12 मार्च को प्रकाश रायका फोन आया- ‘जाटराम, हम जेएनयू से बोल रहे हैं। हमारी एक संस्था है सिनेमेला, जो लघु फिल्मों को बढावा देती है और हर साल इनके लिये पुरस्कार भी दिये जाते हैं।’ मैंने सोचा कि ये लोग मुझे कोई कैमरा देंगे कि बेटा जा, अपनी यात्राओं की कोई वीडियो बना के ला। फिर उसे पुरस्कार के लिये नामित करेंगे। उन्होंने आगे कहा- ‘इस बार हम पहली बार कुछ अलग सा करने जा रहे हैं। किसी अन्य क्षेत्र के अच्छे फनकार को सम्मानित करेंगे। पहले ही सम्मान में तुम्हारा नम्बर लग गया है। आ जाना 15 तारीख को जेएनयू में। जो भी कार्यक्रम है, मैं फेसबुक पर बता दूंगा।’
शाम का कार्यक्रम था। अब मेरा काम था सबसे पहले अपनी ड्यूटी देखना। हमारे यहां ड्यूटी करने में बहुत सारी विशेष शर्तें भी होती हैं, जिनके कारण हर दूसरे तीसरे दिन ड्यूटी बदलती रहती है। देखा कि चौदह की रात दस बजे से पन्द्रह की सुबह छह बजे की नाइट ड्यूटी है, यानी पन्द्रह को पूरे दिन खाली और अगले दिन यानी सोलह को दोपहर बाद दो बजे से सायंकालीन ड्यूटी है। इसलिये किसी भी तरह के बदलाव की आवश्यकता नहीं थी।
ड्यूटी से लौटकर सोना आवश्यक था। लेकिन उससे भी जरूरी था शेविंग करना व कुछ कपडे धोना। मैं कपडे उसी समय धोता हूं जब मुझे उनकी आवश्यकता हो। किसी दिन मेरे ठिकाने पर आओ, आपको गन्दे कपडों का ढेर मिलेगा- कुर्सियों पर, बिस्तर पर, अलमारी में; सब जगह।
पांच बजे प्रकाश जी से पूछा कि कार्यक्रम स्थल पर साइकिल सही सलामत खडी हो जायेगा क्या? बोले कि हो जायेगी। इसलिये साइकिल लेकर चल पडा। लोहे के पुल से यमुना पार करके रिंग रोड पर गाडी दौडा दी। प्रगति मैदान चौराहे से सीधे तिलक मार्ग पर चला तो सामने इंडिया गेट आ गया। यहां मुझे साइकिल चलाने में हमेशा परेशानी होती है। चार दिशाएं तो सुनी हैं, उनका दुगुना करके आठ होती हैं लेकिन यहां इनसे भी ज्यादा दिशाओं से आकर सडकें मिलती हैं और अलग भी होती हैं। इन सभी सडकों से आने वाले ट्रैफिक और जाने वाले ट्रैफिक के बीच में बेचारी साइकिल ऐसी फंस जाती है कि लगता है बेचारी का कचूमर निकल जायेगा। गनीमत होती है कि भारी ट्रैफिक के बावजूद रफ्तार कम रहती है।
पृथ्वीराज रोड से खान मार्किट और आगे सफदरजंग विमानपत्तन के पास से गुजरते हुए रिंग रेलवेके पुल को पार करके सफदरजंग के महा-चौराहे पर पहुंच गया। यहां से बडा सा चक्कर काटा और रिंग रोड पर साइकिल चढा दी। शाम के छह से ऊपर बज चुके थे, जाम लगा था। इस जाम में ज्यादा नहीं चलना पडा और हौज खास की तरफ दिशा बदल दी। बाहरी रिंग रोड से जेएनयू में प्रवेश करना ज्यादा असुविधाजनक नहीं था।
कार्यक्रम गंगा ढाबे के पास केसी ओपन थियेटर में था। यहां पहुंचकर प्रकाश जी से पूछा कि साइकिल कहां खडी करूं तो बोले कि वहां रंगमंच के पीछे खडी कर दो। आंखों के सामने भी रहेगी।
