[डायरी के पन्ने हर महीने की पहली व सोलह तारीख को छपते हैं।]
1 अप्रैल 2013, सोमवार
1.महीने की शुरूआत में ही उंगली कटने से बच गई। पडोसियों के यहां एसी लगना था। सहायता के लिये मुझे बुला लिया। मैं सहायता करने के साथ साथ वहीं जम गया और मिस्त्री के साथ लग गया। इसी दौरान प्लाई काटने के दौरान आरी हाथ की उंगली को छूकर निकल गई। ज्यादा गहरा घाव नहीं हुआ।
2 अप्रैल 2013, मंगलवार
1.सुबह चार बजे ही नटवर दिल्ली आ गया। हम हिमाचल की ओर कूच कर गये। शाम होने तक धर्मशाला पहुंच गये।
3 अप्रैल 2013, बुधवार
1.आज ट्रेकिंग करते हुए हिमानी चामुण्डा गये। यह 2770 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और इसे पुरानी चामुण्डा भी कहते हैं।
4 अप्रैल 2013, गुरूवार
1.हिमानी चामुण्डा से वापस नीचे उतरे। मौज मस्ती करते आये और शाम होने तक वर्तमान चामुण्डा मन्दिर पहुंच गये और रात भर के लिये यहीं जम गये।
5 अप्रैल 2013, शुक्रवार
1.चामुण्डा से बस में बैठकर सीधे बैजनाथ पहुंचे। मन्दिर देखकर जोगिन्दर नगर की बस पकडी जहां से बरोट चले गये।
6 अप्रैल 2013, शनिवार
1.बरोट से वापसी की बस पकडी। जोगिन्दर नगर और पालमपुर होते हुए चिडियाघर पहुंचे। यहां से कांगडा और रात होने तक पठानकोट। पठानकोट से धौलाधार एक्सप्रेस से सुबह तक दिल्ली।
सम्पूर्ण हिमाचल यात्रा का विस्तार से वर्णन अलग से किया जायेगा।
7 अप्रैल 2013, रविवार
1.नटवर का दिल्ली से वापसी का आरक्षण नहीं था। आज की किसी भी ट्रेन में नहीं मिला लेकिन सदाबहार ट्रेन डबल डेकर में जगह खाली थी। यह जयपुर पहुंचती है रात दस बजे जहां से नटवर को कुचामन के लिये भारी परेशानी होने वाली थी। इसलिये आज जाना रद्द करके कल सुबह सराय रोहिल्ला से चलने वाली गरीब रथ में अजमेर तक का आरक्षण करा लिया। दिल्ली से इस ट्रेन में अजमेर का आरक्षण बडी आसानी से हो जाता है।
2.हिमाचल यात्रा पर निकलने से पहले ही मैंने छत्तीसगढ यात्रा वृत्तान्तलिख दिया था। इसे दो-दो दिनों के अन्तराल पर ब्लॉग पर छपने के लिये भी लगा दिया था। मेरी अनुपस्थिति में तीन अप्रैल को जब विश्वामित्र आश्रम वाली पोस्ट छपी तो उसे पढकर छत्तीसगढ यात्रा के सहयोगी डब्बू मिश्रा को क्रोधित होना ही था। उनकी उस दिन की टिप्पणी आज पढी। ज्यादातर पाठक मेरी प्रशंसा ही करते हैं, लेकिन अगर कभी आलोचना भी मिले तो भी कोई फरक नहीं पडता। डब्बू की हां में हां मिलाते हुए कुछ और लोगों ने भी मेरी आलोचना की जिनमें एक आपत्तिजनक शब्दों वाली आलोचना भी थी। आपत्तिजनक आलोचना को हटा दिया, बाकी रहने दीं।
