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Channel: मुसाफिर हूँ यारों
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लद्दाख बाइक यात्रा- 13 (लेह-चांग ला)

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(मित्र अनुराग जगाधरी जीने एक त्रुटि की तरफ ध्यान दिलाया। पिछली पोस्ट में मैंने बाइक के पहियों में हवा के प्रेशर को ‘बार’ में लिखा था जबकि यह ‘पीएसआई’ में होता है। पीएसआई यानी पौंड प्रति स्क्वायर इंच। इसे सामान्यतः पौंड भी कह देते हैं। तो बाइक के टायरों में हवा का दाब 40 बार नहीं, बल्कि 40 पौंड होता है। त्रुटि को ठीक कर दिया है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद अनुराग जी।)
दिनांक: 16 जून 2015
दोपहर बाद तीन बजे थे जब हम लेह से मनाली रोड पर चल दिये। खारदुंगला पर अत्यधिक बर्फबारी के कारण नुब्रा घाटी में जाना सम्भव नहीं हो पाया था। उधर चांग-ला भी खारदुंगला के लगभग बराबर ही है और दोनों की प्रकृति भी एक समान है, इसलिये वहां भी उतनी ही बर्फ मिलनी चाहिये। अर्थात चांग-ला भी बन्द मिलना चाहिये, इसलिये आज उप्शी से शो-मोरीरी की तरफ चले जायेंगे। जहां अन्धेरा होने लगेगा, वहां रुक जायेंगे। कल शो-मोरीरी देखेंगे और फिर वहीं से हनले और चुशुल तथा पेंगोंग चले जायेंगे। वापसी चांग-ला के रास्ते करेंगे, तब तक तो खुल ही जायेगा। यह योजना बन गई।
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लद्दाख बाइक यात्रा- 14 (चांग ला - पेंगोंग)

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17 जून 2015
शोल्टाक से हम सवा दस बजे चले। तीन किलोमीटर ही चले थे कि दाहिनी तरफ एक झील दिखाई दी। इसका नाम नहीं पता। हम रुक गये। यह एक काफी चौडी घाटी है और वेटलैण्ड है यानी नमभूमि है। चांगला और अन्य बर्फीली जगहों से लगातार पानी आता रहता है और नमी बनी रहती है। साथ ही हरियाली भी। ऐसी जगहें लद्दाख में कई हैं। मनाली रोड पर डेबरिंग तो विश्व प्रसिद्ध है। डेबरिंग की पश्मीना भेडों का बडा नाम है। कहीं भेडपालन होता है, कहीं याकपालन। यहां जहां रात हम रुके थे, वहां याकपालन हो रहा था। पानी के रास्ते में थोडा सा अवरोध आते ही वो झील का रूप ले लेता है। यहां भी इसी तरह की झील बनी है। अच्छी लगती है। हो सकता है कि पेंगोंग के चक्कर में आपने यह झील न देखी हो। अगली बार पेंगोंग जाना हो तो इसे अवश्य देखना। पेंगोंग अपनी जगह है लेकिन यह भी खूबसूरती में कम नहीं है।
इससे आगे रास्ता भी बेहद खूबसूरत है। हरी घास कालीन की तरह बिछी है और लद्दाख के बंजर में आंखों को अच्छी लगती है। थोडा ही आगे यह नदी दुरबुक की तरफ से आती एक नदी में मिल जाती है और दोनों सम्मिलित होकर श्योक में मिलने चल देती हैं। जहां इसका और श्योक का संगम होता है, वहां श्योक नामक गांव भी है। श्योक भी बडी दूर से आती है और दिस्कित के पास नुब्रा नदी इसमें मिल जाती है। श्योक आगे बढती है और पाक अधिकृत कश्मीर में स्कार्दू के पास सिन्धु में मिल जाती है।
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लद्दाख बाइक यात्रा- 15 (पेंगोंग झील: लुकुंग से मेरक)

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17 जून 2015
दोपहर बाद साढे तीन बजे हम पेंगोंग किनारे थे। अर्थात उस स्थान पर जहां से पेंगोंग झील शुरू होती है और लुकुंग गांव है। इस स्थान को ‘पेंगोंग’ भी कह देते हैं। यहां खाने-पीने की बहुत सारी दुकानें हैं।
पूरे लद्दाख में अगर कोई स्थान सर्वाधिक दर्शनीय है तो वो है पेंगोंग झील। आप लद्दाख जा रहे हैं तो कहीं और जायें या न जायें लेकिन पेंगोंग अवश्य जायें। अगर शो-मोरीरी छूट जाये तो छूटने दो, नुब्रा छूटे तो छूटने दो लेकिन पेंगोंग झील नहीं छूटनी चाहिये।
यह एक साल्टवाटर लेक है यानी नमक के पानी की झील है। नमक का पानी होने का यह अर्थ है कि इसका पानी रुका हुआ है, बहता नहीं है। हिमालय में अक्सर बहते पानी के रास्ते में कोई अवरोध आता है तो वहां झील बन जाती है। जब पानी का तल अवरोध से ऊंचा होने लगता है तो पानी बह निकलता है, रुकता नहीं है। लेकिन पेंगोंग ऐसी झील नहीं है। इसमें चारों तरफ से छोटे छोटे नालों से पानी आता रहता है और जाता कहीं नहीं है। तेज धूप पडती है तो उडता रहता है और खारा होता चला जाता है।
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लद्दाख बाइक यात्रा- 16 (मेरक-चुशुल-सागा ला-लोमा)

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18 जून 2015
दोपहर के पौने दो बजे हम पेंगोंग किनारे स्थित मेरक गांव से चले। हमारा आज का लक्ष्य हनले पहुंचने का था जो अभी भी लगभग 150 किलोमीटर दूर है। मेरे पास सभी स्थानों की दूरियां थीं और यह भी ज्ञात था कि कितनी दूर खराब रास्ता मिलेगा और कितनी दूर अच्छा रास्ता। इन 150 किलोमीटर में से लगभग 60 किलोमीटर खराब रास्ता है, बिल्कुल वैसा ही जैसा हमने स्पांगमिक से यहां तक तय किया है। इन 60 किलोमीटर को तय करने में तीन घण्टे लगेंगे और बाकी के 90 किलोमीटर को तय करने में भी तीन ही घण्टे लगेंगे; ऐसा मैंने सोचा था। यानी हनले पहुंचने में अन्धेरा हो जाना है। अगर कुछ देर पहले वो बुलेट खराब न होती तो हम उजाला रहते हनले पहुंच सकते थे।
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लद्दाख बाइक यात्रा- 17 (लोमा-हनले-लोमा-माहे)

