति सप्ताह में तीन दिन चलती है जबकि बाकी ट्रेनें रोजाना। सम्पर्क क्रान्ति के ठहराव भी बहुत कम हैं; बिहार में तो मात्र कटिहार में ही रुकती है। इसलिये लग रहा था कि इस ट्रेन में बाकी ट्रेनों के मुकाबले कम भीड मिलेगी। इसके तीन घण्टे बाद ही यानी नौ बजे नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस चलती है। फिर बारह बजे ब्रह्मपुत्र मेल। चूंकि यह ट्रेन अब दो बजे चलेगी तो इस ट्रेन की साधारण सवारियां नॉर्थ ईस्ट व ब्रह्मपुत्र मेल से चली जायेंगीं। मुझे बैठने को सीट तो मिल ही जायेगी। इस गणित से मैं खुश था।
अगले दिन ग्यारह बजे ही स्टेशन पहुंच गया। वहां पूछताछ काउण्टर पर जहां सबसे पहले मेरी निगाह पडी वो था कि नॉर्थ ईस्ट एक्सप्रेस आज रद्द है। यानी एक पूरी ट्रेन की सारी सवारियां स्टेशन पर हैं। हालांकि कुछ ही देर में ब्रह्मपुत्र मेल आने वाली है लेकिन दिल्ली और यूपी जाने वाला कौन यात्री उससे जाना पसन्द करेगा? वह मालदा और भागलपुर का एक लम्बा चक्कर काटकर आती है। यानी अब सम्पर्क क्रान्ति में भीड मिलेगी। कुछ ही समय में ब्रह्मपुत्र मेल आ गई और चली भी गई। देखा कि उसके साधारण डिब्बों में ज्यादा भीड नहीं थी। मस्तिष्क में सकारात्मक सन्देश गया कि सम्पर्क क्रान्ति में भी ज्यादा भीड नहीं मिलेगी।
दोपहर बारह बजे सूचना प्रसारित हुई कि सम्पर्क क्रान्ति अब शाम छह बजे रवाना होगी यानी बारह घण्टे लेट। गुस्सा तो बहुत आया लेकिन कर भी क्या सकता था? साइकिल साथ में थी ही। कभी मन में आता कि इसकी लगेज में बुकिंग करा दूं; कभी सोचता कि नहीं, ऐसे ही सीट के नीचे रखकर ले जाऊंगा। नेट पर चेक किया तो पाया कि सम्पर्क क्रान्ति में चार साधारण डिब्बे होते हैं- दो आगे और दो पीछे। अन्दर से आवाज आई कि काफी हैं।
अभी तक ट्रेन का प्लेटफार्म घोषित नहीं किया गया था, इसलिये मुझ समेत काफी यात्री प्लेटफार्म नम्बर एक पर ही पसरे थे। साइकिल एक कोने में खडी कर दी थी अगले कई घण्टों के लिये। इसकी तरफ देखने का अब मन भी नहीं था। अगर साइकिल न होती तो मैं गुवाहाटी से एनजेपी तक का मार्ग पैसेंजर ट्रेनों से नाप देता और सम्पर्क क्रान्ति के इस बर्ताव का मुझे बिल्कुल भी दुख नहीं होता। भगवान! कोई इसे उठाकर ले जाये। इससे दूर पन्नी बिछाकर सोया भी लेकिन इसे शायद किसी ने नहीं देखा।
बेंचों पर पेंटिंग हो रही थी। काला पेंट लगाया जा रहा था। पूरे प्लेटफार्म की सभी बेंचों को एक जगह या दो तीन जगह इकट्ठा करके उनकी पुताई कर रहे थे। बाद में एक कर्मचारी पहरा देता ताकि कोई यात्री उन पर न बैठे। लेकिन फिर भी लोग बैठ ही जाते। उनके बैठने से पहले ही कर्मचारी चिल्लाकर उन्हें टोकता, लेकिन जल्दबाज तब तक बैठ चुका होता। बैठते ही उसे भी पता चल जाता कि कुछ गडबड हो गई है। उठ जाता लेकिन तब तक उसके पीछे स्थायी ठप्पा लग चुका होता। मुझ समेत तमाशबीनों की भीड लगी रही कि कोई आये और ठप्पा लगवाये।
भूख लगी तो भोजनालय में चला गया। वेज बिरयानी का ‘टिकट’ ले लिया और एक लम्बी लाइन में जा खडा हुआ। मुझसे आगे एक बडा सा ग्रुप था। कर्मचारी उस ग्रुप को चावल देने लगा तो मुझे भी उसी का सदस्य समझ लिया और फ्री में चावल मिल गये। बिरयानी का टिकट जेब में पडा रह गया। कुछ घण्टों बाद जब मैं पुनः वहां गया और टिकट दिखाकर बिरयानी मांगी तो उन्होंने कहा कि यह टिकट प्रातःकालीन शिफ्ट का है, जो सायंकालीन शिफ्ट में नहीं चलेगा।