डब्बू का सारा क्रोध सिर माथे पर लेकिन उन्होंने पैसों की भी बात की। उन्होंने कहा- हमने तुम्हारे लिये तीन हजार का पेट्रोल फूंक दिया, दस रुपये चप्पल ठीक कराने के दिये आदि। जबकि वास्तव में यात्रा के दौरान जब मैं उन्हें पैसे देने लगा था तो उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि आप हमारे अतिथि हो। हम आपसे एक भी पैसा नहीं लेंगे।
एक स्वाभिमानी इंसान के लिये पैसों का ताना उलाहना बहुत बडी बात होती है, वो भी ऐसे इंसान के लिये जिसके पास न तो पैसों की कोई कमी है, न ही उसे खर्च करने के लिये जिगर की। था एक जमाना जब हम पैसों की शक्ल देखने के लिये तरसते थे लेकिन अब वो बात नहीं। अब अपने पास पैसा है तो उसका आनन्द उठाने के लिये जिगर भी है।
3.अब एक साइकिल यात्रा करने का मन कर रहा है। विपिन गौड से बात की। 24 से 28 अप्रैल तक हिमाचल में तीर्थन घाटी में साइकिल यात्रा करने की बात होने लगी। विपिन ने बाद में कहा कि तू अभी दस दिन रुक जा, उसके बाद फाइनल करेंगे। मैंने जोश-जोश में कह दिया कि भाई, फाइनल ही है। जाट की जुबान... और भी पता नहीं क्या क्या। तब क्या मालूम था कि सप्ताह भर में ही यह जुबान पलटने वाली है?
8 अप्रैल 2013
1.नाइट ड्यूटी से घर आया और नटवर को विदा किया। सवा नौ बजे उसकी ट्रेन थी। नटवर के जाते ही इंटरनेट चालू किया और सबसे पहले अपने ब्लॉग का दर्जा सार्वजनिक से बदलकर प्राइवेट कर दिया। यानी अब केवल वे ही लोग मेरे लेख पढ सकते हैं, जिन्हें मैं अनुमति दूंगा। यह फैसला किसी जल्दबाजी में नहीं लिया गया बल्कि पूरी नाइट ड्यूटी के दौरान काफी सोच विचार के बाद लिया गया। डब्बू और उसके बाद आने वाली पैसों सम्बन्धी टिप्पणियों से मैं विचलित हो गया था।
मेट्रो में मैं महीने भर में औसतन 22 दिन ड्यूटी करता हूं। आठ घण्टे रोजाना के हिसाब से प्रति घण्टे काम करने के बदले मुझे 200 रुपये मिलते हैं। यानी एक घण्टे के 200 रुपये। उधर घूमना, फोटो खींचना और अपनी यात्रा-कथा लिखना मेरा शौक है। इतना होता तो कोई बात नहीं थी। घूमने, फोटो खींचने और लिखने के बाद भी एक लेख को सार्वजनिक करने के लिये औसतन दो घण्टे लगाने पडते हैं। फोटो का साइज कम करना, उन पर कुछ एडिटिंग करना, अपलोड करना, पुनः साइज ठीक करना, कैप्शन देना आदि। बाकी काम भले ही अपने लिये करता हूं, लेकिन ये दो घण्टे मैं अपने लिये कुछ नहीं करता। मेरा ब्लॉग विज्ञापन-रहित है। ब्लॉग से कमाई का भी कोई लालच नहीं। इस प्रकार देखा जाये तो हर पाठक पर एक लेख पढते ही 400 रुपये का कर्जा चढ जाता है। मैं साढे चार सौ से ज्यादा लेख लिख चुका हूं। अगर किसी पाठक ने 100 लेख भी पढ लिये तो उस पर अपने ही आप 40000 रुपये का कर्जा हो जाता है। 100 लेख का अर्थ है कि मैंने उनके लिये अपने बेहद कीमती 200 घण्टे नष्ट किये हैं।
कभी उतार पायेंगे डब्बू या उसके पिछलग्गू यह कर्ज?