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19 जून 2015
भारतीय सेना के अपनेपन से अभिभूत होकर सुबह सवा नौ बजे हमने हनले के लिये प्रस्थान किया। जरा सा आगे ही आईटीबीपी की चेकपोस्ट है और दो बैरियर भी हैं। यहां से एक रास्ता सिन्धु के साथ-साथ उप्शी और आगे लेह चला जाता है, एक रास्ता वही है जिससे हम आये हैं यानी चुशुल वाला और तीसरा रास्ता सिन्धु पार जाने के लिये है। सिन्धु पार होते ही फिर दो रास्ते मिलते हैं- एक सीधा हनले जाता है और दूसरा बायें कोयुल होते हुए देमचोक। देमचोक ही वो स्थान है जहां से सिन्धु तिब्बत से भारत में प्रवेश करती है। गूगल मैप के भारतीय संस्करणमें देमचोक को भारत का हिस्सा दिखाया गया है, अन्तर्राष्ट्रीय संस्करण में इसे विवादित क्षेत्र बताया है जो भारतीय दावे और चीनी दावे के बीच में है और चीनी संस्करण में इसे चीन का हिस्सा दिखाया है। लेकिन फिलहाल जमीनी हकीकत यह है कि देमचोक भारतीय नियन्त्रण में है। देमचोक का परमिट बिल्कुल नहीं मिलता है। अगर आपकी सैन्य पृष्ठभूमि रही है तो शायद आप वहां जा सकते हैं अन्यथा नहीं। हालांकि लोमा में सिन्धु पार करके देमचोक वाली सडक पर कोई नहीं था, आप भूलवश कुछ दूर तक जा सकते हैं, शायद कोयुल तक भी।
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लद्दाख बाइक यात्रा- 18 (माहे-शो मोरीरी-सुमडो-शो कार)

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20 जून 2015
साढे आठ बजे सोकर उठे और नौ बजे तक यहां से निकल लिये। बारह किलोमीटर आगे सुमडो है जहां खाने पीने को मिलेगा, वहीं नाश्ता करेंगे। सुमडो का अर्थ होता है संगम। गांव का नाम है पुगा और दो धाराओं के संगम पर बसा होने के कारण बन गया- पुगा सुमडो। लेकिन आम बोलचाल में सुमडो ही कहा जाता है। यहां से एक रास्ता शो मोरीरी जाता है और दूसरा रास्ता शो-कार। आपको याद होगा कि शो-कार झील लेह-मनाली रोड के पास स्थित है। हमें आज पहले शो मोरीरी जाना है, फिर वापस सुमडो तक आकर शो-कार वाले रास्ते पर चल देना है। शो-कार की तरफ चलने का अर्थ है मनाली की ओर चलना और मनाली की ओर चलने का अर्थ है दिल्ली की ओर चलना। इस प्रकार जैसे ही आज हम शो-मोरीरी से वापस मुडेंगे, दिल्ली के लिये वापसी आरम्भ कर देंगे।
सुमडो से थोडा आगे एक दुकान है। हम यहीं रुक गये। दस बजने वाले थे, हम पेट भर ही लेना चाहते थे लेकिन यहां ज्यादा कुछ नहीं मिला। चाय, बिस्कुट में काम चलाया। कोई बात नहीं, आगे शो-मोरीरी पर बहुत कुछ खाने को मिलेगा।
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लद्दाख बाइक यात्रा- 19 (शो कार- डेबरिंग-पांग-सरचू-भरतपुर)

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21 जून 2015
आराम से सोकर उठे- नौ बजे। नाश्ते में चाय, आमलेट के साथ एक-एक रोटी खा ली। कल जितना मौसम साफ था, आज उतना ही खराब। बूंदाबांदी भी हो जाती थी। पिछली बारयहां आया था, तब भी रात-रात में मौसम खराब हो गया था, आज भी हो गया। पेट्रोल की बात की तो दुकान वाले ने आसपास की दुकानों पर भागादौडी की लेकिन पेट्रोल नहीं मिला। कहा कि डेबरिंग में मिल जायेगा। बाइक कल ही रिजर्व में लग चुकी थी, अब बोतल का दो लीटर पेट्रोल भी खाली कर दिया।
दस बजे यहां से चल दिये। रात हमने बाइक से सामान खोला ही नहीं था। केवल टैंक बैग उतार लिया था। खोलने में तो मेहनत लगती ही है, सुबह बांधने में और भी ज्यादा मेहनत लगती है।
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लद्दाख बाइक यात्रा- 20 (भरतपुर-केलांग)

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22 जून 2015
आज हमें केवल केलांग तक ही जाना था इसलिये उठने में कोई जल्दबाजी नहीं की बल्कि खूब देर की। मुजफ्फरनगर वाला ग्रुप लेह की तरफ चला गया था और उनके बाद लखनऊ वाले भी चले गये। टॉयलेट में गया तो पानी जमा मिला यानी रात तापमान शून्य से नीचे था। सामने ही बारालाचा-ला है और इस दर्रे पर खूब बर्फ होती है। मनाली-लेह सडक पर सबसे ज्यादा बर्फ बारालाचा पर ही मिलती है। बर्फ के कारण सडक पर पानी आ जाता है और ठण्ड के कारण वो पानी जम भी जाया करता है इसलिये बाइक चलाने में कठिनाईयां आती हैं। देर से उठने का दूसरा कारण था कि धूप निकल जाये और सडक पर जमा हुआ पानी पिघल जाये ताकि बाइक न फिसले।
लखनऊ वालों ने रात अण्डा-करी बनवा तो ली थी लेकिन सब सो गये और सारी सब्जी यूं ही रखी रही। रात उन्होंने कहा था कि सुबह वे अण्डा-करी अपने साथ ले जायेंगे लेकिन अब वे नहीं ले गये। मन तो हमारा कर रहा था कि अण्डा-करी मांग लें क्योंकि दुकानदार को भुगतान हो ही चुका था। हमें ये फ्री में मिलते लेकिन ज़मीर ने साथ नहीं दिया। दूसरी बात कि तम्बू वाले दोनों पति-पत्नी थे। इस तम्बू के सामने वाला तम्बू इसी महिला की मां संभाल रही थी। यह महिला अपने पति के प्रति बहुत आक्रामक थी और जरा-जरा सी बात पर उसे डांट देती थी। एक दुधमुंहा बच्चा भी था। अगर वो रोने लगे तो पति की खैर नहीं। कुल मिलाकर हमारे लिये बडा ही भारी माहौल था, हमने अण्डा-करी मांगना उचित नहीं समझा।
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घुमक्कड पत्रिका- 1