प्रकाश जी मित्रों के साथ व्यवस्था में व्यस्त थे, इसलिये मैंने उन्हें व्यवधान न देते हुए एक पत्थर पर बैठ गया। घण्टे भर तक बैठा रहा, कभी फोन पर नेट चलाता रहा, कभी मित्रों से बात करता रहा और कभी इधर उधर देखता रहा।
आखिरकार प्रकाश जी ने आवाज लगाई कि नीरज, इधर आओ और यहां बैठ जाओ। रंगमंच के चारों ओर अर्धवृत्त के आकार में सीढियां बनी थी, मैं बैठ गया। सामने एक पर्दा लगा था। उसके सामने छह खाली कुर्सियां रखी थी, कुर्सियों के बराबर में पानी की एक एक बोतलें भी। बराबर में माइक का इंतजाम था।
कार्यक्रम आरम्भ हुआ।
“आज के मुख्य अतिथि हैं प्रोफेसर इश्तियाक अहमद। प्रोफेसर इश्तियार अहमद साहब, आइये और पहली कुर्सी पर बैठ जाइये।”
उनके बाद डॉ. सुमन केसरी अग्रवाल, मनोज भावुक, जाटराम, हेमन्त गाबा और गोपाल कृष्ण आये। दूसरों के क्रम में गडबड हो सकती है लेकिन जाटराम का क्रम बिल्कुल सटीक है।
रंगमंच पर तकरीबन पचास लोगों के सामने बैठकर मैं असहज हो रहा था। और बराबर में भी दोनों तरफ अपने क्षेत्रों के फनकार बैठे थे। पहली बार इस तरह का मौका मिला था। सांस अच्छी तरह लय में भी नहीं आने पाई कि घोषणा हुई कि इस बार से हम सम्मानों की शुरूआत कर रहे हैं। सम्मान नीरज को मिलेगा प्रो इश्तियाक अहमद के हाथों। नीरज, आ जाओ।
कुर्सी से उठकर इश्तियाक साहब के हाथों सम्मान ग्रहण किया। फिर मुझे माइक थमा दिया गया कि बेटा, कुछ बोल।
बस, इसी बात का मुझे डर था। बोलने में परेशानी नहीं होती लेकिन बोलने के बाद जो ध्वनि प्रसारक यन्त्र से क्षण भर पश्चात अपनी ही आवाज सुनाई देती है, वह मुझे विचलित कर देती है। सारा ध्यान वहीं चला जाता है, फिर बोलने पर ध्यान नहीं जाता।
तभी अचानक प्रकाश जी ने माइक संभाल लिया और मेरा परिचय दिया कि यह घुमक्कड है। यह औरों से इसलिये अलग है क्योंकि इसका मकसद घुमक्कडी के साथ साथ पैसे बचाना भी होता है।
इतना कहकर पुनः माइक मुझे थमा दिया। हिम्मत बांधकर बोलना पडा। लेकिन माइक मुंह से दूर ले जाकर बोला ताकि ध्वनिप्रसारक से मुझ तक न्यूनतम आवाज आये। दर्शक ज्यादा नहीं थी, उन्हें सारी बात सुन गई होगी। मैंने अपनी नौकरी और अब तक की गई मुख्य यात्राओं के बारे में बोला।
कितना मुश्किल होता है पहली बार उन लोगों के सामने बोलना जो आपको ही सुनने के लिये तैयार हैं और उनकी नजरें आप पर ही गडी हैं।
यह सम्मान सिनेमेलाफिल्म फेस्टिवल का हिस्सा था। यह संस्था लघु फिल्मों और लघु फिल्मकारों को बढावा देती है। सन 2006 में पहला सिनेमेला अवार्ड दिया गया था। उसके बाद से ये अवार्ड लगातार दिये जा रहे हैं। इस साल भारतीय सिनेमा के 100 साल पूरे हो रहे हैं तो इस मौके को यादगार बनाने के लिये एक विशेष सम्मान भी देने की घोषणा हुई है, जो किसी भी क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन के लिये दिया जायेगा। यही विशेष सम्मान मुझे मिला।