2.ब्लॉग को प्राइवेट करते ही फोन आने लगे। शिकायत थी कि ब्लॉग खुल नहीं रहा। मैंने कुछ मित्रों को ब्लॉग पढने की अनुमति दे दी। इसके बाद जब फोन और मैसेज का सिलसिला बढ गया तो मैं मोबाइल स्विच ऑफ करके सो गया। शाम पांच बजे आंख खुली। मोबाइल ऑन किया। दस मिनट बाद ही अन्तर सोहिल के नाम से लिखने वाले अमित शर्मा का फोन आया। पहले तो उठाने को मन नहीं किया, बाद में उठा लिया। फोन उठाते ही जो फटकार मिली उसका नतीजा यह हुआ कि दस मिनट में ही ब्लॉग सार्वजनिक करना पड गया। अमित शर्मा उन गिने-चुने लोगों में से है, जिनकी मैं बहुत इज्जत करता हूं।
3.विश्वामित्र आश्रम वाले लेख को हटा दिया। इसके हटाने से मुझे कुछ भी नुकसान नहीं हुआ क्योंकि लेख मेरे पास है ही। लेकिन पाठकों को जरूर नुकसान हुआ है। चाहता था कि इसमें से वे अंश हटा दूं जिन पर डब्बू को आपत्ति है। कोशिश भी की, काट-छांट शुरू की तो लेख की लय बिगड गई। पुनः लय बनाने का मूड नहीं था, इसलिये पूरा लेख ही उडा दिया। लेख के साथ डब्बू और उसके समर्थकों की टिप्पणियां भी उड गईं।
4.अक्सर फलाहार का मन कर जाता है। हमारे पडोस में यमुना का रेलवे वाला पुराना लोहे का पुल है। पुल से लेकर आधे किलोमीटर तक फलों की ठेलियां लगी रहती हैं। आम दस्तक देने लगा है। पिछले साल आम की पहली खेप आते ही मैंने उन पर हमला बोल दिया था लेकिन शुरू में आनन्द नहीं आया था। वो डर अभी भी है, इसलिये आम की तरफ देखता भी नहीं। मई में आम खाना शुरू करूंगा जो अगस्त तक अनवरत चलता रहेगा।
अंगूरों की भी बडी तादाद है। एक किलो अंगूर ले लिये। घर आया और पढते लिखते सारे अंगूर खा गया। मैं अक्सर एक किलो अंगूर लाया करता हूं और ये दो घण्टे भी नहीं टिकते। पुराना अनुभव है कि इतने अंगूर खाकर मुझे दस्त लग जाया करते हैं। दस्त लगें तो लगे, कोई समस्या नहीं। कौन सा आधा किलोमीटर दूर लोटा लेकर जाना है? अंगूरों के बाद एक लीटर दूध में शक्कर डालकर पी गया। शक्कर से भी मुझे दस्त लगते हैं लेकिन इस बार कुछ नहीं हुआ। लगता है कि पेट में अंगूर और शक्कर दोनों भिड पडे होंगे कि मैं दस्त लगाऊंगा और मैं दस्त लगाऊंगा। बढिया इलाज मिल गया। अंगूर खाओ और उतना ही दूध शक्कर पी जाओ। इस इलाज का पेटेंट बनता है।
9 अप्रैल 2013
1.कल बुधवार है यानी मेरा अवकाश। गांव जाने का मन कर गया। मेरठ की ट्रेन तो खैर छूट गई, इसलिये बस से चला गया। रात्रि ड्यूटी की थी, इसलिये आज भी पूरे दिन खाली हूं। दोपहर बाद दो बजे घर पहुंचा, खाना खाकर लेटा ही था कि खान साहब का फोन आ गया- नीरज, जे है, आज रात्रि ड्यूटी कर लो। त्यागी ने अचानक छुट्टी ले ली है, दूसरा कोई उपलब्ध नहीं है, इसलिये आ जाओ। मैं भला कैसे इसके लिये तैयार हो सकता था? ढाई बजे हैं, अभी दिल्ली से आया हूं कि कल तक घर परिवार में रहूंगा। ड्यूटी का अर्थ है कि आज ही शाम सात बजे तक यहां से दिल्ली के लिये चल देना है।