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लद्दाख बाइक यात्रा- 21 (केलांग-मनाली-ऊना-दिल्ली)

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23 जून 2015
हम किसी भी जल्दी में नहीं थे। हमें परसों दोपहर तक दिल्ली पहुंचना था और केलांग से हम आराम से दो दिन में दिल्ली पहुंच सकते हैं। इसी वजह से रोज की तरह आज भी देर तक सोये। उठे तो मनदीप का फोन आया। वो आज सपरिवार मनाली आ रहा है और अभी बिलासपुर के आसपास था। यानी दोपहर तक वह मनाली पहुंच जायेगा। उसके पास अपनी गाडी है। हमने भी इरादा बना लिया कि आज हम मनदीप के साथ ही रुकेंगे और शाम को शानदार डिनर करेंगे।
दस बजे केलांग से चले। जल्दी ही टांडी पहुंच गये। यहां बारालाचा-ला से निकलकर दो अलग-अलग दिशाओं में बही चन्द्रा और भागा नदियों का संगम होता है। आलू के परांठे खाये और बाइक की टंकी फुल करा ली। हिमाचल में रोहतांग पार पूरे लाहौल में एकमात्र पेट्रोल पम्प टांडी में ही है। टांडी से आगे अगला पेट्रोल पम्प लगभग साढे तीन सौ किलोमीटर दूर लेह के पास कारू में है। बाइक की टंकी लगभग खाली हो चुकी थी, इसमें 11.83 लीटर पेट्रोल आया। कम्पनी के अनुसार टंकी की क्षमता 10 लीटर है। मैंने गुजरात से लेकर हिमाचल और जम्मू-कश्मीर तक हर जगह टंकी फुल कराई है, इसमें हमेशा 10 लीटर से ज्यादा ही तेल आता है। अब या तो कम्पनी गलत बता रही है कि टंकी दस लीटर की है। पेट्रोल पम्पों पर धांधलियां होती हैं लेकिन हर पेट्रोल पम्प ऐसा नहीं होता। खैर।
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लद्दाख बाइक यात्रा का कुल खर्च

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   हम कोठारी साहब के साथ यात्रा पर निकले थे। खर्च हमने सम्मिलित रूप से शुरू किया था, बाद में दिल्ली आकर हिसाब लगा लेते। लेकिन कोठारी साहब श्रीनगर में बिछड गये। इन तीन-चार दिनों का हमने कोई हिसाब नहीं किया। जो खर्च कोठारी साहब ने किया, वो उनका था और जो हमने किया, वो हमारा था। 

दिनांक: 6 जून 2015, शनिवार
स्थानदूरीसमयखर्च
दिल्ली017:50800 पेट्रोल (12 लीटर)
बहलगढ4719:20
पानीपत पार10320:15-20:4570 कोल्ड ड्रिंक (कोठारी जी)
पीपली17022:05-22:15
अम्बाला छावनी21123:00-23:20
बनूड24223:59
कुल दूरी:242
मेरा कुल खर्च: 800

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भिण्ड-ग्वालियर-गुना पैसेंजर ट्रेन यात्रा