पांच बजे पता चला कि ट्रेन प्लेटफार्म नम्बर चार से जायेगी। सभी लोग उधर ही लपक लिये। मैं भी अपनी साइकिल को उठाकर चल पडा। जाते ही होश उड गये। प्लेटफार्म तो दूर, फुट-ओवर-ब्रिज पर भी पैर रखने की जगह नहीं। किसी तरह नीचे उतरा। बराबर वाला प्लेटफार्म नम्बर पांच भी ठसाठस भरा था। सभी यात्री सम्पर्क क्रान्ति वाले ही थे। मैंने मन ही मन कहा कि ब्रह्मपुत्र मेल खाली गई है, उससे नहीं जा सकते थे?
साइकिल खोली। इसके दोनों पहिये एक साथ बांध दिये; बाकी बॉडी, हैण्डलबार और चेन भी कपडे से मजबूती से बांध दिये। पीछे कमर पर बैग लटका था। कई बार रिहर्सल किया कि किस तरह इस भीड में मुझे साइकिल भी उठाकर डिब्बे में घुसना है।
छह बज गये, साढे छह भी बज गये और सात भी बज गये लेकिन ट्रेन का कोई अता-पता नहीं। कोई उदघोषणा भी नहीं हो रही थी। नेट पर चेक किया कि कहीं ट्रेन को और लेट तो नहीं कर दिया लेकिन वहां भी ट्रेन के प्रस्थान का समय छह बजे ही दिखता रहा। अन्धेरा हो ही चुका था। आखिरकार सवा सात बजे प्लेटफार्म के उस तरफ दूर से एक लाइट दिखनी शुरू हुई जो नजदीक आती जा रही थी। सभी यात्रियों में हलचल मच गई। ज्यादातर फौजी थे जिनके पास बडे बडे ट्रंक थे। मैंने भी साइकिल लादी और मोर्चे का सामना करने को तैयार हो गया। कुछ यात्री अपने सहयात्रियों से यह कहते हुए उस लाइट की दिशा में दौड पडे कि हम वहीं से सीट घेरकर लायेंगे। यह बात मेरे कानों में पडी तो ठीक ही लगी। मैंने भी आगे बढने की सोची लेकिन भीड की वजह से एक कदम भी आगे नहीं बढा सका। जैसे जैसे लाइट नजदीक आती गई, माहौल में उत्तेजना भी बढती गई। मैं ट्रेन में चढने के लिये अपना पूरा अनुभव झोंक देना चाहता था। मुझे पता था कि ऐसे में एक मामूली सी चूक भी भारी पड सकती है। साइकिल होने की वजह से और भी दिक्कत आने वाली थी।
आखिरकार जब लाइट इतनी नजदीक आ गई कि उसके पीछे का नजारा दिख सके तो तनावपूर्ण माहौल हल्का हो गया और सभी हंसने लगे। यह एक इंजन था। इसके पीछे कुछ भी नहीं था। लेकिन इसने दिखा दिया कि जब ट्रेन आयेगी तो माहौल कैसा होगा। मैं सिर पकडकर बैठ गया। सिर में तेज दर्द होने लगा था। क्या करूं, कुछ समझ नहीं आ रहा था। अगर ट्रेन सुबह सही समय पर चली होती तो कल दोपहर तक दिल्ली पहुंच गई होती यानी एक रात लगाती। अब यह निश्चित तौर पर दो रातें लगायेगी। रास्ते में भी कुछ लेट अवश्य होगी। ऐसे में नीरज, तू दो रातें कैसे काटेगा? साइकिल पर भी गुस्सा आ रहा था- चल तू दिल्ली, देख तेरी कैसी हालत बनाता हूं। तेरी ही वजह से मैं यहां फंसा हुआ हूं। आसामी बडे ही ईमानदार हैं, कोई साइकिल को उठाकर ही नहीं ले जा रहा। दिनभर जैसा मैंने इसके साथ बर्ताव किया है, कहीं और होती तो पक्का उठ जाती। अब के बाद साइकिलिंग बन्द। ट्रेन यात्रा करेंगे, पैदल यात्रा करेंगे, बस यात्रा करेंगे लेकिन साइकिल यात्रा अब कभी नहीं।