एक कलाकार के लिये फिल्मों का अर्थ अपने हुनर को प्रदर्शित करना है, जबकि एक आम आदमी के लिये समय काटना है।
मैं चूंकि कलाकार तो हूं नहीं इसलिये फिल्मों को समय काटने यानी मनोरंजन के साधन के तौर पर ही लेता हूं। फिल्मों का मुझे बिल्कुल भी शौक नहीं है। घर में टीवी तक नहीं है। तीन घण्टे तक एक फिल्म देखने से अच्छा मैं कोई किताब पढना मानता हूं। हालांकि कुछ दीर्घ फिल्में जरूर देखी हैं लेकिन लघु फिल्में नहीं देखी। बात शौक और दिलचस्पी पर ही आकर टिक जाती है। क्रिकेट और फिल्म.... कभी नहीं।
प्रो इश्तियाक समेत दो अतिथि ऐसे भी थे जो पाकिस्तानी हैं और यूरोप में काम करते हैं। कुछ बडी मजेदार बातें पता चलीं, मसलन इस्लाम में तस्वीर बनाना हराम है लेकिन अपना अक्स देखना हराम नहीं है। फिल्में अक्स हैं, इसलिये हराम नहीं हैं।
हवाई अड्डा नजदीक होने के कारण बार बार सिर के ऊपर से वायुवान गुजरते थे, जिससे बोलने और सुनने में व्यवधान पैदा होता था। इस दौरान बार बार बोलने से रुकना पडता था। इसी मुद्दे पर पता चला कि पाकिस्तान में मीटिंग स्थगित हो जाती है, जब अजान होती है। पाकिस्तानी सिनेमा के दो फनकारों की उपस्थिति की वजह से वहां सिनेमा के हालातों की भी काफी जानकारी मिली।
एक साहब भोजपुरी वाले भी थे (शायद हेमन्त गाबा) जिन्होंने भोजपुरी फिल्मों के बारे में बताया। लेकिन मामला मेरे कार्यक्षेत्र से बाहर का होने के कारण कुछ पल्ले नहीं पडा।
मेरे लिये कुर्सी पर बैठने का अर्थ है पीछे सिर टिकाकर सो जाना या फिर कुर्सी पर ही पालथी मारकर बैठना। यहां घण्टे भर से ज्यादा बैठा रहा लेकिन उसी औपचारिक तरीके से। वाकई बडी हिम्मत का काम है घण्टे भर तक एक ही तरीके से बैठना और वक्ताओं की तरफ देखते रहना और बात समझ में न आने पर भी दूसरों की देखा-देखी तालियां बजाना। मेरा तो यह पहला अनुभव था और इस पहले अनुभव ने ही सिखा दिया कि जरूर ऐसे लोगों को कोई प्रशिक्षण मिलता होगा। अगर मुझे पता होता इस खतरनाक अनुभव का तो मैं प्रकाश जी से हाथ जोडकर निवेदन करता कि मैं दर्शकों में ही बैठूंगा और मुझे सम्मानित करने के लिये वहीं से बुलाया जाये और बाद में दर्शकों में ही जाने दिया जाये।
भारत की पहली फिल्म ‘राजा हरिश्चन्द्र’ देखी। मूक फिल्म है। फिल्मों का पारखी न होने के कारण मुझे मामला ही समझ में नहीं आया कि इसमें मैंने देखा क्या।
रात साढे नौ बजे फिल्म समाप्त करके प्रकाश जी से मिलकर शास्त्री पार्क के लिये साइकिल दौडा दी। विश्वविद्यालय से बाहर निकलने से पहले ही पता चल गया कि ठण्ड काफी है और डेढ घण्टे तक साइकिल चलाना बस की बात नहीं है। वसन्त विहार में रहने वाले तेजपाल जी से फोन पर पूछा तो पता चला कि वे घर पर ही हैं। पौने दस बजे जब वे सोने की तैयारी कर रहे थे, मैंने उन्हें डिस्टर्ब कर दिया।