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   18 अगस्त 2015
   आज है 20 सितम्बर यानी यात्रा किये हुए एक महीना हो चुका है। अमूमन मैं इतना समय वृत्तान्त लिखने में नहीं लगाता हूं। मैं यथाशीघ्र लिखने की कोशिश करता हूं ताकि लेखन में ताजगी बनी रहे। वृत्तान्त जितनी देर से लिखेंगे, उतना ही यह ‘समाचार’ होने लगता है। इसका कारण था कि वापस आते ही अण्डमान की तैयारियां करने लगा। फिर लद्दाख वृत्तान्तभी बचा हुआ था। अण्डमान तो नहीं जा पाये लेकिन फिर कुछ समय वहां न जाने का गम मनाने में निकल गया। अभी परसों ही चम्बा की तरफ निकलना है, उसमें ध्यान लगा हुआ है। न लिखने के कारण ब्लॉग पर ट्रैफिक कम होने लगा है। बडी अजीब स्थिति है- जब चार दिन वृत्तान्त न लिखूं और मित्रगण कहें कि बहुत दिन हो गये लिखे हुए तो मित्रों को गरियाता हूं कि पता है कितना समय लगता है लिखने में। तुमने तो चार सेकण्ड लगाये और शिकायत कर दी। इस बार किसी मित्र ने शिकायत नहीं की तो भी गरियाने का मन कर रहा है- भाईयों, भूल तो नहीं गये मुझे?
   चलिये, 18 अगस्त का वृत्तान्त लिख देते हैं। सुबह समता एक्सप्रेस पकडी ग्वालियर के लिये। वही हमेशा की तरह नाइट ड्यूटी से कुछ ही देर पहले फ्री हुआ था, कन्फर्म बर्थ थी, निशा नीचे बैठी बैठी किताब पढती रही, मैं ऊपर जाकर सो गया। टीटी साहब आये। निशा ने मुझे जगाया। टीटी से बस इतना ही कहना पडा- हमारी ये दोनों सीटें हैं। उसने अपने रिकार्ड में निशान लगा दिया और आगे चला गया। मैंने निशा को समझाया कि यह काम तू भी कर सकती थी, खामखा मेरी नींद खराब कर दी। बोली कि टिकट तो तेरे मोबाइल में था। मैंने फिर समझाया- मोबाइल वाले टिकट को कोई नहीं देखता अब। ज्यादा से ज्यादा वो आईडी मांग सकता था। तू भी अपनी आईडी दिखा सकती थी।
   खैर, ग्वालियर उतर गये। बारिश का मौसम हो रहा था। मित्र प्रशान्त जीयहां घर से खाना बनवाकर लाने को कह रहे थे। बडी मुश्किल से उन्हें समझाया। कुछ ही देर बाद हमारी भिण्ड पैसेंजर है, हम भिण्ड के लिये निकल जायेंगे, रात तक वापस आयेंगे; तब साथ बैठकर भोजन करेंगे। प्रशान्त जी को आज मुरैना में कुछ काम था, अभी वे मुरैना गये हुए थे। अगर लंच लाते तो अपना मुरैना का काम छोडते।
   निशा के होने से एक बडा फायदा हुआ कि एक मिनट में ही टिकट मिल गया भिण्ड का अन्यथा बडी लम्बी लाइन लगी थी। भिण्ड पैसेंजर थी ठीक ढाई बजे। हां, भिण्ड तक की लाइन पहले किसी जमाने में नैरो गेज हुआ करती थी। अभी भी ग्वालियर से श्योपुर कलां तक नैरो गेज की ट्रेन चलती है, हालांकि मैंने इसमें कभी यात्रा नहीं की है। तो यह भिण्ड वाली लाइन भी नैरो गेज थी। अब यह ब्रॉड गेज है। इतना ही नहीं, इसे भिण्ड से आगे चम्बल पार करके इटावा तक जोड दिया गया है। कभी भी ट्रेन चल सकती है। एक बात और, भिण्ड का कोड है BIX. पता नहीं क्या सोचकर यह कोड बनाया है?
   तीसरी बात, इस ग्वालियर-भिण्ड पैसेंजर का नम्बर है 59825. ग्वालियर स्टेशन और भिण्ड तक की लाइन उत्तर-मध्य रेलवे की झांसी डिवीजन के अन्तर्गत आती है। झांसी डिवीजन और यहां तक कि उत्तर-मध्य रेलवे की किसी भी पैसेंजर ट्रेन का नम्बर 59 से शुरू नहीं हो सकता। उत्तर-मध्य रेलवे की पैसेंजर ट्रेन का नम्बर या तो 54 से शुरू होगा या फिर 51 से। इसका अर्थ है कि यह ट्रेन उत्तर-मध्य रेलवे की नहीं है। 59 का अर्थ है कि यह या तो पश्चिम रेलवे की ट्रेन है या फिर उत्तर-पश्चिम रेलवे की जयपुर, अजमेर डिवीजनों की ट्रेन है या फिर पश्चिम-मध्य रेलवे की कोटा डिवीजन की ट्रेन है। इसका जवाब देता है ट्रेन का तीसरा अंक यानी 8... तो यह कोटा डिवीजन की ट्रेन है। असल में एक ट्रेन चलती है कोटा-भिण्ड पैसेंजर (59821)। यह कोटा से शाम को चलती है और अगले दिन दोपहर को भिण्ड पहुंच जाती है। भिण्ड पहुंचते ही यही डिब्बे भिण्ड-ग्वालियर पैसेंजर (59826) बनकर ग्वालियर आ जाते हैं और रात्रि विश्राम ग्वालियर में ही करते हैं। अगले दिन सुबह ये डिब्बे ग्वालियर-भिण्ड पैसेंजर (59823) बनकर भिण्ड पहुंचते हैं, फिर ग्वालियर पैसेंजर (59824) बनकर ग्वालियर आ जाते हैं, फिर भिण्ड पैसेंजर (59825) के तौर पर शाम तक भिण्ड पहुंच जाते हैं और अन्धेरा होते ही वहां से भिण्ड-कोटा पैसेंजर (59822) बनकर वापस अपने घर यानी कोटा चले जाते हैं। यह सिलसिला रोज चलता है। इस तरह कोटा की ट्रेन ग्वालियर-भिण्ड पैसेंजर बनकर चलती रहती है।
   वाकई रेलवे बडी मजेदार चीज है। मन लगा रहता है।
   ग्वालियर से बिरला नगर तक तो आगरा की तरफ ही चलना होता है। बिरला नगर के बाद भिण्ड की लाइन अलग हो जाती है। इसके बाद स्टेशन हैं- भदरौली, शनीचरा, रिठौरा कलां, मालनपुर, नोनेरा, रायतपुरा, गोहद रोड, सोंधा रोड, सोनी, असोखर, इतेहार और भिण्ड। इनमें गोहद रोड का कोड है- गोवा (GOA).
   भिण्ड बडी ही बदनाम जगह है। चम्बल ने इसे बदनाम बना रखा है। बाद में प्रशान्त जी ने पूछा भी था कि वो बडी ही खराब जगह है, आपको ट्रेन में ऐसा कुछ लगा क्या? मुझे तो कुछ भी विशेष नहीं लगा। हम अपने मेरठ-मुजफ्फरनगर को बदनाम मानते हैं, आप अपने भिण्ड को बदनाम मानते हैं; हर जगह की यही कहानी है। ट्रेन में ज्यादा भीड नहीं थी, बाहर बारिश हो रही थी। बेचारे सब बारिश से बचने की जुगत में थे। जो ट्रेन के अन्दर बैठे थे, उन्होंने खिडकियां बन्द कर ली थीं। ट्रेन रुकते ही कोई कोई खिडकी खुल जाती कि कहीं उनका स्टेशन तो नहीं है। मेरी जेब में एक पर्ची थी जिस पर इस लाइन के सभी स्टेशनों के नाम लिखे थे। कई बार यात्री मेरे पास दरवाजे पर आ जाते थे कि फलां स्टेशन अभी कितनी दूर है। कहां भिण्ड की बोली और कहां मेरी बोली; जमीन-आसमान का फर्क है। फिर भी समझ तो जाता ही था। चुपचाप जेब से पर्ची निकालता और बता देता कि अगला स्टेशन ही है। वे बेचारे अपना सामान दरवाजे पर ले आते। ज्यादातर का सामान भी क्या था? घास और लकडियों के गट्ठर। वही पूरे देश की कहानी।