आठ बज गये। ट्रेन नहीं आई और न ही कोई सूचना प्रसारित की गई। यह शायद मेरे लिये अच्छा ही था। आ जाती तो मुझे इसमें चढना पडता और मैं जो अब यहां सिर पकडे बैठा सोच रहा हूं, वो नहीं सोच पाता। लोहे पर भी जब तनाव डालते हैं तो वो टूट जाता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। जब तनाव चरम पर पहुंच गया तो मैं टूट गया और वाकई बडा आराम महसूस हुआ। फैसला लिया कि ट्रेन से नहीं जाऊंगा। हवाई जहाज से जाऊंगा। यहीं बैठे बैठे मोबाइल में उंगली करनी शुरू की, कुछ देर बाद एटीएम कार्ड जेब से निकला और सारा तनाव समाप्त। साढे ग्यारह हजार रुपये तो लगे, लेकिन अब न तो कोई सिरदर्द था, न ही कोई चिन्ता। पूरे प्लेटफार्म पर शायद मैं ही अकेला यात्री था, जो अब तनावमुक्त था।
साइकिल ने पूछा- मैं? मैंने कहा- भाड में जाए तू। तुझे हवाई जहाज में तो ले जाने वाला नहीं हूं। तुझे इसी ट्रेन में रख दूंगा, तेरे नसीब में दिल्ली पहुंचना होगा, पहुंच जायेगी; नहीं होगा, मेरा पीछा छूटेगा। ट्रेन आई तो लोग पागलों की तरह उस पर टूट पडे। मेरी जानकारी के अनुसार इसमें आगे-पीछे दो-दो साधारण डिब्बे होने चाहिये थे लेकिन मैं गलत था। इसमें आगे एक ही डिब्बा था और उस पर लिखा था- फौजियों के लिये आरक्षित। ‘सिविलियन’ यह देखकर पीछे वाले डिब्बे की तरफ दौड लगाते गये। और फौजी भी कोई मजे में नहीं थे। उनकी संख्या भी बहुत ज्यादा थी, फिर भारी भरकम बडे-बडे ट्रंक। एक के ऊपर एक ट्रंक रखे गये, छत तक पहुंच गये। उनके लिये टॉयलेट जाने तक की जगह नहीं बची।
इसी के पीछे शयनयान डिब्बा था- एस वन। आरक्षित डिब्बे एक दूसरे से जुडे होते हैं लेकिन यह चूंकि पहला डिब्बा था इसलिये एक तरफ से बन्द था। यहीं मैंने साइकिल रख दी। इसकी बॉडी और दोनों पहियों को चेन से इस तरह बांधकर ताला लगा दिया कि उठाने वाले को काफी मशक्कत करनी पडे। दोनों शौचालयों के बीच में यह आराम से आ गई। मुझे कोई सम्भावना नहीं लग रही थी कि बिहार और पूरे यूपी का सफर करने के बाद यह मुझे मिलेगी, इसलिये अब विदाई के समय कुछ लगाव और दया भी महसूस हो रही थी। आखिर मेरी मिज़ोरम यात्रा इसी की वजह से तो हुई है। फिर भी चलते समय मैंने इससे हाथ मिलाया और कहा- दिल्ली मिलेंगे।
स्टेशन से बाहर निकला, एक कमरा लिया और साइबर कैफे पर जाकर हवाई टिकट का प्रिंट आउट भी। गो एयर की फ्लाइट बुक की थी। पहले सोचा था कि इस यात्रा की एलटीसी लूंगा लेकिन अब नहीं लूंगा। वैसे भी केवल एयर इंडिया के आठ हजार तक के टिकट के पैसे ही मिलते हैं। गो एयर के साढे ग्यारह हजार कभी नहीं मिलेंगे। भविष्य में लूंगा एलटीसी।
अगले दिन उठा और साढे छह बजे स्टेशन पहुंच गया। वही बंगाईगांव पैसेंजर पकडी और आजरा स्टेशन पर उतर गया। आजरा से एयरपोर्ट करीब तीन किलोमीटर दूर है। ज्यादातर दूरी पैदल तय की, कुछ ऑटो में। फ्लाइट एक बजे के आसपास थी। यह मेरी तीसरी हवाई यात्रा थी। इससे पहले मैं दिल्ली से लेहऔर लेह से दिल्लीकी हवाई यात्रा कर चुका हूं। तय समय पर हवाई अड्डे में प्रवेश कर गया।
एक एयरलाइन वाले किसी अब्दुल नामक यात्री को ढूंढ रहे थे। अब्दुल का टिकट उस फ्लाइट में बुक था, उसने चेक-इन भी कर लिया था लेकिन विमान में नहीं चढा था। बडी देर तक कर्मचारी वेटिंग लाउंज समेत हर जगह अब्दुल-अब्दुल चिल्लाते रहे। एनाउंसमेंट भी हुआ। पता नहीं अब्दुल मिला या नहीं।
मैंने चेक-इन करते समय कह दिया था कि खिडकी के पास वाली सीट चाहिये, इसलिये मिल गई। यह फ्लाइट दिल्ली तक पहुंचने के लिये पांच घण्टे लगाती है। इसका कारण था कि यह बागडोगरा में भी रुकती है। गुवाहाटी से जब उडे तो शीघ्र ही भूटान के बर्फीले पर्वत दिखने लगे। धुंध थी, फिर भी सफेद चोटियां दिख रही थीं। नीचे सडक और कभी कभार रेलवे लाइन भी दिख जाती थी। भूटान से आने वाली कई नदियां दिखीं। उन्हीं में तीस्ता भी होगी।