मैंने मना कर दिया। खान साहब गिडगिडाने लगे कि भाई, आ जा। भले ही कुछ लेट आ जाना। आपका बॉस अगर आपके सामने गिडगिडाये तो कैसा लगेगा? मुझे भी खुशी हुई। मैंने पहले तो काफी देर तक अपनी अकड दिखाई कि नहीं आऊंगा लेकिन बाद में सहमति दे दी। इसके बदले अगले तीस दिनों में कभी भी एक छुट्टी ले लूंगा। मार्च की इसी तरह की दो छुट्टियां बची हुई हैं, तीसरी यह हो गई। अप्रैल के आखिर में चार पांच छुट्टियां लेनी पडेंगीं।
2.हाल ही में की गई हिमाचल यात्रा का वृत्तान्त लिखने बैठा। मन नहीं था, फिर भी दो पृष्ठ लिख डाले। चूंकि ये बे-मन से लिखे गये थे, इसलिये इन्हें पढने में मुझे स्वयं ही आनन्द नहीं आया। सब मिटा दिये। जब मन करेगा, तब लिखूंगा।
10 अप्रैल 2013
1.एक पुस्तक कई दिनों से पढ रहा हूं- विभाजन- भारत और पाकिस्तान का उदय। पुस्तक मूल रूप से अंग्रेजी में यास्मीन खान ने लिखी थी, बाद में सरोज कुमार ने मेरे जैसों के लिये हिन्दी अनुवाद कर दिया। पेंगुइन बुक्स ने प्रकाशित की है। विभाजन को केन्द्र में रखकर पुस्तक लिखी गई है। गजब की लेखन शैली है और उससे भी गजब का अनुवाद। अक्सर अनुवादों में वो आनन्द नहीं आता, लेकिन यहां लग ही नहीं रहा कि हम अनुवादित पुस्तक पढ रहे हैं। पेपरबैक संस्करण का मूल्य 225 रुपये है।
12 अप्रैल 2013
1.हिमाचल यात्रा लेखन की शुरूआत कर दी। कुल पांच दिनों की थी यह यात्रा और पहले दिन का वृत्तान्त लिख दिया। लेकिन मन नहीं था, इसलिये प्रकाशित नहीं किया। सोचा कि कल यानी शनिवार को सुबह उठकर प्रकाशित कर दूंगा लेकिन सुबह उठना किसने सीखा है?
2.एक बडे काम की जानकारी पता चली। झारखण्ड में कोडरमा रेलवे स्टेशन से हजारीबाग टाउन स्टेशन तक रेल-बस चलती है। यह मेरे लिये बिल्कुल नई जानकारी थी। उससे भी आश्चर्यजनक एक बात और पता चली कि यह रेल-बस भारतीय रेलवे नहीं चलाता बल्कि सिटी-लिंक नामक एक प्राइवेट कम्पनी चलाती है।
कोडरमा से जब धनबाद की तरफ चलते हैं तो हजारीबाग रोड स्टेशन आता है। यह मुख्य लाइन पर ही है। मुझे इतना भी पता था कि कोडरमा से बरकाकाना होते हुए रांची तक एक रेलवे लाइन का काम चल रहा है। लेकिन इसी रेल लाइन पर रेल-बस की कोई जानकारी नहीं थी। जानकारी मिलने के बाद इंटरनेट पर भी खूब ढूंढा लेकिन कुछ नहीं मिला। असल में हमारा एक सहकर्मी संजीत हजारीबाग का ही रहने वाला है। वो सरकारी खर्चे पर अपने घर गया हुआ है तो ऑफिस की फाइलों में उसके टिकट भी लगे हैं। सामने ट्रेनों के टिकट हों और मैं नजरअंदाज कर जाऊं? असम्भव। उनमें सिटीलिंक नाम का भी एक रंग-बिरंगा टिकट लगा था। इसे पढने में मेरी कतई दिलचस्पी नहीं थी। फिर भी जब पढा तो यह सारी जानकारी मिल गई।