   भला मैं भिण्ड को क्यों बदनाम मानूं? धर्मपत्नी जी पूरे रास्ते भिण्ड की बदनामी से बेखबर सोती रहीं। बारिश ने मौसम खुशनुमा बना दिया था।
   वापसी में यही ट्रेन कोटा पैसेंजर बनकर चलती है। हमने ग्वालियर का टिकट ले लिया। अब मेरी बारी थी सोने की। मेरा काम पूरा हो चुका था। ग्वालियर से भिण्ड तक के सभी स्टेशनों के फोटो खींच चुका था। ढाई घण्टे की यात्रा थी, मैं ऊपर जाकर सो गया। निशा नीचे खिडकी के पास बैठ गई। ग्वालियर में उसे खिडकी के पास वाली सीट नहीं मिली थी, इस बार मिल गई। बडी खुश थी कि बाहर के नजारे देखेगी। लेकिन कुछ ही देर में अन्धेरा हो गया और उसे बाहर दिखाई देना बन्द हो गया होगा। बावली कहीं की!
   ग्वालियर में भीड ने ट्रेन पर धावा बोल दिया। वैसे भीड कम थी, शोर ज्यादा था। हमें यहीं उतरना था, उतर गये। अब तक प्रशान्त जी भी मुरैना से आ गये थे। गाडी लेकर स्टेशन आ गये और हम उनके घर चले गये। हमने स्टेशन पर ही एक गैर-वातानुकूलित रिटायरिंग रूम बुक कर रखा था। प्रशान्त जी ने कहा भी कि उनके यहां रुक जाते, उनके यहां वातानुकूलित कमरा है। मैंने और निशा ने एक-दूसरे को देखा और मानों कहा कि स्टेशन पर पैसे तो चले ही गये, अब यहां वातानुकूलित कमरे में रुक जाते हैं।
   प्रशान्त जी को अक्टूबर के पहले सप्ताह में गोवा और शिरडी की यात्रा पर जाना था। बाकी सब आरक्षण तो उनके हो गये लेकिन मडगांव से मनमाड का किसी भी ट्रेन में नहीं मिल रहा था। और ट्रेनें भी कितनी हैं? दो-तीन कुल मिलाकर हैं। वे मुम्बई आकर ट्रेन नहीं बदलना चाहते थे। इसमें मैंने सहायता की। मंगला लक्षद्वीप में कन्नूर से झांसी का आरक्षण मिल गया और बोर्डिंग करा दी मडगांव में। हालांकि मडगांव-मनमाड के मुकाबले कन्नूर-झांसी का टिकट दोगुना था लेकिन कुछ पैसे जरूर फालतू गये, परन्तु अब वे आराम से मनमाड तक की अपनी यात्रा करेंगे।
   वापस स्टेशन आकर रिटायरिंग रूम में सो गये।
   अगले दिन यानी 19 अगस्त को हमें यात्रा करनी थी ग्वालियर-गुना रेलमार्ग पर। सुबह साढे आठ बजे पैसेंजर चलती है और हम समय से पहले ही इसमें चढ लिये। गाडी चल पडी। ग्वालियर से चलकर नौगांव, पनिहार, घाटीगांव, रेंहट, मोहना, इन्दरगढ, पाडरखेडा, खजूरी, शिवपुरी, रायश्री, खोंकर, कोलारस, लुकवासा, बदरवास, रावसर जागीर, मियाना, भदौरा जागीर, तरावटा और गुना जंक्शन स्टेशन आते हैं। इन सभी के मैंने फोटो ले लिये सिवाय खोंकर के। खोंकर पर कोई बोर्ड ही नहीं था और स्टेशन के एकमात्र कमरे पर भी फटेहाल लिखा था जिसे खोंकर तो कतई नहीं पढा जा सकता।
   पनिहार से निकले तो सब पानी-पानी हो गया। ट्रैक के दोनों तरफ बेइंतिहा पानी बह रहा था। दोनों तरफ बडी बडी चट्टानें हैं और पानी कई जगह झरने बनाता हुआ आ रहा था। चट्टानों को फाडकर। पानी इतना ज्यादा हो गया कि इससे रेलवे स्लीपर भी कई जगह डूब गये। एहतियातन ट्रेन को दस की स्पीड से चलाया गया। इस पांच छह किलोमीटर की दूरी को तय करने में आधा घण्टे से भी ज्यादा लग गया। इन झरनों में ग्रामीण लडके नहा रहे थे। ज्यादातर यात्री खिडकी और दरवाजों पर आ गये। यह नजारा उन्होंने भी पहली बार देखा था, नहीं तो बुन्देलखण्ड में पानी कहां? एक ने बताया कि पास में ही एक बांध है, मानसून के कारण वो ओवरफ्लो हो रहा है। उसी का पानी आ रहा होगा। खैर, पानी कहीं से भी आ रहा हो लेकिन रेल के स्लीपर डूबने के कारण इससे खतरा तो पैदा हो ही गया था। कुछ ही दिन पहले एमपी में ही हरदा के पास दो ट्रेनें पटरी से उतर गई थीं। इस कारण सावधानी और भी ज्यादा बरती जा रही थी।
   मुरैना के एक मित्र ने मेरी इस यात्रा की सूचना पाकर कहा था- अब हमें अपने इलाके के बारे में कुछ नई जानकारियां मिलेंगीं। यह मेरे लिये गदगद करने वाली बात थी। एक स्थानीय से बेहतर किसी इलाके के बारे में भला कौन जान सकता है? और स्थानीय ही कह रहा है कि मैं उनके इलाके के बारे में कुछ नया बताऊंगा। वाकई यह मेरे लिये सम्मान की बात थी। मैं सोच रहा था कि पैसेंजर ट्रेन यात्रा है, इसमें भला क्या नई जानकारी मिलेगी? इसी तरह सोचते-सोचते शिवपुरी आ गया।
   बस, मिल गई नई जानकारी। अब हम भौगोलिक रूप से मालवा के पठार पर आ गये थे। हालांकि राजनैतिक रूप से मालवा क्षेत्र गुना के बाद आरम्भ होगा लेकिन भौगोलिक रूप से हम मालवा में आ गये। कैसे? बताता हूं।
   मालवा एक पठार है। पठार यानी अपने चारों ओर की जमीन से कुछ उठी हुई समतल जमीन। यह समतल जमीन कोई छोटा मोटा टुकडा नहीं है, बल्कि इस पर मध्य प्रदेश के कई जिले आते हैं- उज्जैन, इन्दौर, देवास, शाजापुर आदि। आप कभी इस इलाके का नक्शा देखना- टैरेन मोड में। इन्दौर के दक्षिण में यह पठार धडाम से समाप्त हो जाता है यानी बडी तेजी से ऊंचाई से नीची जमीन पर आ जाते हैं। इसका नतीजा होता है कि यहां कई बडे-बडे झरने हैं- पातालपानी, शीतला माता, तीनछा आदि। मालवा पठार की ऊंचाई 450 से 500 मीटर तक है। इसके दक्षिण में नर्मदा है जो 200 मीटर से भी कम ऊंचाई पर बहती है। मतलब ये है कि मालवा का दक्षिणी हिस्से पर तो एकदम ढलान है और पठार एकदम नीची जमीन पर जा मिलता है। लेकिन उत्तर में कहां से पठार शुरू होता है; इसका कोई पता नहीं चलता। हम उत्तर से आ रहे थे, यानी ग्वालियर से। ग्वालियर समुद्र तल से 211 मीटर ऊपर है, इससे अगला स्टेशन नौगांव 259 मीटर, फिर पनिहार 288 मीटर, घाटीगांव 343 मीटर, पाडरखेडा 417 मीटर और शिवपुरी 478 मीटर ऊपर है। यानी शिवपुरी पूरी तरह मालवा के पठार पर स्थित है। ग्वालियर और शिवपुरी के बीच में ऊंची-नीची जमीन है लेकिन कभी भी पता नहीं चलता कि ग्वालियर नीचे है और शिवपुरी ऊपर। इस तरह यही इलाका मालवा के पठार की उत्तरी सीमा है।