बागडोगरा में कुछ यात्री उतरे तो कुछ चढे भी। यहां से उडे तो जल्दी ही ‘चिकेन नेक’ को पार कर मुख्य भूमि में प्रवेश कर गये। नीचे कुछ भी नहीं दिख रहा था। हर जगह कोहरे का साम्राज्य था। दूर नेपाल हिमालय की चोटियां दिख रही थीं। इनमें कंचनजंघा और एवरेस्ट भी होंगी।
भूख लग रही थी। उम्मीद थी कि बागडोगरा के बाद कुछ खाने को मिलेगा। खाने को मिला भी लेकिन मैं नहीं खा सकता था। वे स्नैक्स और ड्रिंक्स बेच रहे थे। बडे महंगे दामों पर। लेह की फ्लाइट याद आ गई। पौन घण्टे की उडान में फ्री में खाने को दिया था। यहां पांच घण्टे की उडान है, कुछ तो देना चाहिये था। एयर होस्ट व होस्टेस ट्रॉली लेकर विमान में चक्कर काटते रहे। मैंने पीछे सिर टिकाकर आंख बन्द कर ली। शीघ्र ही नींद आ गई।
आज दो फरवरी थी। शाम सात बजे तक मैं अपने ठिकाने पर शास्त्री पार्क पहुंच चुका था। ट्रेन की ट्रेकिंग की तो वह बीस घण्टे की देरी से चल रही थी और अभी तक पटना भी नहीं पहुंची थी। यही हाल रहा तो वह कल भी दिल्ली नहीं आने वाली। साइकिल की कोई चिन्ता नहीं थी। आ जायेगी तो ठीक, नहीं आयेगी तो पीछा छूटेगा।
अगला पूरा दिन ट्रेन देखता रहा, लगातार लेट होती जा रही थी। रात ग्यारह बजे जब यह गाजियाबाद पहुंच गई तो मैं घर से निकल पडा। कश्मीरी गेट की आखिरी मेट्रो सवा ग्यारह बजे है, वह आंखों के सामने छूट गई। बस पकडकर कश्मीरी गेट पहुंचा। जाते ही नई दिल्ली स्टेशन की बस मिल गई और बारह बजे तक मैं नई दिल्ली पहुंच गया था। मुझे प्लेटफार्म टिकट लेने की जरुरत ही नहीं थी। गुवाहाटी से लिया गया दिल्ली तक का टिकट जेब में रखा था। साधारण टिकट को तीन घण्टे के अन्दर ही रद्द करा सकते हैं, इसलिये रद्द नहीं करा सका। पूछताछ पर गया। वहां गुवाहाटी जाने वाली सम्पर्क क्रान्ति के बारे में तो लिखा था कि सुबह चार बजे जायेगी लेकिन यह कहीं नहीं मिला कि आने वाली किस प्लेटफार्म पर आ रही है?
खैर, उदघोषणा हुई। ट्रेन आई। यह 36 घण्टे की देरी से आई थी। उतर रहे यात्रियों के चेहरे देखने लायक थे और उन फौजियों के चेहरे भी। अगर मैं भी इसी से आता; खुदा न खास्ता मेरा टिकट कन्फर्म हो गया होता तो मैं भी इन्हीं की तरह इसी तरह उतरता। जब एस-वन खाली हो गया, मैं अन्दर घुसा। दोनों शौचालयों के बीच में जाकर देखा...
...साइकिल वहीं उसी तरह रखी मिली।




ब्रह्मपुत्र नदी पार करने के लिये सडक और रेल पास आते हुए।


ब्रह्मपुत्र पुल




हवाई जहाज से दिखते भूटान के पहाड


बागडोगरा एयरपोर्ट पर

बिहार में कोहरे की चादर

जायें कहीं भी, आना आखिर दिल्ली ही है।


मिज़ोरम साइकिल यात्रा
1. मिज़ोरम की ओर
2. दिल्ली से लामडिंग- राजधानी एक्सप्रेस से
3. बराक घाटी एक्सप्रेस
4. मिज़ोरम में प्रवेश
5. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- आइजॉल से कीफांग
6. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तमदिल झील
7. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- तुईवॉल से खावजॉल
8. मिज़ोरम साइकिल यात्रा- खावजॉल से चम्फाई
9. मिज़ोरम से वापसी- चम्फाई से गुवाहाटी
10. गुवाहाटी से दिल्ली- एक भयंकर यात्रा

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