संजीत से बात की तो पता चला कि यह रेल-बस सेवा हजारीबाग वालों को कोडरमा स्टेशन से लम्बी दूरी की ट्रेनें पकडवाने के लिये चलती है। सात-आठ साल हो गये हैं। नब्बे किलोमीटर की दूरी बिना रुके तय करती है। इससे पहले कि यह प्राइवेट रेल बन्द हो जाये, मुझे इस पर यात्रा कर लेनी चाहिये। मानसून के महीनों में सोच लिया है।
13 अप्रैल 2013
1.‘विभाजन- भारत और पाकिस्तान का उदय’ पढकर समाप्त की। मूल रूप से अंग्रेजी में यास्मीन खान द्वारा लिखित तथा सरोज कुमार द्वारा हिन्दी अनुवादित की गई है। गजब का लेखन। सैंकडों स्रोतों के माध्यम से पुस्तक विश्वसनीय बन जाती है। 1946 से शुरू होकर 1948 तक का समय ही पुस्तक का मूल है। मुस्लिम लीग की जिद थी कि मुसलमानों के लिये एक अलग राष्ट्र बनेगा। देखते-देखते उपमहाद्वीप के लाखों मुसलमान लीग की तरफ हो गये। हिन्दू-मुसलमानों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हो गया। दंगे होने लगे। मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में हिन्दुओं का जीना मुहाल हो गया और हिन्दू बहुल क्षेत्रों में मुसलमानों का।
अलग राष्ट्र की मांग अवश्य उठ रही थी, खासो-आम सभी हां में हां मिला रहे थे लेकिन अन्दाजा किसी को नहीं था कि यह अलग राष्ट्र क्या होगा और कहां होगा, कैसा होगा? तब सोचा भी नहीं जा सकता था कि जमीन बंट जायेगी और विस्थापन होगा। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय पाकिस्तान का हृदय प्रदेश था और अटकलें थीं कि दिल्ली भी पाकिस्तान में जायेगी।
3 जून 1947 को विभाजन की योजना को सार्वजनिक किया गया और मोटे तौर पर भारत-पाकिस्तान नामक देशों के बीच की लकीर भी जारी की गई। पंजाब के दो टुकडे हो गये। पंजाब में आग लग गई। जुलाई में बंगाल व पंजाब बाउंड्री कमीशन की बैठकें हुई जिसने आजादी के दो दिनों बाद यानी 17 अगस्त को आखिरी फैसला सुना दिया कि सीमा आखिरकार कहां कहां से गुजरेगी। बस, इसके बाद जो देश-भर में आग लगी, वो मानवता के इतिहास की क्रूरतम आग थी। करोडों लोगों का विस्थापन हुआ, लाखों मारे गये, लाखों बिछडे।
कुल मिलाकर पुस्तक में प्रवाह है। अनुवाद भी उच्च कोटि का है। कभी भी नहीं लगता कि हम हिन्दी अनुवाद पढ रहे हैं।
14 अप्रैल 2013
1.काफी दिनों से एक पुस्तक और पढ रहा था- द ग्रेट रेलवे बाजार। पॉल थरु द्वारा लिखित और पेंगुइन बुक्स द्वारा प्रकाशित। मूल रूप से है तो अंग्रेजी में लेकिन मैंने पढी है तो हिन्दी अनुवाद ही पढा होगा। गजेन्द्र राठी ने इसका हिन्दी अनुवाद किया है।
महाराज लन्दन से रेल यात्रा शुरू करके फ्रांस, इटली, क्रोशिया, सर्बिया, बुल्गारिया और तुर्की होते हुए एशिया में प्रवेश करता है। यहां से ईरान में घुसता है। उसकी इच्छा थी कि ईरान से सीधे पाकिस्तान जाया जाये लेकिन हालात उसे अफगानिस्तान ले जाते हैं। खैबर पास के रास्ते पेशावर में प्रवेश करता है और लाहौर के बाद अटारी के रास्ते भारत में। रेल-यात्राएं करता करता चेन्नई और रामेश्वरम तथा श्रीलंका तक जा पहुंचता है।