   एक बात और मुझे पहले बडा तंग करती थी। इन्दौर के आसपास जो पहाडियां हैं, वे भी विन्ध्य पहाडियां हैं और उधर बुन्देलखण्ड के पूर्व में यानी इलाहाबाद से आगे की पहाडियां भी विन्ध्य पहाडियां ही हैं। वहां तो बाकायदा विन्ध्याचल है। विन्ध्याचल और इन्दौर के बीच में विन्ध्य पहाडियों का जिक्र नहीं मिलता। इसलिये हैरानी होती थी कि एक ही नाम की पहाडियां दो अलग-अलग स्थानों पर क्यों हैं? शायद आपके मन में भी यह बात कभी आई होगी।
   इसका कारण है मालवा का पठार। इस पठार के चारों तरफ नीची जमीन है। पश्चिम में गुजरात और राजस्थान हैं, उत्तर में चम्बल और यूपी है, दक्षिण में नर्मदा है। ये सब स्थान बहुत नीचे हैं। हालांकि पूर्व में मामला थोडा पेचीदा है। इस पठार के चारों तरफ जो पहाडियां हैं, वे ही विन्ध्य पहाडियां हैं। इस तरह बुन्देलखण्ड, विन्ध्याचल, सीधी, कटनी, जबलपुर, फिर नर्मदा के उत्तर की पहाडियां, होशंगाबाद, इन्दौर-महू, माण्डव, बांसवाडा, चित्तौडगढ, बूंदी, रणथम्भौर का जो पूरा वृत्ताकार भाग है; वहां विन्ध्य पहाडियां ही हैं। नर्मदा के दक्षिण में सतपुडा है।
   ट्रेन डेढ बजे ही गुना के आउटर पर खडी हो गई। हालांकि इसका गुना पहुंचने का समय सवा दो बजे का है। इस तरह यह अपने निर्धारित समय से पौन घण्टा पहले गुना पहुंच गई। आउटर ही सही, लेकिन है तो गुना ही। अब हमारे सामने तीन विकल्प थे। पहला विकल्प था कोटा जाना। बीना-कोटा पैसेंजर का गुना पहुंचने का समय है सवा एक बजे लेकिन आज यह आधा घण्टा विलम्ब से चल रही थी। यानी अभी तक यह गुना नहीं पहुंची थी। मैंने हालांकि गुना-कोटा मार्गपर यात्रा कर रखी है लेकिन इस रेलमार्ग के कुछ स्टेशनों के फोटो मेरे पास नहीं हैं। उनके लिये इस मार्ग पर यात्रा करना जरूरी था। कल हमें गुना-नागदा मार्ग पर पैसेंजर में यात्रा करनी है, इसलिये अगर आज हम कोटा जाते हैं तो रातोंरात हमें वापस गुना आना पडेगा। इसी के मद्देनजर मैंने पहले ही कोटा से गुना तक कोटा-भिण्ड पैसेंजर में आरक्षण करा रखा था। सुबह गुना आयेंगे और सात बजे बीना-रतलाम पैसेंजर पकड लेंगे।
   दूसरा विकल्प था कि इसी ट्रेन से बीना जायें। रात बीना रुकें और सुबह चार बजे बीना-रतलाम पैसेंजर पकड लें। तीन घण्टे तक सोते आयें और सात बजे गुना आने पर उठ जायें। और तीसरा विकल्प अभी-अभी मन में आया। असल में निशा पैसेंजर ट्रेन यात्राओं में अच्छा अनुभव नहीं कर रही थी। वो कल भिण्ड जाते समय भी सो गई थी और अब भी ग्वालियर से निकलने के बाद से ज्यादातर सो ही रही है। जगती भी है तो बुरी तरह आलस से भरी हुई है। इसलिये विचार आया कि कोटा, बीना सब छोडो और इन्दौर चलो। कल वहां से बाइक लेंगे और घूमेंगे। बची-खुची लाइनों पर पैसेंजर ट्रेनों में यात्रा करने मैं फिर कभी अकेला आ जाऊंगा। इन्दौर जाने के लिये कुछ ही देर में साबरमती एक्सप्रेस आ रही थी। साबरमती डेढ घण्टे की देरी से चल रही थी।
   हमारी ट्रेन आउटर पर खडी रही और बीना-कोटा पैसेंजर धडधडाती हुई निकल गई। उसके जाते ही साबरमती आ गई और हमारे बराबर में आउटर पर खडी हो गई। बस, हमारे लिये इतना ही काफी था। हम इसी में चढ लिये। कुछ ही देर में हम गुना स्टेशन पर थे। सबसे पहले इन्दौर का टिकट लिया। फिर टीटीई को ढूंढा लेकिन कोई नहीं मिला। हमें उज्जैन में या मक्सी में ट्रेन बदलनी पडेगी और ये छह साढे छह घण्टे हम साधारण डिब्बे में तय नहीं करेंगे, स्लीपर में जायेंगे। टीटीई नहीं मिला। हम स्लीपर में ही चढ लिये और एक खाली बर्थ पर पसर गये। पूरे रास्ते कोई टीटीई नहीं आया।
   इंटरनेट साथ हो तो कोई दिक्कत नहीं होती। मैंने इरादा कर लिया कि मक्सी उतर जायेंगे और हबीबगंज-इन्दौर इंटरसिटी एक्सप्रेस शाम साढे सात बजे पकड लेंगे। यदि उज्जैन जाते हैं तो पौने नौ बजे रणथम्भौर एक्सप्रेस मिलेगी। जब तक उज्जैन में रणथम्भौर पकडेंगे, तब मक्सी से इंटरसिटी पकडकर इन्दौर पहुंच जायेंगे। लेकिन आंख लग गई और खुली भी तब जब ट्रेन मक्सी से निकल रही थी। अब तक साबरमती ने अपना सारा विलम्ब कवर कर लिया था और बिल्कुल ठीक समय पर चल रही थी। मक्सी से जब साढे छह बजे चली तो उज्जैन में उसी समय रीवा-इन्दौर इंटरसिटी खडी दिखी। इस ट्रेन का उज्जैन आने का समय छह बजे है और चलने का छह बजकर पच्चीस मिनट। यह ट्रेन बिल्कुल ठीक समय पर उज्जैन आई थी, यानी ठीक समय पर ही उज्जैन से चलेगी। साबरमती साढे छह बजे मक्सी से चली थी और इन्दौर इंटरसिटी उज्जैन पर खडी थी, इसलिये यह तो पक्का था कि अगले आधे घण्टे में यह उज्जैन से जा चुकी होगी। मैंने नेट बन्द किया और फिर सो गया।
   उज्जैन के आउटर पर दो मिनट के लिये ट्रेन रुकी और मेरी आंख खुल गई। आदतन देख लिया कि अभी उज्जैन में कौन कौन सी ट्रेनें आयेंगी और रणथम्भौर ठीक समय ही चल रही है क्या। लेकिन जब देखा कि रीवा-इन्दौर इंटरसिटी अभी भी उज्जैन ही खडी है तो खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उज्जैन की रेल प्रणाली मैं अच्छी तरह जानता हूं। इंटरसिटी अभी तक केवल इसीलिये खडी है कि साबरमती को सिग्नल क्लियर मिले। यानी साबरमती जब प्लेटफार्म पर खडी हो जायेगी, तब इंटरसिटी चलेगी। साबरमती प्लेटफार्म एक पर गई। इंटरसिटी प्लेटफार्म तीन पर खडी थी। जैसे ही मुझे वो खडी दिखी, मैंने निशा को ट्रेन रुकते ही दौड लगाने को कह दिया। दौड लगाई और हमें इंटरसिटी मिल गई। जब हम इंटरसिटी में चढे तो इसे सिग्नल मिल चुका था और यह सरकने लगी थी।
   फिर तो कितनी देर लगती है इन्दौर पहुंचने में। लक्ष्मीबाई नगर स्टेशन पर हम उतर गये जहां सुमित शर्माइंतजार कर रहे थे। वही सुमित शर्मा जो मुझे कच्छ भ्रमणके दौरान मिले थे और हम तीन दिनों तक साथ घूमते रहे थे। तब से अब तक हमारी मित्रता प्रगाढ ही हुई है।







ग्वालियर-गुना रेलमार्ग


पनिहार के बाद ट्रैक पर पानी था और ट्रेन दस की स्पीड से चल रही थी।








अगले भाग में जारी...

घुमक्कड पत्रिका- 2

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महेश्वर यात्रा

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20 अगस्त 2015
   हमें आज इन्दौर नहीं आना था। अभी दो दिन पैसेंजर ट्रेनों में घूमना था और तीसरे दिन यहां आना था लेकिन निशा एक ही दिन में पैसेंजर ट्रेन यात्रा करके थक गई और तब इन्दौर आने का फैसला करना पडा। महेश्वर जाने की योजना तो थी लेकिन साथ ही यह भी योजना थी कि दो दिनों में पैसेंजर यात्रा करते करते हम महेश्वर के बारे में खूब सारी जानकारी जुटा लेंगे, नक्शा देख लेंगे लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं हो सका। सुमित के यहां नेट भी बहुत कम चलता है, इसलिये हम रात को और अगले दिन सुबह को भी जानकारी नहीं जुटा पाये। हालांकि सुमित ने महेश्वर के बारे में बहुत कुछ समझा दिया लेकिन फिर भी हो सकता है कि हम महेश्वर के कुछ अत्यावश्यक स्थान देखने से रह गये हों।
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शीतला माता जलप्रपात, जानापाव पहाडी और पातालपानी

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   इन्दौर से जब महेश्वर जाते हैं तो रास्ते में मानपुर पडता है। यहां से एक रास्ता शीतला माता के लिये जाता है। यात्रा पर जाने से कुछ ही दिन पहले मैंने विपिन गौड की फेसबुकपर एक झरने का फोटो देखा था। लिखा था शीतला माता जलप्रपात, मानपुर। फोटो मुझे बहुत अच्छा लगा। खोजबीन की तो पता चल गया कि यह इन्दौर के पास है। कुछ ही दिन बाद हम भी उधर ही जाने वाले थे, तो यह जलप्रपात भी हमारी लिस्ट में शामिल हो गया।

शीतला माता जलप्रपात (विपिन गौड की फेसबुक से अनुमति सहित)

   मानपुर से शीतला माता का तीन किलोमीटर का रास्ता ज्यादातर अच्छा है। यह एक ग्रामीण सडक है जो बिल्कुल पतली सी है। सडक आखिर में समाप्त हो जाती है। एक दुकान है और कुछ सीढियां नीचे उतरती दिखती हैं। लंगूर आपका स्वागत करते हैं। हमारा तो स्वागत दो भैरवों ने किया- दो कुत्तों ने। बाइक रोकी नहीं और पूंछ हिलाते हुए ऐसे पास आ खडे हुए जैसे कितनी पुरानी दोस्ती हो। यह एक प्रसाद की दुकान थी और इसी के बराबर में पार्किंग वाला भी बैठा रहता है- दस रुपये शुल्क बाइक के। हेलमेट यहीं रख दिये और नीचे जाने लगे।
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इन्दौर से पचमढी बाइक यात्रा और रोड स्टेटस

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21 अगस्त 2015
   मुझे छह बजे ही उठा दिया गया, नहीं तो मैं अभी भी खूब सोता। लेकिन जल्दी उठाना भी विवशता थी। आज हमें पचमढी पहुंचना था जो यहां से 400 किलोमीटर से ज्यादा है। रास्ते में देवास से सुमित को अपने साले जी को भी साथ लेना था। सीबीजेड एक्सट्रीम पर मैं और निशा थे जबकि बुलेट पर सुमित और उनकी पत्नी। साले जी की अपनी बाइक होगी। सुमित ने हमें धन्यवाद दिया कि हम दोनों को देखकर ही उनकी पत्नी भी साथ चलने को राजी हुई हैं अन्यथा उनका दोनों का एक साथ केवल इन्दौर-देवास-इन्दौर का ही आना-जाना होता था, कहीं बाहर का नहीं।
   तो साढे छह बजे यहां से चल दिये। सुबह-सुबह का समय था, आराम से शहर से पार हो गये। मेन रोड यानी एनएच 3 पर पहुंचे। यह शानदार छह लेन की सडक है। देवास तक हम इसी पर चलेंगे, उसके बाद भोपाल के लिये दूसरी सडक पकड लेंगे।
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भोजपुर, मध्य प्रदेश