इसके बाद रंगून यानी म्यांमार, थाईलैण्ड, मलेशिया, सिंगापुर, कम्बोडिया और वियतनाम के युद्धग्रस्त क्षेत्रों में जान हथेली पर रखकर रेल यात्रा करता है। जापान पहुंचता है जहां से रूस की धरती पर कदम रखकर दुनिया की सबसे लम्बी ट्रांस साइबेरियन रेलवे से यात्रा करता हुआ मास्को और आखिरकार लन्दन पहुंचकर यात्रा को विराम देता है।
लेखक अमेरिकी है। 1975 में उसने यह यात्रा की थी। जिन क्षेत्रों से वह गुजरा था, वे दुनिया के सबसे खतरनाक क्षेत्र थे। पाकिस्तान-अफगानिस्तान की जंग के आसार बन रहे थे। वियतनाम में दहशतगर्दी थी ही। सबसे बढकर रूस-अमेरिका के रिश्ते बदतम थे। इन दोनों देशों के बीच शीत-युद्ध जारी था।
यह तो था उसकी यात्रा का पथ जिसके कारण मैं उसे सैल्यूट करता हूं लेकिन लेखन बिल्कुल निम्न कोटि का है। लन्दन से लन्दन तक पूरी यात्रा में उसे गन्दे और असभ्य लोग ही मिले। हर तरफ गन्दगी और बीमारियां ही मिलीं। रेल-यात्री होने के बावजूद भी उसे कोई भी ट्रेन पसन्द नहीं आईं। यहां तक कि वो खुद भी हर स्थान पर ट्रेन से नीचे उतरकर दो चीजों की खोज करता था- शराब और औरतें। पैसे वाले के लिये भला इन दोनों की क्या कमी? दोनों उसे आसानी से मिल जाती थीं।
जापान की भी आलोचना जमकर की और अमेरिकन होने के नाते रूस की आलोचना तो उसका अधिकार बनता है। लगता है कि उसे किसी ने पैसे दिये होंगे कि बेटा, ये ले पैसे। इस तरह घूमकर आ, किताब लिखेगा तो और पैसे मिलेंगे। मैंने बहुत दिनों पहले ही यह पुस्तक पढनी शुरू कर दी थी लेकिन हर स्थान, हर व्यक्ति की आलोचना के कारण यह रसहीन होती चली गई और आज महीनों बाद यह पूरी हो सकी।
15 अप्रैल 2013
1.सप्ताह भर पहले विपिन से बात की थी तो कितना उत्साह था कि साइकिल चलाऊंगा लेकिन अब सब खत्म। विपिन ने सही कहा था कि दस दिन बाद बात करेंगे। अब जबकि रात के ग्यारह बज चुके हैं, साइकिल के बारे में सोचते हुए भी सुबकी आ रही है। पता नहीं सप्ताह भर पहले मैंने क्या भांग खा रखी थी कि साइकिल यात्रा की बात कर रहा था?
23 तारीख को निकल पडूंगा एक चार या पांच दिनी यात्रा पर। दो स्थान दिमाग में आ रहे हैं- चम्बा और किन्नौर। हालांकि अप्रैल के इन दिनों में मैं 2000 मीटर से ऊपर ही रहना पसन्द करूंगा इसलिये चम्बा में डलहौजी-खजियार और भरमौर तथा किन्नौर तो खैर पूरा ही इसी ऊंचाई से ऊपर है। इस साल का लक्ष्य हिमालय पार की धरती देखना है, किन्नौर इस शर्त को काफी हद तक पूरा भी करता है इसलिये समीकरण किन्नौर के साथ बन रहे हैं। देखते हैं कि अगले सप्ताह जब अपना बोरिया बिस्तर बंधेगा तो कहां जाना होगा।
कुछ फोटो हैं जो यात्रा से इतर खींचे हैं। नटवर ने फोटोग्राफी के कुछ सूत्र बताये। उन्हीं का प्रयोग करके प्रयोग के तौर पर श्वेत-श्याम फोटो खींचे। कम प्रकाश में खींचे गये ये श्वेत-श्याम फोटो मुझे अच्छे लगे।