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   अगस्त 2009 में मैं पहली बार मध्य प्रदेश घूमने गया था। सबसे पहले पहुंचा था भीमबेटका। उसी दिन इरादा बना भोजपुर जाने का। भीमबेटका के पास ही है। लेकिन कोई सार्वजनिक वाहन उपलब्ध न होने के कारण आधे रास्ते से वापस लौटना पडा। तब से कसक थी कि भोजपुर जाना है। आज जब बाइक साथ थी और हम उसी सडक पर थे जिससे थोडा सा हटकर भोजपुर है, तो हमारा भोजपुर जाना निश्चित था। भोपाल से थोडा सा आगे भैरोंपुर है। भैरोंपुर से अगर सीधे हाईवे से जायें तो औबेदुल्लागंज 22 किलोमीटर है। लेकिन अगर भोजपुर होते हुए जायें तो यही दूरी 30 किलोमीटर हो जाती है। यह कोई ज्यादा बडा फर्क नहीं है।
   सावन का महीना होने के कारण भोजपुर में थोडी चहल-पहल थी अन्यथा बाकी समय यहां सन्नाटा पसरा रहता होगा। बेतवा के किनारे है भोजपुर। राजा भोज के कारण यह नाम पडा। उन्होंने यहां बेतवा पर बांध बनवाये थे और इस शिव मन्दिर का निर्माण करवाया था। किन्हीं कारणों से निर्माण अधूरा रह गया। पूरा हो जाता तो यह बडा ही भव्य मन्दिर होता। इसकी भव्यता का अन्दाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि एक बडे ऊंचे चबूतरे पर मन्दिर बना है और मन्दिर में जो शिवलिंग है वो 5.5 मीटर ऊंचा व 2.3 मीटर परिधि का है। बिल्कुल विशालकाय शिवलिंग।
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पचमढी: पाण्डव गुफा, रजत प्रपात और अप्सरा विहार

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20 अगस्त 2015 की रात नौ बजे हम पचमढी पहुंचे। दिल्ली से चलते समय हमने जो योजना बनाई थी, उसके अनुसार हमें पचमढी नहीं आना था इसलिये यहां के बारे में कोई खोजबीन, तैयारी भी नहीं की। मुझे पता था कि यह एक सैनिक छावनी है। हमारे यहां लैंसडाउनऔर चकरातामें भी सैनिक छावनियां हैं। दोनों के अनुभवों से मुझे सन्देह था कि इतनी रात को यहां कोई कमरा मिल जायेगा। लेकिन यहां ऐसा कुछ नहीं हुआ। अच्छी चहल-पहल थी और बाजार भी खुला था। सुमित यहां पहले आ चुका था, इसलिये हमारा मार्गदर्शक वही था। मेरे पास समय की कोई कमी नहीं थी। मेरी बस एक ही इच्छा थी कि वापसी में पातालकोट देखना है। आज हमारे पास बाइक है और पातालकोट यहां से ज्यादा दूर भी नहीं, इसलिये इस मौके को मैं नहीं छोडने वाला था। बाकी रही पचमढी, तो जैसे भी घुमाना है, घुमा।
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यात्रा आयोजन- जलोडी जोत, ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क और पराशर झील

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अभी पिछले सप्ताह मैं ग्वालियर में था। प्रशान्त जीके यहां डिनर का आनन्द ले रहा था। तभी उन्होंने सुझाव दिया कि अगले साल वे कई मित्र लद्दाख जायेंगे और मैं उनकी अगवानी करूं। किराये की गाडी लेंगे और निकल पडेंगे। उस समय वहां बैठे-बैठे इस मुद्दे पर खूब बातें हुईं।
वापस दिल्ली आकर मैं इस बारे में सोचने लगा। ऐसा नहीं है कि इस तरह की यात्राएं आयोजित करने के बारे में मैं पहली बार सोच रहा हूं। पहले भी मन में इस तरह के विचार आये हैं। क्या मैं इस तरह का आयोजन कर सकूंगा? इसमें जबरदस्त टीम-वर्क की आवश्यकता पडती है और अलग-अलग तरह के लोगों के साथ रहना भी होता है और उनकी समस्याएं सुननी-सुलझानी भी पडती हैं। मेरी प्रकृति अकेले रहने और भ्रमण करने की रही है। पहले भी कई बार यात्राओं पर अपने साथियों से मनमुटाव होता रहा है।
निशा के आने के बाद बहुत बडा परिवर्तन हुआ है। पहले पहले हमारी बहुत लडाई होती थी, अब सब ठीक होने लगा है। एक टीम-भावना मेरे अन्दर जाग्रत होने लगी है। सामने वाला क्या चाहता है, उसके अनुसार मैं स्वयं को ढालने लगा हूं।
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पचमढी: राजेन्द्रगिरी, धूपगढ और महादेव

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   अप्सरा विहार से लौटकर हम गये राजेन्द्रगिरी उद्यान। यहां जाने का परमिट नहीं लगता। हमारा गाइड सुमित था ही। राजेन्द्रगिरी जैसा कि नाम से ही पता चल रहा है कि एक ऊंची जगह है। ज्यादा ऊंची नहीं है लेकिन यहां से पचमढी के कई अन्य आकर्षण दिखाई देते हैं। एक तरफ धूपगढ दिखता है तो दूसरी तरफ चौरागढ। राजेन्द्रगिरी में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की एक प्रतिमा है और अच्छा उद्यान भी है।
   इसके बाद रुख किया हमने धूपगढ का। यह पचमढी की सबसे ऊंची चोटी है। यहां से सूर्योदय और सूर्यास्त का अच्छा नजारा दिखता है। यहां जाने का परमिट लगता है, जिसे हम सुबह ही ले चुके थे। एक जगह जांच चौकी थी, जहां परमिट चेक किये और रजिस्टर में हमारी एण्ट्री की। सडक ठीक बनी है हालांकि संकरी और ‘बम्पी’ है। पहाडी रास्ता है और चढाई भी। कुछ ही दिन पहले तीज थी और उसके दो दिन बाद शायद नागपंचमी। आदिवासी समाज में नागों का बहुत महत्व होता है और इन्हें पूजा भी जाता है। तब यहां मेला लगा होगा। तभी तो रास्ते भर निर्जनता होने के बावजूद भी मेले के निशान मिलते गये।
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